भावनानां विचाराणामाकांक्षाणामथाऽपि च ।
गतिविधेरपि चौत्कृष्ट्यान्मानवोऽभ्येति प्रोन्नतिम्॥१॥
अग्रेचरित्नदृष्टया च वर्द्धते सोऽन्यथा त्विह ।
पूर्वजन्मकुसंस्कारा जीवने प्रभवन्तयलम्॥२॥
उदरपूर्तितया वंशवृद्धिहेतोश्च केवलम् ।
पशुचेष्टाभिलग्नत्वाद व्यर्थतामेति जीवनम्॥३॥
हेतुनाऽनेन सर्वेषां वर्तमानमथाऽपि च ।
भविष्यज्जायते नूनमन्धकारमयं नृणाम्॥४॥
ऋषेर्धौम्यस्य बुद्धौ च प्रसंगोऽद्यायमुत्थित:।
चिन्तयामास सोऽजस्त्रं निवृत्ता ये कुटुम्बत:॥५॥
तेभ्यो विचारा देयास्तु लग्नैर्भाव्यं कथं च तै:।
चतुर्षु पुरुषार्थेषु सेवासत्संगयोरथ॥६॥
स्वाध्याये साधनायां च धौम्यस्यैतत्तु चिन्तनम्।
गतिशीलमभृद् द्वारं प्रगतेरवि सुन्दरम् ॥७॥
भावना, विचारणा, आकांक्षा और गतिविधियों की उत्कृष्टता का समावेश करके ही मनुष्य ऊँचा उठता है आगे बढ़ता हैं, अन्यथा विगत योनियों के कुसंस्कार ही मनुष्य जीवन पर छाए रहते हैं। पेट-प्रजनन की पशु प्रवृत्तियों में संलग्न रहकर मनुष्य जीवन निरर्थक जाता है। इस कारण वर्तमान और भविष्य भी अंधकारमय बनता है । धौम्य ऋषि के मस्तिष्क में आज यही प्रसंग छाया हुआ था । वे सोचते रहे कि परिवार से निवृत्त हुए अथवा परिवार की जिम्मेदारी से युक्त जनों को साधना स्वाध्याय सत्संग और सेवा के चार वों में किस प्रकार संलग्न होना चाहिए इसका परामर्श दिया जाय। महर्षि का चिंतन गतिशील था, वह प्रगति के भव्य द्वार की तरह प्रतीत होता था॥१-७॥
आत्मिक्या: प्रगतेर्हेतोर्नितान्तं सम्मतानि तु ।
प्रयोजनानि चत्वारि गदितुं तु समागतान् ॥८॥
महर्षिर्निश्चिचायाथ प्रतिपाद्यमिदं जगौ ।
सम्बोध्य जनता धौम्य आह चैवं सपूर्ववत्॥९॥
भावार्थ-आत्मिक प्रगति के लिए नितांत आवश्यक इन चार प्रयोजनों को उपस्थित लोगों के गले उतारने का महर्षि ने निश्चय किया । यही आज के प्रवचन का विषय भी बनाया। जन समुदाय को संबोधित करते हुए उन्होंने अपना वक्तव्य जारी रखा ॥८-९॥
व्याख्या-जीवन की भावी दिशाधारा क्या हो, कैसे गृहस्थ जीवन में रहते हुए अथवा निवृत्ति के
उपरांत स्वयं को आत्मिक प्रगति की दिशा में प्रवृत्त किया जा सके? यह ऊहापोह जनसाधारण के मन में होना स्वाभाविक है। आध्यात्मिक सिद्धांतों को सुग्राह्य बनाने एवं जीवन में उतारने की ररही दिशा देने हेतु
ही विद्धज्जन कथा-सत्संग का आश्रय लेते हैं। महर्षि धौम्य सुसंस्कारिता के जीवन में समावेश हेतु अनिवार्य चतुर्विध सोपानों-जीवन साधना, स्वाध्याय परायणता, सत्संग एवं सेवा-आराधना की व्याख्या प्रस्तुत प्रसंग में कर रहे हैं ।
असंस्कृता नराश्चात्न समाजे बहव: सदा ।
भवन्त्येव सुयोग्यानां दृश्यते न्यूनता तथा॥१०॥
कत्तृणानि तु सर्वत्र प्राय एवोद्भवन्त्यलम्।
दुर्लभौषधयो गुण्या: क्वचनैव शुभे स्थले॥११॥
भृशमन्वेषाणादेव लभ्यन्ते कुत्रचिज्जनै:
बहुसंख्यकवर्गेण सह सम्पर्ककारणात्॥१२॥
अविकासं गतास्वासु व्यक्तिषु प्रतिकूलग:।
प्रभावोऽवाञ्छनीयोऽयं पतत्येव निरन्तम्॥१३॥
प्रवाहे वहनं नृणां सरलं भवतीत्यत:।
कुटुम्बगेषु मर्त्येषु समीपतरवर्तिन:॥१४॥
वातावरणकस्यैव वाञ्छित: प्रपतत्यलम्।
प्रभावोऽस्मात् सुरक्ष्यं च संकटाद्धि कुटुम्बकम्॥१५॥
अन्यथा तु निजादर्शप्रयासेषूत्तमेष्वपि।
व्याप्ता वातावृति: स्वेषु गृहेषु प्रभविष्यति॥१६॥
तत्रत्यांश्च सदस्यान् सा पतनस्य तथैव च।
पराभूतेर्महागर्ते नेष्यत्येव न संशय:॥१७॥
भावार्थ-समाज में अनगढ़ लोग बहुत रहते हैं । सुयोग्यों की कमी पाई जाती है घास-पात सर्वत्र उगते हैं किन्तु गुणकारी दुर्लभ औषधियाँ कहीं-कहीं ही उगती हैं और छत ढूँढ़ने पर कठिनाई से ही कहीं मिलती हैं इस बहुमत के साथ प्रत्यक्ष संपर्क रहने से अविकसित व्यक्तियों पर प्रतिकूल अवांछनीय प्रभाव पड़ता है। प्रवाह में बहना सरल पड़ता है । इसलिए परिवार के लोगों में समीपवर्ती वातावरण की अवांछनीयताएँ घुस पड़ती हैं और बुरा प्रभाव डालती हैं। इस संकट से बवना आवश्यक है अन्यथा निजी आदर्श और प्रयास उत्तम होने पर भी संव्याप्त वातावरण अपने घरों को भी प्रभावित करेगा और उन्हें पतन के गर्त में घसीट लेगा इसमें संदेह नहीं॥१०-१७॥
व्याख्या-जन समुदाय श्रेष्ठ, निकृष्ट सभी स्तर के व्यक्तियों का समुच्चय है। यहाँ बाहुल्य सामान्यतया ऐसे ही व्यक्तियों का है, जो शिश्नोदर परायण होते हैं। जिनकी चिंतन-परिधि सीमित होती है । इसके अतिरिक्त कमजोर मनःस्थिति वाला पर उनके अधोगामी चिंतन का प्रभाव भी सतत पड़ता रहता है। प्रचलन में सामान्यतया निकृष्टता संव्याप्त है। पतन का मार्ग आकर्षक होने के कारण सबको सरल दिखाई भी पड़ता है। स्वयं के विवेक का प्रयोग न कर पाने की स्थिति में प्रवाह में बहने लगना स्वाभाविक है। परिवार संस्था पर यह तथ्य विशेष रूप से लागु होता है। दुष्प्रवृत्तियों के प्रभाव से परिवार के सदस्य अपने सुसंस्कारों को भुलाकर गलत दिशा में न चल पड़ें, इसके लिए अनिवार्य है कि परिवार के प्रमुख एवं राज्य सभी वरिष्ठजन उत्कृष्टता का वातावरण बजाए रखने का प्रयास करते रहें । इस ओर उपेक्षा बरतने से स्वयं के सही होने पर भी परिवार के अन्त्य सदश्यों को अप्रभावित नहीं रहने दिया जा सकता। अतः स्वयं को सुधारने, ऊँचा उठाने के साथ-साथ ऐसा वातावरण बनाया जाना भी जरूरी है, जहाँ सत्प्रवृत्तियाँ स्वयं पनपे, जिनके कारण अधोगामी प्रवृत्तियाँ उापना असर किसी की मन: स्थिति पर डाल न पाएँ । परिवार में धार्मिकता-आस्तिकता का वह वातावरण बनाया जाना चाहिए, जिसमें परिवार के सदस्यों को सुसंस्कारिता का पोषण मिल सके। इसके लिए परिवार में कुछ सत्प्रवृत्तियों को विकसित और प्रचलित करने के लिए प्रयास किया जाना चाहिए। इस तरह की सत्प्रवृत्तियों में पाँच प्रमुख हैं, जिन्हें पंचशील कहा गया है ।
भगवान् बुद्ध के पंचशील
भगवान बुद्ध ने मानव जाति की प्रगति, उनकी आत्मोन्नति एवं सत्प्रव्र्त्ति संवर्द्धन के लिए अनेक कार्य किए। उनने मनुष्य जाति में अनेक वर्ग किए और इन वर्गों के लिए उनके लिए उनके कार्य क्षेत्र के अनुरुप पाँच-पाँच प्रमुख शील-अनुशासन बनाए, निर्धारित किए। शासन, समाज, धर्म, शिक्षा, स्वास्थ्य, उपार्जन क्षेत्रों में निर्दिष्ट मर्यादाओं का पालन ही शील है, इनकी संख्या पाँच-पाँच निर्धारित की गई है, इसलिए उन्हें पंचशील कहा गया है। यहाँ पारिवारिक पंचशीलों का प्रसंग है । (१) सुव्यवस्था, (२) नियमितता,
(३) सहकारिता, (४) प्रगतिशीलता, (५) शालीनता को पाँच सत्प्रवृत्तियों के रूप में समझा जा सकता है। इन्हें अपनाने से व्यक्ति, परिवार एवं समाज को उन विकृतियों से बचे रहने का लाभ मिलता है, जो समस्त समस्याओं और विपत्तियों के लिए उत्तरदायी है। इन्हें अपनाने में सर्वतोमुखी प्रगति का द्वार खुलता है और उज्ज्वल भविष्य के राजमार्ग पर चल पड़ने का अवसर मिलता है ।
पारिवारिक पंचशीलों में जिन पाँच सत्प्रवृत्तियों का उल्लेख है, उनको परिजनों के स्वभाव का अंग बनाने के लिए ऐसी गतिविधियों को जन्म देना पड़ेगा, जिनके सहारे उन्हें परिजनों के स्वभाव का अंग बनाया जा सके। गृह संचालकों को समय की कमी का रोना नहीं रोना चाहिए। पैसा कमाना ही मात्र एक काम नहीं है । उतने भर से परिवार के भरण-पोषण की आवश्यकता तो पूरी हो सकती है, पर सुसंस्कारों का अभिवर्द्धन कहीं नहीं हो सकता । यदि समझ काम दे, तो तथ्य स्वीकार करने में किसी को कोई कठिनाई नहीं होगी कि गुण, कर्म, स्वभाव के समन्वय से बना हुआ व्यक्तित्व ही मनुष्य की वास्तविक पूँजी है । यह वैभव जिसके पास, जितनी मात्रा में होगा, वह उसी अनुपात से प्रभावशाली, संपत्तिशाली और सौभाग्यशाली बनेगा। अस्तु, सच्चे अर्थों में परिजनों का हित चाहने वालों को उनके लिए साधन-सुविधा जुटाने तक ही सीमित होकर न रह जाना चाहिए, वरन् संस्कारों के संवर्द्धन का वह कार्य भी हाथ में लेना चाहिए, जो दूसरों से नहीं कराया जा सकता ।
अपनी अपनी दृष्टि
यह अपने दृष्टिकोण पर निर्भर है कि कोई वस्तु अथवा परिस्थिति अच्छी है या बुरी । संत सुकरात से मिलने गए एक भक्त ने प्रश्न किया-"महात्मन्। चंद्रमा में कलंक और दीपक तले अंधेरा क्यों रहता है?" सुकरात ने पूछा-"अच्छा, तुम्हीं बताओ-तुम्हें दीपक का प्रकाश और चंद्रमा की ज्योति क्यों नहीं दिखाई देती?" भक्त ने विचार किया-"सचमुच संसार में हर वस्तु में अच्छे और बुरे दो पहलू है, जो अच्छा पहलू देखते हैं, वे अच्छाई और जिन्हें केवल बुरा पहलू देखना आता है, वे बुराई संग्रह करते है।
विधेयात्मक सोचो व करो
यदि चिंतन करना ही है, तो श्रेष्ठ का, अच्छे का क्यों न किया जाय? ऐसे व्यक्ति कम नहीं, जो अव्यवस्थित, बिना प्रयोजन का चिंतन कर दिमाग को खराब करते रहते हैं। एक मजूर दोपहर के विश्राम में रूखी रोटी खा रहा था । लगावन न होने से वह मिर्च की चटनी की कल्पना करने लगा और उसके प्रभाव से मुँह से सी-सी निकलने लगी ।
साथी ने कारण पूछा तो उसने बताया कि मिर्च के स्वाद की कल्पना कर रहा था । साथी ने कहा-"यदि कल्पना ही करनी है, तो मिठाई-रबड़ी की क्यों नहीं करता?" निषेधात्मक चिंतन से विधेयात्मक चिंतन में प्रसन्नता रहती है।
कीर्ति की आकांक्षा
अपने चिंतन को सही बनाए रखना इस कारण अनिवार्य है कि परिणाम हानिकारक होते हुए भी सर्वसाधारण में दुष्प्रवृत्तियों को ही बाहुल्य है ।
टालस्टाय की एक बोध कथा है-कूड़े के ढेर पर दो मुर्गे आपस में गुत्थमगुत्था हो गए । अधिक गाढ़े मुर्गे ने दूसरे को पराजित कर भगा दिया, तो आसपास घूम रही मुर्गियों विजयी मुर्गे के चारों ओर जमा होकर उसका यशोगान करने लगीं। प्रशंसा से पुलकित मुर्गे की यश-कामना और तेज हुई। उसने कहा कि पास-पड़ोस में भी उसकी कीर्ति जानी-कही जाए। इस तीव्र आकांक्षा ने उसे प्रेरित किया और वह पास के खलिहान में चढ़ गया। अपने पंख फड़-फड़ाकर उच्च स्वर में बोला-"मैं विजयी मुर्गा हूँ । मुझे देखो। मेरे समान बलवान कोई अन्य मुर्गा नहीं है ।" उसका अंतिम वाक्य समाप्त होने के पूर्व ही मँडराती चील की, ऊँचे चढे़ उस एकाकी मुर्गे पर दृष्टि पड़ी। उसने एक झपट्टा मारा और पंजों में दबोचकर मुर्गे को अपने घोंसले में ले गई ।
शराबी होश में आया
एक शराबी नाली में पड़ा था। उधर से हाथी पर बैठकर राजा निकले। शराबी ने आवाज लगाई-"ए, ओ, इस पड्डे को बेचना है क्या?" नौकरों ने उसे पकड़ लिया और दूसरे दिन दरबार में पेश किया । राजा ने कहा-"कल तुम्हीं हमारे पड्डे (हाथी) को खरीद रहे थे। "शराबी होश में आ गया था । उसने कहा-"हुजूर, जो सौदागर खरीदता था, वह तो चला गया । अब तो धनुआ तेली आपके सामने है, इसे जो चाहें, सो सजा दें ।" नशेबाजों का चिंतन हवा में उड़ता रहता है ।
नशे की विडंबना
एक सेठ अफीम खाते थे। उन्होंने अपने नौकर को यह लत लगा दी। एक बार दोनों शहर चले । रास्ते में एक स्थान पर दोनों ने खाना खाया, अफीम के नशे में याद नहीं रहा । घोड़ा वहीं छोड़कर चलते बने । शहर पहुँचे, नशा कम हुआ । एक स्थान पर बैठे, तो पता चला कि घोड़ा रास्ते में ही छूट गया । फिर घोड़े की तलाश में लौटे, पर इस बार पोटली कहीं भूल गए, उसी में उनके रुपये थे । वापस जाकर घोड़ा न पाया, तब पोटली की याद आई । दोनों रोने लगे । एक ग्रामीण स्त्री-बोली-"तुम्हारी ही नहीं, हर नशेबाज की यही हालत होती है।"
अपना जीवनोद्देश्य भुलाकर स्वयं को लिप्साओं में झोंक देना एवं फिर पछताना नशेबाजी से भी बदतर है।
अधिकांश व्यक्ति समुदाय में इन्हीं नशेबाजों की तरह विद्यमान हैं व अपने संसर्ग से अन्य अनेक को प्रभावित करते रहते है । इनसे बचना व बचाना बहुत अनिवार्य है।
पतन की चरम परिणति
अबोध बालक को भैरव की प्रतिमा के सम्मुख बलि चढ़ाते हुए एक तांत्रिक पकड़ा गया। उसे विक्रमादित्य के दरबार में अपराधी की तरह उपस्थित किया गया । परिचय पूछने पर उसने बताया। कुछ वर्ष पूर्व वह वेद पाठी ब्राह्मण था। कुत्साओं के कुचक्र में फँसकर एक के बाद एक बड़े कुकर्म करता गया। स्थिति यहाँ तक आ पहुँची कि बाल हत्या की नृशंसता अपनाने में भी कुछ अखरा नहीं। विक्रमादित्य ने आश्चर्य से पूछा-" आपका पतन क्रम किस कारण आरंभ हुआ, किस प्रकार बढा और स्थिति यहाँ तक कैसे पहुँची? इसका विवरण बताएं।" अपराधी ब्राह्मण ने लंबी सांस खींचते हुए कहा-"राजन्! कभी मैं अपरिग्रही जीवन जीता था । स्वल्प साधनों में सुखपूर्वक निर्वाह करता और ब्रह्म कर्म में रत रहता था। पड़ोसी का विलास-वैभव देखकर मन ललचाया । सोचा-ऐसा ही ऐश्वर्य भोगा जाय । संतोष, अपरिग्रह और ब्रह्म कर्म में क्या धरा है। दिशा मुड़ी तो हर कदम अधिक बड़े अनाचार की ओर उठता चला गया ।
राजा ने पूछा-"उस पतन क्रम की शृंखला भी बताएँ।" अपराधी ने एक-एक करके उन आदतों और
घटनाओं का वर्णन किया, जिनके कारण दुष्टता का दुस्साहस बढ़ता और प्रचंड होता चला गया था। ब्राह्मण ने कहा-"स्वल्प श्रम में अधिक धन कमाने के लिए जुआ खेलना आरंभ किया । जुए के लिए अधिक धन की आवश्यकता पड़ी, तो चोरी करने का सिलसिला चल पड़ा । चोरी से मुफ्त का माल मिला, तो मदिरा पान और वेश्यागमन की आदत पड़ गई। उन दुराचार के अड्डों से अधिक संपर्क रहने पर बड़े अपराधों का शिक्षण मिला और अभ्यास पकता चला गया। अनाचारी तांत्रिकों की शाखा में जाते, उनसे बलि कर्म द्वारा भैरव प्रसन्न करने, अनायास ही बहुत धन पाने की कामना करने का उपाय मुझे भी बहुत रुचा । कूर कर्मों में निरत रहते-रहते बाल वध में भी न दया आई और न आत्म ग्लानि हुई। यही है मेरे पतन क्रम की शृंखला जो चिंगारी की तरह शुरू हुई और ईंधन का आश्रय मिलते ही दावानल की तरह बढ़ती चली गई।"
अपराधी को दंड तो मिला, पर सभी सभासदों और विज्ञजनों ने यह भी जाना कि पतन का क्रम किस प्रकार छोटे से आरंभ होकर क्रमश: बढ़ता है और अंतत: मनुष्य सर्वनाश करके छोड़ता है ।
कुसंग और सत्संग का फल
जब सत्संग का अवसर मिलता है, तो वह पारस की तरह से जंग लगे लोहे को भी स्वर्ण बना देता है। अनेक ऐसे व्यक्ति होते हैं, जीवन का पूर्व इतिहास दुष्प्रवृत्तियों का समुच्चय होता है, किन्तु कालांतर में सही अवसर व सत्संग का वातावरण मिलने पर वे अपनी दिशा बदल देते हैं। अजामिल ब्राह्मण युवक था । वह विभिन्न प्रयोजनों के लिए वन क्षेत्र में जाया करता था । वहाँ वधिकों के घर थे। उनका निर्लज्ज मदिरा पान, नृत्य और व्यभिचार चलता रहता था। उन्हें निकट से देखने की इच्छा हुई। वधिकों ने भीं उस हृष्ट-पुष्ट युवक का स्वागत किया और मद्यपान, व्यभिचार का स्वाद चखा दिया। पतन के मार्ग पर एक बार चल पड़ने और कुसंग में फँसने पर फिर वापस लौटना कठिन पड़ता है। थोड़े दिन में अजामिल भी पूरा वधिक हो गया । कालांतर में सत्संग से ही उसका उद्धार हुआ ।
पहले विगत को भुलाइए
विगत को मिटाकर नया बनाना समय साध्य संभव है किन्तु कुसंस्कारों को हटाकर नए सस्कार स्थापित करना दूने परिश्रम के बराबर है। संगीत विधालय में भर्ती चल रही थी। नए छात्रों से दस रुपया मासिक शुल्क जमा कराया जा रहा था। एक जानकार छात्र ने अपने पूर्व ज्ञान की बात कहते हुए आधा लेने की बात कही। अध्यापक ने उसके अभ्यास को परखा और दूना समय लगाने तथा दूनी फीस जमा करने की शर्त लगाई। कारण पूछने पर अध्यापक ने कहा-"जो सीखा गया है, वह गलत है । उसे भुलाने में जो अतिरिक्त श्रम और समय लगेगा, उसी कारण यह अतिरिक्त शुल्क देना पड़ेगा ।
कुसंस्कारी ढर्रे से मुक्ति
अभ्यास में समायी हुई दुष्प्रवृत्तियों से मुक्ति पाना एक प्रकार का कायाकल्प है, नव जीवन है । भिक्षुओं को दीक्षा दी जा रही थी । उनके नाम, गोत्र, वंश और स्थान बदले जा रहे थे। अभ्यास के परिवर्तन पर जोर दिया जा रहा था । कारण पूछने पर तथागत ने बताया-साँप जिन दिनों केंचुली से लदा रहता है, उन दिनों न उसे दीखता है और न दौड़ते बनता है। केंचुली उतरते ही यह दोनों कठिनाईयाँ चली जाती हैं । व्यक्ति का कुसंस्कारी ढर्रा ही उसकी आत्मिक प्रगति में सबसे बड़ा व्यवधान है। इसलिए दीक्षा के रूप में मन:स्थिति परिवर्तन के साथ-साथ परिस्थिति और आदत बदलने के लिए भी कहा जा रहा है ।
फिजूलखर्ची की दुष्प्रवृत्ति
स्वयं ठीक हों तो घर के अन्य परिजन भी वैसे हों, जरूरी नहीं । वे भी प्रचलन में संव्याप्त वातावरण से प्रभावित होकर दुष्प्रवृत्तियों के गर्त में फँस सकते हैं। इससे अपयश स्वयं को ही ओढना पड़ता है ।
अब्राहम लिंकन ने गरीबी के दिन देखे थे । वे राष्ट्रपति चुने जाने पर भी एक-एक पैसा सँभालकर खर्च करते थे, पर उनकी पत्नी अमीर घर से आई थीं । इन्हें पति की इच्छा के विरुद्ध सजधज का बहुत शौक था । राष्ट्रपति चुने जाने के उपरांत लिंकन दक्षिण अमेरिका के दास प्रथा संबंधी झंझट में उलझ गए । इस बीच उन्होंने राष्ट्रपति भवन सुंदर बनाने के लिए २० हजार डालर खर्च कर डाले। उस राशि की स्वीकृति लिंकन ने नहीं दी और वह पैसा जेब से भरा। फिजूलखर्ची को लेकर आए दिन पति-पत्नी में झंझट होता। वे राष्ट्रपति और उसकी पत्नी की शान दिखाना चाहती थीं। लिंकन जनता का एक पैसा भी निजी प्रयोजनों में खर्च न करना चाहते थे। पत्नी ने छिपकर इतना कर्ज कर लिया था, जो लिंकन को दूसरी बार राष्ट्रपति चुने जाने पर वेतन से तथा निजी संपत्ति को बेचकर चुकाना पड़ा। ऐसे ही विरोधों में उनकी पत्नी क्षय-ग्रस्त हुईं और अकाल में ही काल-कवलित हो गईं । बच्चों की शिक्षा आदि पर ध्यान न दे सकीं। इस पर अब्राह्म लिंकन जीवन भर दुखी रहे । वे स्वयं तो इतिहास में अमर हो गए, पर उनका पारिवारिक जीवन दुर्भाग्यपूर्ण ही रहा ।
सही मार्ग पर चलाया
सही परामर्श, सही समय पर मिले तो उसका परिणाम भी श्रेष्ठ निकलता है।
थानेश्वर की रानी महादेवी राज श्री का विवाह राजा गृहवर्मा के साथ हुआ था। दस्युओं ने राजा की हत्या कर दी। रानी सती होने की तैयारी करने लगीं। उनका भाई हर्ष आ पहुँचा और उसने इस निरर्थक आत्महत्या से रोककर समझाया कि शेष जीवन सत्प्रयोजनों में लगाया जाय। बहिन को समझा दिया फिर जिन लोगों ने गहवर्मा को मारा था, उनको ढूँढ़-ढूँढ़ कर सफाया किया। बहिन-भाई मिलकर बौद्ध धर्म का विस्तार करने लगे । दोनों राज्यों का धन इसी प्रयोजन में लगने लगा। राजा हर्ष ने धर्म सेवा के लिए जो-जो काम किए वे इतिहास में प्रसिद्ध है । बहिन भी हर कार्य में उनके साथ रही।