देवतुल्यं विधातुं तद् विवाहात्पूर्वजं तथा ।
व्यतिरेकश्च विस्मर्य: कार्यं न संशयादिकम् ॥५१॥
विवाहस्य दिनादेव प्रारब्धा व्रतशीलता ।
जायते भाव्यमेतैश्च नियमैकभयो: कृते॥५२॥
समानैर्विधवानां ते विधुराणामुताऽति च।
कारणेऽपरिहार्ये च बन्धनान्मुक्तिरिष्यते॥५३॥
नियमं मन्यतां नैतदपवादं तु केवलम्।
प्रसंगाश्चेदृशा न्यूना एवायान्तु कदाचन॥५४॥
अर्धाग्नी न त्यक्तव्या नरेणाऽनीतिपुर्वकम् ।
दृष्टिं दद्याज्जागरूकां तस्यां देहे निजें यथा ॥५५॥
भावार्थ-विवाह से पूर्व के व्यतिरेकों को भुला दिया जाय। इस काव्य कोई किसी पर अविश्वास या संदेह न करें। व्रतशीलता तो विवाह के दिन से आरंभ होती है। विधवा और विधुर दोनों के लिए एक जैसे अनुशासन होने चाहिए। बंधन-मुक्त होने का प्रयत्न अनिवार्य कारण होने पर ही किया जाय उसे नियम नहीं अपवाद माना जाय । ऐसे प्रसंग कम ही आएँ। कोई पति अपनी पत्नी का अनीतिपूर्वक परित्याग न करे । इस पर अपने शरीर की देखभाल की तरह ही कड़ी दृष्टि रखनी चाहिए॥५१-५५॥
व्याख्या-पाणिग्रहण संस्कार व्रतों को निभाने हेतु दृढ़-निश्चयी दो व्यक्तियों का संयुक्तीकरण है। ऐसे पुण्य-प्रयोजन में निरत साथियों को आपसी संबंधों में संदेह को आड़े न आने देना चाहिए । यदि पूर्व के कोई ऐसे प्रसंग हों, जिनसे अविश्वास को पोषण मिलता हो, तो उनसे विमुख होकर उनमें न उलझना ही श्रेयस्कर है। इसी में पारिवारिक गठबंधन की मर्यादा निभती है ।
यदि किसी कारणवश दोनों को अलग होना पड़े, तो ऐसे अवसर कम से कम आने दें । इन दिनों छोटी-छोटी बातों पर आवेशग्रस्त होकर संबंध टूटते देखे जाते हैं । तलाक के प्रसंग आम हो गए हैं। पाश्चात्य सभ्यता देव संस्कृति पर हावी होती जा रही है एवं आधुनिकता की दौड़ में मदहोश व्यक्ति विवेक खोकर गृहस्थ-जीवन रूपी हाथ आए सुयोग को गँवा बैठता है । इसमें एक बात विशेष रूप से ध्यान रखने योग्य यहाँ बताई गई है कि कोई भी व्यक्ति अपनी पत्नी को, जो उसकी अर्धागिनी है अनीतिपूर्वक न छोड़े। यह एक ऐसा अपवित्र कृत्य है जो मनुष्यता के नाम पर कलंक है।
परस्पर विश्वास पर निर्भर संबंध
द्रुपद पुत्री द्रौपदी का मन गृहस्थ बनाने मात्र का इच्छुक न था । वह किसी बड़े काम में अपना श्रम और समय लगाना चाहती थी । अंतत: इसके लिए पांडव उपयुक्त लगे और उनके साथ विवाह कर लिया। वे पांचों भाइयों की संयुक्त पत्नी होकर रहीं । आरंभ में उचित-अनुचित का झंझट सामने आया, तो व्यासजी ने निपटारा किया, कि इसमें कुछ भीं अनुचित नहीं हैं । जब एक पुरुष कई नारियाँ रख सकता है, तो स्त्री को भी वैसी व्यवस्था बनाने में कोई अनौचित्य नहीं है।
जहाँ द्रौपदी के कारण पाँचों भाइयों की आत्मीयता घनिष्ठ होती रही एवं उनके सहयोग से महान् भूमिका निभा सके, वहाँ यह भी सही है कि द्रौपदी के स्वयं के सौजन्य एवं सहकार की वृत्ति से उनका पारिवारिक जीवन अनुकरणीय भी बना । पाँचों पतियों में कभी भी एक दूसरे के प्रति संदेह या अविश्वास के बीज को पनपने का अवसर न मिला ।
लिंकन की सहनशीलता
अब्राहम लिंकन की पत्नी कठोर स्वभाव की कर्कशा स्त्री थीं । इस कारण से लिंकन का घरेलू जीवन दु:खी हो गया था। कितनी ही बार सब लोगों के सो जाने पर, वे काफी रात गए; मकान के पिछले दरवाजे से घुसकर चुपचाप सो जाते और दिन निकलने से पहले ही उठकर अपने आफिस चले जाते थे। दिन भर हँसते और हँसाते थे ।
एक बार एक नौकर को लिंकन की पत्नी ने खूब फटकारा । उसे यह बात बहुत बुरी लगी । इसलिए उसनें लिंकन से इसकी शिकायत की । अब्राहम लिंकन ने हँसकर कहा-"अरे भले आदमी । मैं पंद्रह वर्षो से इस परिस्थिति का सामना कर रहा हूँ और सब कुछ शांतिपूर्वक सह रहा हूँ । तुम से एक दिन की फटकार भी सहन नहीं होती ।"
फिर भी संतुलन न खोया
संत तुकाराम की पत्नी बड़े कर्कश स्वभाव की थीं। एक बार उनके लिए किसी किसान ने गन्नों का एक गट्ठा भेजा । रास्ते में जो परिचित बच्चे मिले, उनने एक-एक करके सभी गन्ने माँग लिए । घर के लिए एक बचा, सो उनने पत्नी को थमा दिया ।
पत्नी गट्ठे की प्रतीक्षा में थी । एक मिला, तो कारण पूछा । बताने पर बहुत कुद्ध हुईं । उस गन्ने को संत की पीठ पर इतनी जोर से मारा कि टूट कर दो टुकड़े हो गए । चोट जोर से लगी ।
इतने पर भी संत ने संतुलन नहीं खोया । उल्टे मारने वाले हाथों की प्रशंसा करने लगे । कैसे सधे हुए हाथ हैं वे कि गन्ना ठीक बीच से टूटा । मुलायम वाला भाग पत्नी को थमाते हुए, कड़ा वाला स्वयं ले लिया, न क्रोध किया, न उलाहना दिया।
माता शारदामणि वैसी बनीं, जैसा पति ने चाहा
रामकृष्ण परमहंस की पत्नी शारदामणि जब युवा हो गयीं, तब अपने पति के पास दक्षिणेश्वर मंदिर आयीं । परमहंस जी ने उन्हें पूरे स्नेह और सम्मान के साथ रखा। साथ ही अपना लक्ष्य भी उनने सामने रखी कि वे ब्रह्मचर्यपूर्वक आध्यात्मिक क्रिया-कलापों में संलग्न रहना चाहते है। यदि वें आज्ञा दें, तो इस व्रत को न तोड़े।
शारदामणि ने सहर्ष स्वीकृति दे दी और वे पति के साथ रहते हुए भी आजीवन ब्रह्मचारिणी रहीं । जितने पति के शिष्य- भक्त आते थे, उन्हें वे अपनी संतान की तरह स्नेह देती थीं ।
उन दिनों बंगाल में सती प्रथा का प्रचलन था । वे भी सती होना चाहती थीं । पर मरते समय परमहंस जी ने आदेश दिया-"आत्महत्या से कोई लाभ नहीं। तुम मेरा छोड़ा काम पूरा करो ।" उनने आदेश पाला और जब तक जीवित रहीं, भक्तजनों को ज्ञान तथा वरदान का अभाव नहीं खटकने दिया ।
झंझट निपटने का एक तरीका-टालना भी
यदि परस्पर कभी विवाद का अवसर आये तो अनदेखी करना भी एक तरीका है । एक सरपंच थे । दूर-दूर गाँवों के लोग उनके पास अपने झगड़े तय कराने आया करते थे । एक बार बहुत दूर से अपरिचित लोग फैसला कराने आये। सरपंच का घर मालूम न था । सो खेत जोतते चार हलवाहों से उनके बारे में पूछा । घर की ओर इशारा करते हुए, उनने कहा-"जाना व्यर्थ है । वे कुछ सुनते-समझते तो है नहीं ।" यह एक अचंभे की बात थी । पर वे घर की ओर तो चले ही । गाँव के निकट कुएँ पर चार पनहारिन पानी भर रही थीं । सरपंच के बारे में पूछा, तो उनने कहा-"वे रहते तो अगले मोहल्ले में हैं, पर उन्हें कुछ दीखता नहीं ।" यह और भी आश्चर्य की बात थी । घर के दरवाजे के बार एक बुढ़िया बैठी थी, उससे सरपंच के बारे में पूछा, तो वह बोली-"वे तो मर गए । जाना व्यर्थ है ।" फिर भी उन लोगों ने दरवाजे पर से लौटना उचित न समझा और भीतर घुस गए । देखा तो सरपंच स्वस्थ और प्रसन्नमुख बैठे, आगंतुकों की बातें सुनते और फैसला निपटा रहे हैं।
नव आगंतुकों ने अपनी बात कहने से पहले जो सुना था, उसे बताया और कारण पूछा । सरपंच ने कहा-"हलवाहे मेरे चार लड़के थे । रोज कुछ न कुछ समस्या लेकर आते हैं । कभी बँटवारे की, तो कभी कुछ? उनकी बात अनसुनी कर देता हूँ । पानी भरने वाली मेरी पतोहू थीं । वे कभी जेवरों के लिए, कभी काम के लिए झगडती रहती है । उनकी शिकायतें अनदेखी कर देता हूँ। दरवाजे पर बैठी बुढ़िया मेरी पत्नी है । वह बहू-बेटों से लड़ती रहती है और मुझे उनसे लड़ाना चाहती है; किन्तु मैं टालता रहता हूँ । सो वह मुझे मरा समझती है।"
कथन का तात्पर्य यह है कि झंझटों को निपटाने का तरीका अनदेखी, अनसुनी करना और टाल देना भी है।
दोनों मिलकर एक रुप
संबंधों की पगाढ़ता ऐसी हो जैसी राम-सीता के मध्य थी।
सीता ने त्रिजटा से कहा-"मैं जब श्रीराम का ध्यान करती हूँ तो लगता है मैं नारी नहीं रही, मैं भी राम हो गई।" त्रिजटा बोली-"हाँ देवी । उपासना से इष्ट रूप की प्राप्ति हो जाती है । यह ध्यान की उत्कृष्टता का लक्षण है ।"
सीता बोली-"पर मुझे भय लगता है कि मैं राम हो जाऊँगी तो राम की सेवा कौन करेगा?" त्रिजटा ने कहा-"देवी । आप इसकी चिंता न करें । जिस गहराई से आप श्रीराम का ध्यान करेंगी, उसी गहराई से वे आपका ध्यान करेंगे । जब ध्यान के प्रभाव से आप राम बनेंगीं, तब तक राम ध्यान की तन्मयता से सीता बन जायेंगे । सेवक-सेव्य भाव का निर्वाह हर दिशा में होता रहेगा ।"
यौवने पुरूषै: सवैंरर्थोपार्जनमिष्यते ।
उचितं छेदमाभाति तथैवाऽऽवश्यकं नृणाम् ॥५६॥
श्रमस्याऽऽजीविका ग्राह्या सवैंरेव नरैरिह।
ग्राह्या पवित्रता चेव तत्रोपार्जनकर्मणि॥।५७॥
नेदृशं व्यवसायं च कञ्चिदेव समाश्रयेत् ।
पतनस्य पराभूतेर्गतें येन पतेत् स्वयम्॥५८॥
अनावश्यके च शृङ्गारे सजयामपि था पुन:।
अपव्यययुतं नैव प्रदर्शनमथाऽऽचरेत्॥५९॥
व्यसनेषु प्रपश्चेषु गौरवं नैव मन्यताम् ।
नैव तस्मिन् व्यय: कार्य: पणकस्याऽपि कुत्रचित् ॥६०॥
सामान्यया च पद्धत्या जीवनस्य तया सह।
उत्कृष्टं जीवनं बद्धमहंकारि नरास्तु ये॥६१॥
प्रदर्शनरतास्ते तु सदैवाऽत्राधमर्णताम्।
घृणास्पदस्थितिं चैव प्राप्नुवन्ति निरन्तरम्॥६२॥
भावार्थ-युवावस्था में सभी को अर्थोपार्जन करना पड़ता है। मनुष्य के लिए यह उचित भी है और आवश्यक भी सभी को श्रम की आजीविका उपार्जित करनी चाहिए। उपार्जन में ईमानदारी बरती जाय कोई ऐसा व्यवसाय नहीं करें जिससे किसी को पतन-पराभव के गर्त में गिरना पड़ता हो । अनावश्यक शृंगार-सज्जा, अपव्यय भरा प्रदर्शन, आडंबर एवं दुर्व्यसनों में न तो बड़पन मानना चाहिए और न उनमें एक पैसा खर्च करना चाहिए। सादगी के साथ ही उत्कृष्ट जीवन जुड़ा हुआ है । प्रदर्शन प्रिय अहंकारी आर्धिक तंगी भुगतते, ऋणी रहते और घृणास्पद बनते हैं॥५६-६२॥
सबसे पहले स्वावलंबन
पुत्र के युवा होते ही माता-पिता का दायित्व संभाल लेना सबसे बड़ा पुण्यकार्य है । महामानव पारिवारिक उत्तरदायित्व को भी परमार्थिक कार्यो की भाँति ही निबाहते हैं।
एण्ड्रू कार्नेगी उस मजदूर का नाम है, जो दिन भर मजदूरी करके १५) रु. मासिक कमाता और उसकी स्त्री रईसों के कपड़े धोकर कुछ कमा लाती । इस स्थिति में भी परिवार में भारी प्रेम था। इकलौता बेठ अपनी माँ को आश्वासन देता रहता कि मैं थोड़ा बड़ा हो जाऊँगा, तो ज्यादा कमाऊँगा और तुम लोगों की यह स्थिति न रहने दूँगा । परिश्रम और सूझ-बूझ के सहारे उन सबने मिलकर घोर परिश्रम किया और मासिक आमदनी पंद्रह हजार तक हो गई।
लड़के के विवाह का प्रश्न आया, तो उसने स्पष्ट इन्कार किया कि जो वचन मैंने माँ को दिए थे, वे पूरे न हो सकेंगे। प्यार बँट जायेगा। ५२ वर्ष की उम्र तक माता जीवित रहीं, तब तक उसने विवाह नहीं किया । पैसे की तंगी दूर हो गयी थी, पर माँ को असीम प्यार करने वाला बेटा उसके जीवित रहते किसी भी शर्त पर विवाह करने को तैयार न हुआ। माँ के देहावसान पर ही उसने ५२ वर्ष की आयु में विवाह किया ।
प्रलोभन ने डिगाया नहीं
ईमानदारी के परिणाम हमेशा सुखद होते हैं। तात्कालिक हानि कालांतर में यश-गौरव के रूप में फलती है। एक होटल में किसी मुसाफिर के २००० डालर छूट गए थे । होटल के नौकर ने देख लिए और जहाँ गिरे थे, वहीं घास-पात से ढँक दिए । मुसाफिर एक सप्ताह बाद लौटा, तो होटल वालों से भी पूछा। उस लड़के ने घास-पात से ढंके पैसे वहाँ दिखा दिए जहाँ वे गिरे थे।
मुसाफिर इस ईमानदारी पर बहुत प्रसन्न हुआ । उसे अपने व्यापार में एक ईमानदार मुनीम की जरूरत थी, सो उसे साथ ले लिया । वेतन बढ़ते-बढ़ते वह भी मालदार हो गया । इज्जत बढ़ाकर उसने जो लाभ पाया, वह असाधारण था । वही ध्यक्ति आगे चलकर प्रसिद्ध होटल व्यवसायी पी० हिल्टन बना ।
गलती हुईं है, तो दंड भी भूगतुँगा
स्विट्जरलैंड का एक १२ वर्षीय लड़का सड़क पर गेंद उछाल रहा था। गेंद दुकानदार के शीशे में लगी और वह टूट गया । भागने का अवसर था, पर लड़का भागा नहीं । जब शीशा तोड़ने वाले की तलाश हुई तो उसने अपना दोष बताया। शीशे का मूल्य चुकाने का प्रश्न आया, तो लड़के ने चार दिन तक उसके यहाँ मजदूरी करने की बात कही । लड़के ने चार दिन तक इतनी मेहनत और मुस्तैदी से काम किया कि दुकान मालिक प्रसन्न हो गया । उसे अपने यहाँ स्थायी नौकर रख लिया । लड़का पड़ता रहा, नौकरी करता रहा । अपने सद्गुणों से मालिक का मन इतना मोह लिया कि उस दुकान का पार्टनर बन गया और कुछ ही दिनों में संपन्नों में उसकी गणना होने लगी।
इसका श्रेय वह सदैव अपनी माँ को देता रहा, जिसने उसे सिखाया था-"हमेशा अंत:करण की आवाज पर, विवेक की पुकार पर काम करना, नीति की कमाई खाना।"
नीति-निष्ठा का फिर क्या होगा?
सराय के एक ही कोठे में तीन मुसाफिर टिके । एक था भिखारी, दूसरा किसान, तीसरा चोर । रात्रि में तीनों ने अपनी-अपनी गठरी ऊपर खूँटी पर टाँग दी और सो गए।
स्तब्धता देखकर पोटलियों की सम्पदा आपस में वार्तालाप करने और घुल-मिल जाने की इच्छा प्रकट करने लगीं ।
किसान की पोटली ने कहा-"मिलने में कोई आपत्ति नहीं, पर फिर ईमानदारी, नीति-निष्ठा और श्रमशीलता का भविष्य क्या होगा?"
दोनों ने अपनी हीनता समझी और मौन हो गई ।
तृष्णा अंतत: अहितकर
एक कुत्ता मुँह में रोटी दबाए नदी के किनारे-किनारे जा रहा था। उसे अपनी परछाई दिखाई दी । मन आया कि इस पानी में चल रहे कुत्ते की रोटी भी क्यों न छीन ली जाय? वह आक्रमण के लिए पानी में कूद पडा और परछाई को काटने के लिए जैसे ही मुँह खोला, वैसे ही मुँह की रोटी भी बह गई । इसे कहते है तृष्णा, जो पास है उसे भूलकर और पाने की इच्छा रखने वाले का विपत्ति में फँसना ।
जीवन जीने का सही शिक्षण
एक बूढ़ा घास खोदने में सबेरे से लगा हुआ था । दिन ढलने तक वह इतनी खोद सका था, जिसे शिर पर लादकर घोड़े वालों की हाट में बेचने ले जा सके।
एक सुनिश्चित देर से उस बुढ्ढे के प्रयास को देख रहा था । सो उसने पूछा-"क्यों जी! दिन भर परिश्रम से जो कमा सकोगे उससें किस प्रकार तुम्हारा खर्च चलेगा? घर में तुम अकेले ही हो क्या?"
बूढ़े ने मुस्कराते हुए कहा-"कई व्यक्तियों का मेरा परिवार है । जितने की घास बिकती है, उतने से ही हम लोग व्यवस्था बनाते और काम चला लेते हैं ।"
युवक को आश्चर्यचकित देखकर बूढ़े ने पूछा-"मालूम पड़ता है, तुमने अपनी कमाई से बढ़-चढ़कर महत्वाकांक्षाएँ सँजोने रखी हैं । इसी से तुम्हें गरीबी में गुजारे का आश्चर्य होता है ।"
युवक से और तो कुछ कहते न बन पड़ा पर अपनी झेंप मिटाने के लिए कहने लगा-"गुजारा ही तो सब कुछ नहीं है । दान-पुण्य के लिए भी तो पैसा चाहिए ।"
बुड्डा हँस पड़ा । उसने कहा-"मेरी घास में तो बच्चों का पेट ही भर पाता है, पर मैंने पड़ौसियों से माँग-माँग कर एक कुआँ बनवा दिया है, जिससे सारा गाँव लाभ उठाता है । क्या दान-पुण्य के लिए अपने पास कुछ न होने पर दूसरे समर्थो से सहयोग माँगकर कुछ भलाई का काम कर सकना बुरा है ।"
युवक चला गया । रात भर सोचता रहा कि महत्वाकांक्षाएँ सँजोने और उन्हीं की पूर्ति में जीवन लगा देना ही क्या एकमात्र तरीका जीवन जीने का है?
युवक ने अविवाहित रहने का निश्चय किया और वह बिहार क्षेत्र में रामायण कथा कहकर संतोष और परिश्रम के समन्वय की आजीवन शिक्षा देता रहा।
महामानवों की सादगी
जो अपव्यय से बचते व धन के एक-एक अंश का सदुपयोग करते है, वे अपनी इसी वृत्ति के कारण महामानव बनते हैं । देखने में तो यह एक छोटी सी बात लगती है, पर इस छोटे से बीज की परिणातियाँ कालांतर में अनंत होती है। कुछ उदाहरण जो इस सदी के महामानवों से संबंधित है, इसी तथ्य की साक्षी देते है ।
सरकंडे की कलम
गाँधी जी के पास एक फाउंटेन पेन था । उसे किसी ने उठा लिया । दूसरा मँगाने की अपेक्षा उनने दावात और होल्डर से लिखना शुरू किया । एक दिन निब टूट गयी । मनु बेन बाहर से लेने गैइ और लाने में समय लग गया । समय का महत्व समझते हुए गांधी जी ने होल्डर की पूँछ को चाकू से छीलकर उसकी पुराने समय जैसी कलम बना ली । फिर सदा वे सरकंडे की कलम से ही पत्र लिखते रहे। वायसराय माउंटबेटन को पहला पत्र उन्होंने होल्डर की पूँछ से बनाई कलम से ही लिखा था । अक्षर भी सुंदर आए थे।
शास्त्री जी का कोट
राष्ट्र मंडलीय प्रधानमंत्रियों के सम्मेलन में भाग लेने के लिए प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री को लंदन जाना था। उनके पास कोट दो ही थे। उनमें से एक में काफी बड़ा छेद हो गया था । शास्त्री जी के निजी सचिव श्री वेंकटरमण ने नया कोट सिला लेने का आग्रह किया, पर शास्त्री जी ने इन्कार कर दिया । फिर भी वेंकटरमण कपड़ा खरीद लाए और दर्जी को बुलवा लिया । जब कोट का नाप लिया जाने लगा तो शास्त्री जी हँसे और बोले-"इस समय तो इसी पुराने कोट को पलटवा लो । नहीं ठीक जमा तो दूसरा सिलवा लूँगा ।" जब कोट दर्जी के यहाँ से आया, तो कोट की मरम्मत का पता तक नहीं चला । तब शास्त्री जी ने कहा-"जब कोट की मरम्मत का पता हमें ही नहीं चल पा रहा है, तो सम्मेलन में भाग लेने वाले भला क्या पहचानेंगे?"
और वे उसी कोट को पहनकर लंदन राष्ट्र मंडलीय सम्मेलन में भाग लेने के लिए गए । ऐसी थी शास्त्री जी की सादगी । यह वृत्ति राष्ट्र को अपना एक परिवार मानने व स्वयं को उसका एक अभिन्न अंग मानने के कारण विकसित होती है। क्षुद्र व्यक्ति इसे कृपणता समझ सकते हैं, पर सत्य यही है कि इस सादगी में, अपव्यय की रोकथाम में ही महानता के बीज छिपे पड़े है ।
गाँधी जी व अखबार की कतरनें
गाँधी के सामने डाक का ढेर लगा था। वह आए हुए प्रत्येक पत्र को ध्यान से पढ़ते जाते और हिस्सा कोरा होता उसे कैंची से काटकर अलग रख लेते। एक सज्जन वहीं पास में बैठे थे और बहुत देर से गाँधी जी की कतरनी देख रहे थे। उन्होंने बहुत आश्चर्य से पूछा-"मैं यह जानना चाहता हूँ कि आप इन कतरनों को एक ओर एकत्रित कर क्यों रखते जा रहे हैं? इनका क्या उपयोग है ।"
गाँधी जी ने कहा-"मुझे जब पत्रों के उत्तर देने होते हैं, तब मैं इन्हीं कतरनों का उपयोग करता हूँ । यदि ऐसा न करूँ तो यह कागज बेकार हो जायेंगे और इससे दो प्रकार की हानियाँ होंगीं एक तो अनावश्यक खर्च में वृद्धि हो जाएगी और दूसरे राष्ट्रीय सम्पत्ति नष्ट होगी । किसी देश में जितनी वस्तुएँ होती है, वह सब उस देश की सम्पत्ति मानी जानी चाहिए। हमारा देश निर्धन है । ऐसी स्थिति में हमें धन का दुरुपयोग न करना चाहिए ।"
सादगी का सुख
हेनरी फोर्ड अमेरिका के मूर्धन्य धनाड्य थे । तो भी वे बहुत सादगी से रहते थे।
फोर्ड का एक सूट पुराना हो गया था। फटने भी लगा था । सचिव ने कहा-"नया सिला लेना चाहिए। लोग क्या कहेंगे?"
फोर्ड मुस्कराये । बोले-"अभी इसकी मरम्मत करा लेने से काम चल सकता है। मिलने वाले सभी जानते है कि मूँ फोर्ड हूँ। सूट बदलने या न बदलने से मेरी स्थिति में क्या अंतर पडता है ।"
बात गई-गुजरी हो गई । मरम्मत किए पैंट-कोट से काम चलता रहा। बहुत दिनों बाद फोर्ड को इंग्लैंड जाना था। सो सेक्रेटरी ने फिर उनसे सूट बदलने की आवश्यकता बताई और कहा-नए देश वाली के सामने तो पोशाक बढ़िया ही होनी चाहिए ।"
फोर्ड गंभीर हो गए और बोले-"उस देश में मुझे जानता ही कौन है, जो मैं उन पर रौब गाँठने के लिए बढ़िया पोशाक सिलाऊँ । अजनवी के कपड़ों पर कौन ध्यान देता है?"
सचिव निरुत्तर हो गए । फोर्ड मरम्मत किए वस्त्र को धुलाकर ही इंग्लैंड की यात्रा पर चले गए ।
यह है महापुरुषों की सादगी, जो उनके इस गुण के कारण ही उन्हें श्रद्धास्पद एवं वैभववान् बनाती है ।
दुरूपयोग किसी भी वस्तु का नहीं
यरवदा जेल में गाँधी जी भी थे और सरदार पटेल भी । पटेल नीम का दातून लाने लगे । गाँधी जी ने कहा-"रोज लाने की जरूरत नहीं है । इस्तेमाल किया हुआ भाग काटते रहने से एक ही दातुन कई दिन चल जायेगी।"
पटेल ने कहा-"यहाँ नीम पर टहनियाँ बहुत हैं। गाँधी जी ने कहा-"लेकिन हम उनका या किसी वस्तुका दुरुपयोग तो नहीं कर सकते?"
टालस्टाय की सज्जनता
एक बार टालस्टाय देहातियों के जैसी पोशाक पहनकर गाड़ी की प्रतीक्षा में स्टेशन पर खड़े थे । इतने में एक अमीर परिवार की महिला ने उन्हें एक साधारण किसान समझकर कहा-"देख, मेरे पतिदेव सामने वाले होटल में हैं । तू उन्हें यह चिट्ठी दे आ । इस काम के लिए मैं तुझे दो आने दूँगी ।"
टॉल्लाय ने यह काम तुरंत कर दिया और मजदूरी के दो आने भीं ले लिए ।
थोड़ी देर बाद एक अमीर आकर टॉल्स्टाय के साथ बातें करने लगा। वह उनसे बहुत ही नम्रतापूर्वक बातें
कर रहा था और बीच-बीच में उन्हें 'काउंट' के आदर सूचक संबोधन से भी संबोधित करता था ।
उस महिला ने यह सब देखा। पूछताछ करने पर पता चला कि देहाती जैसा दिखाई देने वाला वह आदमी तो काउंट लियो टॉल्सटाय हैं।
वह बहन बहुत शर्मिन्दा हुई और टॉल्स्टाय के पास जाकर क्षमा माँगने लगीं उसने मेहनताना के रूप में दिए हुए दो आने उनसे वापस माँगे । तब टॉल्स्टाय ने हँसकर जबाव दिया-"बहन जी । ये तो मेरी मजदूरी के पैसे हैं। उन्हें मैं कैसे वापस कर सकता हूँ?"
बाहुबलि जमीन पर चलो
वस्तुत: सारी समस्याओं की जड़, चाहे वह आध्यात्मिक जगत् की हों अथवा भौतिक जगत् की; अंहता, बढी-चढी महत्वाकांक्षा है । उस पर अंकुश यदि लगाया जा सके तो प्रगति का राजमार्ग सबके लिए खुला है ।
जैन पुराणों में तपस्वी बाहुवलि के चरित्र का वर्णन है । इतनी कठोर तपस्या की थी, पर अहंता नहीं छूटी, तो उस साधना से भी उन्हें शांति न मिली । महत्वाकांक्षाओं का उन्माद उन पर तब भी चढ़ा रहता था ।
उदास बाहुबलि को उनकी बहन ने देखा तो असफलता का कारण ताड़ लिया । उसने आते ही कहा-"हाथी की पालकी से नीचे उतरी और समझदारों की तरह जमीन पर चलो ।"
कथन का मर्म बहन ने समझाया कि अहंता को छोड़ो-आकांक्षाओं से छुटकारा पाओ, इसके बिना साधना की सफलता मिल नहीं सकेगी।
बाहुबलि ने वैसा ही किया और वे देखते-देखते सिद्ध पुरुष हो गए।
लालच छोड़-कर सत्य का आँचल पकडा
एक बार विद्यार्थी कपिल संदेह में चोरी के अपराध में पकड़े गए । उन्हें राजा के सामने लाया गया । राजा को जब वास्तविकता मालूम हुई कि कपिल सिर्फ संदेह में ही पकड़े गए थे; क्योकि कपिल सिर्फ दो मासा स्वर्ण पाने के लालच में राजा को आशीर्वाद देने ही आए थे और यह बात आरक्षकों को मालूम नहीं थी।
राजा ने कपिल से मुँह माँगा इनाम माँगने को कहा । कपिल ने सोचा धन माँग लूँ तो अच्छा है किन्तु धन बिना सत्ता के सुरक्षित नहीं रह सकता । अस्तु, साथ में सत्ता भी होनी चाहिए । अस्तु, कम से कम एक चौथाई राज्य तो मजा से माँगना ही चाहिए ।
किन्तु चिंतन चलता रहा । कपिल ने सोचा-हिस्से के रूप में राज्य प्राप्त करने पर राजा के बेटों और मुझमें प्रतिस्पर्धा की भावना जागृत हो सकती है । आपस में लड़ाई-झगड़े की पूर्ण संभावना है, तो फिर पूरा राज्य हासिल कर लूँ?"
तब कोई झगड़े की संभावना न रहेगी । किन्तु चिंतन अबाध गति से चलता रहा और कपिल अपने आप में तृप्त न हो सके ।
तभी राजा ने उनसे पुन: कहा-"कपिल! बोलो तुम्हें क्या चाहिए । जो चाहो माँग लो । राज्य का खजाना तुम्हारे लिए खुला है ।"
कपिल कुछ क्षण मौन रहे और बोले-" राजन् । मैंने निर्णय लिया है कि मैं इस अर्थ संग्रह को त्याग कर आज से अपरिग्रही जीवन बिताऊँगा ।"
विद्यार्थी कपिल जीवन और धन एवं वैभव का मोह छोड़कर दुनियाँ के एक सत्य की आँच में तपने चले गए।
स्वावलंबन एवं स्वयं की आजीविका उपार्जन से घूर-गृहस्थी की निर्वाह, व्यवस्था जुटाना उस युवा के लिए अनिवार्य है, जिसने गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर लिया है । जब तक अपने पैरों खड़े होने की स्थिति न आ जाए, तब तक विवाह न करना ही श्रेयस्कर है । विवाह धर्म में बँधकर परावलंबी बने रहना तो अपना ही नहीं, कई व्यक्तियों का भार दूसरों पर डाल देना है । उपार्जन जो भी हो नीतियुक्त हो । समाज में अनीति की कमाई के ढेरों रास्ते खुले पड़े है। उनका 'शार्टकट' वाला मार्ग सहज लुभाता भी है । उससे बचना एवं परिश्रम की, ईमान की कमाई खाना ही सद्गहस्थ का धर्म होना चाहिए।
समाज में किसी भी व्यक्ति का गौरव उसके आदर्श भरे कृत्यों के कारण माना जाता है, न कि बहिरंग की सज्जा, आडंबर से भरे प्रदर्शन एवं झूँठी शान-शौकत के कारण । समझदार व्यक्ति ऐसी ओछी हरकतों से बचते व परिवार को बचाते हैं । वस्तुत: ब्राह्मणोचित निर्वाह में बिताया गया जीवन ही सच्चा जीवन है, शेष धन अपव्यय के स्थान पर सत्प्रवृत्तियों में नियोजित कर देना चाहिए ।
अपनी नासमझी के कारण जो व्यक्ति स्वयं के दिखावे, ऊपरी सजा, अहंकारी उन्माद में लिप्त रहते हैं, सामयिक रूप से भले ही चाटुकारों की वाह-वाही पालें, धन खोने पर अंततः सिर धुनते एवं औरों के निंदाभाजन होते देखें जाते हैं । उन्हें कभी सच्चा सम्मान नहीं मिलता, उल्टे अपने कृत्य का प्रतिफल सामूहिक तिरस्कार के रूप में मिलता है । व्यक्तिगत जीवन में तो अर्थ की अवमानना के कारण वे असमय गरीबी एवं कर्ज ओढ़ते हुए त्रास भुगतते ही हैं। ऐसे व्यक्ति उनके लिए जीते-जागते उदाहरण के समान है, जो प्रदर्शन द्वारा अपनी अहंता का पोषण कर चाटुकारों की भीड़ एकत्र करना चाहते हैं। उन्हें अपने किए का फल तुरंत ही मिल जाता है । उनके कृत्यों का प्रतिफल परिवार को भी भुगतना पड़ता है ।
कुरीत्याक्रमणं प्रायो गृहस्थे जीवनेऽधिकम्।
जायते पुरुषा सन्ति तत्र येऽपक्वबुद्धय:॥६३॥
मन्यन्ते ते च सर्वंस्वं यत्तत्प्रचलनोद्भवम्।
त्यक्तुं तन्न समर्थास्ते मन्यन्ते स्वकुबुद्धयः॥६४॥
दृष्टवाऽन्योऽन्यं प्रथास्ताश्च गृह्णन्त्येव निरन्तरम् ।
सर्वथाऽनुपयोगित्वं वर्तमाने गतास्तु या:॥६५॥
भावार्थ-कुरीतियों का आक्रमण प्राय: गृहस्थ जीवन के दिनों में ही होता है। अविकसित मस्तिक प्रचलनों को ही सब कुछ मानते हैं तथा दुराग्रह बुद्धि के कारण वे उन्हें छोड़ नहीं पाते और देखा-देखी उन प्रथाओं को भी अपनाते है, जो वर्तमान परिस्थितियों में सर्वथा अनुपयुक्त हो गयी हैं॥६३-६५॥