प्रज्ञा पुराण भाग-3

॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-7

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अबलात्वात् स्त्रियाम नात्याचारस्तु कश्चन।
कोमलाड्या भवेदित्थमेतदर्थं च निश्चितम्॥६८॥
समस्तस्य समाजस्य भाव उद्बुद्ध इष्यते ।
अनीत्याश्रयिणो नैव नरा: स्युर्दण्डवञ्चिता:॥६९॥ 
व्यवस्था चेदृशी कार्या मूर्धन्यै: पुरुषै: सदा।
सामाजिकं च दायित्वं तैरुह्यं स्वयमेव च॥७०॥

भावार्थ-नारीकी सहज दुर्बलता के कारण उस पर कहीं कोई अत्याचार न होने पाए, इसके लिए समस्त समाज की जागरूकता आवश्यक है । अनीति करने वाले दंड से बचने न पाए ऐसी व्यवस्था मूर्धन्यों को साहसपूर्वक बनानी चाहिए, व्यवस्था संबंधी सामाजिक दायित्व स्वयं ही उन्हें अस्वीकार करने चाहिए॥६८-७०॥

व्याख्या-नारी मनस्वी भी है, तेजरची भी, पर उसकी विशेषताएँ दबी रह जाती हैं। शरीर बल के नाते पुरुष जाति का उस पर आधिपत्य ही रहा। उसे अन्य वैभव संपत्ति की भाँति ही एक आभूषण मानकर अधिकार जताने की विडंबना भर होती रही है। समाज के हर सदस्य को जागरूक विवेकशील बनकर अनीति के प्रतिकार का साहस जुटाना चाहिए। कहीं भी ऐसे अत्याचार होते दीखें, तो उनका विरोध बलपूर्वक कर समाज की सुव्यवस्था बिठाने का दायित्व मूर्धन्य नागरिकों का ही है। इसमें पुरुषों की तो प्रायश्चित कर्ता होने के नाते महत्वपूर्ण भूमिका है ही, जागृत नारी को भी अपना दायित्व निभाना चाहिए । जो अनीति करें, उन्हें किसी न किसी रूप में उसका प्रतीक रूप में दंड अवश्य मिले, ताकि आगे वे कभी ऐसा दुरसाहस न कर सकें ।

नारी-अबला नहीं, वीर, पुरंध्रि और शक्ति 

प्राचीनकाल में स्त्रियों को अबला नहीं, शक्ति स्वरूपा समझा जाता था । उन दिनों पुत्र को 'वीर' और नारी को 'वीरा' कहा जाता था तथा उनकी शिक्षा-दीक्षा का ऐसा प्रबंध किया जाता था कि वे अपना नाम सार्थक कर सकें। रानी लक्ष्मीबाई, अहिल्याबाई, दुर्गावती जैसी शूरवीर नारियाँ इसके प्रत्यक्ष प्रमाण है ।

संस्कृत भाषा स्त्रियों के लिए एक शब्द 'पुरंध्रि' भी आया है, जिसका अर्थ है पुर या नगर को धारण करने वाली, उसकी रक्षा करने वाली । प्राचीनकाल में राष्ट्र को बाहरी शत्रुओं से सुरक्षित रखने का दायित्व पुरुष सम्हालते थे तथा युद्ध के समय आतरिक शत्रुओं से स्त्रियाँ निबटती थीं, उन दिनों नगर की सुव्यवस्था, अपराधों की रोकथाम, घुसपैठियों की धरपकड़ का कार्य स्त्रियों के जिम्मे ही रहता था। इसीलिए उन्हें पुरंध्रि कहा जाता था । काली, भवानी, अंबिका आदि देवियाँ अपनी शूरवीरता के कारण ही पूज्य है । वीरता और शौर्य प्रदर्शन के प्रसंगों से भरे प्राचीन भारत के इतिहास में नारी को अबला कहना और उसकी सहज दुर्बलता का नाजायज फायदा उठाना, तथ्यों की उपेक्षा करना होगा।

प्राचीनकाल में स्त्रियाँ न केवल आत्मरक्षा में समर्थ थीं, वरन् राष्ट्र रक्षा में भी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर और कई बार तो उनसे एक कदम आगे बढ़कर भूमिका निबाहती थी एवं शौर्य प्रदर्शित करती थीं । अबला शब्द का सामान्य अर्थ शारीरिक दृष्टि से बलहीन ही समझा जाता है । यह स्थिति तो तब आई जब हर ओर से नारी को प्रतिबंधित तथा लांछित किया गया था। अन्यथा जिन दिनों समाज में उन्हें पुरुषों के समान ही स्थान दिया जाता था और वैसे ही अधिकार प्राप्त थे, तब प्रकृति द्वारा प्रदत्त कमनीयता, कोमलता के उपरांत भी स्त्रियाँ शौर्य और वीरता के
क्षेत्र में पुरुष से कदापित पीछे नहीं रहीं ।

विवरण मिलता है महादेव पुत्र गणेश ने स्त्रियों के सैन्यदल बनाए थे और उनके द्वारा राष्ट्र रक्षा का कार्य भी करवाया था। अनेक बार स्त्रियों ने स्वयं आगे बढ़कर अपने सैन्यदल गठित किए तथा राष्ट्र रक्षा में अग्रणी भूमिका निबाही। वैदिक साहित्य में राजकुमारी विशाला की कथा मिलती है। सम्राट् का नाम खेल बताया गया है, जब खेल साम्राज्य पर शत्रु राजा ने अपने पूरे दल-बल के साथ अक्रमण किया । आक्रांत राष्ट्र की सेनाओं ने वीरतापूर्वक एकाबला किया। लेकिन शत्रु सेनाएँ भारी पड़ीं और खेल की नेनाएँ पीछे हटने लगी, ऐसी स्थिति में सम्राट् का चिंतित होना स्वाभाविक ही था । खेल का सेनापति युद्ध में मारा जा चुका था और सेनाएँ नेतृत्वविहीन हो गई थीं । इस पर विशाला ने सैनिक नेतृत्व सम्हाला और बिखरी हुई सेनाओं को समेट कर ऐसी व्यूह रचना की कि आक्रमणकारियों को भागते ही बना ।

महिला-पंच रत्न

उन दिनों देश में स्त्रियों को घर के पिंजड़े में ही कैद रखने का प्रचलन था । बच्चा पैदा करने, आए दिन लात-घूँसे खाने और पति के साथ सती होने के लिए, विवश किए जाने के अतिरिक्त और कोई चारा न था। ऐसे विषम समय में भी दक्षिण भारत की पाँच प्रख्यात नारियों ने बंधनों से ऊपर उठकर पुरुषों की
ही भाँति नारी-संत की भूमिका निभाईं। इन तेजस्वी महिलाओं के नाम हैं-(१) औवेयार, (२) कौरक्काल, (३) तिलक वतियार, (४) मंगैयर्करशि, (५) अडांल । इन्हें महिला पंच रत्न कहा जाता था । इनकी यश गाथा में बहुत कुछ लिखा गया है ।

गौरवशालिनी वीर बालाएँ

मध्यकालीन सामंती युग में विधवाओं की संपत्ति हरण के लिए, उनके निर्वाह वहन से बचने के लिए, परिवार वाले उन्हें सती होने के लिए उकसाते थे । न होने पर उन्हें लांछित एवं त्रस्त करते थे ।

सामंतों के लड़ाई में खेत आने पर उनकी पत्नी का ही राज्य पर प्रभाव रहता था। इस कंटक को हटाने के लिए शत्रु, मित्र सभी अपना स्वार्थ इसी में समझते थे कि विधवा को सती होने के लिए फुसलाया जाय । देखादेखी कुछ भावुक स्वेच्छा से भी शोक-संताप के आवेश में वैसा कर बैठती थीं। इसके विपरीत बहुत सी साहसी महिलाएँ ऐसी भी होती थीं, जो इस प्रकार आत्महत्या करने की अपेक्षा शत्रुओं से लड़ने में अपना गौरव समझती थीं। इन गौरवशाली वीर बालिकाओं में महारानी लक्ष्मीबाई, कर्मादेवी, दुर्गावती, अच्छन कुमारी, वीरमती, जवाहरबाई, जयवती, कमलावती, कर्णवती, ताराबाई जासमा, रानी साहब कुमारी, रानी राजबाई आदि के नाम प्रसिद्ध हैं । यद्यपि उन दिनों स्त्रियों को रण-शिक्षा देने का कोई प्रबंध नहीं था । तो भी वे अपनी आतरिक प्रखरता के बलबूते शत्रुओं के दांत खट्टे-करने और रणचंडी जैसा पराक्रम दिखाने में समर्थ हुईं। संसार भर में इन वीर बालाओं का पराक्रम एक स्वर से सराहा गया ।

साहस की धनी-अहिल्या बाई

इंदौर के महाराज मलहार राव ने एक तेजस्वी कृषक कन्या को प्रवास काल में देखा। उन्हें वह प्रतिभावान् लगी और अपने बेटे खांडेराव से उसका विवाह कर दिया। उन दिनों सामंतों में आए दिन आपसी युद्ध ठने रहते थे । एक युद्ध में बेटा दूसरे में बाप को जान से हाथ धोना पड़ा । राजकाज सँभालने की जिम्मेदारी रानी अहिल्याबाई के कंधों पर आई । कई विश्वासघाती सरदार राज्य को हड़पने के षड्यंत्र करते रहे । कई पड़ोसियों ने चढ़ाई कर दी । सभी से अहिल्याबाई ने बड़ी कुशलता से लोहा लिया । उनने अपने साहस और संतुलन को विकट से विकट परिस्थिति में भी हाथ से न जाने दिया । अहिल्याबाई ने लंबे समय तक राज-काज चलाया । विदेशी तक दाँतों तले उँगली दबाये रहे कि अवसर मिलने पर नारी की प्रतिभा नर की तुलना में राई भर भी कम सिद्ध नहीं होती ।

दक्षिण भारत की लक्ष्मीबाई-चेनम्मा

अंग्रेज तब व्यापार की अपेक्षा शासन सत्ता जमाने में अधिक दिलचस्पी ले रहे थे। बड़ी रियासतों से लड़ना और जो छोटी हों, उन्हें धमकी देकर काबू में कर लेना उनकी नीति थी। पेशवाओं पर अंग्रेजों की चढ़ाई हुई उनने कर की रानी चेनम्मा से मदद माँगी। चेनम्मा दो दो प्रमुख सेना भेजीं । उन्हें अंग्रेजों ने फोड़ लिया । वह सेना अंग्रेजों के पक्ष में लडी। रानी को बहुत दुख हुआ । वह बची सेना लेकर स्वयं सेना का नेतृत्व करती हुई मोर्चे पर पहुँची । प्रजाजन उसकी सहायता के लिए उठकर खड़े हो गए । पर विश्वासघाती सारा भेद बताते रहे । फलत: इस बार भी कन्नूर को नीचा देखना पड़ा ।

रानी बड़ी जीवट वाली थी । उसने शासन और संग्राम के दोनों मोर्चे संभाले। पर शक्ति के सामने आदर्श न टिक सके । रानी को प्राणों से हाथ धोना पड़ा और वह छोटी रियासत अंग्रेजों के कब्जे में चली गई। इस हार से भी चेनम्मा की वीरता वैसी ही रही, जैसी झाँसी वाली रानी की ।

नारकीय वातावरण से पीछा छुडाया

जयपुर राज्य के अंतर्गत एक ठिकाना था खंडेला । ठिकानेदार की कन्या थी करवैति बाई । विवाहों के उपरांत ठिकानों में रानियों  की जो दुर्दशा होती थी, उसे वह देखती और सुनती रहती थी । उसका मन अपने विवाह की बात सुनते ही काँपता था। तो भी परिवार वालों ने उसका विवाह बलपूर्वक कर ही दिया। ससुराल पहुँची तो वहाँ माँस, व्यभिचार का नरक देखने को मिला । जिसे उसकी आत्मा ने स्वीकार ही न किया।

एक रात वह पूरी हिम्मत समेट कर उस बंदीगृह से भाग खड़ी हुई । ससुराल वालों ने घुड़सवार उसे पकड़ने दौड़ाए । आधे रास्ते में एक मरे ऊँट का कंकाल पड़ा था, वह उसमें छिप गई । सवार आगे बढ़ गए, तो वह वृंदावन की ओर बढ गई और रास्ते में अनेक कठिनाइयाँ उठाते हुए वहाँ पहुँची और संत वेष में रहने लगी। पता लगने पर पिता और ससुराल वालें आए तो उसनें स्पष्ट कह दिया कि आप लोग सिर उतार कर ले जा सकते हैं, पर आसुरी वातावरण में लौटकर जाना मुझे किसी प्रकार स्वीकार नहीं । वह अपने प्रण पर डटी रही । एक झोपड़ी बनाकर वहाँ आने वाली तीर्थयात्री महिलाओं को धर्मोपदेश देती रही । उनकी पूजा-उपासना भी निष्ठापूर्वक चलती थी।

पाप से घृणा करो, पापी से नहीं

शमीन यहूदी साहूकार था। साथ ही धर्मात्मा भी । ईसा को उसने अपने यहाँ भोजन पर बुलाया और वे भी गए भी। उसी गाँव में एक वेश्या भी रहती थी। नाम था मेरी। मेरी भी ईसा के चरणों में पहुँची और आतिथ्य स्वीकार करने का आग्रह करने लगी। ईसा ने उसे स्वीकार कर लिया और दूसरे दिन उसके यहाँ गए भी।

यह प्रसंग शिष्य मंडली में चर्चा का विषय बन गया। कानाफूसी होने लगी। वेश्या के यहाँ संत-भगवान् का जाना अनुचित है। बात ईसा के कान तक पहुँची, उनने शिष्यों को बुलाया और कहा-"जो प्रायक्षित करता है, सो पवित्र है । पापी तो वह है, जो दुष्टता पर अड़ा रहे । मन बदलने के बाद कोई वैसा नहीं रहता, जैसा पहले था ।" वेश्या ने व्यवहार बदला और सज्जनों की तरह रहने लगी । कुछ दिन बाद ईसा ने मंडली को बुलाया और मेरी का प्रसंग बताते हुए कहा-"यदि बुहारी गंदगी तक न पहुँचे, तो सफाई की संभावना कैसे बने?"

अबला के शुभचिंतक

पति को का सहारा चले जाने पर विधवा से सहानुभूति व्यक्त करने वाले कितने ही आए। सभी के मुख पर एक ही चर्चा थी- इस अबला का भविष्य क्या होगा? सुनते-सुनते जब उससे न रहा गया, तो एकदम उसने कह ही दिया । आप लोग चिंता न करें, मेरा परिश्रम मेरा ईमान और मेरा भगवान् इन तीनों संरक्षकों के रहते मुझे किसी प्रकार की कमी पड़ने वाली नहीं है । इसी जीवन दर्शन को अपनाकर उसने अपने आपको स्वावलंबी बनाया एवं पूरे परिवार का पोषण किया ।

पत्नी ने कर्तव्य ज्ञान कराया

अभी विवाह हुए कुछ अधिक दिन भी नहीं हुए थे कि चूड़ावत को औरंगजेब के आक्रमण का प्रत्युत्तर देने के लिए रणक्षेत्र में जाने का मौका आया । इधर चूड़ावत का मन अजीब द्विविधा में पड़ा था । एक ओर नव परिणीता पत्नी का आकर्षण दूसरी ओर कर्तव्य। पति को असमंजस: मे देख रानी की चिंता बड़ी । उसने कारण पूछा । रानी कुछ गंभीर हुई और सोचने लगी, यदि मेरा आकर्षण पति को कर्तव्य पथ से विचलित करता है, तो मेरा जीवन धिक्कार है । मुझे अपना बलिदान देकर पतिदेव की द्वंद्व स्थिति मिटानी चाहिए। दीवार पर टँगी तलवार लेकर उसने पूरे बल से वार किया और उसका सिर कटकर चूंड़ावत की गोद में जा गिरा। कर्तव्य पथ से विचलित न होने के लिए जिन वीरांगनाओं में इतना आत्मबल भरा पड़ा हो, वहाँ नर के लिए कायरता असंभव है । चूड़ावत ने तुरंत अपना घोडा युद्ध क्षेत्र की ओर मोड़ा, बिजली की तरह शत्रु सेना पर टूट पड़ा ।

संख्यार्द्धं दलितायां तु स्थितौ सम्प्रेष्य मानवान्।
सर्वानेव पराभूते: पतनस्य स्थितौ स्थितान्॥७१॥
कृत्वाऽनर्थ: कृतो यस्तु तमग्रे नाचरेदिह।
अर्धनारीश्वरा जातिर्मानवानां दलोपमा ॥७२॥
अधिकारा: समानास्ते दायित्वानि समानि च ।
उभयो: शकटस्येव चक्रयों: सहगामिता॥७३॥
अपेक्ष्मते न कश्चिच्च बोधतान्यं कदाचन ।
कृताभिस्त्रुटिभि: शिक्षामधिगत्य झटित्यलम्॥७४॥ 
अनाचारस्य नाशेन भवित्यमिहाधुना ।
प्रतिभापरिचयं दातुं लभेताऽवसरं च सा॥७५॥
सन्दर्भेऽस्मिन्नरस्याऽस्ति दायित्वमधिकं स्वयम्। 
हानिं प्राप नर: स्वाभ्यस्त्रु टिभ्यो विपुलामपि॥७६॥ 
परिष्कारे त्रुटीनां च कुर्यात्तत्परतां तत: ।
नर एव लभेताऽपि लाभं सोऽधिकमप्यत:॥७७॥

भावार्थ-आधी जनसंख्या को पददलित स्थिति में धकेल कर समूचे मानव समुदाय को पतन-पराभव की स्थिति में रखने का अनर्थ अब आगे और न किया जाय । नर और नारी दोनों ही बीज के दो दलों के समान मनुष्य जाति के अविच्छिन अंग हैं। दोनों के अधिकार और उत्तरदायित्व सनान हैं । दोनों के मध्य गाड़ी के पहियों का सा सहयोग होना चाहिए।  कोई किसी पर हावी होने का प्रयत्न न करें। पिछली भूलों से शिक्षा लेकर इस संदर्भ में चलते रहे अनाचार का अब अंत होना चाहिए। उसे अपनी प्रतिभा का परिचय देने के लिए कार्यक्षेत्र में उतरने का अवसर मिलना चाहिए। इस संदर्भ में नर का उत्तरदायित्व विशेष है। की हुई भूलों से हानि भी उसी को उठानी पड़ी है । सुधारने में पुरुष को ही अधिक तत्परता बरतनी चाहिए। लाभ भी अपेक्षाकृत उसी को अधिक मिलेगा॥७१-७७॥

व्याख्या-संसार के सभी क्षेत्रों में नारी पीड़ित और पददलित रही है । इसका प्रमुख कारण नारी संबंधी अतिवाद का एक सिरा यह है कि कामिनी, रमणी, वेश्या आदि बनाकर उसे आकर्षण का केन्द्र बनाया गया । अतिवाद का दूसरा सिरा है, उसे पर्दे-पूँघट की कठोर जंजीरों में जकड़कर अपंग सदृश बना दिया गया। उस पर इतने प्रतिबंध लगाए गए, जितने बंदी और पशु भी सहन नहीं कर सकते । जेल के कैदियों को थोड़ा धूमने-फिरने की, हँसने-बोलने की आजादी रहती है। पर घर की छोटी-सी कोठरी में कैद नववधू के लिए परिवार के छोटी आयु वालों के समाने ही बोलने की छूट है। बड़ी आयु वालों से तो उसे पर्दा ही करना होता है। न उनके सामने मुँह खोला जा सकता है और न उनसे बात की जा सकती है। पर्दा सो पर्दा, प्रथा सो प्रथा, प्रतिबंध सो प्रतिबंध इसमें न्याय, औचित्य और विवेक के लिए क्यों गुंजायश छोड़ी जाय? पशु को मुँह पर नकाब लगाकर नहीं रहना पड़ता। वे दूसरों के चेहरे देख सकते हैं और अपने दिखा सकते हैं । जब मर्जी हो, चाहे जिसके सामने अपनी टूटी-फूटी वाणी बोल सकते हैं । पर नारी को इतने अधिकार से भी वंचित कर दिया गया । इस अमानवीय प्रतिबंध की प्रतिक्रिया बुरी हुई । नारी शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत पिछड़ गई । भारत में नर की अपेक्षा नारी की मृत्यु दर बहुत अधिक है। मानसिक दृष्टि से वह आत्महीनता की ग्रंथियों में जकड़ी पड़ी है। सहमी, झिझकी, डरी, घबराई, दीन-हीन अपराधिन की तरह वह यहाँ-वहाँ लुकती-छिपती देखी जा सकती है। अन्याय-अत्याचार और अपमान पग- पग पर सहते-सहते क्रमश: अपनी सभी मौलिक विशेषताएँ खोती चली गई । आज औसत नारी उस नीबू की तरह है, जिसका रस निचोड़ कर उसे कूड़े में फेंक दिया जाता है ।

पुरुष-स्त्री वस्तुत: समान हैं, एक ही रथ के दो पहिए हैं । न कोई बड़ा है, न छोटा । जब तक यह मान्यता गृहस्थाश्रम एवं समाज व्यवरथा में विकसित-परिपक्व नहीं होगी, नारी पददलित ही बनीं रहेगी ।

सर्वसाधारण को इस तथ्य रो परिचित कराया जाना ही चाहिए कि नर-नारी का सघन सहयोग यदि पवित्र पृष्ठभूमि पर विकसित किया जाय, तो उससे किसी को कुछ भी हानि नहीं है, वरन सबका सब प्रकार लाभ ही होगा। नारी कोई बिजली या आग नहीं है, जिसे छूते ही या देखते ही कोई अनर्थ हो जाय।

उसे अलग-अलग रखने की कुछ भी आवश्यकता नहीं है।

इसी प्रकार तथाकथित संत-महात्माओं को कहा जाना चाहिए कि वे अपने मन की संकीर्णता, क्षुद्रता और कलुषता से डरें। उसे ही भववंधन मानें। नरक की खान वही है। नारी को उस लांछना से लांछित कर उस मानव जाति की भर्त्सना न करें, जिरके पेट से वे स्वयं पैदा हुए हैं और जिसका दूध पीकर इतने बड़े हुए हैं । अच्छा हो हमारी जीभ पुत्री को न कोसे, भगिनी को लांछित न करे, नारी नरक की खान हो सकती है, यह कुकल्पना अध्यात्म के किसी आदर्श या सिद्धांत से तालमेल नहीं खाती । यदि बात वैसी ही होती, तो उापने इष्टदेव राम, कृष्ण, शिव आदि नारी को पास न आने देते। ऋषि आश्रमों में ऋषिकाए न रहती। सरस्वती, काली, लक्ष्मी आदि देवियों का मुख देखने से पाप लग गया होता । निरर्थक की डींगें न हांके, तो ही अच्छा है । अंतरात्मा, प्रज्ञा, भक्ति, साधना, मुक्ति रिद्धि यह सभी स्त्रीलिंग हैं । यदि-नारी नरक की खान है, तो इन स्त्रीलिंग शब्दों के साथ जुड़ी हुई विभूतियों को भी बहिष्कृत किया जाना चाहिए। अच्छा हो अध्यात्मवाद के नाम पर भोंडा श्रम जंजाल अपने और दूसरों को दिग्भ्रांत करने की अपेशा उसे समेटकर अजायबघर की कोठरी में बंद कर दिया जाय।

न्याय, औचित्य और स्वतंत्रता का समर्थन करने वाले, मानवी आदर्श को मान्यता देने वाले, उदात्त मनस्वी लोगों को इस बात का प्रयत्न करना चाहिए कि नारी घर के उत्तरदायित्व तो संभाले, पर उतने ही क्षेत्र में कैद न रहे। उसके ऊपर लगा पर्दा प्रतिबंध शिथिल होना चाहिए और उसे विश्वसनीय माना जाना चाहिए। शिथिल होने, अनुभव बढ़ाने, समाज का स्वरूप समझने, लोकमंगल के प्रयोजनों में भाग लेने का पूर्ण अवसर नारी को दिया जाना चाहिए। इससे मानव जाति की आधी शक्ति, मूर्च्छित आत्मा को जगाने का पथ प्रशस्त होगा और समूची मानव जाति को इस प्रगतिशील कदम का लाभ मिलेगा ।

नारी के समग्र विकास में ही सबका हित सन्निहित

नारियों की धार्मिक, सामाजिक तथा राष्ट्रीय सेवाओं के लिए इतिहास साक्षी है, जिससे पता चल सकता है कि नारी पुरुष से किसी क्षेत्र में भी पीछे नहीं रही है। अनुसूया गार्गी, मैत्रेयी, शतरूपा, अहिल्या, मदालसा आदि धार्मिक सीता, द्रौपदी, दमयंती, पौराणिक तथा पद्मावती, वीरबाला लक्ष्मीबाई व निवेदिता, कस्तुरबा प्रभूति नारियाँ राष्ट्रीय व सामाजिक क्षेत्र की प्रकाशवती तारिकाएं है। वेद तथा इतिहास के ग्रंथों का अनुशीलन करने से पता चलता है कि प्रारंभिक समय में जब साधनों की कमी होने से पुरुषों को प्राय: जंगलों से आहार सामग्री प्राप्त करने तथा आत्मरक्षा के कामों में अधिक ध्यान देना पड़ता था, तब व्यवस्था, ज्ञान-विज्ञान तथा सभ्यता-संस्कृति संबंधी विषयों में अधिकांश
काम नारियों ही किया करती थीं।

नारी अपने विभिन्न रूपों में सदैव मानव जाति के लिए त्याग, बलिदान, स्नेह, श्रद्धा, धैर्य, सहिष्णुता का जीवन बिताती रही है। नारी धरा पर स्वर्गीय ज्योति की साकार प्रतिमा मानी गई है। उसकी वाणी जीवन के लिए अमृत स्त्रोत है । उसके नेत्रों में करुणा, सरलता और आनंद के दर्शन होते हैं । उसके हाथ में संसार की समस्त निराशा और कटुता मिटाने की क्षमता है। नारी संतप्त हृदय के लिए शीतल छाया और स्नेह-सौजन्य की साकार प्रतिमा है । नारी पुरुष की पूरक सत्ता है । वह मनुष्य की सबसे बडी शक्ति है, उसके बिना पुरुष का जीवन अपूर्ण है। नारी ही उसे पूर्ण बनाती है । जब पुरुष का जीवन अंधकारयुक्त हो जाता है, तो नारी की संवेदनशील मुस्कान उसमें उजाला बिखेर देती है । पुरुष के कर्तव्य शुष्क जीवन की वह सरसता तथा उजड़ी जिंदगी की हरियाली मानी गई है । नारी के वास्तविक स्वरूप पर विचार करने से विदित होता है कि वह पुरुष के लिए पूरक सत्ता ही नहीं, वरन् उर्वरक भूमि के रूप में भी उसकी उन्नति, प्रगति तथा करुणा का साधन बनती है। स्वयं प्रकृति ही नारी के रूप में सृष्टि के निर्माण, पालन-पोषण और संवर्द्धन का कार्य कर रही है । इसीलिए नारी की गरिमा गिराने का अर्थ है-अपनी उद्गम शक्ति की गरिमा को गिराना।

महाभारत में कहा गया है कि "नारी पुरुष की अर्धांगिनी है, उसकी सबसे बड़ी मित्र है । धर्म, अर्थ, काम का मूल है, जो इसका अपमान करता है, काल उसे नष्ट कर देता है। जीवनसंगिनी के रूप में नारी ही पुरुष को ऊँचा उठाती है ।"

नारी के किसी भी रूप की गरिमा घटाने, उसे पददलित स्थिति में रखने पर पुरुष को घाटा ही घाटा उठाना पड़ता है। नारी के विकास में ही उसका अपना हित सन्निहित है।

अत: समय का तकाजा है किं नारी को विश्वस्त मित्र और सम्मानास्पद स्वजन का स्थान मिलना चाहिए । उसे प्रताडित, पददलित रखने में नही, सघन-सहयोगी बनाने में लाभ समझा जाना चाहिए। उदारता के बीज बोकर नारी की सत्ता द्वारा धरती माता के प्रतिदानों की अपेक्षा, कम नहीं कुछ अधिक ही पाने की आशा की जानी चाहिए। यही नीति श्रेयस्कर है । लाखों वर्षों तक इसी नीति पर चलकर भारत ने बहुत कुछ पाया था। जहाँ नर-नारी में सहयोग विकसित होता है, वहाँ उसके उज्ज्वल परिणाम दृष्टिगोचर होते है। महापुरुषों के जीवन इसके साक्षी है।

आदर्श पति-पत्नी

महापंडित विद्याधर जी जिन दिनों अपने तर्क शास्त्र को लिखने लगे थे, उन दिनों घर का राशन समाप्त हो गया । उनकी पत्नी, कुटिया के सामने खड़े इमली के पत्तों को कूटकर शाक देतीं । पंडित जी उसके स्वाद की बहुत प्रशंसा करते और उसी से संतुष्ट रहकर अपना काम चलाते ।

श्रद्धानंद महिलाश्रम

भारत में सवर्ण परित्यकाओं तथा विधवाओं की समस्या बडी ही विकट है। पुनर्विवाह का प्रचलन हो नहीं पाया है। कई बच्चों की माताएँ होने की दशा में उनकी और भी दुर्दशा होती है। आत्महत्याएँ, हत्याएँ और बच्चों की दुर्गति ऐसी ही दशा में होती है।

स्वर्गीय स्वामी श्रद्धानंद ने माता बंबई में एक ऐसे ही आश्रम की स्थापना की है, जिसमें बच्चों समेत माताओं और परित्यक्ताओं के शिक्षण एवं निर्वाह की व्यवस्था है। इस समय आश्रम में ३५० के करीब बच्चे और महिलाएँ हैं । विगत ४५ वर्षों में ५००० के लगभग महिलाओं और बच्चों को स्वावलंबी बनाया जा चुका है । बच्चे गोद भी दिए जाते है तथा महिलाओं के विवाह भी करा दिए जाते हैं। ६०० के करीब ऐसे विवाह भी कराए जा चुके हैं । श्री जमशेद जी टाटा के एक अत्यंत ही प्रामाणिक व्यक्ति इसका संचालन करते हैं। म्यूनिसिपल सहायता तथा दानियों के सहयोग से खर्च चलता है । आजकल भारत में ऐसें अनेक आश्रमों की स्थापना आवश्यक है ।

युद्ध विद्या प्रवीण कैकेयी

स्वर्गलोक में जब देवताओं पर दैत्यों, का दबाव पड़ा, तो उन्होंने राजा दशरथ की सहायता माँगी । राजा दशरथ अपनी पत्नी कैंकेयी समेत लड़ने लगे। उनकी पत्नी भी युद्ध कला में उन्हीं के समान प्रवीण थीं । रथ की धुरी रास्ते में टूट गई । पहिया बाहर निकलने से वह गिर सकता था । कैकेयी ने अपनी एक उंगली धुरी के छेद में लगा दी और रथ यथावत् चलता रहा । राजा उसके शौर्य-पराक्रम पर बहुत प्रसन्न हुए और आवश्यकतानुसार वर माँग लेंने का आश्वासन दिया ।

हरिश्चंद व शैव्या

हरिश्चंद पुत्र रोहिताश्व को सर्प ने काट खाया। मृत शरीर को रानी शैव्या श्मशान घाट ले गईं। पति से बिना कर चुकाए ही अंत्येष्टि कर लेने की प्रार्थना की। हरिश्चंद्र मरघट में नौकरी करते थे । वे तनी की बात पर सहमत न हुए और साड़ी फाड़कर टैक्स देने की सलाह देने लगे । राजा की सत्यवादिता पर चकित होकर ऋषि विश्वामित्र ने बालक रोहिताश्व के सूक्ष्म शरीर की तलाश करके उसके स्थूल शरीर में प्रवेश करा दिया। इस प्रकार वह जीवित हो गया ।

छत्रसाल का नारी सम्मान

अर्जुन-उर्वशी की तरह बुंदेलखंड में छत्रसाल का भी इतिहास है । एक रुपसी ने राजा से उन्हीं  जैसा पुत्र पाने के लिए प्रणय निवेदन किया । छत्रसाल ने उसके चरन छुए और कहा-"मैं आज से ही आपका पुत्र हूँ।" अर्जुन के उत्तर को उनने भी यथावत् दुहरा दिया।

नारी के प्रति उनके सम्मान रूपी चरित्र निष्ठा के कारण ही वे श्रेय के भागी बने एवं इतिहास में एक महामानव के रूप में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित करा सके ।

देव संस्कृति की पुण्य

वेद मंत्रों की द्रष्टा ऋषिकाओं में ब्रह्मवादिनी ममता-उशिज-शश्वती आदि का उल्लेख मिलता है । उनकी गणना और प्रतिष्ठा पुरुष ऋषियों के समतुल्य ही थी। उनने महत्वपूर्ण स्पय परंपरा कार्यों में संलग्न व्यक्तियों के लिए विवाह को एक बाधा माना और आजीवन ब्रह्मचारिणी रहकर तत्वज्ञान का अवगाहन करती रहीं ।

यदि वैदिक साहित्य तथा प्राचीन वाड्मय का अध्ययन-अवलोकन किया जाय, तो मध्ययुगीन प्रतिपादनों के विपरीत ही व्यवस्था दृष्टिगत होगी । वहाँ पग-पग पर ज्ञानदीप्ति, तेजस्विनी, सहकर्मिणी नारी के प्रमाण प्राप्त होंगे, जो सामाजिक जीवन में उसकी श्रेष्ठ स्थिति तथा बौद्धिक दृष्टि से उसकी उच्चतम प्रगति के द्योत्तक हैं ।

कात्यायनी, मैत्रेयी, गार्गी, मदालसा, वाचक्नवी जैसी ब्रह्मवादिनी नारियों के होने के प्रमाण से यह तो स्पष्ट होता ही है कि सर्वश्रेष्ठ विद्या के क्षेत्र में भी तत्कालीन नारियाँ अग्रणी थीं और उन्हें नारियों के बीच अपवाद नहीं, आदर्श माना जाता था । शास्त्रकारों का आदेश होता था-

कात्यायनी च मैत्रेयी, गार्गी, वांचकवी तथा। एवमाद्य विदुर्ब्रह्म, तस्मात् स्त्री ब्रह्मविद भवेत्।

अर्थात् जैसे कात्यायनी, मैत्रेयी, गार्गी, वाचक्नवी आदि ब्रह्मवादिनी थीं, उसी प्रकार प्रत्येक स्त्री को ब्रह्मविद् होना चाहिए ।

ब्रह्मवादिनी सुलभा

ब्रह्मवादिनी सुलभा अपने परिभ्रमण काल में एक बार राजा जनक से मिलने पहुँची। उनने सुन रखा था कि जनक को अपने ज्ञान का अहंकार हो गया है और वे अपना परिचय देते हुए, समय-समय पर आत्मश्लाघा व्यक्त करते है । विनम्रता क ध्यान नहीं रखते। सुलभा से परिचय पुछे जाने पर वे मौन रहीं और राजा से ही अपनी परिचय देने को कहा। जब कथन पूरा हो गया, तो सुलभा ने अपना सामान्य परिचय देते हुए कहा-"लक्ष्य की एकता और गुण संपदा से परिपूर्ण अपने योग्य वर न मिलने पर उन्होंने सदा ब्रह्मचारिणी
रहने का व्रत लिया है और सदा धर्मोपदेश के लिए परिभ्रमण करती रहती हैं । किसी का साहस नहीं पड़ा कि उन्हें अकेली देखकर दुर्बुद्धि का परिचय दे ।

महाभारत शांतिपर्व में जनक-सुलभा संवाद बहुत विस्तार से दिया गया है। सुलभा ने वाणी के आठ गुणों और आठ दोषों का वर्णन करतें हुए, परोक्ष रूप से जनक की अहमन्यता को निरस्त करने का प्रयत्न किया। जनक संकेत समझ गए और भविष्य में उन्होंने विनयशीलता का संभाषण में अधिकाधिक समावेश किया।

विदुषी विश्ववारा

महर्षि अत्रि के वंश में उत्पन्न विदुषी विश्ववारा ने योगाभ्यास और विशाल अध्ययन के बल पर
ब्रह्मवादिनी पद पाया । उनने ऋग्वेद के कितने ही अनुच्छेदों की गहन विवेचना की है और उन लोगों का मुँह बंद किया है जो स्त्रियों को वेद की अनधिकारिणी मानते हैं। उनने परिवार के विवाह परामर्श को भी स्पष्ट रूप से ठुकरा दिया था।

इसी प्रकार ब्रह्मवादिनी अपाला ने भी ऋग्वेद के कई अध्यायों का रहस्योद्घाटन किया है।

ब्रह्मचारिणी-वाक् एवं सूर्या

ब्रह्मचारिणी वाक्, अम्भृण ऋषि की कन्या थीं। उनने विवाह को न अनिवार्य माना न आवश्यक । वे नर और नारी में कोई अंतर नहीं मानती थीं । उनने अपना जीवन अध्ययन अध्यापन में लगाया । ऋवेद के कितने ही अध्यायों की संरचना की । ब्रह्मवादिनी सूर्या के भगवान् सूर्य को अपना पति मानकर, विवश करने वालों से पीछा छुड़ाया था और अपने बहुमूल्य जीवन को दासी की तरह न बिता कर, दूरदर्शियों की तरह उच्चस्तरीय प्रयोजनों में लगाया था ।

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