प्रज्ञा पुराण भाग-3

॥ अथ प्रथमोऽध्याय:॥ परिवार-व्यवस्था प्रकरणम्-4

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कटुता वर्द्धतेऽनेन द्वेषी मालिन्यमेव च ।
मानसं समुदेत्यत्र नैव भद्रा अशिष्टताम्॥५५॥ 
व्यवहारे प्रगृह्णन्तु बुद्धिरत्र विधीयताम् ।
यत्न: हस्तावलम्बेन सहयोगे विधीयताम्॥५६॥
औदासीन्येन वोपेक्षाभावेनाऽपि शनै: शनै:।
घनत्वं हीयते प्रेम्ण: सहकारेण वर्द्धते ॥५७॥ 
आत्मन्येव मनो येषां स्वाार्थबुद्धया प्रवर्तते ।
सधीचामवहेलां च ये कूर्वन्ति नरास्तु ते॥५८॥ 
तिरस्कारं लभन्ते च हानिं विन्दज्यपि भृशम्।
लाभो मानवदेहस्य प्राप्यतेऽनेन नो क्वचित् ॥५९॥

भावार्थ- इससे कटुता बढ़ती है द्वेष और मनोमालिन्य पनपता है । अत: हे भद्रपुरुषो! अशिष्टता को परिवार व्यवहार में कहीं कोई स्थान न मिले इसका समुचित ध्यान रखा, जाय । हर सदस्य एक दूसरे का हाथ बँटाने-सहयोग देने का प्रयास करे। उपेक्षा और उदासी बरतने से घनिष्ठता घट जाती है । प्रेम और सहकार से सद्भाव बढ़ता है । मात्र अपना ही ध्यान रखने वाले और साधियों की अवहेलना करने वाले स्वार्थीजन बदले में तिरस्कार पाते और घाटे में रहते है। उन्हें मानव शरीर के कोई लाभ हस्तगत नहीं होते ॥५५-५९॥

व्याख्या-परिवार भाव का विकास करने के इच्छुक साधको को ऋषि सूत्र बतलाते हैं कि-

(१) सहकार से सद्भाव बढ़ता है।
(२) उपेक्षा, उदासी से घनिष्ठता घटती है।

उपेक्षा, उदासी, स्वार्थ-संकीर्णतावश ही होती है । उदार परमार्थी इस भाव के शिकार नहीं हो पाते । संकीर्ण स्वार्थपरता तिरस्कार का, घाटे का कारण बनती हैं।

इसीलिए ऋषि चाहते हैं कि मतभेद होने पर भीं अथवा परिहास में भी अशिष्टता को परिवार में स्थान न मिले । वैचारिक मतभेदों को सहज शिष्टाचारपूर्वक, बिना किसी को अपमानित किए सुलझाया जा सकता है । किन्तु जब पारस्परिक वाद-विवाद तक नौबत आ जाती है तो मनोमालिन्य गहरी जड़ें जमा लेता है ।

यदि हल्का-फुल्का जीवन जीने का, एक-दूसरे को सहयोग देने का मार्ग अपनाया जाय तो प्रतिक्रिया स्वरूप जन सहयोग एवं लोक सम्मान स्वत: मिलने लगेगा । सद्भाव पाने का एक ही मार्ग है,शिष्टाचार की पृष्ठभूमि पर टिका पारस्परिक सहकार ।

शील टूटा महाभारत ठना

महाभारत एक दूसरे को सम्मान न दे पाने की ही भीषण प्रतिक्रिया के रूप में उभरा था । बचपन में दुर्योधन राजमद में पांडवों को सम्मान न दे सका । भीम सहज प्रतिक्रिया के रूप में अपने बल का उपयोग करके उन्हें अपमानित-तिरस्कृत करने लगे ।

द्रौपदी सहज परिहास में भूल गयीं कि दुर्योधन को 'अंधों के अंधे' संबोधन से अपमान का अनुभव हो सकता है । दुर्योधन द्वेषवश नारी के शील का ही महत्व भूल गया तथा द्रौपदी को भरी सभा में अपमानित करने पर उतारू हो गया ।

यही सब कारण जुड़ते गए तथा छोटी-छोटी शिष्टाचार की त्रुटियों की चिनगारियाँ भीषण ज्वाला बन गयीं।
यदि परस्पर सम्मान का ध्यान रखा जा सका होता, अशिष्टता पर अंकुश रखा जा सका होता, तो स्नेह बनाए रखने में कोई कठिनाई न होती । भीष्म पितामह और वासुदेव जैसे युग पुरुषों के प्रभाव का लाभ मिल जाता ।

शल्य कौरव पक्ष में गए

महाभारत के नियंत्रण पर दूर-दूर से राजा, महाराजा, योद्धा अपने-अपने स्नेहियों के पक्ष में लड़ने के लिए चल पड़े । शल्य पांडवों के मामा थे । पांडवों ने सोचा वह तो हमारे पक्ष में आयेंगे ही, उनकी अगवानी के लिए विशेष व्यवस्था करने की क्या आवश्यकता?

इस सहज उपेक्षा का दंड उनको मिला । दुर्योधन ने शल्य के मार्ग में जगह-जगह सुविधाएँ जुटा दीं । शल्य उन्हें पांडवों द्वारा प्रदत्त मानकर उपयोग करते रहे । बाद में जब यथार्थता का पता चला, तो जिसके साधनों का शल्य उपयोग करते आ रहे थे, उसके ही पक्ष में खड़ा होना पड़ा । यदि पांडव उपेक्षा न बरतते, तो यह हानि न उठानी पड़ती ।

आवेश नियंत्रित न रहा 

कभी-कभी आवेश में उठाया गया कदम ऐसा हानिकारक सिद्ध होता है, जिसकी पूर्ति नहीं हो पाती । अब से कोई दो हजार पूर्व सिसली में जन्मा आर्किमिडीज अपने समय का अद्वितीय विद्वान् और वैज्ञानिक था । उसके प्रतिपादनों और आविष्कारों से उस समय का विज्ञ समुदाय चमत्कृत था ।

एक दिन सिसली के सेनापति को उससे मिलने की इच्छा हुई । सो एक सिपाही भेजकर उन्हें बुलवाया । उस समय आर्किमिडीज रेखागणित का हल निकालने में व्यस्त थे, सो चलने में आना-कानी करने लगे ।

इस पर संदेशवाहक सिपाही आग-बबूला हो गया और तलवार निकालकर उसका सिर काट दिया । फलत: एक ऐसी ज्योति बुझ गयी, जो कि कभी-कभी ही संसार में उदय होती और चमकती है ।

पुन: सद्भाव बढ़ गया

संत पुंडरीक को पता लगा कि किसी कारण पाटलिपुत्र के दो श्रेष्ठियों में कुछ आपसी मनोमालिन्य पैदा हो गया है । दोनों उनके शिष्य थे । लोगों ने कहा-उन्हें समझाकर पुन: एकता स्थापित करा बढ़ गया दें । संत बोले, समझाने से काम न चलेगा, उनमें सद्भाव पैदा करना पड़ेगा।

संत ने किसी से कुछ न कहा । दोनों आते, उनके पास बैठे रहते । कभी-कभी संत दोनों को एक साथ काम बतला देते । दोनों करते । आश्रम की स्वच्छता में, आगंतुकों को भोजन कराने में, पूजन की व्यवस्था करने में वे ऐसी स्थिति पैदा करते कि दोनों श्रेष्ठियों को सहयोगपूर्वक काम करना पड़ता । गुरु के प्रति श्रद्धाभाव के कारण दोनों पूरेमनो योग से कार्य करते । सहयोग लेते-देते, एक दूसरे के कार्य के प्रति सम्मान का भाव पैदा हुआ, सद्भाव बढ़ा और बिना किसी के कुछ कहे उनका मनोमालिन् दूर हो गया । संत बोले-"सहकार से सद्भाव बढ़ाने को सूत्र यहाँ भी फल गया ।"

उद्दंडता बनाम सौजन्य

समर्थ रामदास के साथ एक उद्दंड व्यक्ति चल पडा और रास्ते भर खरी-खोटी रहा। समर्थ उन अपशब्दों को चुपचाप सुनते रहे।

जब सुनसान समाप्त हुआ और बड़ा गाँव नजदीक आया तो समर्थ खड़े हो गए और उस उद्दंड व्यक्ति से कहने लगे । अभी और जो भला-बुरा कहना हो, उसे कहकर समाप्त कर लो । अन्यथा अगले गाँव के लोग मेरे परिचित हैं, सुनेंगे तो तुम्हारे साथ दुर्व्यवहार करेंगे । तब जो सुना गया है, उससे कहीं अधिक कष्ट मुझे होगा ।

वह व्यक्ति पैरों में गिरकर समर्थ से क्षमा माँगने लगा । समर्थ ने उसे अपना आचरण सुधारने एवं परिवार में भी उन्हीं प्रवृत्तियों को फैलाने का आर्शीवाद दिया । ताकि उसकी उद्दंडता के परिणामस्वरूप परिवार में दुष्प्रवृत्तियाँ न पनपे । संत के इस व्यवहार ने उसके जीवन को तो बदला ही, उसे बदले में जहाँ तिरस्कार, गालियाँ मिला करती थीं, सम्मान मिलने लगा ।

शालीनता बस्ती परिवर्तन

दार्शनिक हिक्री उन दिनों तंवा में रहते थे। कई लोग उनसे उलझी गुत्थियाँ सुलझाने संबंधी परामर्श करने आते ।

एक दिन एक व्यक्ति अपनी पत्नी समेत उनके पास पहुँचा और उसकी आलस्य तथा कंजूसी की बुराई करने लगा । सचमुच यह दोनों बुराइयों उसमें थीं भी।

हिक्री ने उस औरत को स्नेहपूर्वक पास बुलाया । एक हाथ की मुट्ठी बाँधकर उसके सामने की और पूछा, यदि यह ऐसे ही सदा रहे, तो क्या परिणाम होगा, बताओ तो लड़की ।

औरत सिटपिटाई तो, पर हिम्मत समेट कर बोली-"यदि सदा यह मुट्ठी ऐसी ही बँधी रही, हाथ अकड़ कर निकम्मा हो जायेगा ।"

हिक्री इस उत्तर को सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और दूसरे हाथ की हथेली बिछल खुली रखकर फिर पूछा-"यदि यह हाथ ऐसे ही खुला रहे, तो फिर इस हाथ का क्या हस्र होगा, जरा बताओ तो ।"औरत ने कहा-
"ऐसी हालत में यह भी अकड़ कर बेकार ही जायेगा ।"

हिक्री ने उस औरत की भरपूर प्रशंसा की और कहा-"यह तो बुद्धिमान भी है और दूरदर्शी भी । मुट्ठी बँधी रहने और हाथ सीधा रहने के नुकसान को यह अच्छी तरह जानती है । बेटी, इस विवेक का उपयोग अपने जीवन में भी करना, इससे तुम्हारे जीवन में सुख-सौभाग्य बढ़ेगा ।"

पति-पत्नी प्रणाम करके चल दिए । युवती ने संत की बात पर गौर किया । समझ में आया कि मैं एक ही स्थिति में रही और आलस्य बरतती रही, तो हाथ की तरह अकड़ जाऊँगी । उसने सक्रियता अपनायी। पति का साथ देकर आय बढ़ाई, बचत की, और सदुद्देश्यों के निमित्त उदारतापूर्वक खर्च किया ।

सूर्य अशिष्टता से प्रभावित

सूर्य परिभ्रमण में निरत था । उसने प्रवास काल में कइयों से कई प्रकार की निंदाएँ सुनीं । एक बोला-"अभागे को कभी छुट्टी नहीं मिलती ।" दूसरे ने कहा-"बेचारा,रोज जन्मता और रोज मरता है ।" तीसरे ने कहा-"निर्जीव होते हुए भी आग उगलता है।"  चीथे ने कहा-"किसी बड़े अपराध का दंड भुगत रहा है ।"

सूर्य को इस कृतघ्नता पर क्रोध आया और दूसरे दिन उगने से इन्कार कर दिया ।

सविता की पत्नी ने रूठने का कारण जाना, तो हँस पड़ी, बोली-"ढेले की चोट से घड़े फूटते हैं, किन्तु समुद्र में गिरकर गर्त में विलीन हो जाते हैं । आप घड़े नहीं, समुद्र हैं, फिर ढेले की आदत और परिणति क्यों नहीं समझते?"

अपनी भूल स्वीकार करते हुए सूर्यनारायण ने यथाक्रम अपना रथ आगे बढ़ा दिया । सत्पुरुष न अशिष्टता बरतते हैं और न अशिष्टों के व्यवहार को महत्व देते है ।
तभी लक्ष्य पर बढ़ पाते हैं ।

सम्मान के सच्चे अधिकारी

हजरत उमर ने एक युद्ध जीता । वहाँ की व्यवस्था सही करने के लिए उनका पहुँचना आवश्यक था। सो वे कुछ साथियों सहित उस यात्रा पर निकल पड़े । तीन आदमीयों के पीछे एक ऊँट भी साथ था । दो पीठ पर सवार होते, तीसरा नकेल पकड़ कर आगे चलता ।

सिलसिला बराबर चलता रहा और वह नगर आ गया, जहाँ उन्हें पहुँचना था। प्रजाजन स्वागत की तैयारी किए बैठे थे । एक सवार ने खुद उतर पड़ने और हजरत को सवार होने के लिए कहा । 

जवाब था-" हम सबकी हैसियत एक है । नियत अनुशासन के निबाहने में ही हमारी शान है।" हजरत ऊँट की नकेल पकड़े हुए ही शहर में घुसे । उनके इस शिष्ट व्यवहार पर सभी प्रजाजन पुलकित हो उठे। उन्हें मिलने वाले अपरिमित सम्मान का यही कारण था । दूसरों के प्रति सद्भाव-सम्मान की प्रतिक्रिया अनेक गुनी फलित होकर मिलती है ।

सीमित: परिवार: स्यात् संख्या स्वल्पैव सन्तते: ।
सुखदा हानयोऽसंख्या बहुप्रजननोद्भवा:॥६०॥
जनन्या हीयते तत्रारोग्यमायुष्यमेव च ।
परिवारसदस्यानां क्षीयन्ते सुविधास्तथा॥६१॥ 
प्रत्येकेन सदस्येन हानिरेव च लभ्यते ।
अभिवृद्धयाऽनया दूनं नवया चिन्त्यतामिदम् ॥६२॥
सञ्चालक: कुटुम्बस्य तैलयन्त्रवृषो यथा ।
तथा भ्रमति चार्थस्य भारवाहितया तत:॥६३॥ 
उद्विग्नश्च भवत्येष विवेकं परिहाय च ।
नीत्यनीती परित्यज्य यततेऽधिकमर्जितु॥६४॥ 

भावार्थ-परिवार छोटा है । बच्चों की संख्या अधिक न । बहुप्रजनन की असंख्यों हानियाँ हैं। जननी का आयुष्य और आरोग्य घटता है । पीरवारगत सुविधाओं में नए सदस्य बढ़ने से कटौती होती है । हर सदस्य को इस नयी अभिवृद्धि से घाटा उठाना पड़ता है यह बात बहुत चिंताजनक है । परिवार संचालक को अर्थ भार वहन करने के लिए कोक् के बैल की तरह जुतना पड़ता है, उद्विग्न होना पड़ता है । उसे विवेक खोकर नीति-अनीति का ध्यान रहे बिना अधिक कमाने का प्रयास करना पड़ता है॥६०-६४॥

व्याख्या-किसी भी प्रकार के उत्तरदायित्व को भली प्रकार निभाने के दो सूत्र हैं- (१) उत्तरदायितव निभाने की अपनी क्षमता-योग्यता का विकास, (२) उत्तरदायित्वों को अनावश्यक रूप से बढ़ने न देना ।

परिवार के सदंर्भ में भी ऋषि इन दोनों सूत्रों पर ध्यान दिलाते हैं । पिछले श्लोकों में वे सूत्र बतलाये गए, जिनसे पारिवारिक आत्मीयता, सद्भाव का विकास हो । यह भाव जितने विकसित, पुष्ट होंगे परिवार
उतने ही श्रेष्ठ बनेंगे ।

दूसरा सूत्र हैं-उत्तरदायित्व बढ़ने न देने का। इसमें दो बातें ध्यान देने योग्य हैं । पहली बात है-बच्चों की संख्या न बढ़ने देना । दूसरी है-व्यय न बढ़ने देना । यहाँ बच्चों की संख्या बढ़ने से होने वाली हानियों पर ध्यान दिलाया गया है । (१) जननी का स्वास्थ्य, (२) सदस्यों की सुविधाओं में कटौती, (३) संचालक पर दबाव और अनीति करने की मजबूरी ।

रघुवंश की परम्परा

भारतीय संस्कृति में श्रेष्ठ व्यक्तियों ने सीमित संतान का ही क्रम बनाकर रखा है। रघुवंश में एक से एक तेजस्वी राजा हुए, पर उन्होंने संतान की सीमा बराबर बनाए रखी।

राजा दिलीप के रघु, रघु के अज, अज के दशरथ कहीं भी अधिक का क्रम नहीं रहा। दशरथ जी से भी कौशल्या और कैकेयी के एक-एक तथा सुमित्रा के दो पुत्र उत्पन्न हुए। श्रीराम के भी दो पुत्र थे । मानस में आया है-

दुइ सुत सुंदर सीता जाये। लवकुश वेद पुरानन्ह गाये॥
राम ही नहीं सभी भाइयों ने भी यह मर्यादा बनाकर रखी-
दुइ दुइ सुत सब भ्रातन्ह केरे । भए रूप गुण शील घनेरे॥

माँ के स्वास्थ्य पर कुठाराघात

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं के स्वास्थ्य पर अनेक सर्वेक्षण किए गए हैं । उनमें यह बात स्पष्टत: स्वीकार की गई है कि बच्चे अधिक पैदा करने से माँ के स्वास्थ्य पर सबसे अधिक दबाव पड़ता है । जिन महिलाओं के स्वास्थ्य ठीक नहीं होते, उन्हें चिकित्सक बच्चे पैदा करने से रोक देते हैं।

रामचरित मानस में भी बच्चों को-'जननी यौवनरूप कुठारू ।'

अर्थात माँ के यौवन रूपी वृक्ष पर बच्चों का पैदा होना कुल्हाड़े के समान आघात करने वाला कहा गया है । समाज को, राष्ट्र को श्रेष्ठ उत्तराधिकारी देने के लिए कर्तव्य के नाते सीमित प्रजनन ही विवेकसंगत माना गया है ।

घटते साधन-बढ़ते लोग

आज जनसंख्या वृद्धि परिवार से लेकर विश्व स्तर तक चिंता का विषय बनी हुई है । एक सर्वेक्षण के अनुसार परिवारों में ८० प्रतिशत ऐसे हैं, जिनके पास साधन कम हैं और सदस्यों के उत्तरदायित्व अधिक हैं । उनकी आवश्यकताएँ उतने साधनों से पूरी नहीं की जा सकतीं । जब एक नया बालक पैदा होता है, तो औसतन परिवार पर डेढ़ व्यक्ति का भार बढ़ता है । प्रजनन के समय जितने व्यक्तियों का समय लगता है, लालन-पालन में जितना समय और शक्ति का व्यय होता है, उसका औसत बालक के वयस्क होने तक डेढ़ व्यक्ति से कम का नहीं बैठता ।

सामाजिक स्तर पर यह सिद्ध हो गया है कि साधन बढ़ाने की गति कितनी भी तेज क्यों न की जाय, यदि प्रजनन न घटा तो संतुलन बिगड़ ही जायेगा । मानवीय सुख-सुविधाओं के विकास के लिए सोचना और करना इसीलिए बेकार सिद्ध होता है कि बढती जनसंख्या की आवश्यकताएँ पूरी करने में ही सारी शक्ति खर्च हो जाती है ।

संचालक की विडंबना

एक मनोवैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार ८३ प्रतिशत व्यक्तियों के अंदर हीनता की ग्रंथियाँ पनप रही हैं। वे इस कारण कि बडे़ परिवार का पोषण उचित माध्यम से हुई आय से नहीं हो पाता, इसलिए गलत रास्ते अपनाने पड़ते हैं । गलत रास्ते अपनाने पर समाज में अनीति को बढ़ावा देने वालों में उसकी गणना होती है । परिवार के पोषण का कर्तव्य पूरा करें, तो नैतिक कर्तव्य टूटते हैं । नैतिक कर्तव्य संभाले तो पारिवारिक निर्वाह का प्रश्न खड़ा होता है । इस द्वंद्व में ८३ प्रतिशत नागरिक हीनता की ग्रंथि से पीड़ित हैं ।

समस्या लोक-सेवियों की

समाज के विकास में लोक सेवियों की भूमिका प्रधान रहती है । अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन का निष्कर्ष है कि कुल जनसंख्या के ५ प्रतिशत व्यक्ति यदि थोड़ी बहुत लोक सेवा की प्रवृत्तियाँ चलाते हैं, तो वह समाज संतुलित बना रह सकता है । आजकल सही अर्थो में लकिसेवी न दिखने के प्रश्न को लेकर सर्वेक्षण किए गए तो पाया गया कि लगभग ९.६ प्रतिशत व्यक्ति ऐसे हैं, जिनके मनों में वास्तव में लोक सेवा की गहरी भावना है और वे कुछ न कुछ करने के लिए लालायित भीं रहते हैं। परंतु उनमें से ९० प्रतिशत इसलिए कुछ नहीं-कर पाते कि उनके बड़े हुए पारिवारिक उत्तरदायित्वों को पूरा करने में ही सारे साधन, सारी शक्ति और सारा समय खप जाता है । ६७ प्रतिशत व्यक्तियों को सेवा निवृत्ति के बाद भी कोई अतिरिक्त काम निर्वाह के लिए तलाशना पड़ता है । यदि परिवार की संख्या और आवश्यकताएँ सीमित रखी जा सकें, तो लोक सेवियों की आवश्यकताएँ सहज ही पूरी हो सकती हैं । इसी कारण लोक सेवा के क्षेत्र में उतरने की इच्छा रखने वालों के लिए तो यह अनिवार्य माना ही गया है कि वे यदि गृहस्थ हैं, तो प्रजनन के क्षेत्र में विवेक बरतें ।

सत्पुरुषों के परिवार

विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्य करने वाले मूर्धन्य व्यक्तियों का राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अध्ययन किया गया, तो पाया गया कि लगभग अग्रणी लोग या तो पारिवारिक उत्तरदायित्वों से मुक्त रहे अथवा उन्होंने उसे सीमित रखा ।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी नेता जो गृहस्थ थे, उन्होंने संतानें या तो पैदा ही नहीं कीं अथवा संख्या बहुत ही सीमित रखी । महामना मालवीय जी, लोकमान्य तिलक, मोती लाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू, चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य, लोकनायक जयप्रकाश नारायण, आचार्य कृपलानी, सरदार पटेल जैसों की लंबी सूची बनायी जा सकती है । जिन्होंने परिकर सीमित रखकर अथवा आवश्यकताओं पर नियंत्रण लगाकर आत्म संतोष तथा लोक मंगल की दृष्टि से कुछ कर सकने में सफलता पायी ।

गुरु और शिष्य

एक साधक गुरुदेव के निकट रहकर ही उनकी सेवा किया करता था । एक बार उनसे आज्ञा लेकर वह कुछ दिनों के लिए अपने गाँव चला आया । जब वह लौटकर पहुँचा, तो उसने अपने गुरु से कहा-"गुरुदेव। मेरी सगाई हो गई है ।"

"तब तो तुम मुझसे दूर हो गए ।"-इतना कहकर वह मौन हो गए ।

दूसरी बार जब उस साधक को घर जाने का अवसर मिला तो शुभ मुहूर्त में उसका विवाह कर दिया गया । विवाह की सूचना जब गुरु को मिली तो उन्होंने कहा-"अब तो तू अपने माता-पिता से भी गया ।"

अब उस व्यक्ति ने गुरु के साथ रहना छोड़ दिया था । क्योंकि उस पर पहले की अपेक्षा उत्तरदायित्व बढ़ गए थे । लगभग १ वर्ष बाद गुरु के दर्शन करने का अवसर मिला, तो उसने शुभ संदेश सुनाते हुए कहा-"मुझे एक पुत्र रस की प्राप्ति हुई है।"

"तब तो तू अपने से भी गया"-कहकर गुरुजी मौन हो गए।

कथा का आशय यह है कि लोकसेवा के क्षेत्र में उतरने वाले व्यक्ति के लिए निर्धारित वर्जनाओं का पालन,दायित्वों का निर्वाह अत्यंत जरूरी है, शेष सभी बातें गौण हैं ।

श्रमण एवं राजकर्मचारी 

मगध नैरश एक दिन भगवान् बुद्ध के सत्संग में गए और पंक्तिबद्ध बैठे । श्रमणों को प्रमुदित स्थिति में देखा, जबकि उन्हें शरीर यात्रा तथा धर्म प्रचार की प्रव्रज्या में अधिक कष्ट उठाने पड़ते थे ।

दूसरी ओर राजपरिवार के सदस्य और शासकीय कर्मचारी हैं, जो निरंतर अभाव और अधिक काम की शिकायत करते रहते है । इस विसंगति का कारण सत्संग समाप्त होने पर तथागत से पूछा ।

बुद्ध ने कहा-"राजन् । यह आश्रमवासी वर्तमान में जीते हैं । जो उपलब्ध, उसे संतान सीमित होने के कारण उन पर पूरा ध्यान देते है । अनाप-शनाप खर्च नहीं करते । कर्तव्य पालन के आनंद को अधिकाधिक मात्रा में प्राप्त करने के लिए उत्सुक रहते हैं। 

शांति का यही मार्ग है । धर्म विहार हो या हाट बाजार या राजमहल । सर्वत्र सुख-शांति का यही एक मार्ग है। जिसे गृहस्थ हो या विरक्त, सभी को अपनाना चाहिए ।

पुत्र रूप में धुंधकारी जन्मा

संतान लाभ की कामना हेतु आतुर व्यक्ति विवेक खो बैठता है । अंतत: वह अपने पैरों में कुल्हाडी ही मारता है ।

ब्रह्म संध्या कर आचार्य त्रिपाद उठे ही थें कि आत्मदेव ने उनके चरण पकड़ लिए । वह दीन जन्मा शब्दों में बोला-"आचार्य प्रवर! एक संतान की इच्छा से आपके पास आया हूँ ।"

आचार्य ने कहा-"आत्मदेव संतान से सुख की आशा करना व्यर्थ है । मनुष्य अपने कर्मो के अनुसार सुख- दुःख पाता है। पूर्व जन्म की कृपणता का पाप ही तुम्हारे लिए सौभाग्य विमुख बना है । आत्मदेव की समझ में नहीं आया, उसने कहा-" महात्मन्! या तो आज आपसे पुत्र लेकर लौटूँगा या आत्मदाह करूँगा।"

ज्योतिपाद ने हँसकर कहा-"तुम्हारे लिए किसी और का पुण्य छीनना पड़ेगा । पुत्र तो तुम्हारे भाग्य में है नहीं । परंतु तुम्हारी इच्छा परमात्मा पूर्ण करें, लो यह फल अपनी भार्या को खिला देना । वह एक वर्ष तक नितांत पवित्र रहकर नित्य कुछ दान करे ।"

आत्मदेव महर्षि के रहस्यमय वचन सुनकर कुछ समझ न सका तथा वह फल अपनी पत्नी धुंधली को देकर सारी बातें समझा दीं। धुंधली ने सोचा-पवित्रता मुझसे बन न पड़ेगी, अपनी संपत्ति और को क्यों दान करूँ? उसने वह फल गाय को खिला दिया और समय पर अपनी बहन का पुत्र गोद लेकर घोषण कर दी कि उसके पुत्र रस हुआ है । पुत्र का नाम धुंधकारी रखा गया। कालांतर में वह बहुत दुराचारी निकला । धुंधकारी ने अपने पिता की सारी संपत्ति, मांस, मदिरा, जुआ और वेश्यावृत्ति में नष्ट कर दी । माता-पिता कुड़ कर मर गए । धुंधकारी भी असमय ही काल-कवलित हो गया ।

इससे तो अच्छा है कि समस्त विश्व को अपना परिवार मानकर उसके समग्र विकास में स्वयं को नियोजित कर दिया जाय ।

लिटिल मदर-जो जीवन भर माता रही

सान जुआन की डोना फेरिसा तब तेरह वर्ष की थी । आठ भाई-बहनों में सबसे बड़ी माता का स्वर्गवास हो गया, तो सारे भाई-बहनों को उसी ने पाला । इतने बच्चों की साज-संभाल करने के कारण बच्चे उसे 'लिटिल मदर' कहते थे । माँ का हृदय और उत्तरदायित्व कैसे होना चाहिए, यह उसे परिस्थितियों ने सिखा दिया । सब भाई-बहनों को स्वावलंबी बनाकर निश्चित हुई तब उसकी उम्र ३२ वर्ष की हो चुकी थी । किसी ने विवाह की बात सुझाई, तो उसने कहा-"मेरा मन 'माता' के ढाँचे में ढल गया है, अब उसमें दंपत्ति विलासों के लिए कोई गुजाइश नहीं रहीं ।"

डोना फेरिसा नें अपने नगर के विद्यालयों की ओर ध्यान दिया और बिना पैसों की नौकरी की । उसने हजारों बच्चों को सद्गुणों से अभ्यस्त-संपन्न बना दिया ।

सान जुआन की नगरपालिका-सदस्या बनीं और बाद में अध्यक्ष । वह ६९ वर्ष तक जीवित रहीं । तब तक निरंतर नगरपालिका अध्यक्ष चुनी जाती रहीं। उनने अपने कार्यक्षेत्र के सभी परिवारों को शालीनता से ओत-प्रोत कर दिया था ।
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