प्रज्ञा पुराण भाग-3

अथ चतुर्थोऽध्याय: शिशु-निर्माण प्रकरणम्-3

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समत्वेन च मान्यास्तु कन्या: पुत्राश्च मानवै:।
तयोर्भेदो न कर्तव्यों मान्या श्रेष्ठा च कन्यका॥३४॥
सा हि श्रेयस्करी नृणामुभयोर्वंशयोर्युत:।
जानक्या जनक: ख्यात: कुपुत्रैर्नहि रावण:॥३५॥
अनुभवन्ति स्वतो डिम्भा गर्भेमातुरलं समै:।
गर्भिण्या मानसं स्वास्थ्य शारीरं शोभनस्थितौ॥३६॥
यथा स्याच्च तथा कार्यं विहाराऽऽहारयोरपि।
सात्विकत्वं भवेद् बालवृद्धिबाधा न सम्भवेत्॥३७॥
वातावृत्ति: कुटुम्बस्य सदा स्यादीदृशी शुभा।
कुसंस्कारा न बालेषु भवेयुरुदिता क्वचित्॥३८॥
अभिभावकसंज्ञेभ्यो भिन्नैरपि जनैर्नहि।
व्यवहार्य तथा येन दूषिता स्याच्छिशुस्थिति:॥३९॥
चिन्तनं ते चरित्रं च यथा पश्यन्ति सद्मनि।
कुटुम्बे वा तथा तेषां स्वभावो भवति स्वत:॥४०॥
भविष्यच्चिन्तया ताँश्च शोभनायां निवासयेत्।
वातावृत्तौ शिशूं स्तैषां व्यक्तित्वस्य परिष्कृति:॥४१॥
प्रारम्भिकेषु वर्षेषु दशस्वेव मता शुभा। 
अस्मिन् काले कुटुम्बं च सतर्कं सततं भवेत्॥४२॥
उपयुक्तो: निजा: सर्वैं: परिवारगतैर्नरै:।
उपस्थाप्या: शुभादर्शस्तेषामग्रे निरन्तम्॥४३॥

भावार्थ-कन्या और पुत्र को समान माना जाय। उनके बीच भेदभाव न किया जाय। पुत्र से भी अधिक कन्या को श्रेष्ठ और श्रेयस्कर माना जाना चाहिए, चूँकि व पिता और श्वसुर दो वंशों के कल्याण से संबद्ध है। जनक ने कन्या से ही श्रेय पाया और रावण के अनेक पुत्र उसके लिए अपयश का कारण बने। बच्चे गर्भ में रहकर माता से बहुत कुछ प्राप्त कर लेते हैं। इसलिए गर्भिणी के शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य को सही रखा जाय, उसके आहार-विहार में ऐसी सात्विकता रखी जाय जो शिशु के विकास में व्यवधान उत्पत्र न करे। परिवार का वातावरण ऐसा रहे जिसका बालकों पर कुसंस्कारी प्रभाव न पड़े। अभिभावकों के अतिरिक्त घर के अन्य सदस्य भी बालक के समुख ऐसा व्यवहार प्रस्तुत करें जिससे कोमल मन पर बुरी छाप न पड़े। चिंतन और चरित्र जैसा भी घर-परिवार में वे देखते हैं वैसे ही ढलने लगते हैं । बच्चों के भविष्य का ध्यान रखते हुए उन्हें सुसंस्कारी वातावरण में ही पाला जाय । व्यक्तित्व के परिष्कार की ठीक अवधि आरंभ के दस वर्षों में मानी गई है। इस अवधि में समूचे परिवार को सतर्कता बरतनी चाहिए और अपने उपपुक उदाहरण सदा उसके सम्मुख प्रस्तुत करने चाहिए॥३४-४३॥

व्याख्या-जैसी भ्रांति जन सामान्य में संतान से वंश चलने की है, लगभग वैसी ही कन्या व पुत्र में अंतर मानने की भी है । सामान्यतया हर अभिभावक को पुत्र की ही आकांक्षा होती है, जबकि नर व नारी दोनों में कोई भेद नहीं है। इसके विपरीत नारी को तो संस्कारों की खदान बताया गया है, शक्तिरूपा माना गया है। वह सृजन की देवी है । किन्तु सामाजिक प्रचलन, मूढ़ताएँ, जन्म होने के बाद से ही विवाह में धन व्यय होने की चिंता सदैव पुत्र के जन्म होने की मनौती को मनवाती रहती है। अनेक ऐसे उदाहरण हैं जहाँ पुत्रों ने उापने दुष्कर्मों से वंश को डुबोया एवं पुत्रियों अपने श्रेष्ठ कार्यो से अभिभावकों एवं समुदाय के लिए श्रेयाधिकारी बनीं । पुत्र व पुत्री में कन्या की महत्ता कितनी है? इस संबंध में एक आप्त वचन है- 'दसपुत्रसमा कन्या, या स्यात् शीलवती सुता।" जिस समाज में कन्या को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है, वह निश्चित ही ऊँचा उठता है। वह अपने पिता का ही नहीं, जिस घर में विवाहित होकर जाती है, उसका भी कल्याण करती है ।

महर्षि दयानंद ने कहा है-"भारतवर्ष का धर्म, उसके पुत्रों से नहीं, सुपुत्रियों के प्रताप से ही स्थिर है। भारतीय देवियों ने यदि अपना धर्म छोड़ दिया होता, तो देश कब का नष्ट हो गया होता।" कन्या को पुत्र के तुल्य ही समझने का आदेश महाराज मनु ने भी दिया है-"जैसे आत्मा पुत्र रूप में जन्म लेती है, वैसे ही पुत्री के रूप में भी जन्म लेती है ।" (मनुस्मृति ९/१३०)

नारी नौ माह तक भूण को अपनी काया में रख, पोषण ही नहीं देती, सरकार भी देती है। यदि गर्भावस्था में माँ का चिंतन परिष्कृत, सात्विक है, उस पर भावनात्मक दबाव न् पड़ता हो, वह सदैव महापुरुषों के आदर्श कर्तव्यों का चिंतन-मनन करती हो, तो संतात भी वैसी ही उत्कृष्ट जजमेगी । जन्म के बाद भी वैसा ही संस्कारमय वातावरण घर-परिवार में बना रहना अनिवार्य है । जीवन के प्रारंभ के दस वर्ष शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक विकास की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण माने गए हैं। इस अवधि में उनको सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक दोनों ही दृष्टि से अनौपचारिक शिक्षण दिया जाना चाहिए, ताकि वे श्रेष्ठ नागरिक के रूप में विकसित हो सके।

कन्या की श्रेष्ठता

श्रेष्ठि प्रसेनजित बुद्ध के उपदेशों में बिना नागा आया करते थे। अग्रिम पंक्ति में बैठते और बार-बार नमन करते। सभी लोग उन्हें सहायक और समर्थक समझते थे। यह किसी को विदित न था कि यह प्रदर्शन मात्र पुत्र कामना के लिए है । प्रसेनजित की पत्नी की कोख में कन्या का जन्म हुआ । वे दुखी हुए और प्रवचन सभा में आना बंद कर दिया । बहुत दिन बाद दुख कम होने पर एक दिन वे उदास मन से भेंट करने गए। बुद्ध उनका उलाहना समझ गए। उनने बताया कि कन्या पुत्र से अधिक श्रेयस्कर है । यदि सभी के घर उनकी इच्छानुसार पुत्र ही होने लगे, तो इस सृष्टि का अंत ही समझना चाहिए । गाड़ी के दो पहियों की भाँति बालक और बालिकाएँ बड़े होने पर समाज चक्र चलाते है। स्त्रष्टा ने दोनों को समान सम्मान दिया है। तुम अपनी मान्यताओं को बदलो, तब ही अज्ञानजन्य मान्यताओं से छूटोगे। प्रसेनजित को बोध हो गया और वे कन्या को पुत्र से अधिक स्नेह-सम्मान देने लगे ।

पुत्रवत् कन्या

महापंडित भास्कराचार्य गणित और ग्रह विज्ञान के असाधारण ज्ञाता थे । उनकी एक ही संतान थी, लीलावती । पिता जी ने उसे पुत्रवत् पाला और अपने संचित ज्ञान की पंरपरा को आगे बढ़ाने का निश्चय किया। उसे सदा अपने साथ ही रखा और अपने समतुल्य विद्वान बनाया । लीलावती को कोई कुमारी कहते है, कोई विधवा । जो हो, वे रहीं सदा पिता का दाहिना हाथ बनकर ही । लीलावती के नाम से पुरातन गणित विज्ञान अभी भी उपलब्ध है ।

शूरवीर परिवार

चित्तौड़ चारों ओर से घिर गया था। मुगलों की सेना दस गुनी अधिक थी, तो भी चित्तौड़ी राजपूतों ने हिम्मत नहीं छोड़ी और बच्चा-बच्चा-बलिदान के लिए तैयार हो गया । इन्हीं में एक उठती उमर का युवक फत्ता भी था । उसके पूरे परिवार में, उसकी माँ, पत्नी और बहिन थी । चारों ने मरदाना बाना पहना और तलवार हाथ में लेकर शत्रुओं के समूह को चीरते हुए; तलवार चलाते हुए, उसी समुद्र में समा गए । देश भक्ति के इस जोश को देखकर राजपूतों की ही नहीं, शत्रुओं की सेना भी दांतों तले उँगली दबाए रह गई ।

लड़की नहीं, फरिश्ता

जैसलमेर के राजा युद्ध मोर्चे पर सेना लेकर लड़ने गए थे । किले की रखवाली का भार अपनी कन्या रत्नावली को सौंप गए। वह मर्दाने कपड़े पहनकर किले के बुर्जों पर बराबर रखवाली करती।

एक दिन शत्रु सेना के कुछ सैनिक किले की दीवार पर चढ़ने लगे, तो उसने ऊपर से पत्थरों की वर्षा की औ रखौलता तेल ऊपर से डाला । और भी कई घातें किले में प्रवेश करने की शत्रुओं ने लगाई पर रत्नावली की सूझबूझ से एक में भी सफलता न मिली । अंतत: शत्रुओं को वापस लौटना पड़ा । वे रत्नावली को लड़की नहीं फरिश्ता बताते रहे ।

समय गँवा दिया

बच्चों के सर्वांगपूर्ण विकास के लिए ध्यान प्रारंभ से ही दिया जाना चाहिए। समय बीत जाने पर तो सिर धुन कर पछताना पड़ता है।

एक महिला शिकागो के प्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री फ्रांसिस वेलैण्ड पार्कर से यह पूछने गई कि वह अपने बच्चों की शिक्षा कब से प्रारंभ करे? पार्कर ने पूछा-"आपका बच्चा कब जन्म लेगा।" महिला ने कहा-"वह तो पाँच वर्ष का हो गया ।" इस पर पार्कर ने कहा-"क्षमा करें मादाम । अब पूछने से क्या फायदा । शिक्षा का सर्वोत्तम समय तो पाँच वर्ष तक ही होता है। सो आपने यों ही गँवा दिया । यदि आपने जन्म देने से पूर्व ही शिक्षा की व्यवस्था की होती, तो अब तक वह एक सुयोग्य नागरिक के लघु संस्करण के रूप में विकसित हो गया होता ।"

गर्भ से ही संस्कार

सुजाता के गर्भ में बालक था। पिता उद्यलक को उन्होंने अशुद्ध वेद पाठ करते हुए सुना। सो गर्भ से ही उनकी गलती को ठीक कराया। पिता को इसमें अपना अपमान लगा, सो उनने शाप दिया कि तू आठ जगह से टेढ़ा-मेढ़ा होकर जन्मेगा । अष्टावक्र वैसे ही कुरूप रूप में जन्मे, पर विद्वत्ता उनकी असाधारण थी। बचपन में ही उन्होंने राजा जनक के दरबार में जाकर पंडितों को शास्त्रार्थ में हराया था ।

सीता के लव-कुश 

लव-कुश का लालन-पालन सीता द्वारा वाल्मीकि के आश्रम में हुआ। बच्चों को बड़ा होने पर अपनी माता को रामचंद्र जी द्वारा निर्दोष वनवास देने पर बड़ा क्रोध आया। एक दिन लक्ष्मण जी हनुमान सहित अश्वमेध का घोडा लेकर उस आश्रम से निकट होकर गुजरे। लव-कुश ने घोड़े समेत उन सभी को पकड़कर बाँध लिया । सीता जी ने कृपा करके उन लोगों को छुड़ाया ।

जैसा अन्न-वैसा मन 

मात्र बाह्य ही नहीं, सूक्ष्म संस्कार भी चिंतन पर बड़ा प्रभाव डालते है । आहार पर इसीलिए बालकों की प्रारंभिक अवधि में अत्यधिक ध्यान दिया जाता है । एक सद्गृहस्थ राज्याधिकारियों का कोपभाजन बना और कोई आरोप लगाकर उसे बंदीगृह पहुँचा दिया गया । बंदी ने एक रात स्वप्न देखा उसने अपनी माता की हत्या कर दी और खून से नहाया। सबेरे उठते ही इस विचित्र स्वप्न से वह सिहर उठा । माता के प्रति अनन्य भक्ति-भाव रखने और उसकी सेवा-सहायता पर निरंतर ध्यान रखने वाले को यह दु:स्वप्र क्यों आया? समाधान वह किस से पूछता । एक दिन एक धर्मोपदेशक बंदीगृह में पहुँचे । कैदियों ने अपनी-अपनी जिज्ञासाएँ प्रस्तुत कीं। उसी अवसर पर इस मातृहत्या का स्वप्न देखने वाले ने भी अपना असमंजस प्रकट किया । साधु ने बताया-"लगता है, भोजन बनाने या परोसने वाला कोई ऐसे ही कृत्य का अपराधी रहा होगा । उसके कुसंस्कार अन्न के साथ तुम्हारे मनु को वैसी ही उत्तेजना देने लगे होंगे ।" तलाश किया तो बात सच निकली । एक मात्र हत्यारा बंदीगृह का रसोइया था । जब वह छूट गया और दूसरे कैदी भोजन बनाने लगे, तो उस प्रकार के सपने भी समाप्त हो गए। अन्न के साथ जुड़ने वाले संस्कारों की बात सभी ने अच्छी तरह समझी ।

कोमल मन वाले बालकों पर तो यह बात और भी दृढ़ता से लागू होती है ।

आस्था का शिक्षण

आवश्यकता पड़ने पर माता-पिता को बच्चों को व्यावहारिक शिक्षण भी देना होता है, ताकि वे सही मार्ग पर चल सकें। बेटे नास्तिक होते जा रहे थे । अक्सर वे कहते, ईश्वर यदि है तो भी पक्षपाती है । किसी को सुख देता है, किसी को दुख । ऐसे ही अनीति बरतने वाले पर श्रद्धा जमती ही नहीं । बाप को पता चला, तो उन्होंने बेटे को बुलाया । कहा तो कुछ नहीं, पर सामने वाले एक ही खेत में कई तरह के पेड़-पौधे लगाने में उन्हें साथ ले लिया। बोया हुआ समयानुसार फलित हुआ । गन्ना मीठा, चिरायता कडुआ, गुलाब पर सुगंधित फूल पर कँटीला मरुआ से दुर्गंध जैसी भिन्नता भी । बाप ने बेटों को बुलाकर पूछा-"बच्चों हम लोगों ने एक ही दिन, एक ही भूमि पर पौधे लगाए थे, पर उनमें यह भिन्नता क्यों?" बच्चों ने एक साथ उत्तर दिया-"इसमें न जमीन का दोष है, न बोने वालों का। बीजों की भिन्नता से ही पौधों के स्वाद में अंतर आया है ।" पिता ने हँसते हुए कहा-"बच्चो, भगवान् न अन्यायी है, न पक्षपाती । मनुष्य अपने कर्म बीज बोता है और वैसा ही भला-बुरा काटता है । भिन्न परिस्थितियों का कारण भगवान नहीं, कर्ता का अपना स्तर एवं पुरुषार्थ ही होता हैं ।" लड़कों का समाधान हो गया, उनकी आस्था फिर वापस लौट आई ।

बीजांकुर बडे़ भाई ने रोपे

बडों का व्यवहार संतुलित आदर्शवादी हो, तो वैसी ही सत्परंपराएँ परिवार में फलती हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण भगवान राम व उनके भाइयों के मध्यवर्ती संबंधों के रूप में मिलता है । भरत ने राम वनवास के समय उन्हीं की तरह साधु वेश बनाकर व्रतपूर्वक चौदह वर्ष काटे। इसका रहस्य बताते हुए सूत जी ने शौनक जी से कहा कि"हे शौनक, चारों बालक जब छोटे थे तब मिल-जुलकर गेंद खेलते और दूसरी प्रतिद्वद्विताओ द्वारा विनोद करते थे । राम बड़े थे और बलिष्ठ भी, तो भी उनका यह प्रयत्न रहता था कि भाइयों को जिताने हेतु स्वयं हारने का उपक्रम करें। इसमें छोटों का साहस-उत्साह बढ़ता और उन्हें श्रेय मिलता था ।" भाइयों ने उनकी इस उदारता को ताड़ लिया और सच्चे भ्रातृ-भक्त बन गए । बड़े होने पर वही बीजांकुर लक्ष्मण और भरत के आदर्श भाई के रूप में विकसित करने के निमित्त कारण बने और लक्ष्मण ने स्वेच्छापूर्वक वनवास लेकर उनका साथ दिया।

बाला: बोध्या विनेयाश्च प्राय: स्नेहेन साध्विदम्।
उच्यते शिशव: स्नेहं लभन्तां शिक्षणोन्मुखम्॥४४॥
स्नेहातिरेकतो बाला विकृतिं यान्ति सन्ततम् ।
नाऽयोग्यं दण्डयेद् बालान् भयभीतान्न कारयेत्॥४५॥ 
अयोग्यचरणोत्पन्न हानिर्ज्ञाप्याऽपवार्य च ।
लोकशिक्षेतिहासेन देयाऽन्या शिक्षणादपि॥४६॥४६ । ।
ज्ञानवृद्धयै पुस्तकानां ज्ञानमेव न चेष्यते।
भ्रमणार्थ च नेयास्ते क्षेत्रे समीप्यवर्तिनि॥४७॥
मार्गप्राप्तैर्विधेया च ज्ञानवृद्धिस्तु वस्तुभि:।
जिज्ञासाया: स्वभावंश्च तेषां निर्मातुमिष्यते॥४८॥
प्रवृत्तिरेषा प्रोत्साह्या विकासस्य मन:स्थितौ।
विधि: शोभन एवैष यस्तु प्रश्नत्तरानुग:॥४९॥
कीडेयुर्न कुसंगे च बाला इत्यभिदृश्यताम्।
संस्कृतै: सखिभिर्योगे यत्नस्तेषां विधीयताम्॥५०॥
सखिभ्योऽपि विजानन्ति शिशवो बहुसन्ततम्।
यथा संरक्षकेभ्योऽत: सावधानैश्च भूयताम्॥५१॥

भावार्थ-बालकों को स्नेह से समझाने-बदलने का प्रयास किया जाय । एक आँख दुलार की-दूसरी सुधार की रखने की उक्ति में बहुत सार है । अतिशय दुलार में कुछ भी करने देने से बालक बिगड़ते हैं । उन्हें पीटना-डराना तो नहीं चाहिए पर अवांछनीय आचरण की हानि अवश्य बतानी चाहिए और रोकना भी चाहिए।  स्कूली शिक्षा के अतिरिक्त बडों को लोकाचार सिखाने का उपयुक्त तरीका सारगर्भित कथा कहानियाँ सुनाना है । ज्ञानवृद्धि के लिए पुस्तकीय ज्ञान ही पर्याप्त नहीं उन्हें समीपवर्ती क्षेत्र में भ्रमण के लिए भी ले जाना चाहिए और रास्ते में मिलने वाली वस्तुओं के सहारे उनकी ज्ञानवृद्धि करनी चाहिए । जिज्ञासाएँ करने की प्रश्न पूछने की आदत डालनी चाहिए। इस प्रवृत्ति को प्रोत्साहित भी करना चाहिए मानसिक विकास का अच्छा तरीका प्रश्नोत्तर ही है । कुसंग में बच्चो को खेलने न दें। ऐसे साधियों का सुयोग बिठाएँ जो, अच्छे स्वभाव के हों । अभिभावकों की तरह साथियों से भी बडे़ बहुत कुछ सीखते हैं इस ओर सावधान रहना चाहिए॥४४-५१॥

व्याख्या-बालकों के संतुलित विकास से संबंधित तीन महत्वपूर्ण सूत्र ऋषि श्रेष्ठ धौम्य यहाँ बताते हैं-(१) दुलार एवं सुधार की समन्वित नीति अपनाते हुए उन्हें स्नेह से वंचित भी न रखना एवं आवश्यकता पड़ने पर कड़ाई बरतकर अनौचित्य से उन्हें विरत करना। (२) पाठ्यक्रम से जुड़ी शिक्षा के अलावा भी व्यावहारिक जीवन की शिशा उन्हें कथा-कहानियों के माध्यम से एवं प्राकृतिक जीवन के साहचर्य के माध्यम से देना, उनकी जिज्ञासु बुद्धि को प्रखर करना एवं स्वाध्यायशीलता के प्रति रुचि लगाना। (३) बालक किनकी संगति में दिन भर रहते हैं, इसका सतत ध्यान रखना । गुण, कर्म एवं स्वभाव के परिष्कार हेतु उत्कृष्टता को सम्मान देने वाले नम्र स्वभाव के साथियों को ही संगी-साथी बनाने का प्रोत्साहन देना ।

उपरोक्त तीनों ही पक्ष बालकों के किशोर रूप में विकसित होने की प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जिस परिवार संस्था में इन पर समुचित ध्यान दिया जाता है, उसमें निश्चित ही श्रेष्ठ नागरिक विकसित होते एवं समुदाय को गौरवानित करते हैं ।

क्योंकि मैं माँ हूँ!

स्नेह बच्चों का अधिकार है एवं माता-पिता का कर्तव्य । यही वह पूँजी है, जो अभिभावक-शिशु संबंधों को दृढ़ बनाती है। महारानी विक्टोरिया की पुत्री ऐलिस का दस वर्षीय पुत्र किसी संक्रामक रोग से बीमार हुआ। डॉक्टरों ने घोषित किया कि बीमार की छूत से, खासकर सांस से दूर रहा जाय, अन्यथा संपर्क करने वाले की जान को खतरा है । हिदायत के मुताबिक सभी लोग दूर रहने लगे, पर बच्चे की माँ नेउसे गोदी में हो रखा। जब उसने ममता भरी आवाज से कहा-" मम्मी, तुम मुझे प्यार नहीं करती? चुंबन लिए कितने दिन हो गए ।" माता ने प्यार भरा चुंबन लिया । देखते-देखते वह उसी बीमारी से ग्रसित हुई और कुछ समय में बच्चे के साथ मर गई । पूछने वाली से वह यही कहती रही- "क्योंकि मै माँ हूँ ।" 'शाही कब्रिस्तान में ऐलिस की कब्र के नीचे अभी भी उसके अंतिम शब्द लिखे हुए है-"क्योंकि मैं माँ हूँ ।"

स्वयं अनुभव करो

आवश्यकता पड़ने पर सुधार की शिक्षा भी देना पड सकती है। राजकुमारी की शिक्षा पूरी हो गई, तो राजा उन्हें लेने आए। चलते समय आचार्य ने कहा " एक बात सिखाने को रह गई, सो और सीखते जाओ ।" उन्होंने एक छड़ी मँगाई और दोनों राजकुमारों के हाथ पर दो-दो छड़ी कसकर जमा दी। राजकुमारों ने पूछा-"यह क्या शिक्षा हुई?" आचार्य जी ने कहा-"तुम्हें बडे़ होकर राजशासन चलाना है । किसी निर्दोष को दंड मिलने पर उसे कितना, बुरा लगता है। यह सिद्धांत भी सीखकर जाओ और सदा गाँठ बाँधकर रखना ।"

बादशाह का न्याय

अभिभावकों को यह ध्यान रखना जरूरी हैं कि अधिकार के मद में कहीं बच्चे बिगड तो नहीं रहे । एक बादशाह के लड़के को किसी सेनापति के लड़के ने खेल-खेल में गाली दे दी। लड़के ने इसकी शिकायत बादशाह से की, खुशामदी दरबारियों में से किसी ने कहा-"गाली देने वाले लड़के को देश निकाला दे देना चाहिए ।" किसी ने कहा-"उसे फाँसी पर चढ़ा देना चाहिए, तो किसी ने कहा उसके पिता को नौकरी व निकाल देना चाहिए ।" अंतत: बादशाह ने अपने बेटे से कहा-"बेटा! खेल-खेल में हुए झगड़ों को इतना तूल नहीं देना चाहिए । तू उस अपराधी बच्चे को क्षमा कर दे, तो यह अच्छी बात होगी क्योंकि क्रोध का व दंड देने का कारण होते हुए भी जो शांत व क्षमाशील रहे, वही सच्चा वीर होता है और यदि तू क्षमा करने की शक्ति नहीं दिखाता, तो तू भी उस लड़के को गाली दे आ, पर क्या तुझे यह शोभा देगा?"

देश का कायाकल्प

कभी-कभी कड़ाई बड़ी अनिवार्य हो जाती है। अव्यवस्था को मिटाने हेतु उसका आश्रय लेना ही पड़ता है। लेकिन कोलंबिया में उन दिनों एक प्रकार की अराजकता सी फैली हुई थी। राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक कोई क्षेत्र ऐसा नहीं था, जिसमें गड़बडी फैलाने की लोगों की आदत न पड़ गई हो। फिर विद्यार्थी ही किसी से क्यों पीछे रहते। एक दो माँगों को लेकर हड़ताल करने से लेकर पथराव और बस जलाने का धंधा उनका आए दिन का काम था। राष्ट्रपति एस्टरों उसी वर्ष चुने गए थे। उनके लिए काम करना कठिन हो रहा था। नम्रता और सज्जनता के सारे तरीके जब नाकामयाब हो गए, तो उन्होंने कड़ाई से काम लेना शुरू किया । विद्यार्थियों को चेतावनी दी कि यदि वे सीधे रास्ते न आए, तो कक्षाएँ और होस्टल खाली करा लिए जाएंगे । इसके लिए उन्होंने पुलिस भी बुलाई । शुरूआत विद्यार्थियों से हुई। धमकाने और समझाने से मान गए और वह समस्या, हल हो गई । यही शैली उन्होंने अन्य वर्गों के लिए अपनाई । फलत: अराजकता राष्ट्र से चली गई और देश का स्तर हर क्षेत्र में सुधरने लगा। राष्ट्रपति काल में उनने उस देश का हर दृष्टि से कायाकल्प कर दिया। अब तक के राष्ट्रपतियों में राष्ट्रपति एस्टरों ने जिस प्रकार उस देश की साख बढ़ाई, उसे लोग सदा स्मरण करते रहेंगे ।

स्वाभिमानी सुभाष

स्कूल का पढ़ाई पूरी करने के बाद सुभाष ने कॉलेज में दाखिला लिया। उस कॉलेज के अंग्रेज अध्यापकों में एक मिस्टर सी० सफ० ओटन भी थे । उनमें एक बुरी आदत थी । वह बात-बात में भारतीय जीवन का मजाक उड़ाते थे । उनके प्रति घृणा पैदा करना वह अपना परम धर्म मानते थे । सुभाष को उनका यह व्यवहार कतई पसंद न था। वह उनकी इस आदत को छुड़ाना चाहते थे। एक दिन तो सुभाष चुप बैठे रहे। सुनते-सुनते उन्हें अपने देश का अपमान सहना असह्य हो उठा । वह तिलमिला कर अपनी सीट से उठ खड़े हुए। चट से आगे बड़े और उस गोरे अध्यापक के मुँह पर थप्पड़ जड़ते हुए बोले, "भारतीयों में अभी भी स्वाभिमान जीवित है। जो कोई इस तथ्य को भूलकर उसे चुनौती देगा, उसे इसी तरह मार खानी पड़ेगी।"

औचित्य की हिमायत

बच्चों में अनुचित के प्रतिरोध के संस्कार डाले जाने चाहिए, तभी वे साहसी नागरिक बन सकेंगे । दीनबंधु ऐंड्रूज तब सेंट स्टीवेंसन कॉलेज में पढ़ते थे । वहाँ बाइबिल पढ़ना हर छात्र के लिए अनिवार्य था । ऐंड्रूज ने अधिकारियों को लिखा कि इच्छा न होने पर जबरदस्ती बाइबिल पढ़ाना अपने धर्म का अपमान करना है। उनके कथन का औचित्य समझा गया और विषय की अनिवार्यता हटाकर उसे ऐच्छिक कर दिया गया।

दुलार एवं सुधार की समन्वित नीति के साथ-साथ समय-समय पर दैनंदिन जीवन के उदाहरणों के माध्यम से व्यावहारिक शिक्षा भी बालकों को दी जानी चाहिए । स्कूली पाठ्यक्रम व्यावहारिक जीवन से कोसों दूर होता हैं । ऐसे में बालकों के समग्र मस्तिष्कीय विकास हेतु अभिभावकों द्वारा शिक्षा कथा-कहानियों के माध्यम से देना बालकों के नव निरर्माण में हितकारी होता है। बाल-विकास के लिए बच्चों को कहानियाँ सुनाना एक उपयुक्त और प्रभावशाली शिक्षा पद्धति है । कहानियाँ बाल विकास के दो प्रयोजन पूरी करती है । एक तो उन्हें निर्भय और उन्मुक्त मनोरंजन देकर तथा दूसरे उन्हें जीवन निर्माण की शिक्षा देकर ।

कहानियों के माध्यम से ये बालक इतिहास पुरुष बने

इतिहास में इस प्रकार के सैकड़ों उदाहरण भरे पडे है। कई महामानव जिनके संबंध में बचपन के समय में सुनिश्चिततापूर्वक कुछ नहीं कहा जाता था । कहानियों के माध्यम से उनका व्यक्तित्व गढा गया और वे इतिहास के स्रष्टा बने । पंचतंत्र के मंद बुद्धि और अयोग्य राजपुत्र । जिनके पिता लगभग निराश हो गए थे । सब उपाय कर देख लिया गया, परंतु राजपुत्रों को किसी भी प्रकार योग्य नहीं बनाया जा सका। अंतिम प्रयास रूप राज्य भर घोषणा कर दी गई कि जो भी पुरुष बने व्यक्ति राजपुत्रों की शिक्षा का उत्तरदायित्व ग्रहण करेगा और उन्हें सब प्रकार से योग्य बना देगा, वह मुँह माँगे पुरस्कार का अधिकारी होगा। तब विष्णु शर्मा नामक एक विद्वान तपस्वी ने राजपुत्रों को राजनीति, धर्म और शिक्षा में निष्णात बनाने का काम सम्हाला और उन्होंने कुछ ही समय में जानवरों, पक्षियों की रोचक कहानियाँ सुना-सुना कर निर्बुद्धि राजकुमारों को नीति, सदाचार, धर्म, व्यवहार कुशलता आदि में पारंगत बना दिया ।

छत्रपति शिवाजी भी बचपन में कोई प्रतिभावान नहीं दिखाई दिए थे । परिस्थितियाँ भी ऐसी नहीं थीं कि आगे चलकर कुछ करने की संभावना दिखाई दे । पति द्वारा उपेक्षित उनकी माता जीजाबाई अपने पुत्र को लेकर पूना में रहती थीं । बालक शिवा के पालन-पोषण से लेकर शिक्षा-दीक्षा का भार उन पर ही था । जीजाबाई ने इस उत्तरदायित्व को सरलता से निभा लेने का उपयुक्त माध्यम खोज निकाला और वे अपने लाड़ले को रामायण, महाभारत, हनुमान, कृष्ण और अर्जुन के जीवन की प्रेरणापूर्ण वीरता से भरी कहानियाँ सुनाने लगीं ।

बालक शिवा के मन में भी ऐसा ही बनने की धुन सवार हुई और वे बचपन में ही मावला जाति के पिछड़े और जंगली बच्चों को रीछ, वानरों की तरह संगठित करने लगे। उन्हें युद्ध विद्या सिखाने लगे । बाल्यकाल की प्रेरणा से उद्भूत महत्वाकांक्षा के बल पर उन्होंने नाना जी, बाजी प्रभु, देशपांडे और सूर्याजी जैसे कितने ही नर रत्न खोज निकाले, जो आगे चलकर विशाल मुगल साम्राज्य के अधिपति औरंगजेब की आँखों की नींद हराम करने लगे। वर्तमान युग के महामानव महात्मा गांधी के संबंध में भी सर्वविदित है । बचपन में उनकी माता पुतलीबाई रामायण और महाभारत के चरित्र निर्माणकारी प्रसंग और घटनाएँ सुनाया करतीं । जिनके परिणामस्वरूप ही वे आजीवन चरित्र और नैतिकता को सर्वोपरि महत्व देते रहे । सत्य के प्रति अविचल निष्ठा तो उनमें महाराजा हरिश्चंद नाटक देखकर और कहानी सुनकर ही जन्मी थी। ईसा और बुद्ध के प्रसंग पढ़-सुनकर अहिंसा और प्रेम के प्रति श्रद्धा-निष्ठा का उभार हुआ था। इस प्रकार कहानियों द्वारा इतिहास पुरुष के निर्माण की असंख्यों घटनाएँ भरी पड़ी हैं ।

बाल्यकाल के संस्कार

सुभाषचंद्र बोस बच्चे ही थे। माँ की बगल में से उठकर जमीन पर जा सोए। माँ के पूछने पर उनने बताया-"आज अध्यापक कह रहे थे कि हमारे पूर्वज ऋषि-मुनि थे। जमीन पर सोते और कठोर जीवन जीते थे । मैं भी ऋषि बनूँगा, सो कठोर जीवन का अभ्यास कर रहा हूँ।" पिताजी जग गए । उनने कहा-"जमीन पर सोना ही पर्याप्त नहीं । ज्ञान संचय और सेवा संलग्न होना भी आवश्यक है । अभी तुम माँ के पास सो जाओ, बड़े होने पर तीनों काम करना ।" सुभाष ने अध्यापक की ही नहीं पिता की बात भी गिरह बाँध ली। आई०सी०एस० पास करके जब अफसर बनने की बात सामने आई, तो उनने कहा-"मैं जीवन का लक्ष्य निश्चित कर चुका हूँ । मातृभूमि की सेवा करूँगा और महान बनूँगा ।" बचपन का निश्चय उन्होंने मरण पर्यंत निबाहा । ऐसे होते है महामानव।

भेड़ का आतिथ्य क्यों?

एक राजपूत के यहाँ गाय भी पली और भेड़ भी । एक दिन उदास होकर बछड़े ने गाय से पूछा-"हमारी ओर कोई आँख उठाकर भी नहीं देखता, पर इस काले-कलूटे मेमने को सभी बड़ी दिलचस्पी से खिलाते और स्नेह जताते है ।"माँ चुप रहीं, फिर बोली-"इसका जवाब अभी नहीं, तुम्हें कुछ ही दिनों में मिल जाएगा ।" देवी को बलि का दिन आया और मेमने का सिर काटकर उस पर चढ़ा दिया गया । बछड़े ने संतोष की सांस खींची और समझा कि बहुत मान मिलने के पीछे भी जोखिम छिपा रहता है ।

नकल उचित नहीं

बतख के बच्चे तालाब में तैरा करते । तालाब के किनारे ही चुहिया का बिल था। उसके बच्चे भी तैरने का हठ करते । चुहिया ने समझाया- "सबके लिए एक जैसे काम ठीक नहीं होते। तुम्हारे लिए बिल खोदना उतना ही उपयोगी है, जितना बतख के लिए तैरना ।" चुहिया के बच्चे जैसे ही अवसर मिला, तालाब में तैरने घुस पड़े और डूब गए । बिना अपनी सामर्थ्य अँकि दूसरों की नकल करने वालों का यही हाल होता है ।

अल्फ्रेड को किसान पत्नी की शिक्षा

ईंग्लंड के इतिहास में 'एल्फ्रेड' का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। एल्फ्रेड ने प्रजा की भलाई के लिए अनेक साहसिक कार्य किए, जिससे वह महान एल्फ्रेड (एल्फ्रेड द ग्रेड) के नाम से पुकारा जाता है। प्रारंभ में एल्फ्रेड भी एक साधारण राजा की तरह, जो बाप-दादों से  होता आया है, वह चाहे अच्छा हो या बुरा, करने की अंधविश्वासी प्रवृत्ति के कारण सामान्य व्यक्तियों का सा खाओ-पीओ और वैभव-विलास में डूबे रहो, का जीवन जीने लगा। एक दिन ऐसा भी आया, जब उसका यह सुस्ती शत्रुओं के लिए वरदान सिद्ध हुई। एल्फ्रेड का राज्य औरों ने हड़प लिया और उसे गद्दी से उतार कर मार भगाया । इधर-उधर मारे-मारे फिर रहे एल्फ्रेड को एक किसान के घर नौकरी करनी पड़ी । उसे बर्तन माँजने, पानी भरने और चौके का काम सौंपा गया । उसके काम की देखरेख किसान की सी करती थी । एल्फ्रेड छिपे वेष में जिंदगी काटने लगा । एक दिन किसान की स्त्री को किसी आवश्यक काम से बाहर जाना पड़ा । बटलोई पर दाल चढ़ी थी, सो उसने एल्फ्रेड से कहा कि जब तुक मैं वापस नहीं आ जाती, तुम बटलोई की दाल का ध्यान रखना । यह कहकर स्त्री चली गई । वहाँ से काम पूरा कर लौटी, तो सी ने देखा एल्फ्रेड एक ओर बैठा कुछ सोच रहा है और बटलोई की सारी दाल जल चुकी है । स्त्री ने कहा-"मूर्ख नवयुवक! लगता है तुझ पर एल्फ्रेड की छाया पड़ गई है, जो काम सौंपा जाता है, उसे एकाग्रचित्त होकर पूरा नहीं करता । तू भी उसकी तरह मारा-मारा घूमेगा ।" स्त्री बेचारी को क्या पता था कि जिससे बात कर रही है, वह एल्फ्रेड ही है, पर एल्फ्रेड को अपनी भूल का पता चल गया । उसने बात गाँठ बाँधी ली-आज से जो भी काम करूँगा, एकाग्रचित्त से करूँगा । कल्पना के किले बनाते रहने से कोई लाभ नहीं । एल्फ्रेड एक बार फिर सहयोगियों से मिला । धन संग्रह किया, सेना एकत्रित की और दुश्मन पर चढ़ाई करके लंदन को फिर से जीत लिया ।

अनुभवों से सीखा

आपका सफलता का श्रेय किसको है?"-एक पत्रकार ने प्रेसीडेंट केनेडी से प्रश्न किया । जॉन केनेडी ने उत्तर दिया-"असफल व्यक्ति"। "सो कैसे?"-उसने पुन: प्रश्न किय। राष्ट्रपति ने बताया-"मैं जिस किसी असफल व्यक्ति को देखता, उससे बातचीत करके यह पता लगाता कि वह असफल किन कारणों से हुआ । पीछे उन अनुभवों का लाभ उठाकर ही मैंने सफलता प्राप्त की ।"

सही चुनाव

बूढे़ किसान के दो बेटे थे। मरने के दिन आए तो दोनों जवान लड़को को बुलाकर कहा-"तुम मिलजुल कर रहते दीखते नहीं। बँटवारा कर लो और अपने पैरों खडे़ होकर गुजारा करो।" संचित कमाई का बँटवारा हुआ। एक को दस हजार के जेवर मिलने थे, दूसरे को उतने ही दाम के हल, बैल और खेत । पहले चुनाव के लिए बड़े बेटे को कहा गया, उसने जेवर ले लिए । स्त्री को सजाया कुछ को बेचकर सैर- सपाटे का कार्यक्रम बनाया । छोटे ने हल, बैल ले लिए और छोटे से खेत को जोतने-बोने में लग गया । बड़ा ठाट-बाट का दिखता था और छोटा मैले-कुचैले मजूर जैसा। देखने वाले एक को भाग्यवान कहते, दूसरे को किस्मत का मारा । समय बीतता गया । बाप के मरे एक साल भी न हुआ कि एक की अमीरी हवा में उड़ गई । जो था फिजूलखर्ची में बह गया । मेहनत न बन पड़ने से उठाईगीरी की आदत पडी और पकड़े जाने पर जेल हो गई। दूसरा मेहनती और अपनी किफायतदारी से खुशहाल होता गया और इजतदार बन गया ।

समस्या का हल यों नहीं

कभि-कभी ऐसा भी होता कि लाख समझाने पर भी बात समझ में आती नहीं, क्योंकि अनेक पूर्वाग्रह तथा सनकें अड़्डा जमाए बैठे होते हैं। एक सनकी पैर में पहने हुए जूतों की बहुत शिकायत कर रहा था-वे तंग है और काटते हैं। उसका बड़बडाना सुनकर एक समझदार ने कहा-"यदि ऐसा ही है, तो उसे उतार क्यों नहीं देते । बिना जूते के भी तो चला जा सकता है ।" पगले ने कहा-"ऐसा नहीं कर सकता। यही तो मेरा एक मात्र सहारा है। घरवालों और पडोसियों से पटरी नहीं खाती, तो इस जूते को देखकर ही मन बहलाता हूँ और सोचता हूँ कि यही एक तो अपना है । इतना नजदीक इतनी देर और कौन साथ रहता है। समझदार चलता बना । ऐसे पत्थर से सिर फोड़ने में उसने समय की बर्बादी देखी । जिससे शिकायत है, उसे जो छोड़ नहीं सकता और चाहता है सब कुछ अपनी मर्जी का ही बने, उसकी समस्या का हल कहाँ होना है ।

संगति का प्रभाव 

व्यावहारिक शिक्षण के बाद तीसरा महत्वपूर्ण सूत्र है-सही साथी का चयन । अच्छे गुण व स्वभाव वाले साथी मित्र में बच्चे के साथ हों, तो अभिवावक, शिक्षक के समकक्ष ही भूमिका निभाते हैं। यदि संगीत बुरी हुई तो कोमल मन पर उसकी छाप तुरंत पड़ती है एवं व्यवहार में तदनुसार परिवर्तन लाती है।

मिथिला के सम्राट् चमूपति अपने पुत्र राजकुमार श्रीवत्स की उद्दंडता से बड़े खिन्न थे। गुरुकुल से लौटकर आने के कुछ दिनों तक तो वे ठीक रहे । पुन: स्वभाव उग्र होता चला गया । उनके व्यवहार में कुलीनता कहीं से नहीं टपकती थी। सोचा गया कि संभवत: विवाह से समस्या का हल हो । पर स्थिति यथावत् ही रही ।

मन बदलने की इच्छा से महर्षि श्यावाश्व के वाजि मेध यज्ञ का आमंत्रण आने पर वे प्रमुख यजमान के रूप में रवाना हुए। रास्ते में प्रथम विराम उन्होंने जहाँ किया, वहाँ संयोगवश अरण्यजैत के खूंख्वार दस्यु नायक का कार्य क्षेत्र था। अर्द्ध निद्रा की स्थिति में राजा ने सुना-एक नन्हा सा तोता कह रहा था-"तात, आज बहुत अच्छा शिकार लगा है। महाराज है तो क्या हुआ? तुरंत सिर धड़ सेर अलग करो व एक ही दांव में जीवन भद्र का हिसाब-किताब पूरा कर लो ।" नीति वचन याद कर महाराज ने तुरंत वह स्थान छोड़ दिया । अगले दिन प्रात: वे महर्षि के आश्रम में पहुँचे ।

उनका स्वागत यहाँ भी पुन: एक शुक की मंगल ध्वनि ने किया-"आइए महाराज । आपका इस आश्रम में, स्वागत है । आप हमारे आज के मंगल मूर्ति अतिथि हैं ।" आश्चर्य से महाराज ने दृष्टि ऊपर उठाई, तो देखा कि वृक्ष पर बैठा शुक यह कह रहा था । सम्राट् बोले-"एक आप एवं एक ऐसे ही शुक का वह स्वर, जिसने मुझे रात्रि में डरा दिया था । कितना अंतर है, दोनों में ।" नन्हा शुक बोल उठा-"महाराज! अरण्यजैत का वह शुक मेरा ही सगा भाई है । उसकी धृष्टता के लिए मैं क्षमा माँगता हूँ । वस्तुत: यह संगति का ही फल है। मेरा भाई दस्युओं में रहकर वैसे ही कुसंस्कार पाता रहा है । मुझे सौ भाग्य मिला महर्षि के इस संस्कारभूत आश्रम में रहने का । "स्वागत करने को आतुर खड़े महर्षि श्यावाश्च महाराज के अंतर्मन को पढ़ते हुए बोल उठे- "अब समझ में आया महाराज! आपके राजकुमार जिन धीवर पुत्रों-उद्दंड साथियों के साथ रहते हैं, उनके ही कुसंस्कार उनके व्यवहार में परिलक्षित हो रहे है । आप साथी व वातावरण बदल दीजिए । राजकुमार को बदलते देर न लगेगी ।"

सडे़ टमाटरों के साथ

बाप अपने बैटों को गंदे लड़कों के साथ रहने से रोकता । पर बच्चे उस शिक्षा को मानने को तैयार न हुए । एक दिन बाप छोटी टोकरी भर कर टमाटर लाया । कल उन्हें काम में लाए जाने की बात कही । टमाटरों में एक सड़ा हुआ था । उसे भी टोकरी में रहने दिया गया । दूसरे दिन टोकरी उठाई, तो देखा गया कि सभी टमाटर सड़ गए है । बाप ने समझाया-" बच्चे, देखा तुमने संगति का फल ।"

उथली सहानुभूति

एक भला खरगोश थ । सभी पशुओं की सहायता करता और मीठा बोलता था । जंगल के सभी जानवर उसके मित्र हो गए । एक बार खरगोश बीमार पड़ा। उसने आड़े समय के लिए चारा-दाना अपनी झाड़ी में जमाकर रखा था । सहानुभूति प्रदर्शन के लिए जिसने सुना वही आया और आते ही संचित चारे-दाने में मुँह मारना शुरू किया । एक ही दिन में उन सबका सफाया हो गया । खरगोश अच्छा तो होने लगा, पर कमजोरी में चारा ढूँढ़ने के लिए जा न सका और भूखा मर गया। उथली मित्रता और कुपात्रों की सहानुभूति सदा हानिकारक ही सिद्ध होती है । दुर्घटना का समाचार सुनकर दौड़े आने वाले सहानुभूति प्रदर्शन कर्त्ता प्राय: यही करते है । सच्चे मित्र थोडे ही हों, पर भले हों, वक्त पर काम आ सकें ।

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