प्रौढा अनुभवन्त्वत्र समये चिन्तयन्त्वपि ।
अनुशासनमेतस्या दिव्याया देवसंस्कृते:॥२३॥
पाललिष्याम एनं च धर्म त्वाश्रमजं सदा ।
आयुषोऽप्युत्तरार्धं च निश्चिन्वन्तु परार्थकम्॥२४॥
सुविभाजनरेखेयमात्मकल्याणतस्तथा ।
विश्वकल्याणतोऽप्यास्ति श्रेय: सम्पादिका ध्रुवम्॥२५॥
विभाजनेऽस्मिन् स्वार्थस्य परार्थस्यापि विद्यते ।
समावेशों हि सम्यक् सिद्ध्यन्त्येतेन पूर्णत:॥२६॥
प्रयोजनानि संस्कारव्यवहारगतान्यथ ।
परात्मन: प्रसादाय चात्मन: काल आप्यते॥२७॥
पुरातनस्य कालस्य दिव्या वातावृतिस्तु सा।
अस्या: परम्पराया हि उपहार इव स्मृत:॥२८॥
सा च प्रचलिता यावत् तावद् भूमिरियं स्मृता।
जगन्मङ्गलमूलेव स्वर्गादपि गरीयसी॥२९॥
निवासिनोऽपि चात्रत्या त्रयस्त्रिंशत्तु कोटिका:।
अभूवन् परित: देवास्ते हि सम्मानिता अपि॥३०॥
भावार्थ-प्रौढ़ों में से प्रत्येक को समय रहते यह अनुभव करना है कि वे देवसंकृति के अनुशासन को ध्यान में रखेंगे आश्रम धर्म का पालन करेंगे और आयु का उत्तरार्द्ध परमार्थ प्रयोजन के लिए निर्धारित रखेंगे । यह विभाजन रेखा आत्मकल्याण और विश्वकल्याण दोनों ही दृष्टि से परमश्रेयस्कर है इस विभाजन में स्वार्थ और परमार्थ का सतुंलित समावेश है । इससे सांसारिक प्रयोजन भी पूरे होते हैं और आत्मा-परमात्मा को प्रसन्न करने का भी अवसर मिलता है पुरातनकाल का सतयुगी वातावरण इसी परंपरा की देन था जब तक वह प्रचलित रही तब तक जगत् के कल्याण की भूमि 'स्वर्गादपि गरीयसी' बनी रही और यहाँ के निवासी सर्वत्र तैतीस कोटि देवता माने जाते तथा सम्मानित होते रहे॥२३-३०॥
व्याख्या-आयुष्य के आश्रम विभाजन के मूल में गहरा तत्वदर्शन है। व्यक्ति का स्वयं का तो इसमें हित है ही? समष्टिगत कल्याण भी इससे सधता है। व्यक्ति अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होकर निठल्ला नहीं बनता, वरन् और भी बड़े समुदाय के लिए उत्तरदायी हो जाता है । गृहस्थ जीवन का दायित्व पूरा होते ही समाज, क्षेत्र में आराधता के निमित्त निकल पड़ना, देव संस्कृति की पुनीत परंपरा रही है । सतयुग में यह प्रथा जीवित थी, अत: कहीं कोई विग्रह नजर नहीं आता था, न लोकसेवियों की कमी ही पड़ती थी । आज भी उसी परंपरा के पुनर्जागरण की आवश्यकता है ।
ऐसे पराधीन न बनें
एक सेठ की पत्नी का स्वर्गवास हो गया । चारों पुत्र समर्थ हो गए थे । उसने अपनी संपदा चारों को बाँट दी और स्वयं साधन विहीन हो गया । पुत्रों के विवाह भी हो गए । सेठ बड़े लड़के के पास रहते थे। उसका खर्च बढ़ता था स्वतंत्रता में भी बाधा पड़ती । उसकी पत्नी बोली-"ससुर जी, हमारे ही यहाँ क्यों रहते है? दूसरों के यहाँ क्यों नहीं जाते?" वे दूसरे लड़के के यहाँ रहने लगे। वहाँ भी यही प्रश्न उठा और तीसरे, चौथे के यहाँ भी । दुखी होकर उनने फल बेचने पहले पेट भरने की व्यवस्था बनाई। पीछे अपने खरीददारों को सिखाया करते थे कि जीवनपर्यंत अपनी आवश्यकताओं के कुछ साधन अपने हाथ ही रखने चाहिए; अन्यथा मेरी तरह पछताना पड़ेगा। उनकी स्थिति की समीक्षा करते हुए एक संत ने कथा प्रसंग के दौरान श्रोताओं को बताया कि ऐसी दुर्गति को पहुँचने के पूर्व ही स्वयं को किसी लोकसेवी संगठन से जोड़ कर अपनी उपलब्धियाँ, संपदा एवं अनुभव का लाभ समाज को देना ही श्रेयस्कर है।
वद्ध पिता को घर से निकालो
एक बहुत सुंदर वधू ने पति को पूरी तरह वशवर्ती कर लिया। घर में बहुत बूढा का बाप था । खाँसता और असमर्थ होने के कारण तरह-तरह की माँगे करता । वधू ने पति से हठ किया कि या तो इस बूढे़ हटाओ, नहीं तो मैं नैहर चली जाऊँगी और फिर कभी नहीं आऊँगी । पति को वधू के सामने झुकना पड़ा। वह ऊँटों पर माल ढोने का काम करता था । सो एक दिन पिता को नदी पर पर्व जौन के लिए चलने को तैयार कर लिया । साथ ले गया और रास्ते में मार कर उसे झाड़ी के नीचे गाड़ दिया । दिन गुजरने लगे । पुत्र जन्मा, बड़ा हुआ। उसकी भी सुंदर वधू आई । बाप बूढा और अशक्त हुआ । घटनाक्रम पुराना ही दुहराया गया । बूढे को हटा देने का निराकरण भी उसी प्रकार हुआ । ऊँट पर बैठाकर पर्व स्नान के बहाने ले जाया गया और मार कर उसी झाड़ी में गाड़ दिया गया, जिसके नीचे बाप गड़ा था । इस लड़के का भी लड़का हुआ । उसके भी सुंदर वधू आई । बुढ़ापा, अशक्तता और खाँसी का दौर चला और नववधू द्वारा उसे भी हटा देने का पुराना प्रस्ताव सामने आया । लडके ने बाप को ऊँट पर बैठा कर पर्व स्नान के लिए सहमत कर लिया । संयोगवश उसे भी मारने और गाड़ने के लिए वही झाड़ी उपयुक्त पाई गई । बेटा छुरा निकालने ही वाला था कि बाप ने उसे रोका और कहा-"यहाँ दो गड्डे खोद कर देखो ।" दोनों में दो अस्थिपंजर पाए गए, जो बूढ़े बाप और बाबा के थे । उनका दुखद अंत भी वधुओं के आग्रह पर किया गया था। बुड्ढे ने कहा-"मुझे मारने पर तो इसी परंपरा के अनुसार तेरी भी दुर्गति होगी । इसलिए इस प्रचलन को तोड़ना ही उपयुक्त है । मैं स्वयं कहीं चला जाता हूँ । तू बिना मारे ही लौट जा। वधू से मार दिए जाने की बात कह देना ।" बेटे की आँख खुल गई और वह पिता को वापस घर ले आया । उनकी सेवा करने लगा । वधू को कह दिया कि उसे जो भी करना हो, करे । वह पिता को पीठ न देगा । उफान शांत हो गया । पत्नी भी न गई । बूढा भी बच गया और परंपरा भी टूटी । जो चलती रहती तो अनेक पीढ़ियों तक इसी प्रकार के बापों का वध होता रहता। आज अनेक परिवार ऐसी ही दुर्गति की स्थिति में है। दो पीढियों में पारस्परिक टकराव होता देखा जाता है । समझ-बूझ कर काम लिया जाय, तो आश्रम व्यवस्था के माध्यम से विग्रह टालें जा सकते हैं ।
वानप्रस्थ में तप
श्रुति का मत है कि"तपाने से मिट्टी के बर्तन पकते और मजबूत होते हैं। धातुएँ भट्टी में शोधी जाती हैं । पानी को आग में उबालने से शक्तिशाली भाप बनती है। रेल के इंजन तक चलाती है । बहुमूल्य रस-भस्म अग्नि संस्कार से ही बनती है। अंडा गर्मी से पकता है । सुपाच्य भोजन बनाने के लिए चूल्हा गरम करना पड़ता है । मनुष्य के संचित कुसंस्कारों को जलाने और प्रखरता उत्पन्न करने के लिए तपश्चर्या का आश्रय लेना पड़ता है । मनोबल बढ़ाने के लिए इस उपचार की अनिवार्य आवश्यकता पड़ती है। हर वानप्रस्थ लेने वाले के लिए तप अनिवार्य है, ताकि वह जीवन क्रम को नए सिरे से आरंभ कर सके । पूर्व के कुसंस्कार मिटा कर स्वयं को प्रखर लोक सेवी बना सके ।"
प्रशंसनीय वानप्रस्थ
मास्टर दीनदयाल जब रिटायर हुए, तब भी उनका स्वास्थ्य ठीक था। उनने अपने पूर्णिया जिले में गाँव-गाँव जाकर स्कूलों की स्थापना में अपना शेष जीवन लगाया। बच्चों से निवृत्त हो गए थे । उनने वानप्रस्थ ले लिया । एक गाँव में कई-कई दिन ठहरते । हर घर से एक मुट्ठी अनाज जमा करने के लिए घड़े रखवाते । उसी से अध्यापक का वेतन चल जाता । ऐसे १०० स्कूल खुलवाने का उनने व्रत लिया था। सो जीवन के अंत तक उनने पूरा कर लिया। उनका यह वानप्रस्थ सर्वत्र सराहा गया ।
अंधकृप का लोक सेवी
डैविड लिंकिग स्टार दक्षिण अफ्रीका के उस क्षेत्र में सेवा-साधना के लिए पहुँचे, जिसे अंध कूप कहा जाता था। चिकित्सा, सहायता और सुधार तीन उद्देश्य लेकर वे उस क्षेत्र में आजीवन रहने के लिए गए थे । उनके इन कार्यो का उस समुदाय में स्वागत नहीं हुआ । कबीलों की भाषाएँ अलग से सीखने में उन्हें बहुत कठिनाई हुई । एक कबीले वालों ने तो उनका एक हाथ ही तोड़ दिया, तो भी वे निराश नहीं हुए और पूरे तीस वर्ष उसी क्षेत्र में जमकर अपने त्रिविध कार्य करते रहे। दास बनाने के गोरों के प्रयास का भी वे डट कर विरोध करते रहे । उन्हें समझने में लोगों को बहुत देर लगी। मरने के बाद लोगों को यह कहते सुना गया कि देवता चला गया, भगवान चला गया ।
पीपासर के संत जमेश्वर
किसान खेती करता है, किन्तु उसकी उपज स्वयं ही नहीं खा जाता, गाय दूध देती है, पर उसे स्वयं ही नहीं पी जाती । तुलसीदास जी ने संतों की उपमा फलदार वृक्षों से दी है, जो दूसरों के निमित्त ही फलते है । जो दूसरों से निर्वाह लेकर अपने लिए स्वर्ग-मुक्ति का वैभव जुटाए, उन्हें भिक्षुक, गिरहकट आदि ही कहा जा सकता है । भारत भूमि में समय-समय पर अनेक संत होते रहे हैं, जिनने जन कल्याण के लिए अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया। अपना गृहस्थ जीवन जीकर भी, जो जन सेवा करते रहे एवं उनके लिए एक आदर्श स्थापित कर गए, न कि जो खाली बैठे, संत वेश में अन्न क्षेत्र में दाना चुगते रहते हैं, अथवा घर वालों पर भार बने खीसे निपोरते रहते हैं ।
ऐसे ही एक संत जोधपुर क्षेत्र के पीपासर क्षेत्र में हुए है । नाम था जमेश्वर। व्यक्तिगत जीवन में वे संयमी रहे, तपस्वी तो थे ही । लोक शिक्षण के निमित्त भी उन्होंने अनेक उपयोगी परंपराएँ चलाई । इनके अनुयायी विश्नोई नाम से जाने जाते हैं । ये उत्तर भारत में सर्वत्र और राजस्थान, हरियाणा में विशेष रूप में पाए जाते हैं । उन्होंने मांसाहार, हरे वृक्षों का काटना, बाल विवाह, छुआछूत आदि अनेक कुप्रथाओं का उन्मूलन किया और व्यक्तिगत जीवन में अधिक पवित्र एवं सद्भाव संपन्न होने की शिक्षा दी । उनने जो लिखा स्थानीय सरल भाषा में लिखा, ताकि सर्व साधारण को उसे समझने में कठिनाई न हो । इस समुदाय को अभी भी अधिक प्रामाणिक एवं सुधारवादी माना जाता है।
घाट का पत्थर
लोक सेवी कहीं भी रहें, सराहे जाएगें । हस्ती भले छोटी हो, सेवा का आनंद स्वयं में निराला है ।
सरिता के सुरम्य तट पर सुशोभित शिव मंदिर, पास ही घाट पर धोबियों के पत्थर पड़े थे । मंदिर में प्रतिष्ठित शिवलिंग और धोबी का एक पत्थर दोनों कभी एक पर्वत उपत्यिका से साथ-साथ चले थे । काल गति ने एक को शिव प्रतिमा बना दिया, तो दूसरे को धोबी का पत्थर। धोबी का पत्थर आत्महीनता अनुभव कर दुखी होता। उससे एक दिन रहा नहीं गया, शिवलिंग को संबोधित कर कहा-"तात! आप धन्य हैं । देव मंदिर में प्रतिष्ठित है । भव-बंधनों में जकड़े प्राणी आपके पास आकर कितनी शांति, कितना संतोष अनुभव करते है। काश, यह पुण्य सुयोग हमें भी मिलता ।" शिवलिंग आत्म-प्रशंसा सुनकर गंभीर हो उठे। बोले-" तात! आपका दुख करना निरर्थक है, आप नहीं जानते हम तो मात्र यहाँ आने वाले लोगों को क्षणिक शांति और शीतलता प्रदान करने हैं। आप तो निर्विकार भाव से हर किसी का मैल धोते रहते है । आप की साधना धन्य है । मेरे पास आने की प्रथम कसौटी तो आप ही हैं । इसीलिए जब लोग मेरी उपासना करते हैं, तब मैं आपकी किया करता हूँ ।" घाट का पत्थर गद्गद् हो उठा और दुगुने उत्साह से लोगों का मैल धोने लगा ।
गुलाब के पुष्प का चिंतन
उत्तरकाल का परमार्थ-परायण जीवन जीने वालों की मन:स्थिति सदैव उपवन के गुलाब की तरह होती है । प्रातःकाल की पवन लहरी आई और गुलाब को स्पर्श कर चली गई। पत्ते ने हँसते गुलाब को देखा, तो आग-बबूला हो गया। बोला-"यह भी कोई जीवन है, माली आता है और असमय में ही तुम्हारी जीवन लीला समाप्त कर देता है, इतने अल्प जीवन में भी क्या आनंद? मैं रोज देखता हूँ? कितने फूल खिलते मुरझा जाते हैं ।" गुलाब ने बड़े शांत स्वर में उत्तर दिया-"भाई जीवन का अर्थ है-सच्ची सुगंध । इस प्रकार चारों और सुगंध फैलाते हुए आमंत्रित मृत्यु ही जीवन की अमरता है।
एतदर्थं मतं चैतत्परमावश्यकं नृणाम् ।
शिशवो ह्मल्पसंख्यायामुत्पन्ना: स्युगृहे गृहे॥३१॥
विवाहस्याल्पकालाच्च पश्चात्प्रजननं स्वत: ।
अवरोधव्यमर्धे तु व्यतीते चायुषों यत:॥३२॥
शिशुदायित्वमुक्ति: स्यात् प्रत्येकस्य शिशोर्ह्यदि।
स्थापनीयमिदं देयं तेनर्णं पैतृकं महत् ॥३३॥
इदं तैरिह कर्त्तव्यमृणमुक्त्यै निरन्तरम् ।
अनुजानां सुनिर्वाह: शिक्षाऽथ स्वावलम्बनम्॥३४॥
पितुरुत्तरदायित्वेष्यत्र जेष्ठै: सुतै: सदा ।
सहयोगो विधातव्योऽनृणैर्भाव्यमिहोत्तमै:॥३५॥
ऋणं तिष्ठेन्न पित्नोस्तद् वयस्कानां कृते त्विदम् ।
शास्त्राणां विद्यते ह्यज्ञा धार्मिकी च परम्परा॥३६॥
यथोत्तराधिकारस्तु पितु: पुत्रैरवाप्यते।
तथैवोत्तरदायित्वं ते वहन्तु च पैतृकम्॥३७॥
अनुजानां तथाऽशक्तजनानां पोषणादिकम् ।
तथा कार्यं यथा पित्रा कृतं ज्येष्ठसुतस्य तत्॥३८॥
भावार्थ-इस तैयारी के लिए आवश्यक है कि प्रत्येक घर में बच्चे कम संख्या में हो। विवाह के कुछ समय उपरांत ही प्रजनन बंद कर दिया जाय, ताकि आधि आयु होने तक बच्चों के उत्तरदायित्व से निपटा जा सके। हर बालक के मन में आरंभ से ही यह बिठाया जाय कि उन्हें महान पितृ ऋण चुकाना है। यह ऋण चुकाने का कार्य अपने छोटे भाई-बहनों के निर्वाह एवं शिक्षा-स्वावलंबन के रुप में करना होता है। पिता के उत्तरदायित्वों में हाथ बँटाना, बडे़ बच्चों का कर्तव्य है। ऋणी किसी का भी नहीं रहना चाहिए, माता-पिता का भी नहीं-यह वयस्क बालकों के लिए शास्त्रों का अभिवचन है। यही धर्म परंपरा भी है। पिता का उत्तराधिकार जहाँ बच्चों को मिलता है, वहाँ उनके शेष उत्तरदायित्वों का भी परिवहन करें। छोटे भाई-बहनों, घर के वृद्ध या अशक्तजनों का भरण-पोषण उसी प्रकार करना चाहिए, जैसे कि पिता ने ज्येष्ठ पुत्र का किया हैं॥३१-३८॥
व्याख्या-मानव जीवन किन्हीं उद्देश्य विशेषों के लिए मिला है । पशुओं की तरह स्वच्छंद जीवन बिताकर निरंतर यौनाचार में निरत रहना मानवी गरिमा के प्रतिकूल है। वानप्रस्थ आश्रम में उपयुक्त समय पर प्रवेश कर स्वयं को लोक सेवा में प्रवृत्त किया जा सके, इसके लिए अनिवार्य है कि गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते ही भावी जीवन की योजना बना ली जाय। यदि प्रजनन जल्दी बंद कर दिया जाय, तो लौकिक जीवन से निवृत्ति लेने की अवधि के पूर्व ही उन दायित्वों से मुक्त हुआ जा सकता है, जो शैतानों से जुड़े होते हैं । मात्र अपनी जिम्मेदारी पूरी करना ही काफी नहीं, बच्चों के मनों में प्रारंभ से ही सरकार डाला जाना चाहिए कि आगे चलकर उन्हें पिता के दायित्वों को सँभालना, अपनों से छोटों का भरण-पोषण कर उन्हें स्वावलंबी बनाना है । इतना किए बिना वे उस ऋण से मुक्त नहीं हो सक्ते, जो उन पर पिता के उपकारों के कारण चढ़ा रहता है। उत्तराधिकार मात्र धन-संपदा का ही नहीं ठोता उन जिम्मेदारियों का भी होता है, जो कभी पिता ने पूरी की व अब संतानों को पूरा करना चाहिए ।
अन्य जीव-जन्तु बनाम मानव
मनुष्य तो प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ है । उसे तो अन्यों के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए।
गाय, बैल, भैंस, घोडे़ आदि सभी सशक्त प्राणियों में संततिक्रम सीमित है। कम संतान जनने वाले हाथी और व्हेल सौ-सौ वर्ष जीते है। शेर चालीस वर्ष, घोडा तीस वर्ष, गाय पच्चीस वर्ष, कुत्ता पंद्रह, बकरे-बकरी पंद्रह वर्ष जीते हैं । जबकि छोटी मछलियाँ और छोटे पशु अल्प अवधि तक जीते है । जो प्राणी जितने अधिक और जितनी जल्दी बच्चे उत्पन्न करता हो, तो समझना चाहिए कि वह उतनी ही कम आयु प्राप्त कर सकेगा और उतना ही दुर्बल बनकर रहेगा । जीव विज्ञान के ये तथ्य पूरी तरह मनुष्य पर भी लागू होते हैं । मर्यादित प्रजनन की महत्ता को समझा जाना चाहिए, ताकि शीघ्र ही और भी महत्वपूर्ण दायित्व पूरे किए जा सके।
लालची को वरादान भी अभिशाप
संतान संबंधी कामनाएँ अच्छे-खासे जीवन को नष्ट कर डालती हैं। जीवन सोद्देश्य हो तो ही यह योनि सार्थक है । राजा संजय की कोई संतान न थी । साथ ही वह बड़ा लोभी भी था। एक दिन नारद जी से उसकी भेंट हुई, उसने अपने पुत्र तथा विपुल धनराशि प्राप्ति का वरदान माँगा। नारद जी ने 'एवमस्तु' कह दिया । बालक जन्मा, उसमें यह विशेषता थी कि जो मलमूत्र करता था, उसमें सोना ही निकलता था। राजा बहुत प्रसन्न था । चोरों को यह पता चला, तो उनने घात लगाकर लड़के को चुरा लिया, ताकि वे धनवान हो सकें । राजा की मनोकामनाएँ चूर-चूर हो गई। वे निराश और दुखी रहने लगे। लोग कहते थे, "आप तो इससे पहले ही अच्छे थे । वरदान से आपने शोक और ओढ़ लिया ।"
धर्म मरा नहीं है
बहुधा घरों में यही देखा जाता है कि समय पूरा हो जाने पर भी अपना मोह परिजनों से छूटता नहीं, जब व्यवहार में संगति नहीं आ पाती, तो परिणाम बुरे होते हैं। एक विधवा का एक ही पुत्र था । उसने पालने-पोसने, पढ़ाने के उपरांत उसका विवाह भी कर दिया । सास-बहू में पटरी न खाई । आए दिन लड़ाई रहने लगी । निदान की माँ ने घर छोड़ दिया और भिक्षा माँग कर पेट भरने लगी। बुढ़िया का क्रोधी स्वभाव तब भी ठंडा न पड़ा । वह मरघट में जाकर चिता पर हवन करने लगी और मरे धर्म को भस्म करने का मनमानी विधान रचने लगी । एक विद्वान उस राह से निकले । उनसे वृद्धा ने इस कौतुक का कारण बताया और पुत्र-वधू के कलह को धर्म की मृत्यु मानकर उसकी अंत्येष्टि करने का प्रयास का विवरण बताया। विद्वान ने समझाया-"माताजी । धर्म मरा नहीं है । आप अपने धर्म का पालन करें पुत्र-वधू से पुत्रीवत् व्यवहार करें, धर्म फिर जीवित हो जाएगा ।" विद्वान वृद्धा को साथ लेकर उसके घर गया और, सास-बहू दोनों को समझा दिया । वे प्रेमपूर्वक रहने लगीं और मरा धर्म जीवित हो गया ।
संपदा नहीं संस्कार
अपनी संतानों को संस्कार रूपी निधि ही उत्तरदायित्व में दी जानी चाहिए, क्योंकि वही मूल थाती है। महर्षि कर्वे ने मैट्रिक के बाद बच्चों को इस शर्त पर पढ़ने के लिए रुपया दिया कि वे उसे कमाने लगने पर सर्वप्रथम वापस करेंगे। बाद में विवाह, प्रजनन आदि के खर्च बढ़ाएंगे । बच्चों ने उस शर्त को ईमानदारी से निबाहा । कमाने योग्य बनते ही पहले कर्ज चुकाया, बाद में विवाह किया। महर्षि ने वह पैसा महिला सुधार आंदोलन के लिए लगाया। वे कहते थे उत्तराधिकार में संतान को सुसंस्कारिता देना ही पर्याप्त है। संपदा में
समूचे समाज की हिस्सेदारी है ।
पुत्र न रहा, तो विश्व-विद्यालय बना
कैलीफोर्निया के प्रसिद्ध धनपति स्टेन फोर्ड का एक ही बच्चा था । संबंधियों ने उसका अपहरण करके मार डाला, ताकि स्टेन फोर्ड शोक में जल्दी मरें और उनकी संपदा हथियाने का उन्हें समय मिले। कुछ समय स्टेन फौर्ड बड़े दुखी रहे, पीछे उन्हें एक सूझ सूझी । अपनी ६००० एकड़ की सोना उगलने वाली भूमि पर एक विश्वविद्यालय बना दिया। यह भूमि अध्यापकों और निर्धन छात्रों का खर्च भली प्रकार चला देती थी। यह विश्वविद्यालय उनने अपने पुत्र लीलेंड की स्मृति में बनाया । अपना और मृत पुत्र का सच्चा हित साधन कर लिया । उस क्षेत्र में यह स्वावलंबी विद्यालय अपने ढंग का अनोखा है ।
बिना काम पुरा किए चैन नहीं
जिम्मेदारियाँ समाज में सभी को निभानी पड़ती हैं। विशेषकर लोक सेवा के क्षेत्र में उतरने वालों के लिए तो यह और भी अनिवार्य है । पवनार में विनोबा जी प्रतिदिन आठ घंटे कुआँ खोदने का काम करते थे । आसपास की संस्थाओं के लोग भी इस कार्य में उनकी मदद करते थे। कई नेता या मंत्री विनोबा जी से मिलने आते, तो उन्हें यह भी काम करना पड़ता था। श्रीमती जानकी देवी बजाज भी कुछ दिन वहाँ रहीं और उन्होंने नियमित रूप से एक घंटा चक्की पीसने, एक घंटा रहट चलाने और छह घंटे खाली-भरी टोकरी कुँए पर इधर से उधर देने का काम किया। आठ घंटें काम करने वाले कार्यकर्त्ताओं को १३ आने पारिश्रमिक और भोजन मिलता था, जिसमें दाल, ज्वार की रोटी, मूँगफली का मक्खन और सब्जी होती थी। विनोबा जी कहते थे कि दूध, दही, घी, तेल तो तब मिले,जब कुंआँ खुदे, उसमें से पानी निकले, पानी से खेती हो, खेती से घास-दाना हो, जिससे गाय रखी जाय। तब तक इसी से काम चलाना होगा। यही आदर्श परिवार संस्था पर भी लागू होता है एवं गृह प्रमुख को ही इसके लिए कदम उठाना होता है ।
ज्येष्ठा तु सन्ततिर्यर्हि गृहकार्य बिभर्त्यलम् ।
व्यतीतार्धायुषा कार्यं पुरुषेण तत: स्वयम्॥३९॥
स्वकर्तव्यधिया शेषसदस्यानां सुरक्षया ।
भरणेन, सहैवात्र परार्थं कर्म चाधिकम्॥४०॥
प्रयोजनेषु देयं च ध्यानमध्यात्मकेष्वपि ।
पत्नी कुर्याच्च कार्याणि गृहस्थस्य समान्यपि॥४१॥
इच्छुका सा सुयोग्या च यदि तत्साऽपि सादरम् ।
प्रयोजनेषु नेयैव परार्थेषु सहैव तु ॥४२॥
परम्परेयं प्रोक्ता च वानप्रस्थाभिधानत:।
इमं च निर्वहेद् धर्मं गृहस्थमिव सर्वदा ॥४३॥
भावार्थ-बड़ी संतान जब गृह कार्य सँभालने लगे, तो अधेड़ का कर्तव्य हो जाता है कि परिवार के शेष सदस्यों की देखभाल करने के साथ-साथ अपने समय का अधिकांश भाग परमार्थ प्रयोजनों के लिए निकालने लगे। अध्यात्म-प्रयोजनों की ओर अधिक ध्यान दे। यदि वह इच्छुक और सुयोग्य हो, तो उसे भी परमार्थ प्रयोजनों में साथ रखे । इसी का नाम वानप्रस्थ है । इसका निर्वाह गृहस्थ धर्म के निर्वाह की तरह ही आवश्यक है ॥३९-४३॥
व्याख्या-धर परिवार संबंधी अपनी जिम्मेदारियाँ संतान के सुयोग्य होते ही पूरी हो जाती हैं। गृह प्रमुख का भार पत्नी सँभाले, क्योंकि वह गृहलक्ष्मी है । वह सुचारू रूप से उन जिम्मेदारियों को निभा सकती है, जिनके लिए उनके पति ने सारा गृहस्थ जीवन लगा दिया। वृद्धजनों को अपना ध्यान अब आयुष्य के इस मोड़ पर समाज सेवा की ओर देना चाहिए । वानप्रस्थ अकेला भी निभा सकता है एवं धर्मपत्नी के स्वतः स्वीकार करने पर पत्नी के साथ भी । दोनो ही यदि परमार्थ कार्य हेतु संलग्न हो सके, तो इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है?
आयु मात्र पाँच वर्ष
वस्तुत: जीवन उतना ही सार्थक है, जितना परहितार्थ नियोजित होता है । राजा शतायुध प्रजा निरीक्षण के लिए निकले । एक झोपडी में जराजीर्ण वयोवृद्ध दीखा। राजा रुक गए। कौतूहलवश पूछा-"आपकी ओयु कितनी है?" देखने में शतायु की परिधि तक पहुँचे दीखते थे। वृद्ध ने झुकी गरदन उठाई और कहा-"मात्र पाँच वर्ष ।" राजा को विश्वास न हुआ । फिर से पूछा, तो वही उत्तर मिला । वृद्ध ने कहा-"पिछला जीवन तो पशु प्रयोजनों में निरर्थक ही चला गया । पाँच वर्ष पूर्व ज्ञान उपजा और तभी से मैं परमार्थ प्रयोजन में लगा । सार्थक आयु तो तभी से गिनता हूँ ।"
बा का उलाहना
साबरमती आश्रम में भोजन बंद के उपरांत कई अतिथि आए, उनमें पं० मोतीलाल नेहरू भी थे। कुछ भोजन बनाने की आवश्यकता पड़ी । बा उसी समय थक कर लेटी थीं । उनकी आँख लग गई । आश्रम में एक ट्रावनकोर का लड़का काम करता था । एक लड़की कुसुम भी भोजन में सहायता करती थी । गांधी जी ने इन दोनों बच्चों से कहा-"कुछ भोजन बना डालो ।" वे जुट गए और प्रबंध हो गया । बा जगीं, तो उन्हें दुख हुआ । बोलीं-"झे क्यों नहीं जगाया? इन बच्चों को भी तो आराम की आवश्यकता थी ।" पति-पत्नी की इसी परदुखकातरता, सेवा के प्रति निष्ठा ने उन्हें विश्ववद्य बना दिया।
परमार्थ हो सच्चा हो
सत्संग में बार बार त्याग की महिमा का वर्णन आता था । उसे ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बताया जाता था। सुनने वालों में से एक भाबुक भक्त जरायुध ने अपनी सारी संपदा दान कर दी । फिर भी उन्हें न शांति मिली और न ईश्वर प्राप्ति हुई । जरायुध महाज्ञानी शुकदेव के पास पहुँचे और बोले-"जनक तो संग्रही हैं, तो भी उन्हें ब्रह्मज्ञान हुआ है और मैं सब कुछ त्याग चुका, तो भी शांति लाभ न कर सका । इसका क्या कारण है ?" शुकदेव ने कहा-"आवश्यक वस्तुओं का परमार्थ प्रयोजन में लगा देना, तो नैतिक और सामाजिक कर्तव्य है । आध्यात्मिक स्तर के त्याग में हर वस्तु का ममत्व छोड़ना और उन्हें ईश्वर की धरोहर समझना पड़ता है । शरीर और मन भी संपदा हैं, उन्हें ईश्वर की अमानत मानकर उसी की इच्छानुसार प्रयुक्त किया जाने लगे, तो समझना चाहिए कि सच्चा त्याग हुआ और मोक्ष का मार्ग मिला ।
ऐसा आशीर्वाद नहीं चाहिए
ईश्वरचंद्र विद्यासागर अभाव और निर्धनता के बीच पढ़ते-पढ़ते ५० रुपये मासिक के नौकर हो गए। उनकी सफलता पर उनके अनेक संबंधी उन्हें आशीर्वाद देने पहुँचे, बोले- भगवान की दया से तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो गए। आप आराम से रहो और चैन का जीवन बिताओ ।"ईश्वरचंद्र जी के नेत्र भर आए, बोले-"आपने यह आशीर्वाद दिया या अभिशाप? जिस अध्यवसाय के बल पर मैं उस भीषण परिस्थिति से निकल कर आया, उसे ही त्यागकर मुझे अकर्मण्य बनने की सलाह दे रहे हैं । आपको कहना तो यह चाहिए था कि जिस गरीबी और अभाव का कष्ट तुमने स्वत: अनुभव किया है, परिस्थितियाँ बदलते ही उसे भुला मत देना । अपने श्रम और सामर्थ्य से अभावग्रस्तों के अवरुद्ध मार्ग साफ करना । जिन्हें जीवन का कुछ आभास ही नहीं, वह उपेक्षा बरतें, ऐश में भूले रहें, तो भूले रहें, मैं कैसे यह अपराध कर सकता हूँ । तथ्य बतलाते हैं कि उन्होंने अपने जीवन में इस सिद्धांत का पूर्ण तत्परता से निर्वाह किया । अगणित अभावग्रस्तों के लिए प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में देवदूत की तरह आगे आते रहे । सच्चे अर्थो में उन्होंने परमार्थी जीवन जिया ।
वास्वानी जी की देश सेवा
साधु टी० एल० वास्वानी सिंध कॉलेज के प्रिंसिपल थे । इससे पूर्व वे कितने ही कॉलेजों में प्रोफेसर रह चुके थे। माताजी का स्वर्गवास होते ही वे संन्यासी हो गए और नौकरी छोड़ दी। माताजी से वायदा भी था कि तुम्हारे रहते तक नौकरी करूँगा। बाद में धर्म प्रचार के काम में लगूंगा । सिंध छोड़कर वे परिव्राजक हो गए और जहाँ-तहां भ्रमण करके धर्म प्रचार करते रहे । विदेशों से भी बुलावे आते रहे और वहाँ भारतीय दर्शन की गरिमा समझाने के लिए जाते रहे । रामपुर (उत्तरप्रदेश) में उनने शांति आश्रम बनाया, जहाँ धर्म प्रचारक तैयार किए जाते थे । पूना में महिलाओं के लिए उनने मीरा आश्रम बनाया । उनने कितनी ही पुस्तकें भी लिखी हैं, जो धर्म का दार्शनिक रूप समझाती है । उनको दिया गया साधु नाम सार्थक था। घर के दायित्व पूरा करते ही वे राष्ट्र भूमि की सेवा में लग गए । यही सच्चा धर्म है ।