सेनया विश्वराष्ट्रस्य कार्यं सेत्स्यति चैकया ।
मतभेदा निरस्ता: स्यु: पञ्चायतननिर्णयात्॥६१॥
युद्धानि विश्वसेना च रोत्स्यति सर्वत: स्वयम् ।
तत्तत्स्थानव्यवरथा तु कृता स्याद्राजपूरुषै:॥६२॥
ईदृश्यां च स्थितावत्र सैन्यसाधनसम्भव:।
व्ययोऽनपेक्षित: स्यात् सहितमेतन्महन्नृणाम्॥६३॥
प्रयोजनेषु चैतेषु राशियों विपुलोऽधुना।
व्ययमेत्यवशिष्टं तं शिक्षायां स्वच्छताविधौ॥६४॥
स्वास्थ्य उद्योग एवं च कृषिसिञ्चनकेऽथवा।
उत्पादनेष्वनेकेषु चोपयोक्ष्यन्ति पूर्णत:॥६५॥
ईदृश्यां च दशायां हि संकटाभावविग्रहा:।
दृग्गोचरा भविष्यन्ति नैव कुत्राऽपि कहिंचित्॥६६॥
दरिद्रा: पतिता रुग्ण उद्विग्ना मानवा नहि।
द्रष्टं शक्याधरायां तु कुत्रचित् केनचिद्ध्रुवम्॥६७॥
पारिवारिकभावे च याते व्यापकतां तथा।
सर्वत्र स्वीकृते सत्ययुग: स आगमिष्यति॥६८॥
प्रत्येकस्मिन् मनुष्ये च द्रक्ष्मते दैवमुत्तमम्।
औत्कृष्ट्य विपदो जाता समस्याभीतयस्तथा॥६९॥
वयग्रभावादतश्चात्र कुटुम्बादर्शस्वीकृतौ।
अवाञ्छितेभ्य एतेभ्यों रिक्तं स्थानं न सम्भवेत्॥७०॥
भावार्थ-विश्वराष्ट्र की एक सेना रहने से काम चल जाएगा । मतभेदों को पंचायतों के माध्यम से सुलझाया जाएगा। युद्धों को विश्व-सेना रोकेगी। स्थानीय व्यवस्था भर के लिए क्षेत्रीय पुलिस से काम चल जाया करेगा।
ऐसी दशा में सैन्य साधनों पर होने वाले खर्च की तनिक भी आवश्यकता न रहेगी और यह मनुष्यों का बहुत बड़ा हित होगा। उस प्रयोजन के लिए इन दिनों जो राशि खर्च होती है, उसे बचाकर शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता,
सिंचाई, उद्योग, विविध उतादन आदि में लगाया जा सकेगा। ऐसी दशा में न कहीं अभाव संकट और विग्रह
दृष्टिगोचर होंगे और न मनुष्यों को दरिद्र, पतित, रुग्ण स्थिति में देखा जा सकेगा । पारिवारिकता की विधा व्यापक बनने और सर्वत्र अपनाई जाने पर फिर सतयुग की वापसी संभव हो सकेगी । हर मनुष्य में देवताओं जैसी उकृष्टता के दर्शन होंगे । विपत्तियाँ समस्याएँ और विभीषिकाएँ तो आपा-धापी के कारण उत्पन्न हैं ।
पारिवारिकता का आदर्श अपनाने पर इस अवांछनीयता के लिए कहीं कोई स्थान रह नहीं जाएगा॥६१-७०॥
व्याख्या-ऋषि श्रेष्ठ यहाँ सतयुग की, प्रज्ञायुग की एक झाँकी दिखाते हुए व्यक्त करते हैं कि वर्तमान विपत्तियों से भरी परिस्थितियाँ तभी मिटेगी, जब विश्व में एकत्व एवं ममत्व के आधार पर, पारिवारिकता की पृष्ठभूमि बनने लगेगी। जब हर व्यक्ति एक दूसरे में स्वयं को ही प्रतिबिंबित देखेगा, दूसरों का दुख-दर्द अपना लगेगा, तो विग्रह एवं अभावजन्य विभीषिकाओं के घटाटोप स्वयं ही दूर हो जाएँगे, मनुष्य का देवत्व जगेगा एवं धरती पर स्वर्गोपम परिस्थितियाँ विनिर्मित होंगी।
सहृदयता की अंत:स्थिति व्यापक बनने पर उद्धत महत्वाकांक्षाओं के कारण होने वाले, क्षेत्रीय परिधि के विस्तार को लेकर लड़े जाने वाले युद्ध स्वत: रुक जाते हैं एवं कठणाशक्ति प्रज्ञा उसका स्थान ले लेती है।
मानवता सर्वोपरि
फ्रांस के महावीर शासक नेपोलियन ने आस्ट्रेलिया पर आक्रमण किया और जगह-जगह उसकी सेनाओं को हराता हुआ राजधानी वियना नगर पर जा पहुँचा । उसने संधि का झंडा देकर राजदूत को नगर में भेजा, पर नागरिकों ने रोष में आकर उसे मार डाला । इससे नेपोलियन बड़ा कुद्ध हुआ और उसने अपनी तोपों को नगर पर गोलाबारी करने की आज्ञा दे दी। वहाँ के अनगिनती विशाल भवन तोपों से टूट-फूट गए। एकाएक नगर का द्वार खुला और उसमें से दूत संधि का झंडा लिए बाहर निकला। नेपोलियन ने दूत का सम्मान करके संदेश पूछा। दूत ने कहा कि नगर में आपकी तोपों के गोले जहाँ गिर रहे हैं, वहाँ से समीप ही सम्राद की प्यारी पुत्री बीमार पड़ी है । अगर तोपें इसी प्रकार चलती रहीं, तो विवश होकर सम्राट् को अपनी पुत्री को अकेली छोड़कर चला जाना पड़ेगा ।
नेपोलियन के सेनापतियों के मत से तोपों से गोलाबारी करना आवश्यक था, पर नेपोलियन ने कहा कि युद्ध
नीति की निगाह से तो आपकी बात ठीक है, पर मानवता की दृष्टि से एक रोगी राजकुमारी पर दया करना उससे भी अधिक महत्व की बात है, तोप वहाँ से हटा ली गई। युद्ध समाप्त हो गया एवं संधि कर ली गई। जो काम आपसी विचार-विमर्श एवं इतने मनुष्यों के हताहत होने पर न हो पाया था, वह अंत: की करुणा के जागते ही अनायास हो गया ।
मनीषी का भविष्य कथन
आज विश्व में युद्धोन्माद की जो परिस्थितियाँ संव्याप्त हैं, उसने मनीषी वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टाइन की उस भविष्यवाणी को सत्य प्रमाणित होने का अवसर दिया है, जिसमें उन्होंने कहा था-"तीसरा युद्ध यदि आणविक अधों से हुआ एवं मनुष्य की मन:स्थिति यही बनी रही, तो
चौथा युद्ध आदिम मनुष्यों द्वारा पत्थरों से लड़ा जाएगा, क्योकि विकसित सभ्यता एवं संस्कृति के नष्ट होने पर वही स्थिति उत्पन्न हो जाएगी, जहाँ से मानव ने उठना, अपनी गुजर-बसर करना सीखा था ।"
नि:शस्त्रीकरण भविष्य मजाक
रोज संधि समझौते होते हैं, परस्पर वार्ताएँ होती हैं, किन्तु परिणाम कहीं भी नजर नहीं आता। आतंकवाद सारे विश्व में तेजी से बढ़ रहा है। शस्त्रों का जखीरा सभी अपने पास जमा करते जा रहे हैं। स्थिति यह है कि कहीं से भी एक चिन्गारी फूटने भूर की देर है और विश्वयुद्ध धरित्री में कहीं भी छिड़ सकता है ।
नि:शस्त्रीकरण की सभी उच्चस्तरीय वार्ताएँ तब तक मजाक ही हैं, जब तक कि शासन-व्यवस्था चलाने वाले
अपनी मन:स्थिति नहीं बदलते, मर्यादा पालन का वचन ही नहीं उसे व्यवहार में लाने का आश्वासन नहीं देते ।
मनुष्य का यह व्यवहार तो पशुओं से भी गया बीता है। एक चिड़ियाघर के जानवरों ने इकट्ठे होकर विचार
किया कि नि:शस्त्रीकरण की नीति पर चलना चाहिए । गेंडे ने कहा-दांत और पंजे सबसे अधिक खतरनाक होते हैं, उन पर प्रतिबंध लगाया जाय, सींग तो केवल रक्षा का साधन मात्र हैं। भैंसा और हिरन से लेकर काँटों वाली सेई तक ने गेंडे का समर्थन किया । शेर ने दाँत और पंजों को खाने और चलने का साधारण साधन बताते हुए कहा-सींग ही निरर्थक वस्तु है, सर्वसम्मति से उसी का प्रयोग निषिद्ध कहा जाय । बाघ, चीता और सियार से लेकर वनविलाब तक ने इस तर्क की प्रशंसा की। रीछ की बारी आई, तो उसने कहा-सींग और दांत-पंजे यह सभी हानिकारक हैं। जरूरत पड़ने पर आलिंगन करने के मित्रतापूर्ण ढंग पर छूट रखी जानी चाहिए। जो लोग रीछ की आदत जानते थे, वे उसकी चालाकी को ताड़ गए और मन ही मन बहुत कुढ़े। अपने पक्ष का समर्थन और प्रतिपक्षी का विरोध करने के जोश में बहुत शोर मचने लगा, एक दूसरे पर गुर्राने लगे, यहाँ तक कि टूट पड़ने की बात सोचने लगे। चिड़ियाघर के मालिक
ने यह शोर सुना, तो उसने उन सबको अपने-अपने बाड़े में खदेड़ दिया और कहा-"मूर्खो! तुम भलमनसाहत से अपनी-अपनी मर्यादाओं का पालन करो, तो बिना नि:शस्त्रीकरण के भी काम चल सकता है ।"
आशा करनी चाहिए कि मनुष्य में सद्बुद्धि आएगी एवं विनाश का यह वातावरण पारिवारिकता की मन:
स्थिति के विकसित होते ही बदलेगा। सन्मति ही प्रज्ञा है। चिंतन की भ्रष्टता एवं आचरण की दुष्टता चारों ओर
समझदारी का वातावरण बनने पर ही मिटेगी । मनीषियों की इस दिशा में भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। ऋषि सत्ता का यह आश्वासन है कि महाकाल मूर्धन्य प्रतिभाओं के माध्यम से सारे विश्व को एक सूत्र में अगले दिनों आबद्ध करके ही रहेगा।
विनाशसंकटाश्चात्र महाप्रलयसदृशा:।
दृश्यन्ते वर्द्धमानस्तु गर्जन्त: सर्वतो भुवि॥७२॥
पारिवारिकतावायौ चलतीह न कुत्रचित्।
सत्ताज्ञानं भवेदेषा प्रातर्जातेऽरुणोदये॥७२॥
तिरोहितं तयो नृणां पश्यतां जायते यथा।
तथा विश्वकुटुम्बस्य भावनाया: शुभोदये॥७३॥
जातेऽथापि व्यवस्थायां निर्मितायां भवेन्नहि।
त्रासउद्विग्नको येन दैन्यगा: स्युर्नरा बलात्॥७४॥
भावार्थ-महाप्रलय जैसे विनाश संकट इन दिनों पृथ्वी में सर्वत्र घुमड़ते-गरजते दीखते हैं । उनमें से एक का भी पारिवारिकता का पतन चलते ही कहीं पता न चलेगा। प्रातःकाल का अरुणोदय होते ही अंधकार देखते-देखते तिरोहित हो जाता है । उसी प्रकार विश्व परिवार की भावना जगने और व्यवस्था बनने पर वैसा कोई त्रास रहेगा नहीं जो मनुष्य को खिन्न-उद्विग्न करे और उसे गई-गुजरी स्थिति में रहने के लिए विवश करे ॥७१-७४॥
व्याख्या-यहाँ ऋषि प्रवर जब सामान्य को आश्वासन देते हैं कि इन दिनों विश्व पर सर्वत्र संव्याप्त विभीषिका-महाप्रलय जैसे विनाश संकट जो प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रहे हैं, वह मानवीय सद्बुद्धि-विवेक के जागृत होते ही तिरोहित हो जाएँगे। 'विश्व परिवार', 'विश्व बंधुत्व' की भावना जागृत होने और तदनुरूप व्यवस्था बनाने पर सभी एक दूसरे की प्रगति-उत्थान के लिए ही कार्य करते देखे जाएँगे । गायत्री मंत्र के अंतिम चरण में अपनी निज की ही नहीं, समस्त समाज की, प्राणिमात्र की यथार्थ प्रगति की कामना की गई है और परम सत्ता से प्रार्थना की गई है कि सर्वतोमुखी प्रगति की आधारशिला सद्बुद्धि विवेक को हम अबके अंतःकरण में प्रतिष्ठापित करें। ऋतंभरा प्रज्ञा की शरण में हमारी अंतचेतना को नियोजित कर दें।
सन्निकट एवं सुनिश्चित-सम्भावी प्रज्ञायुग में उसी को प्राप्त करने के लिए जन-जन के मन में उत्कट-उत्कृष्ट
आकांक्षा आतुरता एवं तत्परता की भावना दिखाई देगी और लोग 'वसुधैव' कुटुम्बकम्' की भावना से ओत-प्रोत होकर कार्य करेंगे, तब समस्त समाज में अमन-चैन एवं सुख-शांति का वातावरण बनेगा।
केवलं न मनुष्या हि विश्वस्य परिवारगा:।
पशव: पक्षिणश्चात्र संगता: सन्ति पूर्णत:॥७५॥
निर्दयत्वस्य चाऽनीतेरन्त: स्याच्च तदैव तु।
तेषामपि ययोरत्र व्यवहारस्तु तै: सह:॥७६॥
क्रियते मनुजै: क्रूरैर्यदास्युर्भावना: शुभा:।
कौटुम्बिकस्य सर्वत्र विस्तृतास्तु गृहे गृहे॥७७॥
विश्वकल्याणमेतच्च सम्बद्धं ज्ञायतां ध्रुवम्।
अविच्छिन्नतयामर्त्यकल्याणस्यातिशायिन:॥७८॥
पारिवारिकता भावै: प्रक्रियां व्यापिकां तत:।
विधातुं यतनीयं च मर्त्यविश्वकुटुम्बजाम्॥७९॥
भविष्यदुज्जवलं चैतत्सम्बद्धं च यया सह।
अजस्त्रसुख शान्त्योश्च यत्रावतरणं तथा॥८०॥
भावार्थ-विश्व परिवार में मात्र मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी भी सम्मिलित होते हैं। उनके साथ बरती जाने वाली अनीति निदर्यता का अंत भी पारिवारिकता की भावनाओं का विस्तार होने पर ही बन पड़ेगा। विश्व कल्याण अति व्यापक मानव कल्याण की पारिवारिकता की भावना के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ समझा जाना चाहिए। विश्व परिवार को मानव परिवार को उस प्रक्रिया को व्यापक बनाने का प्रयत्न किया जाना चाहिए जिसके साथ उज्ज्वल भविष्य और अजस्र सुख-शांति का अवतरण अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है॥७४-८०॥
व्याख्या-विश्व परिवार की परिधि बहुत विशाल एवं व्यापक है। उसमें समरत प्राणिजगत आ जाता है । मनुष्यों, जीव-जंतुओं, पशु-पक्षियों, वृक्ष-वनस्पतियों आदि का समुच्चय मिलकर एक विशाल परिवार का
स्वरूप बनता है। अब नियंता की व्यवस्थानुसार चराचर में कौटुम्बिक भावना का विस्तार होगा, तब व
कहीं कलह रहेगी, न विग्रह। सब एक दूसरे को प्यार करेंगे, सम्मान देंगे एवं परस्पर प्रतिद्धद्धिता छोड़कर
एक दूसरे को ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने का प्रयास करेंगे। बदली हुई मन:स्थिति से वर्तमान में संव्याप्त
विभीषिकाओं का घटाटोप निरस्त होता चला जायगा और पारिवारिकता की, विश्व वसुधा के हर जीवधारी
को अपना मानने की भावना विकसित-विस्तृत होगी, तब सतयुग की, प्रज्ञा युग की संभावनाएँ निश्चित ही
साकार होने लगेंगी । चारों ओर सुख-समृद्धि के साथ शांतिमय वातावरण दृष्टिगोचर होगा और समरत
दिशाओं में शास्त्रोक्त वाणी-सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्
दुःखमाप्नुयात्॥- की शुभकामना जन-जन के अंतःकरण से प्रस्फुटित, प्रतिध्वनित और कार्यान्वित होती
सुस्पष्ट देखी जा सकेगी। अंतः आवश्यकता इस बात की है कि लोग तदनुरूप मनःस्थिति बनाकर नियंता
के-सृष्टि संचालन के विश्व वसुधा को समुन्नत बनाने में अपना भावभरा योगदान प्रस्तुत करें ।
महाप्रभु एवं भक्त महिला
आरती का पुनीत समय था । शंख और घंटे की आवाज से भगवान् जगन्नाथ का मंदिर गूँज रहा था। महाप्रभु चैतन्य गरुण स्तंभ के पास खड़े भगवान की आरती को बड़ी तन्मयता से गा रहे थे। मंदिर में भक्तों की भीड़ बढ़ती जा रही थी । बाद में आने वालों को मूर्ति के दर्शन नहीं हो पा रहे थे। एक उड़िया स्त्री जब दर्शन करने में असमर्थ रही, तो झट गरुड़ स्तंभ पर चढ़ गई और एक पैर महाप्रभु के कंधे पर रखकर आरती देखने लगी । महाप्रभु ने तो इस बात को सहन कर भी लिया, परंतु उनका शिष्य गोविंद भला क्यों सहन करता? वह उस स्त्री को डाँटने लगा पर महाप्रभु ने ऐसा करने से मना किया। 'क्यों बाधक बनते हो भगवान के
दर्शन कर लेने दो। इस माता को दर्शन की जो प्यास भगवान ने दी है यदि मुझे भी प्राप्त होती तो मैं धन्य हो जाता । इसकी तन्मयता तो देखो कि इसे यह भी ध्यान नहीं रहा कि पैर किसके कंधे पर है?' महाप्रभु का इतना कहना था कि वह धम्म से नीचे आ गिरी और उनके चरणों में गिर कर क्षमा माँगने लगीं। महाप्रभु ने अपने चरण हटाते हुए कहा-
"अरे! तुम यह क्या कर रही हो, मुझे तुम्हारे चरणों की वंदना करनी चाहिए ताकि तुम जैसा भक्ति भाव मैं भी प्राप्त कर सकूँ ।"
महापुरुषों में यही विशेषता होती है कि उनका उदार करुणासिक्त हृदय सबमें प्रभु के दर्शन करता है। प्रभु के भक्त की उनके प्रति तादाम्यता-तन्मयता उन्हें अत्यंत प्रिय लगती है। पारिवारिकता का यही तो एकमात्र सूत्र है।
प्राणी मात्र से प्रेम
हर प्राणी-जीवधारी में वही परमसत्ता समाई है, यह चिंतन करने वाले के लिए हर प्राणी अपना ही विश्व-बांधव प्रतीत होता है। उनके प्रति उनकी वही आत्मीयता होती है।
एक दिन मालवीय जी स्टेशन के पुल के पास से गुजर रहे थे कि उन्हें एक कुत्ते के चिल्लाने का स्वर सुनाई दिया। वह उस कुत्ते के पास गए । उसे ध्यान से देखने पर मालूम हुआ कि उसके कान के पीछे एक बहुत
बड़ा घाव है । मालवीय जी उसी समय काम छोड़कर वैद्य के पास गए और उन्होंने उससे कुत्ते के लिए दवा माँगी ।
वैद्य जी ने कहा-"दवा बहुत लगने वाली है । आप उस पर कैसे लगाएगें?" मालवीय जी ने उत्तर दिया-"आप दवा तो दीजिए ।" दवा लेकर मालवीय जी अपनी गली में आए और उन्होंने चार-पांच लड़कों को इकट्ठा किया । पहले जब वे उस कुत्ते के पास गए तब वह गुर्राने लगा और काटने को दौड़ा, परंतु मालवीय जी ने इसकी चिंता नहीं की । उन्होंने उसे पकड़ कर लेटा दिया और लड़को को उसे दबाए रखने को कहा। इसके बाद उन्होंने दवा को एक कपड़ा बँधी लकड़ी से कुत्ते के घाव पर लगा दिया । पहले तो कुत्ता दर्द से चिल्लाया परंतु जब दर्द कुछ कम हुआ तब वह शांति से सो गया । इस प्रकार मालवीय जी की दयालुता से उस कुत्ते की जान बच गई।
प्राणियों को गुरु बनाया
जब सभी प्राणी अपने हैं तो उनसे शिक्षा लेने में अपनी हेठी क्यों? महापुरुष तो क्षुद्र प्राणियों से
भी शिष्यत्वभाव से प्रेरणा ग्रहण करते है ।
दत्तात्रेय को को कोई ज्ञानी गुरु न मिला-सो वे प्रजापति के पास पहुँचे और बोले-"ऐसे गुरु का पता
बताएँ जो मेरी जिज्ञासा का संतोषजनक समाधान कर सके ।" प्रजापति ने उन्हें आश्वासन दिया और कहा-"लौटते समय जो भी सामने आए उसी की गतिविधियों को ध्यानपूर्वक देखें और उनमें जो विशेषता मिले उसे शिष्य भाव से ग्रहण करें । दत्तात्रेय सहमत हो गए और वापस लौट चले। सर्वप्रथम एक पेड़ पर मकड़ी को जाल बुनते देखा। वह स्वयं ही बुनती, स्वयं ही फँसती और स्वयं ही दुखी होती थी। थोड़ी देर में मकड़ी ने विचार बदला । वह जाले तानने के स्थान पर समेटने और निगलने लगी । देखते-देखते जाल जंजाल बना हुआ वितान उसके पेट में चला गया और स्वच्छंद होकर मकड़ी बंधन मुक्ति का आनंद लेने लगी । दत्तात्रेय ने यह साधारण घटना असाधारण दृष्टिकोण और गंभीर मनोयोग के साथ देखी, फलत: वह उन्हें बंधन और मुक्ति का रहस्य बता गई कि आदमी किस कारण बँधता
और किस नीति को अपनाकर छूटता है । आगे चलने पर उन्हें अनेक छोटे बड़े प्राणी मिलते गए । चींटी से उनने श्रमशीलता, सहकारिता सीखी । कुत्ते से स्वामिभक्ति । बैल से धैर्य और कर्म । इस प्रकार एक-एक करके उनने चौबीस गुरु बनाए । वे सभी मनुष्येत्तर जीव-जंतु थे जो बोलने में असमर्थ होते हुए भी उच्चस्तरीय रीति-नीति का आदर्श प्रस्तुत करते थे। उन्हें समझने और अपनाने पर दत्तात्रेय की जिज्ञासाएँ समाप्त होती गई और वे ज्ञान के भंडार बनकर सिद्ध पुरुष एवं भगवान कहलाए ।"
बंद द्वार खुल गए
परम पिता और उसके उत्तराधिकारी के मध्य एक ही संबंध है और उस संबंध का नाम है-अगाध प्रेम। तब दोनों मिलकर एक हो जाते हैं ।
एक सूफी कथा है-किसी प्रेमी ने अपनी प्रेयसी के द्वार को खटखटाया। भीतर से पूछा गया-"कौन है?" प्रेमी ने उत्तर दिया-"मैं हूँ तुम्हारा प्रेमी ।" प्रत्युत्तर मिला-"इस घर में दो को स्थान नहीं है ।" कुछ दिनों बाद
प्रेमी पुन: उसी द्वार पर लौटा । इस बार "कौन है?'' के उत्तर में उसका जवाब था-"तू ही है" और वे बंद द्वार
उसके लिए खुल गए । ईश्वर और जीव के संबंध ऐसे ही होते है ।
देने में आनंद
"बेटा ले ये दो टुकड़े मिठाई के हैं। इनमें से यह बड़ा टुकड़ा तू स्वयं खा लेना और छोटा टुकड़ा अपने
साथी को दे देना ।" "अच्छा माँ" और वह बालक दोनों टुकड़े लेकर बाहर आ गया अपने साथी के पास। साथी को मिठाई का बड़ा टुकड़ा देकर छोटा स्वयं खाने लगा। माँ यह सब जंगले में से देख रही थी । उसने आवाज देकर बालक को बुलाया ।" क्यों रे! मैंने तुमसे बड़ा टुकड़ा खुद खाने और छोटा उस बच्चे को देने के
लिए कहा था, किन्तु तूने छोटा स्वयं खाकर बड़ा उसे क्यों दिया?" वह बालक सहज बोली में बोला-"माताजी!
दूसरों को अधिक देने और अपने लिए कम से कम लेने में मुझे अधिक आनंद आता है ।" यह बालक था बाल गंगाधर तिलक। माताजी गंभीर हो गईं । वह बहुत देर विचार करती रहीं बालक की इन उदार भावनाओं के संबंध में ।
सचमुच यही मानवीय आदर्श है और इसी में विश्व शांति की, एकता की सारी संभावनाएँ निर्भर है। मनुष्य
अपने लिए कम चाहे और दूसरों को अधिक देने का प्रयत्न करे तो समस्त संघर्षो की समाप्ति और स्नेह, सौजन्य की स्वर्गीय परिस्थितियाँ सहज ही उत्पन्न हो सकती है ।
मानवता के लिए समर्पित अंग्रेज वर्न
विलियम वेडर वर्न हिंदुस्तान में अपने पिता के साथ कोई ऊँचा सरकारी पद पाने आए थे । वह उन्हें मिला भी। अपनी प्रतिभा के कारण उन्हें 'सर' की उपाधि भी मिली पर भारतीयों की दरिद्रता और शोषण देखकर उनका मन पिघल गया। नौकरी छोड़ दी और जन-जागरण के काम में लग गए। पहला काम उनने राष्ट्रीय कांग्रेस को जन्म देने और समर्थ बनाने का किया। वि मि० झूम के दाहिने हाथ बन गए। जो काम उनने किया उसके अनुसार वे देश के मूर्धन्य नेता बने। उनने सच्चे अर्थों में भारतीय नागरिकता स्वीकार की । इंग्लैंड की पार्लियामेंट में वे भारत के प्रतिनिधित्व की हैसियत से सदस्य चुने गए । कांग्रेस के दो बार अध्यक्ष रहे । अंग्रेज अपने शासन की नींव कमजोर करने वाला कहकर उन पर तरह-तरह के लांछन तो लगाते थे पर वे अपनी प्रतिभा पर आजीवन अडिग रहे । उनने न्याय का पक्ष लिया, बिरादरी का नहीं । वे स्वयं को किसी देश विशेष का नहीं, समस्त विश्व का नागरिक कहते थे।
सत्रं साप्ताहिकं यस्मिन् परिवारप्रशिक्षणम्।
कृतं धौम्येन तत्त्वद्य समाप्तं विधिपूर्वकम्॥८१॥
कुम्भस्नानार्थिनां नृणां कार्यकालोऽपि निश्चित:।
पूर्णमारण्यकं गन्तुं महर्षेरपि चेप्सितम्॥८२॥
विसर्जनं ततश्चास्य ज्ञानयज्ञस्य निश्चितम्।
कर्तु विवशता जाता महर्षें: करुणात्मन्:॥८३॥
श्रोतार: स्वेषु चेत:सु सत्रसंयोजकस्य ते।
भावपूर्ण व्यधु: सर्वेऽप्यभिनन्दमद्य तु॥८४॥
आत्मानं कृतकृत्यं चाप्यनयाऽमृतवर्षया।
मेनिरे चित्तमेषां च श्रद्धा भावभृतं ह्यभूत्॥८५॥
श्रुतं ज्ञातं च यत्ततु करिष्याम: क्रियान्वितम्।
प्रयोजनस्य सिद्धि: सा क्रियाधीनैव वर्तते॥८६॥
उपदेश: परामर्श: केवलं मार्गदर्शनम्।
उत्साहस्याथ सञ्चारे समर्थास्तु भवस्तत:॥८७॥
कथनाच्छ्रवणान्नैव कार्यं सिद्ध्यति कस्यचित्।
संकल्पानन्तरं कार्य कुर्यादेव क्रियान्वितम्॥८८॥
महर्षि धौम्य का एक सप्ताह का परिवार शिक्षण सत्र आज विधिपूर्वक समाप्त हुआ। कुंभ स्नान के लिए आए हुए लोगों का निर्धारित कार्यकाल भी पूरा हो गया। महर्षि को भी अपने आरण्यक आश्रम में जाना था1 अस्तु, परम कारुणिक ऋषि को उस ज्ञान यज्ञ को समापन करने-की विवशता थी। श्रोताओं ने मन ही मन सत्र संयोजक शीष का भाव-भरा अभिवंदन किया और अपने को इस अमृत वर्षा से कृतकृत्य हुआ माना। सभी का मन इस भाव श्रद्धा से भरा हुआ था कि जो सुना-समझा है, उसे कार्यान्वित भी करेंगे। प्रयोजन की सिद्धि तो करने से होती है। उपदेश परामर्श तो मात्र मार्गदर्शन करने और उत्साह भरने तक के काम आते हैं। कथन-श्रवण भर से कुछ काम नहीं चलता। कार्य को संकल्प के बाद क्रियान्वित करना अनिवार्य है॥८१-८८॥
भविष्यति च कुत्रस्यात् सत्रमेवं विधं कदा ।
पुलकिता गमनोत्कास्ते पप्रच्छु: सादरं तत:॥८९॥
उदतारीदृषि: सर्वे भवन्त: पर्वजेषु हि।
आयोजनेषु सर्वत्र संगता: स्यु: सदैव तु॥९०॥
ईदृशी लोकशिक्षाया व्यवस्था तत्र प्रायश:।
भवतीति समैस्तत्र लाभ: प्राप्तव्य उत्तम:॥९१॥
समापनसमारोहे सवैंरेव विशेषत:।
उत्साहो दर्शितस्तत्र महर्षेर्दिव्य चक्षुष:॥९२॥
प्रयोजनाय दिव्याय चानुदानानि तैर्नरै:।
प्रस्तुतानि निजान्यत्र भावपूर्णानि विह्वलै:॥९३॥
अभिवादनकार्यस्य क्रमस्तत्राशिषामपि।
चचालाभूत्समाप्तश्च जयघोषपुरस्सरम् ॥९४॥
ज्ञानयज्ञ: समेषां च विश्वमेतच्चराचरम्।
परिवारगतं साक्षात् बुद्धावुद्बुद्धतां गतम्॥९५॥
प्रस्थितानां गृहास्तेषां जाता वृक्षा क्षुपा अपि ।
परिवारिकतां याता गोप्तारो जीवनस्य च॥९६॥
भावार्थ-भविष्य में ऐसा सत्र कब और कहाँ होगा? यह प्रश्न पुलकित मन से विदा लेने वाले आदर सहित पूछने लगे ऋषि ने कहा-आप लोग पर्व आयोजनों में सम्मिलित हुआ करें। वहाँ प्राय: ऐसे ही लोक शिक्षण की व्यवस्था रहती है। अत: सभी को वहाँ उत्तम लाभ प्राप्त करना चाहिए। सभी ने समापन समारोह में विशेष उत्साह दिखाया। ऋषि प्रयोजन के लिए अपने भाव भरे अनुदान भी विह्वल होकर प्रस्तुत किए । अभिवादन और आशीर्वाद का क्रम चला । जयघोष के साथ उस ज्ञानयज्ञ का समापन हो गया। सभी को समस्त चराचर विश्व अपनी बुद्धि में एक परिवार के रुप में उद्बुद्ध सा होने लगा। घर लौटते हुए सभी को पेड़-पौधे तक अपने जीवन रक्षक पारिवारिक सदस्यों के समान दृष्टिगोचर होने लगे॥८९-८६॥
इति श्रीमह्मज्ञापुराणे बह्मविद्याऽऽत्मविद्ययो:,
युगदर्शनयुगसाधनाप्रकटीकरणयो:,
श्रीधौम्य ऋषिप्रतिपादिते "विश्वपरिवार", इति
प्रकरणो नाम सप्तमोऽध्याय॥७॥