प्रज्ञा पुराण भाग-3

अथ पञ्चमोऽध्याय: वृद्धजन-माहात्म्य प्रकरणम्-4

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
गृहस्थान्निवृत्तेर्वानप्रस्थे प्रवृत्तिकस्य च ।
मध्ये कर्तुं स्वभावे तु परिवर्तनमप्यथ॥४४॥
भावि जीवनजं नव्यं स्वरूपं ज्ञातुमुत्तमम् ।
आरण्यके तु कस्मिश्चित् साधनायां रतैर्नरै॥४५॥ 
भाव्यं कार्यं च पापानां प्रायश्चित्तं तु कर्मणाम्।
साधनां च प्रकुर्वन्ति स्वभावं परिवर्तितुम्॥४६॥
प्रयोजनानां योरयानां लोकमङ्गलकारिणाम् ।
प्रशिक्षणानि सर्वैश्च प्राप्तव्यानि नरैरिह॥४७॥
परिवर्तितुमेनं च जीवनस्य क्रमं त्विमम् ।
आवश्यकं मतं वातावृतेश्च परिवर्तनम्॥४८॥
आरण्यकाश्रमाणां च वातावरणमुत्तमम् ।
एतदर्थं भवत्येव लोकमंगलयोजितम्॥४९॥
आरण्यकानां मध्ये च वानप्रस्थसुसाधनाम् ।
कृत्वैव लोककल्याणपुण्यकार्यं विंधीयताम्॥५०॥
प्रत्येकस्मिननवीने च क्षेत्रे प्रविशता सदा ।
प्राप्तव्यमनुकूलं च प्रशिक्षणमिह स्वयम्॥५१॥ 

भावार्थ-गृहस्थ से निवृत्ति और वानप्रस्थ में प्रवृति के मध्यांतर में स्वभाव परिवर्तन और भावी जीवन
का नया स्वरूप समझने के लिए किसी आरण्यक में जाकर साधनारत होना चाहिए गृहस्थ में बन पड़े पाप कर्मों का प्रायश्चित करें। स्वभाव परिवर्तन के लिए साधना करें। लोकमंगल के विविध प्रयोजनों के उपयुक्त प्रशिक्षण प्राप्त करें । जीवन क्रम बदलने के लिए वातावरण बदलना आवश्यक है । इसके लिए आरण्यक-आश्रमों का प्रेरणाप्रद वातावरण उपयुक्त पड़ता है। चूँकि उसका संयोजन ही लोकमंगल, की दृष्टि से किया हुआ होता है । आरण्यकों की मध्यांतर वानप्रस्थ साधना के उपरांत लोकमंगल के पुण्य प्रयोजनों में संलग्न होने की विद्या अपनाएँ । हर नए क्षेत्र में प्रवेश करने वाले को तदनुरूप प्रशिक्षण प्राप्त करना पड़ता है॥४४-५१॥

व्याख्या-विगत में व्यतीत किया गृहस्थ जीवन अपनी लंबी अवधि के संस्कार मन-मस्तिष्क पर, स्वभाव-व्यवहार पर छोड़ देता है। अब जब नया जीवन क्रम प्रारंभ करना है, तो हर प्रौढ़ को अपने आपको नई परिस्थिति के अनुरूप ढालने हेतु तपाना, गलाना पड़ता है । जो गलत कार्य बन पड़े, उनका प्रायश्चित किए बिना, क्षतिपूर्ति किए बिना, नए आश्रम में प्रवेश संभव वहीं । यदि वानप्रस्थ ले भी लिया, तो लाभ नहीं । क्योंकि मस्तिष्क पर सदैव पुराना चिंतन हावी होता रहेगा। इसके लिए ऋषिगणों ने आदिकाल से आरण्यक व्यवस्था का प्रावधान किया है । इन आरण्यकों में निवृत्त गृहस्थों के लिए साधना हेतु उपयुक्त वातावरण रहता अनिवार्य है। जब परिमार्जन पूरा हो तो जए सिरे से प्रशिक्षण द्वारा अपने को लोकसेवी के रूप में विकसित करें । इतनी प्रक्रिया पूरी होने पर ही वानप्रस्थ जीवन की सार्थकता है, तभी लोकेसेवा में दत्तचित्त होकर लगा जा सकेगा।

नए परिवतन का उपहास

प्रचलन को, ढर्रे को तोड़ना अपने आप में बड़ा कठिन कार्य है। उन दिनों इंग्लैंड में छतरी लगाना गँवारपन समझा जाता था। लोग वर्षा और बर्फ में भीगते तो चलते, पर उपहास के डर से छाता न लगाते । इस मान्यता को बदलने का निश्चय उस देश के राज दरबारी हेनरी जेम्स ने किया । वे छाता सदा साथ रखते । वर्षा न होने पर भी लगाकर चलते । कुछ दिन तो मजाक बना, बाद में फैशन बन गया । यहाँ तक कि महिलाएँ और राजमहल के लोग तक उसे लगाकर चलने लगे। मित्र मंडली ने इस नए प्रचलन के लिए उन्हें बधाई दी, तो उनने इतना ही कहा-"जो उपहास और व्यंग्य-विरोध से नहीं डरता, वही बड़े परिवर्तन ला सकता है । गृहस्थ की पुरातन व्यवस्था से जीवन के नए सोपान पर चढ़ते समय प्रचलित ढर्रे को तोड़ना जरूरी हो जाता है। इतना साहस सबको जुटाना चाहिए।

अवसर न चूकिए

नए रंग में रँगने के लिए स्वयं को कोरा बनाना जरूरी है । पुराना धुले, अंत: मलिनता रहित हो, तो कुछ नया बन भी सकेगा। यदि स्वयं को कोरा बना भी लिया, पर परिवर्तित जीवन के लिए मन राजी न हुआ तो क्या लाभ? कागज पर कुछ लिखने के लिए कलम पहुँची, तो उसने अकड़ के कहा-"मेरे गोरे चिट्टे शरीर पर तुझ काली-कलूटी का स्पर्श क्या शोभा देगा? दूर हट, तेरे साथ अपना गौरव मैं भी क्यों घटाऊँ?" स्याही बिना कुछ कहे वापस चली गई। कागज सफेद तो बना रहा, पर मिलन के सौभाग्य सें उसे वंचित ही रहना पड़ा । सफेदी उसकी बनी रही, पर पत्र के रूप में परिणत होने का अवसर सदा के लिए हाथ से चला गया।

ब्राह्मण की कृतघ्नता

वृद्धावस्था आने पर भी कई व्यक्ति स्वभाव में परिवर्तन ला ही नहीं पाते। दुश्चिंतन मिटे तो ही आगे की व्यवस्था बन सकती है। बुढापे ने काया जीर्ण-शीर्ण कर दी, तो ब्राह्मण और किसी लायक न रहा। सूखी लकडियाँ पास के जंगल से बीनकर गाँव में बेच आता और किसी प्रकार निर्वाह चलाता। एक दिन लकडी भी थोडी मिली और दुर्भाग्य की तरह बाघ झाडी से निकलकर सामने आ खडा हुआ। ब्राह्मण प्राण जाने के भय से थर-थर काँपने लगा । इतने  में उसे एक सूझ सूझी । दोनों हाथ ऊपर उठाकर प्रसन्न मुद्रा में आशीर्वाद का मंत्र पढ़ने लगा । बाघ को इस विचित्र व्यवहार का कारण जानने की इच्छा हुई और झपटने से पूर्व बोला-"तुम कौन हो और ऐसी विचित्र भाषा में क्या कह रहे हो?" ब्राह्मण ने कहा-"मैं तुम्हारा कुल पुरोहित हूँ । तुम्हारे सभी पूर्वज मेरे यजमान रहे हैं और समय-समय पर विपुल दक्षिणा देते रहे हैं। अब तक तुमसे भेंट नहीं हो पाई थी, सो प्रतीक्षा में बैठा था । प्रसन्न होकर आशीर्वाद के मंत्र पढ़ने लगा । तुम्हारा कल्याण हो । अपने पूर्वजों की भाँति जो दक्षिणा बने, सो देने का प्रयत्न करो ।"

बाघ इस विचित्र कथन पर सकपका गया और पुरोहित को प्रणाम करक बोला-"देखते है न, मेरे हाथ सर्वथा खाली हैं । शरीर से कुछ काम कराना चाहें, तो कर दूँ ।" ब्राह्मण ने कहा-" यजमान तुम्हारी श्रद्धा बहुत सराहनीय है । इतना भर कर दो कि मेरी लकडियाँ अपनी पीठ पर लाद कर सामने वाले गाँव तक पहुँचा दो।" बाघ सहमत हो गया और ब्राह्मण द्वारा लादे बोझ को गाँव की सीमा तक पहुँचा दिया । बाघ ने कहा-"ऐसी सेवा तो मैं रोज कर दिया करूँगा। इसी समय तुम मेरी प्रतीक्षा किया करना ।" ब्राह्मण नित्य लकड़ी का गट्ठा जमा करता । बाघ उसे ढोकर नित्य गाँव तक पहुँचाता । इस प्रकार कितने ही दिन बीत गए । एक दिन बाघ विलंब से आया। तो ब्राह्मण ने उसे बहुत खरी-खोटी सुनाई और शाप देने की धमकी दी । बाघ चुप रहा । गट्ठा पहुँचाने के बाघ उसने ब्राह्मण से कहा-"आज मेरा एक काम कर दो । कल से मैं नहीं आऊँगा ।" ब्राह्मण ने तेवर बदले देखकर समझा कि कहना न मानने में खैर नहीं । सो उसने नम्र होकर आदेश पूछा । बाघ ने कहा-"अपनी लकड़ी काटने की कुल्हाड़ी से मेरे कंधे पर घाव कर दो ।" असमंजस के बाद उसने वैसा कर भी दिया । घाव छोटा ही था । बाघ चला गया और दूसरे दिन से फिर न आया । एक दो महीने बीतने पर बाघ फिर प्रकट हुआ । उसने ब्राह्मण को अपना घाव दिखाते हुए पूछा-"यह अच्छा हो गया है न । पर अभी भी उस दिन के कटुवचनों का घाव ज्यों का त्यों हरा है और तुम्हारे जैसे से कोई व्यवहार न रखने की नसीहत दे गया है ।"

क्रोधाग्नि अति घातक

एक संत एकांत में धूनी रमाए बैठे थे । परीक्षा हेतु एक व्यक्ति ने उनसे पूछा-"बाबाजी, धूनी में कुछ आग है ।" बाबा ने कहा-"इसमें आग नहीं" व्यक्ति ने कहा-"कुरेद कर देखिए, शायद कुछ अग्नि हो?" बाबाजी ने अपनी भौंहे तरेरते हुए कहा-"मैंने तुमसे कह दिया, इसमें
अग्नि नहीं ।" उसने उसे फिर झकझोरा-"बाबाजी! कुछ चिंगारियाँ तो है?" बाबाजी ने अपना सड़सा टेकते हुए कहा कि इसमें न अद्नि है, न चिंगारी । व्यक्ति कहने लगा-"बाबाजी, मुझे तो कुछ चिंगारियाँ दिखाई दे रही हैं ।" साधु ने जवाब दिया-"तो क्या मैं अंधा हूँ?" उसने फिर कहा-"कुछ तो लपटें उठती दिखाई देती हैं ।" बाबाजी की क्रोधाग्नि और अधिक बढ़ने लगी तो उस मनुष्य की ओर अपना सड़सा लेकर मारने दौड़ा । व्यक्ति ने बड़ी तेजी के साथ दौड़ते हुए कहा-" बाबाजी, अब तो अग्नि पूरी तरह भड़क उठी । "अग्नि का अभिप्राय बाबाजी के क्रोध से था । संत को बोध हुआ कि मात्र वेश बदलने से नहीं, स्वभाव बदलने से ही पुण्य-प्रयोजन सधता है । अपना व्यवहार बदलने हेतु उन्होंने प्रायश्चित का संकल्प लिया एवं फिर अपने बदले रूप में जन सेवा में प्रवृत्त हो गए ।

आँसुओं से बत्ती न बुझाओ  

बिना भूतकाल से मुक्ति पाए, मोहान्धता से छूटे, विरक्त जीवन संभव नहीं ।

एक प्रौढ़ की इकलौती लाड़ली बिटिया बीमार पड़ी । इलाज और उपाय की सामा पार कर लेने पर भी उसे बचाया न जा सका । बाप का कलेजा टूट गया। व्यथा के आँसू रुकते न थे। तो उसने एकांत साधा। संसार से उसे बुरी तरह विरक्ति हो गई रोते-रोते वह एक रात गहरी नींद में सो गया । सपना आया-वह देव लोक जा पहुँचा है और वहाँ श्वेत वस्त्रधारी बालकों का अत्यंत लंबा जुलूस निकल रहा है । सभी बच्चे प्रसन्न हैं और हाथ में जलती मोमबत्ती लिए आ रहे हैं। सपने को वह बहुत रुचिपूर्वक देखता रहा । उस पंक्ति में उसकी प्यारी बिटिया भी  आ गई । वह उससे लिपट गया और हिलकियाँ ले-ले कर रोने लगा । जब धीरज बँधा, तो देखा और सब बच्चों की मोमबत्ती तो जल रही है, पर अकेली उसी बिटिया की बुझी हुई है । आदमी ने पूछा-"बेटी । तुम्हारी मोमबत्ती क्यों बुझी हुई है?" बच्ची ने उदास होकर कहा-"पापा, साथ वाले बच्चे उसे बार-बार जलाते है, पर आपके आँसू टपक-टपक कर उसे हर बार बुझा देते हैं।"

आदमी की नींद खुल गई । उसने आँसुओं से बिटिया का हास-प्रकाश बुझने न देने का निश्चय किया और न केवल आत्म शांति हेतु, अपितु अपनी बिटिया जैसी अनेक जीवित प्रतिभाओं को ऊँचा उठाने हेतु कृत संकल्प होपरमार्थ परायण जीवन जीने लगा ।

पाप का प्रायश्चित

गुजरात के रविशंकर महाराज ने अपराधी प्रवृत्ति के लोगों से उनकी गलती कबुलवाई और प्रायश्चित्त कराए, एक अपराधी रात भर सोया नहीं । सबेरे महाराज के पास पहुँचा और कहा-"मैंने पड़ोसी के यहाँ शराब की बोतलें रखबाकर उसे पकड़वा दिया था और अब वह जेल में है ।" महाराज ने उसे प्रायश्चित्त बताया कि जब तब वह छूटकर न आए, तब तक उसके घर का खर्च तुम उठाओ और बच्चों की देखभाल रखो । उसने ऐसा ही किया और जब वह जेल से छूटा तो वे घनिष्ठ मित्र बन् गए ।

प्रायश्चित्त से कुसंस्कारों का परिमार्जन होता है व जीवन को नई दिशा मिलती है ।

जब से हाथ समेटे

अकबर के दरबार में एक पेशकार थे बलीराम। बादशाह से अपमानित होने पर उन्होंने वैरण्य की ठानी और घर का सारा माल असबाब गरीबों को दे दिया । स्वयं जमुना की रेती में लंबे पैर पसार कर सोने लगे। बादशाह ने बुलाया, तो वे आए नहीं । अकबर स्वयं ही उन्हें मनाने पहुँचे। कुशल प्रश्न के बाद अकबर ने पूछा-"पैर पसारना कब से शुरू हुआ ।" बलीराम ने कहा-"जिस दिन से हाथ समेटे, उसी दिन से पैरों का फैलना आरंभ हो गया ।" प्रौढ़ों की वृत्ति यहीं होनी चाहिए ।

प्रव्रज्यायां हि योग्यत्वं सुविधाऽपि च विद्यते ।
येषां ते तीर्थयात्रार्थं यान्तु धर्मोपदिष्टये॥५२॥
प्रत्येकेन जनेनात्र साध्य: सम्पर्क उत्तम: ।
अनुन्नतेषु गन्तव्यं क्षेत्रेष्वेवं क्रमान्नरै:॥५३॥
रात्रौ यत्र विराम: स्यात्तत्र कुर्यात्कथामपि । 
कीर्तनं चोपदेशं सत्संगं यत्नेन पुण्यदम् ॥५४॥ 
तीर्थयात्रा तु सैवास्ति योजनाबद्धरूपत: ।
वातावृतिर्भवेद् यत्र निर्मिता धार्मिकी तथा॥५५॥ 
सदाशयस्य यत्न स्यात्पक्षगं लोकमानसम् ।
पोषण सत्प्रवृत्तीनां भवेद् यत्र निरन्तरम् ॥५६॥
तीर्थयात्रा सुरूपे च प्रव्रज्यारतता त्वियम् ।
वर्तते वानप्रस्थस्य श्रेयोदा साधना शभा॥५७॥ 

भावार्थ- जिनकी योग्यता एवं सुविधा प्रव्रज्या के उपयुक्त हो, वे धर्म प्रचार की तीर्थयात्रा पर निकले जन-जन से संपर्क साधें । पिछड़े क्षेत्रों में परिभ्रमण करें । जहाँ रात्रि विराम हो वहाँ कधा-कीर्तन प्रवचन-सत्संग का आयोजन करें। धर्म धारणा का वातावरण उभारते लोकमानस को सदाशयता का पक्षधर बनाते, सत्प्रवृत्तियों का परिपोषण करते योजनाबद्ध यात्रा पर निकलने को तीर्थयात्रा कहते हैं । तीर्थयात्रा के रूप में प्रव्रज्यारत रहना वानप्रस्थ की परम श्रेयस्कर साधना है॥५२-५७॥

व्याख्या-गृहस्थ धर्म से निवृत्ति के बाद वातावरण परिवर्तन का माहात्म्य ऋषि ने अभी-अभी
समझाया है । अब वे कहते हैं कि वानप्ररथों की धर्मधारणा का जन-जन तक विस्तार करने के लिए तीर्थयात्रा पर निकलना चाहिए। यह मात्र पर्यटन-कौतुक के लिए न हो, अपितु सोद्देश्य हो । एक बार आरण्यक में शिक्षण प्राप्त कर लेने के बाद व्यावहारिक सेवा धर्म की साधना समाज क्षेत्र में करने हेतु सभी की उद्यत रहना चाहिए । तीर्थयात्रा क्रमबद्ध हो, पहले से ही उसके गंतव्यों, कार्यक्रमों एवं उद्देश्यों का
योजनाबद्ध निर्धारण कर लिया गया हो । जन-जन में श्रेष्ठता की भावनाएँ भरने के समकक्ष और कोई बड़ी सेवा-साधना नहीं है। एक और बात जो विशेष रूप से यहाँ बताई जा रही है, वह यह कि जहाँ तक संभव
हो ऐसी सेवा-साधना पिछड़े क्षेत्रों में संपन्न की जाय । जहाँ ज्ञान का प्रकाश नहीं पहुँचा, दुष्प्रवृत्तियाँ एवं अभाव ही जहाँ संव्याप्त है, वहाँ अपनी सेवाएँ देना सार्थक है ।

देहात अभी भी नवयुग के प्रकाश से वंचित हैं। वहाँ तक पहुँचने में सेवाभावी वानप्रस्थ तीर्थयात्रियों की धर्म प्रचार टोलियाँ ही समर्थ हो सकती है ।

महापुरुषों की तीर्थयात्रा प्रव्रज्या

तीर्थयात्रा के अभिनव प्रयोग समय-समय पर होते रहे हैं । कितने ही ऋषि-मुनि अपनी छात्र-मंडली समेत पदयात्रा करते रहते थे और विद्यार्थियों को पढ़ाते हुए उनके अनुभव की वृद्धि तथा लोकमानस के निर्माण का तीन गुना पुण्य प्रयोजन सिद्ध करते थे। दार्शनिक सुकरात समय-समय पर अपनी शिष्य मंडली समेत लंबी पद-यात्राओं पर निकलते थे। भगवान बुद्ध के स्थापित विहारों में तीर्थयात्रा की ही शिक्षा दी जाती थी । उसमें विश्वव्यापी धर्म प्रचार के उद्देश्य से ही भिक्षु और भिक्षुणी भर्ती किए जाते थे और जब वे चरित्र, ज्ञान की दृष्टि से प्रखर एवं जिस क्षेत्र में जाना है, वहाँ की भाषा, परिस्थिति से अवगत हो जाते थे, तो फिर सुदूर प्रदेशों में धर्म प्रचार के लिए भेज दिया जाता था। इतिहास साक्षी है कि बौद्ध प्रचारक एशिया के कोने-कोने में छा गए । उन्होंने प्राणघातक रेगिस्तानों, हिमाच्छादित पर्वतों, दलदलों, सघन वनों, उफनते नदी-नालों की, समुद्री अवरोधों की चिंता न की और अपने संकल्पों एवं पुरुषार्थ के बल पर पिछड़े क्षेत्रों में डेरे डालकर प्रगतिशीलता का आलोक वहाँ फैलाया। भगवान बुद्ध स्वयं आजीवन पर्यटक बनकर रहे, उनके विराम स्वल्पकालीन ही रहते थे । भगवान महावीर ने भी इसी परंपरा को निबाहा । मध्यकालीन संतों ने भी अपनी मंडलियों समेत धर्म प्रचार की यात्राओं में ही जीवन का अधिकांश समय बिताया था, संत का अर्थ ही पर्यटक होता था । आश्रम व्यवस्था बनाकर रहने वाले तो ब्राह्मण कहलाते थे । 

महात्मा गांधी की डांडी नमक यात्रा और नोआखाली की शांति यात्रा सर्वविदित हैं । संत विनोबा की भूदान यात्रा के सत्परिणामों से कौन परिचित नहीं है । इन दूरगामी परिणामों को प्राचीनकाल में भली प्रकार समझा गया था और अपने धर्मकृत्यों में धर्म प्रचार की तीर्थयात्रा को प्रमुख स्थान देने के लिए प्रत्येक धर्मप्रेमी से कहा गया था । जो असमर्थ रहते थे, वे भी उच्च आदर्श का स्मरण करने के लिए प्रतीक रूप में नदियों, पर्वतों, वृक्षों, देवालयों की परिक्रमा करके किसी प्रकार मन की साध पूरी करते थे।

रामराज्य में जिसे हम आदर्श समाज का, भारत का प्रतीक मानते हैं, उस समय आवश्यकतानुसार अंशकालीन वानप्रस्थ की परंपरा प्रचलित थी । स्वयं भगवान श्रीराम जब बनवास के लिए गए थे, तो उन्होंने लक्ष्मण सहित विधिवत् वानप्रस्थ ग्रहण किया था। वाल्मीकीय रामायण में उल्लेख है- 
ततो बैखानसं मार्गमास्थित: सहलक्षण:।
 व्रतमादिष्टवान् राम: सहायं गुहमब्रवीत्॥

तब, श्रीराम ने लक्ष्मण सहित वानप्रस्थ ग्रहण करके ब्रह्मचर्य व्रत लेकर अपने सहायक गुह से कहा ।

स्पष्ट है कि वनवास से लौटने के बाद श्रीराम-लक्ष्मण ने पुन: गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर लिया था । राज्य संचालन एवं संतान पैदा करने के कार्य उसके बाद गृहस्थ की मर्यादानुसार ही करते रहे । तीर्थयात्रा प्रव्रज्या में धर्म प्रचार का उदात्त दृष्टिकोण, लोकमंगल की कामना और जनमानस के परिष्कार का प्रयोजन तो पूरा होता ही है, साथ ही प्रत्येक तीर्थयात्री को (१) स्वास्थ्य सुधार, (२) ज्ञान-अभिवर्धन, (३) परिचय क्षेत्र का विस्तार, (४) अनुभव-विचार एवं (५) उदात्त दृष्टिकोण के पाँच लाभ निजी रूप से मिलते है।

थाईलैंड की जीवंत प्रव्रज्या परंपरा

थाईलैंड संसार का एकमात्र देश है, जहाँ बौद्धधर्म-राजधर्म भी है। अन्य देशों ने तो भारत की परंपरागत संस्कृति इन थोडे़ ही दिनों गँवा दी, पर यह अकेला द्स्व्ह ऐसा है, जिसमें वर्तमान भारत की परिधि से आगे जाकर यह देखा जा सकता है कि प्राचीनकाल में भारत की रीति-नीति का क्या स्वरूप था? वहाँ जो देखने को इन दिनों भी मिलता है, उससे यह पता लगाया जा सकता है कि भारत किन मान्यताओं और आदर्शो के कारण उन्नति के उच्च स्तर पर पहुँचा था और शांति का संदेश सुदूर क्षेत्रों तक पहुचाने में किन परंपराओं के कारण सफल हुआ?

थाईलैंड में धर्म-आस्था अन्य देशों की तरह डगमगाई नहीं है । वहाँ के नागरिकों को अभी भी प्राचीनकाल के कर्मनिष्ठ और कर्तव्यपरायण लोगों की तरह जीवनयापन करते हुए देखा जा सकता है । जनता अपनी धर्म-श्रद्धा की अभिव्यक्ति एक बार अनिवार्य रूप से भिक्षु-दीक्षा लेकर व्यक्त करती है । वहाँ समयगत भिक्षु दीक्षा लेने की प्रथा है । थोडे़ समय के लिए लोग भिक्षु बनते हैं और फिर अपने सामान्य सांसारिक जीवन में लौट जाते है । थाईलैंड के प्रत्येक बौद्धधर्मानुयायी का विश्वास है कि एक बार भिक्षु बने बिना उसकी सद्गति नहीं हो सकती। उसके बिना उसकी धार्मिकता अधूरी ही रहेगी। इस आस्था के कारण देर-सबेर में हर सुयोग्य नागरिक एक बार कुछ समय के लिए साधु अवश्य बनता है । घर छोड़कर उतने समय विहार में निवास करता है। साधना तथा अध्ययन में निरत रहता है और संघ द्वारा निर्धारित सेवा-कार्य में सच्चे मन से पूरा परिश्रम करता है । बुद्ध संघ इन भिक्षुओं को व्यवस्थित, नियंत्रित एवं परिष्कृत कर सृजनात्मक कार्यों में नियोजित करता है। सीमित समय के लिए साधु दीक्षा लेने वाली प्रव्रज्या पद्धति उस छोटे से देश के लिए बहुत अधिक उपयोगी सिद्ध हुई है । यही कारण है कि इस देश को अपने ढंग का अत्यंत महत्वपूर्ण प्रगति करने का अवसर मिला है । इसी तरह कंबोडिया में भी किसी समय वहाँ के नागरिकों को अपने राष्ट्रीय कत्थान एवं व्यक्तिगत उत्कर्ष के लिए सामयिक या आंशिक प्रव्रज्या लेना अनिवार्य था । यह परंपरा छिटपुट रूप में वहाँ अब भी विद्यमान है ।

शाप-वरदान बना

बालक नारद जी का मन पूजा-पाठ में न लगता था । वे अपने आस-पास की समस्याओं को समझने और उन्हे हल करने में रुचि लेते थे। विष्णु जब-जब आते, तभी नारद पूजास्थली से गायब मिलते । विष्णु ने शाप दिया-"तुझे ढाई घड़ी से अधिक एक जगह ठहरने की सुविधा न मिलेगी, नारद जी ने इस शाप को वरदान माना और निरंतर परिभ्रमण से असंख्यों को सत्परामर्श देकर उनका कल्याण किया ।

पूरा परिवार परिव्राजक

मैधा और प्रतिभा का उपयोग लोक कल्याण में होना चाहिए । यह सिद्धांत जैसे-जैसे हृदय में गहरा घुसता गया, वैसे ही महापंडित कुमरायण ने मिथिला के दीवान का पद छोड़कर धर्म प्रचार के लिए परिभ्रमण करने का निश्चय किया । बालक कुमारजीव को भी उन्होंने यही दीक्षा दी। काश्मीर में कुमरायण का स्वर्गवास हो गया । उनकी पत्नी ने बौद्ध भिक्षुणी की दीक्षा ले ली और बालक कुमारजीव की शिक्षा का प्रबंध करती हुई उसी क्षेत्र में प्रचार का कार्य करती रहीं। कुमारजीव जैसे ही समर्थ हुए, वैसे ही चीन चले गए। वहाँ उनने अपने और साथी बनाए और बौद्ध धर्म ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद कर डाला । साथ ही भ्रमण करके प्रचार करने लगे । उनके प्रयत्न से स्थिति ऐसी बन गई थी, मानो बौद्ध धर्म का केन्द्र भारत न होकर चीन ही हो । राजाओं की लड़ाई में कुमारजीव नजरबंद भी हुए, पर जल्दी ही छोड़ दिए गए। बौद्ध मठों का निर्माण, धर्म शास्त्रों का अनुवाद तथा प्रचारकों की एक बड़ी सेना का गठन करने के साथ-साथ लाखों शिष्य बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए । इस सफलता में प्रधानतया कुमारजीव की ही भूमिका थी ।

अंधों की तीर्थयात्रा

श्रवण कुमार के माता-पिता अंधे थें, पर उनकी इच्छा तीर्थयात्रा की थी । श्रवण कुमार ने आश्चर्य से पूछा-"जब आप लोगों को दीखता ही नहीं और देव दर्शन कर नहीं सकेंगे, तो ऐसी यात्रा से क्या लाभ?" पिता ने कहा-"तात, तीर्थयात्रा का उद्देश्य देव दर्शन ही नहीं, वरन् विप्रजनों का घर-घर, गाँव-गाँव जाकर जन-संपर्क साधना और धर्मोपदेश करना है । यह कार्य हम लोग बिना नेत्रों के भी कर सकते हैं। इससे इन दिनों जो निरर्थक समय बीतता है, उसकी सार्थकता बन पड़ेगी ।" श्रवण कुमार को इस इच्छा की उपयोगिता समझ में आ गई और आवश्यक साधन-सामग्री कंधे पर रखकर तीनों ही उस धर्म प्रचार की पद यात्रा में निकल पड़े।

सामर्थ्य को जीवित रखो-औरों के काम आओ

वयोवृद्ध कथाकार ईसप सदैव भ्रमण करते रहते थे । एक एथेन्सवासी विद्वान ने गंदी बस्तियों में बच्चों के झुंड के बीच उन्हें साथ खेलते और खिलखिलाकर हँसते हुए देखा । इस पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए उस विद्वान ने पूछा-"ऐसा करने से तो आपका रुतबा गिरता है। आपको तो कहीं बैठकर साहित्य साधना करनी चाहिए ।" ईसप ने सीधा उत्तर तो न दिया, पर पास में पड़े
एक खुले धनुष को दिखाते हुए कहा-"बताओ तो, इसकी डोरी क्यों खुली छोड़ी गई है?"

विद्वान ने कहा-"हर समय कसा रहने से धनुष का लचीलापन चला जाएगा और वह फिर तीर फेंकने लायक न रह सकेगा ।" समाधान समझाते हुए ईसप ने कहा-"मनुष्य हर समय तनावग्रस्त, व्यस्त और भारी रहे, तो वह निकम्मा हो जाएगा । घूमने-फिरने, हँसने-हँसाने का ढीलापन सामर्थ्य को जीवित रखने के लिए आवश्यक है । क्यों न उसके साथ ही सत्प्रवृत्ति संवर्धन को, पिछड़ों को आगे बढ़ाने के कार्य को जोड़ दिया जाय ।"

र्वेश्याएँ साध्वी बनीं 

काहिरा की एक गंदी गली में संत सुलेमान परिव्रज्या करते हुए जा पहुँचे । उसमें वेश्याएँ भर रहा करती थीं । वेश्याऔं ने समझा, संत वासनापूर्ति के लिए आए है, सो एक ने उन्हें इशारे से बुला लिया । संत नि:संकोच चले गए। दोनों ने एक दूसरे का परिचय जाना । संत की आँखें झरने लगीं । हाय रे, भगवान, तेरी ऐसी सुंदर कृतियाँ कितनी अभागी बन गईं। असुंदर कृत्य कैसे करने लगीं? वेश्या पर इस पवित्रता और करुणा का असाधारण प्रभाव पड़ा। वह साध्वी बन गई । देखा-देखी दूसरी भी उसी रास्ते पर चली और वेश्या समुदाय के प्रयत्नों से उस क्षेत्र में कितनी ही सत्प्रवृत्तियाँ चल पड़ीं। एक सुंदर उद्यान, मार्ग, मठ एवं नारी-निकेतन का निर्माण उन्हीं की दानराशि से हुआ। पिछड़ी को ऊँचा उठाना ही सबसे बड़ा परमार्थ है।

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118