प्रज्ञा पुराण भाग-3

॥अथ द्वितीयोऽध्याय:॥ गृहस्थ-जीवन प्रकरणम्-2

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तथ्यानि स्पष्टयन्नम्रेऽगादीद धौम्यो महामुनि:।
महत्वपूर्णोऽयं धर्मो गृहस्थश्रमजो ध्रुवम्॥११॥
तस्मिन्नुपार्जितयास्तु क्षमताया भवत्यलम्।
उपयोगस्य सच्छिक्षा ह्यनुभूतिश्च सा नृणाम्।१२॥
कैशार्ये स्वास्थ्यसंवृद्धि शिक्षार्जनमथाऽपि च।
संयमोऽनुभवावाप्तिरनुशासनसंश्रय: ॥१३
ईदृश्य: क्षमता बह्वयो लभ्यन्तेऽर्निशं नरै:।
नियोज्यश्च विकासस्य क्रमश्चाऽपि सुनिश्चित:॥१४॥
जायते परिपक्वश्च यौवनारम्भ एव तु।
प्रायोनरो दिशांकाञ्चिद् गृह्णात्यपि निजां स्वयम्॥१५॥
विधिना केन कर्त्तव्य उपयोगोऽस्य सन्ततम्।
परिपक्वत्वभावस्य समावेशोऽत्र विद्यते॥१६॥
धर्मे गृहस्थजे यत्र प्रविष्टे तु बहून्यपि
दायित्वानि समायान्ति सर्वेष्वेव नरेष्लम्॥१७॥
अभिभावकवगैंश्च भरणादौ व्ययस्तु य:।
कृतस्तस्मादृणान्मुक्तौ सहयोगस्तु तै: सह॥१८॥
कर्त्तव्य: प्रथमं चैतत्कर्त्तव्यं जायते नृणाम्।
वयस्कै: सहयोस्तु यत्नश्चोत्थापने सदा॥१९॥
अनुजानां विधातव्यो भवत्येव विवेकिनाम्।
यौवने समनुप्राप्ते समेषामेव वै नृणाम्॥२०॥

भावार्थ-तथ्यों को और भी स्पष्ट करते हुए महामुनि धौम्य आगे बोले-गृहस्थ धर्म अपने स्थान पर अत्यंत महत्वपूर्ण है। उसमें उपार्जित क्षमता के सदुपयोग का प्रशिक्षण एवं अनुभव प्राप्त होता है। उठती आयु में स्वास्थ्य संवर्द्धन, शिक्षा अर्जन, अनुभव संपादन, अनुशासन, अवलंबन, संयम जैसी अनेक क्षमताएँ उपलब्ध की जाती हैं । विकासक्रम सुनियोजित किया जाता है । यौवन काल में प्रवेश करने तक मनुष्य छत कुछ पीरपक्व हो जाता है तथा स्वयं किसी दिशा की ओर बढ़ना चाहता है । इस परिपक्वता का सदुपयोग किस प्रकार हो, इस विधि-व्यवस्था का गृहस्थ धर्म में समावेश है । इसमें प्रवेश करने पर कई उत्तरदायित्व कंधे पर आते हैं । अभिभावकों द्वारा किए गए भरण-पोषण में जो ऋण चढ़ा है, उसे उनका हाथ बँटाते हुए उतारना प्रथम कर्तव्य है । समान आयु वालों का प्रयत्न-सहयोग छोटों को ऊँचा उठाने-आगे बढ़ाने के लिए सामर्थ्य भर प्रयत्न-यह उत्तरदायित्व यौवन काल में प्रवेश करते ही हर विचारशील को निभाना होता है 

व्याख्या-गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने से पूर्व जिन सोपानों से मनुष्य को गुजरना पड़ता है, वे उसे शारीरिक दृष्टि से सुदृढ़ एवं वैचारिक दृष्टि से परिपक्व बनाते हैं। किसी भी परीक्षा को पास करने के बाद एक प्रशिक्षण अवधि होती है । जिसे पूरा किए बिना सीधे नौकरी नहीं दे दी जाती । एप्रेन्टीसशिप, इन्टर्नशिप का अभ्यास किए बिना मैकेनिक, इंजीनियर या डॉक्टर की भूमिका निभाना संभव नहीं । अर्जित ज्ञान संपदा एवं प्राप्त सामर्थ्य क्षमता का उच्चस्तरीय व्यावहारिक शिक्षण कहाँ हो, ताकि मानवी व्यक्तित्व कसौटी पर कसने योग्य बन सके? इसके लिए ऋषिगणों ने गृहस्थाश्रम का प्रावधान किया है । यह मनुष्य के भावी विकास के सुनियोजन की अवधि है ।

ब्रह्मचर्य की अवधि में, उठती आयु में जब मानसिक विकास अतितीव्र होता है, अनेक अनुभव जीवन संबंधी उपलब्ध होते हैं । मनुष्य स्वयं के संबंध में, अपने परिकर के बारे में नूतन जानकारियाँ अर्जित करता है । इस ज्ञान भंडार को बढ़ाने की शिक्षा गृहस्थ धर्म निबाहते समय विधिपूर्वक दी जा सकती है । यह जिम्मेदारियों के निर्वाह की अवधि है । जन्म से विवाह होने तक जिन माता-पिता वे सारे कष्ट उठाते हुए उत्तरदायित्वों को निबाहा और प्रगति पथ पर आगे बढ़ाया, उनके ऋण से मुक्त होने के लिए उनके सहयोगी-सहायक के रूप में स्वयं को विकसित करना पड़ता है । अर्थ, प्रतिभा, शारीरिक श्रम, सद्भाव जिस भी माध्यम से बन पड़े इस पितृ ऋण को चुकाना गृहस्थ का प्रथम कर्तव्य है ।

बचपन एवं यौवनावस्था की इस पूरी अवधि में सम आयु वाले जिन सखा-सहयोगियों का विकास क्रम में हाथ रहा है, उनकी ओर अपनी ओर से भी हाथ बढ़ाना युवा गृहस्थ का एक महत्वपूर्ण कर्तव्य है । अपने से छोटी आयु के किशोरों, बालकों के प्रति भी जिम्मेदारियाँ शेष रह जाती हैं क्योंकि मनुष्य परिवार संस्था की एक इकाई होने के जाते उसके समग्र विकास के लिए भी उत्तरदायी है । अपने अनुभवों से छोटों को भी लाभान्वित किया जाना चाहिए, ताकि वे भी अर्जित ज्ञान संपदा की फलश्रुतियाँ जीवन में उतार सकें ।

हर दृष्टि से गृहस्थाश्रम तक पहुँचने वाला व्यक्ति अर्जित उपलब्धियों के नाते अपने से छोटों के लिए प्रेरणा का स्रोत होना चाहिए । न केवल अनुकरणीय आचरण करने वाला, अपितु अपनी उपलब्धियों से छोटों को आगे बढ़ाने का मनोबल जागृत कर उन्हें सही दिशा देने योग्य सक्षम होना चाहिए ।

प्रस्तुत प्रतिपादन में गृहस्थ जीवन की जिन तीन महती जिम्मेदारियों का विवरण प्रस्तुत हुआ है, वह बड़ा ही हृदयग्राही, प्रेरक एवं वरेण्य है ।

कर्तव्य परायण तोता 

एक जमींदार के पास बहुत जमीन थी । उसमें धान बोया । रखवाली के लिए उसने चार कोनों पर रखवाले नियुक्त कर दिए । तो भी तोते आ जाते और पेट भर कर भाग जाते । पर एक तोता ऐसा था, जो खाने के बाद कई बालें चोंच में दबाकर साथ ले जाता।

चौकीदारों ने उस तोते को पकड़कर मालिक के पास ले जाने का निश्चय किया। वह सुंदर भी बहुत था ।
जाल फैलाया, सो वह उसमें फँस गया। पकड़कर मालिक के पास पहुँचाया।

जमींदार ने तोते से पूछा-" बालें कहाँ ले जाते हो?" उसने कहा-"दो कर्ज चुकाने के लिए, दो कर्ज देने के लिए और दो परमार्थ के लिए ।" कुल छ: बालें पेट भरने के बाद साथ ले जाता हूँ ।"जमींदार ने पूछा-"भला कर्ज चुकाना, देना और बाँटना कैसा?" तोते ने कहा-"वृद्ध माँ-बाप हैं, उन्हें दिखता भी नहीं, सो दो उन्हें देता हूँ । दो, बच्चे बहुत छोटे हैं उनके लिए और पडोसी बीमार है दो उनके लिए देता हूँ । इसे कर्तव्य समझकर चौकीदारों के प्रतिशोध का जोखिम भी उठाता हूँ ।"

जमींदार ने उस भावनाशील तोते को प्यार किया और प्रसन्नतापूर्वक छोड़ दिया।

पहले ऋण चुकाओ, फिर संन्यास लो

मगध का एक धनी व्यापारी भगवान बुद्ध के पास संन्यास की दीक्षा लेने गया। बुद्ध ने उसका कारण और वृतांत सुना। कहा"पहले अपने को उदार और सज्जन बनाओ । फिर उस सद्व्यवहार से परिवार के दुर्गुणों का निराकरण करो । परिवार का जो तुम पर ऋण है, उसे चुकाओ, सबको स्वावलंबी बनाओ । जब इतना कर सको, तब धर्म की सेवा और जन कल्याण की दीक्षा लेने यहाँ आना ।"

धनी लौट गया और संत की जीवनचर्या परिवार में रहते हुए अपनाने लगा। इसमें सफल होने के उपरांत बुद्ध के पास पहुँचा, तो उसे संघाराम में प्रवेश मिल गया ।

पत्नी की सेवा एवं निष्ठा को वरीयता

गृहस्थ जीवन एक ऐसी पाठशाला है जिसमें आत्मसंयम, पारस्परिक सद्भाव जैसी सत्प्रवृत्ति का अभ्यास किया जाना संभव है। यदि एक पक्ष भी इसके लिए कदम उठाता है, तो किसी तरह के मनोमालिन्य का प्रश्न ही नहीं उठता ।

एक बार एक आदमी हजरत उमर से मिलने उनके घर गया । उसने सुना उमर की पत्नी काफी बड़बड़ा रही है, पर हजरत उमर कुछ भी जवाब न देकर मौन हैं । उस आदमी ने पूछा-"वह इतना बोले चली जा रही है और आप है कि बिलकुल चुप्पी साधे हुए हैं ।"

हजरत उमर गंभीरता से बोले-"भाई! वह मेरे गंदे कपड़े धोती हैं, मेरे लिए खाना पकाती, मेरी सेवा करती है और सबसे बढ़कर वह मुझे पाप से बचा है, तो क्या अब उसका इतना भी हक नहीं कि कुछ बोले?"

सेठ जी को चिंता 

गृहस्थ जीवन में अनेक जिम्मेदारियाँ कंधे पर आती है, कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है पर इनसे घबराने से क्या लाभ? कभी-कभी जीवन साथी से भी इसका समाधान मिल जाता है ।

सेठजी जब घर में आते तो भविष्य की संभावित कठिनाइयों की कल्पना करके तिल का ताड़ बनाते । घर के सभी लोगों को विशेषतया पत्नी को असमंजस में डाल देते । यह एक प्रकार से उनकी आदती बन गई थी ।

पत्नी ने उनका चिंतन सुधारने के लिए एक नाटक रचा । चारपाई पर रोनी सूरत बनाकर पड़ गई । घर का कोई काम न किया । दुकान पर से सेठजी आये, वे भी चिंतित हुए और कारण पूछा । पत्नी ने कहा-"आज एक पहुँचे हुए ज्योतिषी आये थे । हाथ देखकर बता गए है कि तू साठ वर्ष तक जियेगी और आठ बच्चे होंगे । सोच रही हूँ कि साठ साल में कितना अनाज खा जाऊँगी । बच्चों के प्रसव की कितनी पीड़ा सहनी पड़ेगी और उनको समर्थ बनाने में कितना धन लगेगा। इस सबका बोझ उठाते-उठाते मेरा तो दम ही निकल जायेगा ।"

सेठजी ने झिड़का और कहा-"इतना सब एक दिन में थोड़ा ही होगा । समय के साथ आने और खर्च होने का काम चलता रहेगा । तू व्यर्थ चिंता करती है ।"

अब स्त्री की बन आई, उसने कहा-" तुम भी तो रोज भविष्य की चिंता ही मुझसे कहते हो । इतनी जिम्मेदारियाँ निभाने को पड़ी हैं, उन्हें पूरा करना तो दूर, तुम प्रयास भी नहीं करते । यह क्यों नहीं कहते कि समयानुसार समस्याओं के हल भी निकलते रहेंगे ।

व्यावहारिक समाधान पर सेठजी ने अपनी आदत सुधार ली ।

विवाहित जीवन की तीन परिस्थितियाँ

एक चित्रकार ने तीन तस्वीरें बनाईं । एक सोच में पड़ा था । एक हाथ मल रहा था तीसरा सिर धुन रहा था।

पूछने पर चित्रकार ने बताया कि यह तीनों एक ही आदमी की तीन स्थितियों के चित्र हैं । विवाह से पूर्व वह कल्पना लोक में उड़ता है और कहाँ से वैसी सुंदर पत्नी हाथ लगे इस सोच में बैठा रहता है । चित्र विवाहित का है । गृहस्थ जीवन में जो जिम्मेदारियाँ आती हैं और जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता, उस जंजाल को देखकर हाथ मलता है कि इतना झंझट मोल ले लिया। तीसरा चित्र उस स्थिति का है, जिसमें स्त्री का वियोग और विरोध त्रास देता है तथा संतान दु:ख देती है, तब आदमी सिर पीटता है और सोचता है कि हमारे भाग्य ऐसे फूटे है कि अपने पैरों अपने हाथ कुल्हाड़ी मारी । काश, जीवन को सही दिशा मिली होती ।

यदि जीवन जीने की रीति-नीति की कुंजी हाथ लग सके, तो गृहस्थ धर्म में रहते हुए हर दृष्टि से आदर्श जीवन जिया जा सकना संभव है । ऐसा उत्कृष्ट एवं अनुकरणीय बनो, जो स्वयं को तो श्रेय पथ पर ले जाने वाला हो ही, सारे सहयोगियों का हित साधन भी कर सके।

जो भी बनो, आदर्श बनो  

एक जिज्ञासु कबीर के पास पहुँचा, बोला-"दो बातें सामने हैं, संन्यासी बनूँ या गृहस्थ ।"

कबीर ने कहा-"जो भी बनो, आदर्श बनो।"

उदाहरण समझाने के लिए उन्होंने दो घटनाएँ प्रस्तुत कीं।

अपनी पत्नी को बुलाया । दोपहर को प्रकाश तो था, पर उन्होंने दीपक जला लाने के लिए कहा, ताकि वे कपड़ा अच्छी तरह बुन सकें । पत्नी दीपक जला लायी और बिना कुछ बहस किए रखकर चली गई ।

कबीर ने कहा-"गृहस्थ बनना हो तो परस्पर ऐसे विश्वासी बनना कि दूसरे की इच्छा ही अपनी बने ।"

दूसरा उदाहरण संत का देना था । वे जिज्ञासु को लेकर एक टीले पर गए, जहाँ वयोवृद्ध महात्मा रहते थे । वे कबीर को जानते न थे । नमाज के उपरांत उनसे पूछा-"आपकी आयु कितनी है।" बोले-"अस्सी बरस ।"

इधर-उधर की बातों के बाद कबीर ने कहा-" बाबाजी! आयु क्यों नहीं बताते?" संत ने कहा था-"बेटे! अभी तो बताया था, अस्सी बरस! तुम भूल गए हो ।"टीले से आधी चढ़ाई उतर लेने पर कबीर ने संत को पुन: पुकारा और नीचे आने के लिए कहा । वे हाँफते-हाँफते आये। कारण पूछा, तो फिर वही प्रश्न किया-" आपकी आयु कितनी है?'' संत को तनिक भी क्रोध नहीं आया । वे उसे पूछने वाले की विस्मृति मात्र समझे और कहा-"अस्सी बरस है ।" हँसते हुए वापस लौट गए ।

कबीर ने कहा-"संत बनना हो तो ऐसा बनना, जिसे क्रोध ही न आये ।"

गृहस्थ जीवन की मर्यादाएँ

ऋषि कर्दम के तप से भगवान प्रसन्न हुए! उन्हें आर्शीवाद दिया।

नारद जी के परामर्श पर स्वायंभुव मनु अपनी दूसरी पुत्री देवहूति कर्दम ऋषि को अर्पित करने के लिए पहुँचे । कर्दम बोले-"मेरी शर्त सुन लें । मुझे काम पत्नी नहीं, धर्मपत्नी चाहिए । दाम्पत्य काम विकार के लिए नहीं, काम को मर्यादित करने के लिए होता है । मैं एक सत्पुत्र की प्राप्ति के बाद संन्यास धर्म का पालन करूँगा । आपकी पुत्री को यह स्वीकार हो तो ही संबंध होगा ।"

मनु जी ने कहा-"बेटी! यह तो विवाह के पूर्व ही संन्यास की बात करने लगे ।" किन्तु देवहूति भी कम न थी । बोली-" कामांध होकर संसार सागर में डूबने के लिए गृहस्थाश्रम नहीं है । मैं भी कोई संयमी-जितेन्द्रिय पति ही चाहती हूँ ।"

विवाह हो गया । दोनों के तपस्वी जीवन के प्रतिफल के रूप में 'कपिल ' जी उत्पन्न हुए जो २४ अवतारों मेंसे एक माने गए ।

मन पर अंकुश आवश्यक

भौतिक हो या आध्यात्मिक जीवन, सबसे बड़ी जरूरत है, आंतरिक परिपक्वता की। उसके अभाव में सिर धुनने वाली असफलता ही हाथ लगती है ।

एक सेठ के यहाँ गुण सुंदरी नामक कन्या थी । वह अपना जीवन साधना-स्वाध्याय में लगना चाहती थी, किन्तु मानसिक धरातल पर वह अपरिपक्व ही थी । वयस्क होने पर भी वह विवाह के लिए तैयार न होती थी । पिता के बहुत आग्रह पर उसने एक विद्वान् वयोवृद्ध से विवाह की स्वीकृति दे दी । ताकि उसका व्रत भी निभता रहे और लोकापवाद भी न रहे । वयोवृद्ध पति की सेवा करते और उनसे ज्ञान-अनुदान को पाते बहुत समय
बीत गया ।

एक रात घर में चोर घुस आया । वह बड़ा रूपवान् था । गुण सुंदरी का मन विचलित हुआ और उस पर आसक्त होकर अतिथि रूप में घर रख लिया और सहगमन करने लगी । विचार आया कि पति को मार क्यों न दिया जाय, ताकि कोई कंटक ही न रहे । दोनों ने मिलकर बूढे़ का गला दबाकर मार डाला । चोर प्रात: होते ही नित्य की भाँति घर जाने लगा, तो ऊपर से दरवाजा टूट पड़ा और उसकी भी वहीं मृत्यु हो गई ।

गुण सुंदरी को मन की चंचलता पर बड़ा दु:ख हुआ और उसने दोनों पतियों के साथ चिता में शरीर को जला देने का निश्चय किया। वह मन की दुष्टता पर बार-बार पछताती और अपने कुकृत्य का विवरण सभी को बताती हुईप्राण त्याग गई । 

सभी लोग कहने लगे, मन की उच्चता और निकृष्टता का कोई ठिकाना नहीं । उसे तनिक भी ढील नहीं मिलनी चाहिए। हर समय कड़ा अंकुश रखने से ही काम चलता है ।

गृहस्थ का निर्वाह ऐसे ही कठिन उत्तरदायित्वों से बँधा है, जिसमें अनुबंध, अनुशासन, आत्म नियंत्रण को सर्वोपरि महत्व दिया जाना चाहिए ।

आनंद भरा दाम्पत्य जीवन

जहाँ कहीं ऐसा सुयोग बैठता है कि पति-पत्नी दोनों ही अपनी जिम्मेदारियों को समझते हैं व परस्पर ताल-मेल बिठा लेते हैं, वहाँ आनंद ही आनंद व्यापता है।

महान् वैज्ञानिक माइकेल फैराडे उन्नीसवीं सदी में पैदा हुए । उन्हें दिन भर व्यस्त रहना पड़ता था, पर, शाम को घर आते ही पत्नी के मनोरंजन और बच्चों को दुलारने में लग जाते । एक बार उनकी पत्नी बीमार पड़ी, तो लगातार तीन हफ्ते रात को जागकर उनकी तीमारदारी करते रहे ।

उनकी पत्नी ने उनके संबंध में संस्मरण लिखते हुए कहा है-"उनके साथ हर दिन सुहाग रात जैसा बीता । वृद्धावस्था आने पर हम लोगों ने जाना कि दाम्पत्य जीवन की सफलता के सूत्र क्या हैं? उन सूत्रों को अपनाकर ही हमनें संघर्षमय जीवन जीते हुए भी स्वर्गीय आनंद के दिन काटे और जाना कि दाम्पत्य जीवन की उपलब्धियाँ कितनी सुखद और उमंग भरी होती है ।"

स्वावलंबी दाम्पत्य जीवन

विवाह बंधन एक साधना है, गुड्डे-गुडिया का खेल नहीं ।

एक बार एक अमीर के लड़के ने समीपवर्ती गाँव के एक गरीब आदमी की सुंदर लड़की से ब्याह करने का प्रस्ताव भेजा । गरीब ने पूछा-"लड़का क्या करता है?'' उत्तर मिला-"बाप की प्रचुर संपदा को बैठा-बैठा खाता है ।" बेटी वाले ने विवाह से इन्कार कर दिया । जो हाथ से कमाई नहीं कर करता, उसे बेटी नहीं दूँगा । उसका भविष्य अंधकारमय है ।

लड़के को बात चुभ गई । उसने दूसरे दिन से ही कृषि-व्यापार करना और अपने हाथ से सँभालना आरंभ कर दिया, तो उसकी स्वस्थता और बुद्धिमत्ता बढ़ गई ।

बेटी वाले ने आग्रहपूर्ववा विवाह का प्रस्ताव भेजा और शादी हो गई । बेटी भी श्रमजीवी परिवार से आई थी, सो उसने भी पति के कार्यो में कंधा लगाया और वे लोग स्वावलंबनपूर्वक सम्पन्नता प्राप्त करने का यश और सुख कमाने लगे।

ऋणान्यन्यानि विद्यन्ते दैवान्येवं विधानि तु।
कुटुम्बक्षेत्रबाह्यानि यान्यानृण्यवहानि च॥२१॥ 
देशधर्मसमाजानां संस्कृतेर्बहुभिस्तु तै:।
अनुदानैर्विकासस्य प्राप्तस्त्ववसर: शुभ: ॥२२॥
कुटुम्बस्यैव ते लोका व्यवस्था: समुपार्जितुम् ।
न समर्था भवन्त्यत्र सर्वतश्रिन्त्यतां यत:॥२३॥
जीविकोपार्जनं पाणिग्रहणं शिक्षणं तथा।
अनेकानि हि कार्याणि बहूनामिह सत्रृणाम् ॥२४॥
अनुदानैस्तु जायन्त ऋणां दैवं समाजगम्।
महत्वपूर्णं चैतद्धि नरै: प्रोक्तमृणं वरै:॥२५॥
तस्मान्मुक्तिश्च सर्वेषां कर्त्तव्यं विद्यते नृणाम्।
समाजस्य समृद्धिश्च विकासो भवतोऽभित: ॥२६॥
यौवनारम्भकाले च नर: सर्वो हि विद्यते ।
समथोंऽपि च सम्पन्नो वैभवं पुरूषैरिदम् ॥२७॥
उपयोक्तव्यमत्रैव दातुं सामाजिकं सदा ।
ऋणमेषु दिनेषु स्यु: यानि कार्याणि तद् वरन् ॥२८॥

भावार्थ-परिवार क्षेत्र से बाहर भी चुकाने योग्य अनेकानेक देवऋण हैं । देश धर्म समाज संस्कृति के अनेकानेक अनुदानों के सहारे ही मनुष्य को सुविकसित होने का अवसर मिला है । मात्र परिवार के लोग ही जीवन निर्वाह की सारी व्यवस्थाएँ नहीं जुटा देते । चारों ओर दृष्टि डालकर विचारें; चूँकि आजीविका उपार्जन और सहचर का पाणिग्रहण, शिक्षा अभिवर्द्धन जैसे अनेकानेक सुयोग असंख्यों लोगों के अनुदान से ही हस्तगत होते हैं । यह सब देवऋण अधर्त्त समाज ऋण कहलाता है। श्रेष्ठ पुरुषों ने इसे महत्वपूर्प ऋण कहा है। इस ऋण को चुकाना समाज को हर दृष्टि से समृद्ध-सुविकसित बनाना हर विचारशील का आवश्यक कर्तव्य है यौवन में प्रविष्ट होते समय मनुष्य समर्थता और सम्पन्नता की स्थिति में होता है । इस वैभव का उपयोग समाज ऋण चुकाने हेतु किया जाना चाहिए । इन दिनों जितने लोकोपयोगी कार्य बन सके उतना ही उत्तम है ॥२१-२८॥

व्याख्या-परिवार तो समाज की एक इकाई है । मनुष्य को विकसित स्थिति तक पहुँचाने में समाज के हर घटक की भूमिका है । अपने आप तक अथवा परिवार तक ही सीमित होकर रह जाने वाले व्यक्ति संकीर्ण कहलाते हैं । मुसीबतें आने पर भी उन्हें कोई सहयोगी नहीं मिलता क्योंकि वे स्वयं किसी के कभी काम न आए । शरीर बल संवर्द्धन, साधन-उपार्जन, बहिरंग शिक्षा सभ्यता के माध्यम से व्यक्तित्व संवर्द्धन जैसे महत्वपूर्ण अनुदान माता-पिता से लेकर समाज के विभिन्न अंगों द्वारा किए गए  सहयोग के परिणामस्वरूप हस्तगत होते हैं ।

जिस समाज-राष्ट्र में हमने जन्म लिया है, उसने प्रकारांतर से हमें संरक्षण एवं साधन देकर उपकृत किया है। उसके प्रति उऋण हुए बिना हम कृतघ्न कहे जाएँगे, चाहे हमारी व्यक्तिगत उपलब्धियाँ, श्रेय, सम्पदा कुछ भी क्यों न हो? इसके लिए सबसे उत्तम काल वही है, जब मनुष्य स्वास्थ्य की दृष्टि से भी, मनःस्थिति एवं साधनों की दृष्टि से भी समर्थ-संतुलित होता है । पारिवारिक जीवन आरंभ करते समय यौवन की पराकाष्ठा होती है । ऐसे में मद में चूर होकर अपने कर्तव्य में जुट जाना ही मनुष्य की श्रेष्ठता का सूचक है । जहाँ तक हो सके जब कल्याण की योजनाओं में स्वयं को नियोजित कर अपनी प्रतिभा का लाभ समाज को देना चाहिए ।

यह बात सदैव स्मरण रखी जानी चाहिए कि संसार से हमने बहुत कुछ पाया है । अधिकांश जीवनोपयोगी वस्तुएँ लोगों के परिश्रम से बनी हैं । उनके बुद्धि-कौशल का अनुग्रह-लाभ उठाकर ही हम उस स्थिति में पहुँचे हैं, जहाँ कि आज हैं । यदि किसी का सहयोग न मिला होता, तो सुसम्पन्न होना तो दूर, कदाचित् हम जीवित भी न रह पाते । ऐसी दशा में आवश्यक है कि उस बगीचे को सींचे, जिसकी छाया में बैठकर हम फलों से गुजारा करते हैं । ऋणमुक्ति का सही तरीका इस विश्ववसुधा को सुखी-समुन्नत बनाना ही है । ऋणग्रस्त को मोक्ष कैसे मिले?

आदर्शवादी डाक्टर दम्पति 

दक्षिण भारत में जन्मे डॉ० कौस्तुभ परीक्षा पास करने के उपरांत सरकारी क्षय चिकित्सालय में नियुक्त हुए। उनने जार्ज वनार्ड शॉ की वह उक्ति अपने कमरे में टाँग रखी थी कि रोगी को दवा की अपेक्षा डाक्टर की सहानुभूति की जरूरत होती है । उनने रोगियों से ममता भरा व्यवहार किया और इतने अनुपात में रोगी अच्छे किए, जितने पहले कभी भी न हुए थे ।

उनने अपने अस्पताल की एक नर्स से इस शर्त पर विवाह किया कि वह संतानोत्पादन के फेर में न पड़ेगी
और रोगियों को ही अपना बालक मानेगी। सेवाधर्म में संलग्न रहकर वे पति-पत्नी अत्यंत सुखी-संतुष्ट रहे।

वृद्धावस्था में वे मंसूरी (उ.प्र.) आए । वहाँ के अस्पताल में ४ घंटा नि:शुल्क सेवा करते रहे । असहायों की वे आर्थिक सहायता भी करते रहते थे । एक पगली उन्हें अपना बेटा कहती थी । वे भी उसे माताजी कहने लगे और वह रोग मुक्त हो गई ।

डॉ ० कौस्तुभ दंपत्ति का शरीर अब नहीं है, पर उनका आदर्श डॉक्टरों को कुछ नए ढंग से सोचने के लिए अभी भी जीवित है । चिकित्सा व्यवसाय तो कई लोग अपनाते है । पर सेवाधर्म के रूप में अपनाकर समाज देवता की आराधना गिने-चुने ही करते है । ऐसे प्रकाशस्तंभ युगों-युगों तक प्रेरणा पुंज बने रहते हैं।

पिछड़ों को उठाने वाला पादरी

पादरी लार्ड बेकर भारत आए तो धर्म परिवर्तन कराने का उद्देश्य लेकर आये थे । पर यहाँ की स्थिति को देखकर वे पिछड़े लोगों का जीवन स्तर ऊँचा उठाने में लग गए । धोती-कुर्ता पहनना शुरू किया । चर्च ने सहायता देनी बंद कर दी, तो उनने खेती करके गुजारे का इंताजम कर लिया । मुफ्त दवा बाँटने के स्थान पर लागत मूल्य पर वे दवा देते । जो पैसा नहीं दे सकता था, उससे उतने मूल्य की मजूरी करा लेते । ऐसा आदर्श पादरी देखकर एक भारतीय लड़की ने उनसे विवाह कर लिया । दोनों मिलकर दूना काम करने लगे। दोनों एक-एक मिलकर ग्यारह हो गए । पिछड़ों और गिरीं को ऊँचा उठाने में दोनों आजीवन लगे रहे। उनकी कार्य पद्धति अनेक को प्रेरणादायक बनी ।

दाम्पत्य जीवन के साथ आजीवन सेवाधर्म

युद्ध के बाद ज्यूरिख में भयंकर अकाल पड़ा । साथ ही महामारियाँ भी फूट पड़ी। इस आग से जूझने के लिए स्वयंसेवकों की जरूरत पड़ी ।

ज्वरेख के एक समाज सेवी संगठन ने पीड़ितों की सहायता के लिए एक सेवा-समिति गठित की । स्वयंसेवकों के लिए मार्मिक अपील छपी ।

इस पुकार को सुनकर एक नव विवाहित दम्पत्ति सामने आए । पति का नाम था सूसो, पत्नी का सेरलाओ। वे सेवा का आवेदन लेकर आए थे ।

संगठनकर्त्ताओ ने कहा-"यदि सच्चे अर्थों में सेवा करनी है, तो आप लोग संतानोत्पादन न करने का व्रत लें । अन्यथा उस झंझट के कारण आप सच्चे मन और समय तक लगनपूर्वक काम न कर सकेंगे । विचार कर दूसरे दिन आने के लिए उन्हें कहा गया ।

पति-पत्नी दूसरे दिन नियत समय पर सेवाधिकारी के पास पहुँचे । उनने बाइबिल हाथ में लेकर आजीवन
बच्चे न जनने की और सदा सेवा धर्म में लगे रहने की प्रतिज्ञा की ।

संगठनकर्त्ताओ की आँखों में आँसू छलक आए । उन्होंने उस सच्चे सेवाव्रती दम्पत्ति को हृदय खोलकर आशीर्वाद दिया और काम में जुटा दिया । उनके आदर्शों ने अनेक को प्रेरणा दी और वैसे ही व्रतधारी स्वयंसेवक एक हजार की संख्या में भर्ती हो गए ।

विपत्ति से जूझने में इन सबने मोर्चा सम्हाला और लाखों के प्राण बचाए । सूसो दम्पत्ति के अग्रिम कदम उस क्षेत्र में अभी भी भावनापूर्वक स्मरण किए जाते हैं । उन दिनों भी उन्हें धर्म प्राणों से बढ़कर आदर मिला था । समाज को समर्पित ऐसे अग्रदूत बिरले ही होते है, पर इतिहास में वे अमर बन जाते है ।

कर्ज लेने से इन्कार

बगदाद के खलीफा ने अपना दैनिक वेतन तीन रुपया तेज रखा था । कोई त्यौहार आया तो बेगम ने कहा-"वेतन नहीं बढा सकते, तो राज्य कोष से दस रुपया उधार ले लो । उसे धीरे-धीरे चुकाते रहेंगे ।"

खलीफा ने कहा-"मौत का क्या ठिकाना? कल ही आ गई तो लिया हुआ कर्ज कौन चुकाएगा । अभी समाज में जी रहे है, कर्ज तो चढ़ा ही है, पहले उससे तो मुक्त हों । कर्ज लेने से उन्होंने स्पष्ट इन्कार कर दिया, तो बेगम ने दैनिक वेतन में से ही कुछ बचाकर त्यौहार मनाया ।

धन का उपभोग मत करो, बाँट दो

हजरत मौहम्मद साहब एक बार अपनी लड़की के यहाँ गए । देखा कि दरवाजे पर रेशमी पर्दे पडे़ हैं । ठाठ-बाट का माहौल है और लड़की सोने-चाँदी के जेवर पहने हैं । हजरत यह देखकर उलटे पैर लौट आये ।

बेटी दु:खी हुई और उनके इस प्रकार लौटाने का कारण पूछा । उनने कहा-" हम लोगों को गरीबो की तरह रहना चाहिए और जो पास में है, भलाई के कामों में खर्च करना चाहिए । बेटी ने अपना जेवर और दौलत उनके सुपुर्द कर दी । हजरत ने संतोष व्यक्त किया और धन जरूरतमंदों को बाँट दिया ।

महानता इसी को कहते हैं । जहाँ समाज के सदस्यों के प्रति करुणा, दर्द है, वहाँ से देवत्व मिटता नहीं । परिवार के सदस्यों को समाज ऋण चुकाने की प्रेरणा मिले, इसके लिए अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करने वाले ऐसे महामानव समय-समय पर विश्व में जन्मते रहते है ।

दूसरों का दु:ख-अपना दु:ख

एक बार एक वृद्ध ने कोठी से निकलते हुए किसी भद्रपुरुष से पूछा-"क्या आप मुझे इस कोठी के स्वामी से मिला देंगे ।"

क्या काम है उनसे, मुझसे कहिए?" भद्र पुरुष ने कहा ।

मेरी बेटी का विवाह है । तीन सौ रुपये चाहिए हुजूर! यदि रुपये मिल गए, तो मैं अपनी बेटी का विवाह कर सकूँगा"-गरीब वृद्ध ने कहा ।

"आओ मेरे साथ ।" और भद्रपुरुष वृद्ध को कार में अपने साथ बैठाकर ले गया । थोड़ी दूर जाकर कार रुकी । भद्रपुरुष उतरे और सामने खड़ी बिल्डिंग में प्रवेश कर गए । जाते-जाते वह वृद्ध को भी पास के एक् बरामदे में बैठने को कह गए ।

थोड़ी देर बाद में एक चपरासी बरामदे में आया और वृद्ध को पाँच सौ रुपये सँभलवाते हुए बोला-"भाई! यह पाँच सौ रुपये हैं । तीन सौ में अपनी बेटी का विवाह करना और बाकी दो सौ से विवाह के बाद कोई धंधा कर लेना, जिससे आगे की आजीविका चलती रहे ।"

वृद्ध ने रुपये तो ले लिए, किन्तु बोला-" भाई! मुझे उस कोठी के स्वामी तो मिले ही नहीं ।"

"अभी-अभी जिनके साथ बैठकर आप इस दफ्तर में आए हैं, वे ही हैं उस कोठी के स्वामी बाबू चितरंजन
दास"-चपरासी ने कहा ।

सारा समाज जिनके लिए एक परिवार है, उन्हें दूसरों की पीड़ा भी अपनी पीड़ा लगती है । वे दु:खी पीड़ितों को न केवल साधन देकर अभाव की पूर्ति करते हैं, अपितु ऐसी प्रेरणा भी देते हैं कि वे स्वावलंबन भरा जीवन जी सकें । यही सरलता, व्यवहार की सदाशयता उन्हें महामानव पद से विभूषित करती है ।

राष्ट्र के सच्चे आराधक रामानंद चटर्जी

एक लड़के ने निश्चय किया कि वह बी०ए० करते ही देश सेवा के कार्यों में लगेगा । पर जब उसके बहुत अच्छे नंबर आए और विलायत जाने की छात्रवृत्ति मिली तो पर वाले उसे संकल्प छोड़ने के लिए दबाने लगे । लड़के को अपने वचन का स्मरण रहा, उसने मार्डन रिव्यू अखबार निकाला और रवीन्द्र बाबूका सारा साहित्य प्रकाशित करके देश की महत्वपूर्ण सेवा की । इस लड़के का नाम था रामानंद चटर्जी । अपने परिवार के इस हरि से प्रेरणा लेकर उकेन पिता व बड़े भाई ने भी स्वयं को देश सेवा के लिए न्यौछाबर कर दिया । यह सच है कि जलते दीपक से अनेक दीपक जल उठते हैं और अंधेरी अमावस को उजाले में बदल देते है ।

नौकरी नहीं, सेवा

स्वामी रामतीर्थ फर्स्ट डिवीजन में एम०ए० पास हुए। उन दिनों यह बहुत बड़ी बात थी । प्रिन्सीपल ने अपने कालेज में प्राध्यापक का स्थान देने या कहीं अन्यत्र बडी पोस्ट दिलाने की बात उनसे कही।

रामतीर्थ ने कहा-"मैंने विद्या बंधनों से बँधने के लिए नहीं पढ़ी, उस श्रम का उद्देश्य असंख्यों को व्यमोह से
छुटकारा दिलाना है ।" नौकरी करने से उनने स्पष्ट इन्कार कर दिया और विश्व कल्याण तथा परमार्थ में जीवन बिताया। वे विवाह बंधन में नहीं बँधे, किन्तु अल्पायु में ही अपनी प्रतिभा एवं सामर्थ्य का लाभ संसार को दे गए ।

सारी सम्पत्ति राष्ट्र को समर्पित

सेठ जमनालाल बजाज करोड़पति बच्छराम जी की गोद आए । उन्हें जो धन मिला उसका अधिकांश भाग गाँधी जी की राष्ट्रीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए लगा दिया । इसे कहते हैं-उत्तराधिकार का सुनियोजन।

धन बच्चों को देकर उपभोग की अपेक्षा यही श्रेष्ठ है कि उसे किसी अच्छे काम में लगा दियाजा य । यह एक प्रकार से देव ऋण चुकाना ही है ।

सुयोग्य की परीक्षा

एक राजा ने बड़े पुत्र को युवराज बनाने की अपेक्षा अधिक शीलवान् को नियुक्त करने की प्रथा आरंभ की और उसके लिए परीक्षा रखी । 

पाँच राजकुमारों के लिए भोजन परोसे गए । जैसे ही वे थाली पर हाथ डालने वाले थे कि चार शिकारी कुत्ते उन पर छोड़े गए । चार राजकुमार तो घबरा कर भाग खड़े हुए, पर सबसे छोटा यथास्थान बैठा रहा । उसने चार भगोड़े राजकुमारों के थाल कुत्तों के सामने सरका दिए । वे भी खाते रहे और छोटे राजकुमार ने पेट भर लिया ।"

निरीक्षक सबकी कार्य विधि देखते रहे । छोटे ने कहा-"कुत्ते उसे काटते है जो अकेले खाता है । बाँटकर खाने वाले को कोई जोखिम नहीं उठाना पड़ता।

इस बुद्धिमानी पर सभी प्रसन्न हुए ओर उसे ही उत्तराधिकारी चुना ।

शासक हो चाहे नागरिक आदर्श व्यक्ति वही है, जो दूसरों को बाँटना जानता हो।

आत्मा एवं काया की मैत्री टूटी

सब कुछ दूसरों के सहयोग से अर्जित कर, सामर्थ्य-सम्पदा अर्जित करने के बाद मनुष्य अनायास ही यह भूल जाता है कि किस उद्देश्य के लिए उसे यह वैभव मिला था । कहाँ व किस प्रकार इसका सुनियोजन करना है, वैभव के मद में चूर होकर यह विस्मृत कर पतन के गर्त में गिरने वाले बहुसंख्य व्यक्ति समाज में देखे जा सकते हैं। इस संबंध में श्री रामकृष्ण परमहंस ने अपने शिष्यों को एक बार एक कथा सुनाई ।

दो मित्र थे । एक ही गाँव में पड़ौसी बनकर रहते थे । एक का नाम था आत्मा, दूसरे का काया । दोनों ने
निश्चय किया, हम सदा मित्र बनकर रहेंगे। एक दूसरे को ऊँचा उठाने में सहायक रहेंगे ।

काया परदेश चला गया । वहाँ उसने व्यापार में बहुत धन कमाया और अमीरों की तरह रहने लगा ।

आत्मा को समाचार मिला तो वह बहुत प्रसन्न हुआ । मैत्री का ध्यान आया और साथ ही पुरानी शपथ का भी । सो वह उसका पता पूछ कर चल पड़ा और काया के महल में जा पहुँचा ।

गाँव के मित्र को उसने पहचान तो लिया, किन्तु साथ ही यह विचार उठा कि इसके लिए भी कुछ करना पड़ेगा । यह सोचकर उसने अपरिचित की सी मुद्रा बना ली और कहा-"मैं तुम्हें नहीं पहचानता तुम कौन हो? किसलिए आए हो?"

आत्मा ने सोचा यह मद में अंधा हो गया है, सो उसने इतना ही कहा-"मैंने सुना था कि तुम अंधे हो गए हो। अब मैने प्रत्यक्ष स्थिति आँखों से देख व समझ ली। सो उल्टे पैर वापस लौट रहा हूँ ।"

काया को असमंजस भर हुआ ।कथा सुनाने के बाद परमहंस बोले आज समाज में अधिकांश व्यक्ति ऐसे ही हैं।
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