प्रज्ञा पुराण भाग-3

अथ षष्ठोऽध्याय: सुसंस्कारिता-संवर्धन प्रकरणम्-6

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धौम्य उवाच-

सुसंस्कृतं कुटुम्बं यद् भवितुं वाञ्छति स्वयम् ।
स्वाध्यायस्य प्रकर्तव्या सत्संगस्य व्यवस्थिति:॥६९॥
तेन तस्मिन् कुटुम्बे च भोजनस्येव सम्मतम्।
नित्यकर्मेव चेदं तु नृणामवश्यंक परम्॥७०॥
अस्मान्न्यूने कुसंस्कारनिवृत्तिनैंव सम्भवा।
साधनाऽऽत्मन आहारस्तां विना महता नहि॥७१॥

भावार्थ-धौम्य पुन: बोले-सुसंस्कृत बनने के इच्छुक प्रत्येक परिवार में स्वाध्याय और सत्संग की नियमित व्यवस्था होनी चाहिए । उन्हें भोजन-शयन की तरह आवश्यक नित्यकर्म माना जाना चाहिए । इससे कम में कुसंस्कारों से निवृत्ति किसी को भी नहीं मिल सकती। साधना आत्मा का आहार है। उसके बिना क्षुद्र को
महान के साथ जुड़ने का सुयोग ही नहीं बनता ॥६९-७१॥

व्याख्या-महर्षि धौम्य यहाँ सुसंरकारिता उपार्जन का महत्व समझौते हुए पुन: ज्ञानार्जन की, सत्साहित्य के पठन-मनन एवं सत्पुरुषों-श्रेष्ठ वातावरण के सत्संग पर जोर देते हैं। ये दोनों ही ऐसे नहीं हैं कि इन्हें ऐच्छिक मानकर जीवन में जब अवकाश मिले, तब के लिए छोड़ दिया जाय । यह तो नित्यप्रति के जीवन में समावेश की जाने वाली गुण-संपदाएँ हैं, जो व्यक्ति को सुसंस्कृत बनाती, पारस के स्पर्श से लोहे को स्वर्ण बनाने के समाज उसे श्रेष्ठता की पराकाष्ठा पर ले जाती हैं। वास्तविक ज्ञान पाकर ही अंधकार से प्रकाश की ओर, असत्य रो सत्य की ओर, अशांति से शांति की ओर और स्वार्थ से परमार्थ की ओर उन्मुख होता है ।

इसी प्रकार अज्ञान के निवारण-आत्म सत्ता को समष्टि में संव्याप्त परमात्मसत्ता से एकाकार करने हेतु साधना को भी जीवन में अति महत्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिए। अनगढ़ को सुगढ़ बनाने हेतु साधना का अवलंबन अत्यंत अनिवार्य है। वह अज्ञान मिटाए बिना संभव नहीं। स्वाध्याय, सत्संग एवं चिंतन-मनन की त्रिपदा साधना ही उस ज्ञान की सिद्धि का सहज उपाय है ।

स्वाध्याय युक्त साधना से ही परमात्मा का साक्षात्कार

गीता में कहा गया है-"नहिं ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते" अर्थात, इस संसार में ज्ञान से बढ़कर और कोई श्रेष्ठ पदार्थ नहीं है। आत्म निर्माण की, चरित्र गठन की, सुसंस्कार की, सत्प्रवृत्तियों की भावनाएँ जागृत करने वाले सद्विवचारों को ही सच्चा ज्ञान कहा जा सकता है।
यही जीवन को सफल बनाने वाला सर्वश्रेष्ठ पदार्थ है । ज्ञान लाभ का उद्देश्य पूर्ण करने वाला सर्वसुलभ साधन स्वाध्याय ही है ।

संसार में सर्वश्रेष्ठ तत्व 'ज्ञान' को प्राप्त करके जीवन सफल बनाने-उसे श्रेष्ठ दिशा में विकसित करने के लिए स्वाध्याय ही प्रधान माध्यम है, इसलिए स्वाध्याय को एक आवश्यक धर्म-कर्तव्य माना गया है। शास्त्र कहता है-
'स्वाध्यायान्मा प्रमद:' अर्थात, स्वाध्याय में प्रमाद न करो और 'अहरह: स्वाध्यायोऽध्येतव्य:' अर्थात, दिन-रात स्वाध्याय में लगे रहो। शतपथ ब्राह्मण में लिखा है कि-'यावन्त: वा इमां पृथिवी वित्तेन पूर्णाद्ददल्लोक जयति त्रिस्तावन्तः जयति भूयांसम्वाक्षयम्य एवम् विज्ञान अहरह:स्वाध्यायामधीते ।' अर्थात जितना पुण्य धन-धान्य से पूर्ण इस समस्त पृथ्वी को दान देने से मिलता है, उसका तीन गुना पुण्य तथा उसे भी अधिक पुण्य स्वाध्याय करने वाले को मिलता है । इस कथन पर आश्चर्य करने की कोई बात नहीं है । भावनाओं कौ प्रेरणा देने का प्रमुख आधार स्वाध्याय ही वह तथ्य माना गया है, जिससे प्रेरित होकर मनुष्य के विचार और कार्य सन्मार्ग की दिशा में विकसित होते हैं और यही विकास क्रम अंतत: अक्षय पुण्य फल प्राप्त होने का हेतु बनाता है ।


शरीर, वस्त्र, मकान आदि की सफाई नित्य करनी पड़ती है, क्योंकि नित्य ही उन पर मैल जमता रहता है । इसी प्रकार मन पर भी सासंर के बुरे वातावरण का मैल और कुप्रभाव निरंतर पड़ता रहता है। उसकी सफाई के लिए सत्संग और स्वाध्याय की बुहारी लगाने की नित्य ही आवश्यकता होती है। इसीलिए शास्त्रकारों ने भोजन, स्नान, शयन आदि की भाति ही स्वाध्याय को भी नित्य कर्म माना है । पानी को फैलाते ही वह तेजी से नीचे की ओर अपने आप बहने लगता है । उसी प्रकार मन का स्वभाव भी नीच कर्मों की ओर आकर्षित होना है। यदि उसे न रोका जाय, तो पशु प्रवृत्तियों की ओर ही बढे़गा। पानी को ऊपर ले जाना होता है, तो रस्सी-बाल्टी, पंप आदि का प्रयोग करना पड़ता है, तब कहीं वह ऊपर को चढ़ाया जा सकता है। स्वाध्याय को वह व्यवधान कहा जा सकता है, जो मन रूपी पानी को कुमार्ग की ओर बहने से रोकता है । आत्मशोधन और आत्मनिर्माण का सबसे प्रधान विधान 'स्वाध्याय' ही माना गया
है । इसी से परमात्मा की प्राप्ति भी होती है । महर्षि व्यास का कथन है-'स्वाध्याययोगसाधनाया परमात्मा प्रकाशते' अर्थात स्वाध्याय युक्त साधना से ही परमात्मा का साक्षात्कार होता है ।

ज्ञान की सत्ता

सुकरात कहते थे, "मेरी बाल्यावस्था से ही एक सदात्मा मेरे साथ घूमती थी । उसका काम यह नहीं था कि मुझे यह बताए कि किस समय क्या करना है । वह केवल यह बताती थी कि कौन-सा काम उचित है और कौन-सा अनुचित।" वह सदात्मा कौन थी? अनेक का विश्वास है कि वह सुकरात की प्रज्ञाशक्ति थी, वही उन्हें सतर्क करती रहती थी ।

ज्ञान-साधना 

मुशाकी (जापान) में अब से ढाई सौ वर्ष पूर्व हवाना होकीची नामक एक बालक गरीब परिवार में जन्मा । उसे सात वर्ष की आयु में चेचक निकली और उसी में दोनों आँखों से अंधा हो गया । अब उसके लिए कुछ भी देख सकना संभव न था । इस दुर्भाग्य भरे जीवन में अब अंधकार के अतिरिक्त और कुछ रह नहीं गया था । ऐसी स्थिति में लोग पराश्रित होकर जीते हैं। दूसरों की सहायता पर ही उनकी जीवन यात्रा चलती है । पर होकीची हिम्मत नहीं हारा। एक-एक इंच की दोनों आँखें ही तो गई थीं। इतने बड़े शरीर के अन्य कलपुर्जे तो ज्यों के त्यों थे, फिर वह क्यों यह माने कि उसका सब कुछ चला गया । ६३ इंच लंबे शरीर में से दो इंच घट जाने पर भी ६१ इंच की काया तो यथावत थी ही।

होकीची १०१ वर्ष तक जिया । सात वर्ष बचपन के छोड़कर शेष ९४ वर्ष उसने अनवरत रूप से ज्ञान की साधना की। किशोर अवस्था तक वह केवल पढ़ता रहा, इसके बाद उसने पढाने का धंधा अपना लिया । वह छात्रों को पढ़ाता और बदले में उनसे अपने काम की पुस्तकें पढ़वा कर ज्ञान की वृद्धि करता । यह पढने और पड़ाने का क्रम उसने आजीवन जारी रखा और जापान ही नहीं, सारे संसार के विद्वानों की अग्रिम पंक्ति में गिना गया । उसके मस्तिष्क में संग्रहीत अति उपयोगी ज्ञान को एक राष्ट्रीय शिक्षा संस्था ने नोट कराया और उसके आधार पर एक विश्व ज्ञान कोष प्रकाशित किया गया, २८२० खंडों में प्रकाशित हुआ है। संसार के इतिहास में इससे बड़ी और इससे अधिक तथ्यपूर्ण पुस्तक अभी तक कोई भी नहीं छपी।

विद्या का लाभ सबको दें 

विद्या विभूति सबके लिए है । उसे छिपाकर रखना, दूसरों को लाभ न उठाने देना, एक सबको दें दंडनीय अपराध है ।

कांची नरेश की राजकुमारी प्रेत बाधा से पीड़ित हुई। भूत सामान्य नहीं ब्रह्म राक्षस था । तब श्रीरामानुजाचार्य बुलाए गए। उन्होंने वहाँ जाकर पूछा-"आपको यह योनि क्यों कर मिली?" रोकर ब्रह्म राक्षस बोला-"मैं विद्वान था, किन्तु मैंने अपनी विद्या छिपा रखी थी। किसी को भी मैंने विद्या दान नहीं किया, इससे ब्रह्म राक्षस हुआ । आप समर्थ हैं, मुझे इस प्रेतत्व से मुक्ति दिलाइए।" श्रीरामानुज ने राजकुमारी के मस्तक पर हाथ रखकर जैसे ही भगवान का स्मरण किया, वैसे ही ब्रह्मराक्षस ने उसे छोड़ दिया, क्येंकि वह स्वयं प्रेतयोनि से मुक्त हो गया।

उस दिन से श्रीरामानुज ने प्रतिज्ञा की कि वह स्वाध्याय का लाभ अपने समाज को भी देते रहेंगे।

ज्ञान के सागर में डुबकी लगाएं

ज्ञानार्जन हेतु मंथन करना पड़ता है, साधना करनी पड़ती है । बिना थके, किया गया अध्यवसाय ही फलदायी परिणाम देता है ।

समुद्री यात्रा से लौटे हुए एक यात्री ने एक गोताखोर से पूछा-"बंधु! मैं तो हजार मील यात्रा कर आया, पर मुझे तो कहीं एक भी मोती न मिला, तुम तो एक दिन में ढेरों मोती ढूँढ़ लेते हो?" गोताखोर ने डुबकी लगाने से पूर्व कहा-" भाई । मैं अपने जीवन को संकट में, गहरे में उतारता हूँ, तुम्हारी तरह चलता ही नहीं रहता।"

ज्ञान एवं वैराग्य की मूर्छना

नारद जी कलियुग का क्रम देखते हुए, एक बार वृंदावन पहुँचे । देखा, एक युवती के पास दो पुरुष मूर्छित पडे़ है । दुखी युवती ने नारद जीं को बुलाया। पूछने पर बतलाया-"मैं भक्ति हूँ । मेरे ये दो पुत्र ज्ञान और वैराग्य असमय में वृद्ध हो गए और मूर्छित पड़े है। इनकी मूर्छा दूर करें, तो मेरा दुख दूर हो ।" नारद जी ने उनकी मूर्छा दूर करने का प्रयास किया । वेदादि के पाठ से सामान्य हलचल शरीरों में हुई, पर मूर्छा नहीं टूटी। नारद जी दुखी होकर प्रार्थना करने लगे। आकाशवाणी हुई-"हे नारद! आपका प्रयास उत्तम है, किन्तु मात्र वेदपाठ से इनकी मूर्छा दूर नहीं होगी, संतों से परामर्श करके कुछ सत्कर्म करो, तो ज्ञान- वैराग्य भी प्रतिष्ठापित हों।"

नारद जी ने तमाम संतों से पूछा-"क्या सत्कर्म करें । जिससे इनकी मूर्छा टूटे ।" कहीं समाधान न मिला । अंत में बदरी विशाल क्षेत्र में सनकादि मुनियों से भेंट हुई । उन्होंने सारी बात सुनी, तो कहा-"नारद जी, आपकी भावना दिव्य है । कलि के प्रभाव से मूर्छित ज्ञान-वैराग्य की मूर्छा दूर करने के लिए ज्ञान यज्ञ ही एक मात्र ऐसा
सत्कर्म है, जिसका प्रभाव निश्चित रूप से होगा। ज्ञान यज्ञ के लिए वेदादि का उपयोग भी ठीक है, पर वह कलि में बोधगम्य नहीं होने से उसका प्रभाव कम होता है। अत: आप कथा माध्यम से ज्ञान यज्ञ करें, वह निश्चित रूप में सफल होगा।"

नारद जी सनत्कुमारों के साथ गंगा के किनारे आनंदवन में गए । वहाँ पवित्र वातावरण में उन्होंने ज्ञान यज्ञ का, कथा-दृष्टांतों के माध्यम से धर्म धारणा के विस्तार हेतु शिक्षण का शुभारंभ किया । उनकी इस सक्रियता से और ऋषियों को भी प्रेरणा मिली एवं उन्होंने भी विस्तार का पुण्य-परमार्थ करने का निश्चय किया।

संगति का प्रतिफल

सत्संग की महिमा अपरंपार। इसके लिए जो भी अवसर मिले, खोना नहीं चाहिए। एक मिट्टी के ढेले से सुगंध आ रही थी, दूसरे में दुर्गंध। दोनों जब मिले तो आपस में विचार करने लगे कि हम दोनों एक ही मिट्टी के बने हैं, फिर इतना अंतर क्यों? सुगंधित ढेले ने कहा-"यह संगति का प्रतिफल है । मुझे गुलाब के नीचे पड़े रहने का अवसर मिला और तुम गोबर के नीचे दबे रहे ।"

रामायण से बदले

किसी ने एक महात्मा जी से पूछा-"महात्माजी, इस रामायण को सही माना जाय या गलत?"
महामा जी ने उत्तर दिया-"जब रामायण की रचना की गई थी, तब मैं नहीं था । जब राम विचरण कर रहे थे, तब भी मेरा अता-पता नहीं था । तो मैं कैसे कहूँ कि वह सही है या गलत। मैं तो केवल इतना ही बता सकता हूँ कि चाहे वह सही हो या गलत परंतु उसके पठन से मैं सही हो गया हूँ । चाहो तो यह क्रम तुम भी आजमा सकते हो ।"

जीव ब्रह्म की दूरी 

आत्म ज्ञान की प्राप्ति से बढ़कर वरदान कोई और नहीं है। फकीर जुनैद आँखों में आँसू भर कर परमात्मा से प्रार्थना कर रहे थे-"मैंने सब कुछ छोड़ दिया। अब एक तेरे ही ऊपर नजन टिकी है। पर प्यारे यह तो बता कि तेरी नजर भी मेरी तरफ है या नहीं?" भीतर का परमात्मा बोला-"जब तक दूसरे की नजर अपनी ओर होने, न होने में संदेह है, तब तक दूरी बनी ही रहेगी। अपनी नजर जमाए रहने में ही संतोष कर। समर्पण में ही सच्चा सुख है।"

साधनाभि: कुटुम्बे च भवेद् वातावृति: शुभा।
आस्तिक्यभावसम्पन्ना धर्मश्रद्धास्थिते: समा॥७२॥
भावना मान्यता नृणामाकांक्षा गतयश्च ता:।
अधोगा नैव जायन्ते तस्मादत्र गृहे गृहे॥७३॥
युगशक्तेराद्यशक्ते प्रतिमा स्थापिता भवेत्।
महाप्रज्ञाभिधायास्तु गायन्न्याश्छविरेव वा॥७४॥
भोजनात् पर्वूमेवात्र सदस्याश्च समेऽपि चेत्।
नमनं वन्दनं कुर्युर्जपं ध्यानमथाऽपि च॥७५॥
स्वल्पेऽपि समये सा वै साधनाऽप्यल्परुपिणी।
भावनात्मकशुद्धयर्थं सिद्धत्येव सहायिका॥७६॥

भावार्थ-साधना द्वारा परिवार में आस्तिकता का वातावरण बनना चाहिए। धर्म श्रद्धा बनी रहने से
व्यक्ति की भावनाएँ, मान्यताएँ, आकांक्षाएँ एवं गतिविधियाँ अधोगामी नहीं बनने पातीं। इस हेतु हर घर में आद्यशक्ति युगशक्ति महाप्रज्ञा गायत्री की प्रतिमा अथवा छबि की स्थापना रहनी चाहिए। भोजन से पूर्व सभी उसका नमन-वंदन तथा जप-ध्यान थोड़े समय भी कर लिया करें तो वह स्वल्प साधना भी भावनात्मक पवित्रता बनाए रहने में बहुत सहायक सिद्ध होंती है॥७२-७६॥ 

व्याख्या-संस्कारयुक्त वातावरण हर परिवार में बना रहे, इसके लिए उनकी आस्तिकता को जीवंत बनाए रखने के लिए उपयुक्त पोषण और मार्गदर्शन मिलता रहना चाहिए।

आस्तिकता ईश्वर विश्वास मनुष्य पर एक ऐसा अंकुश है, जिसमें उसे दुष्कर्मो का प्रतिफल देर-सबेर से मिलने का भय बना रहता है । साथ ही यह भी निश्चय रहता है कि नियामक सत्ता आज नहीं तो कल-परसों सत्कर्मो का परिणाम प्रदान करेगी। भले-बुरे कर्मो का तत्काल फल न मिलते देखकर लोगों का मन, कर्मफल के बारे में अनिश्चित हो जाता है, फलत: न तो दुष्कर्मो से डरते हैं और न सत्कर्मों के संबंध में उत्साहित होते हैं । ईश्वर के अस्तित्व और उसके कर्मफल विधान की निश्चितता पर विश्वास दिलावा आस्तिकता का प्रथम उद्देश्य है। सच्चे आस्तिक की चरित्रनिष्ठा डगमगाने नहीं पाती ।

उपासना का लक्ष्य है-ईश्वर की महानता के समीप पहुँचना, घनिष्ठ बनाना । अर्थात अपने चिंतन और चरित्र में ईश्वरीय विशेषताओं को भरते-बढ़ाते चले जाना । ईश्वर विराट है। उसकी उपस्थिति प्राणिमात्र में, कण-कण में अनुभव करते हुए चेतना के प्रति सद्भावना रखना, सद्व्यवहार करना साथ ही पदार्थ संपदा को ईश्वर की अमानत मानकर उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग करना-यही हैं वे प्रतिक्रियाएँ, जो उपासक के अंतक्षेत्र में स्वाभाविक रूप से उभरनी चाहिए। आस्तिकता के दो प्रतिफल हैं, चरित्र निष्ठा और समाज निष्ठा । सच्चे ईश्वरविश्वासी को उदात्त और सदय बनना ही चाहिए। आत्मा के स्तर को परमात्मा जैसा ऊँचा उठा, शुद्रता को महानता में परिवर्तित करना, उपासना की भाव-भरी प्रेरणा है । जिसे यह लाभ मिलेगा, वह पुरुष से पुरुषोत्तम बनकर रहेगा । सच्ची आस्तिकता के अभाव में लोग पूजा के फलरवरूप मनोकामना पूरी कराने की आस लगाए रहते हैं और छुटपुट क्रिया-कृत्यों के बदले पाप दंड से बच निकलने एवं सस्ते मोल में ईश्वर की अनुकंपा के चमत्कारी लाभ पाने की कल्पना करते रहते हैं ।

भावनात्मक पवित्रता बनाए रहने के लिए आत्मोत्कर्ष की दिशा में अग्रसर होने के लिए, उपासना का क्रिया-कृत्य करने के लिए परिवार के हर सदस्य को प्रेरित किया जाना चाहिए। भूले ही वह न्यूनतम ही क्यों न हो? इस संदर्भ में 'नमन-वंदन' सबसे छोटा और सरल कार्यक्रम है। गायत्री युग शक्ति है, उसी का प्रज्ञावतरण सामयिक समस्याओं का समाधान और उज्ज्वल भविष्य का सूत्र-संचालन करेगा। गायत्री की ऋतंभरा प्रज्ञा सार्वभौम और सार्वजनीन है। सद्विचारणा और सद्भावना की अधिष्ठात्री गायत्री माता की अभ्यर्थना ही युग साधना है। इसके लिए समस्त परिवारों को अपने घर के सभी परिजनों को अभ्यस्त करना चाहिए। जो अधिक समय गायत्री उपासना कर सकें, वे वैसा करें, अन्यथा इतना तो किया ही जाना चाहिए कि नित्यकर्म के उपरांत घर का हर सदस्य प्रतिष्ठापित गायत्री माता के चित्र के सम्मुख हाथ जोड़कर आँख बंद करके मानसिक जप और आत्म संस्थान में प्रकाश के अवतरण का ध्यान करे । इसके बाद ही भोजन एवं अन्य कर्म किए जाँय ।

प्रतिमा स्थापित की जाय, पर उससे व्यर्थ की अपेक्षा न की जाय । नहीं तो वह एक अंधविश्वास बन जाता है जो व्यक्ति को श्रम से विमुख कर भाग्यवादी बना देता है।

भक्त की उलाहना


हे प्रभु! हे जगत् पिता, जगन्नियन्ता कैसे आप मौन, मंदिर में बैठे हुए है। क्या आप देख नहीं रहे हैं अन्याय और अनीति फैली हुई है। अत्याचारियों के आतंक और त्रास से संसार
त्राहि-त्राहि कर रहा है । आप उठिए और बाहर आकर अत्याचारियों का विनाश करिए, संसार को त्रास और उत्पीड़न से बचाइए। देखिए, मैं कब से आपको पुकार रहा हूँ, विनय और प्रार्थना कर रहा हूँ । किन्तु आप अनसुनी करते जा रहे हैं । हे प्रभु, हे जगन्नियन्ताजाने आप न  जल्दी क्यों नहीं सुनते। पुकारते-पुकारते मेरी वाणी शिथिल हो रही है, किन्तु अभी तक आपने मेरी पुकार नहीं सुनी-कहते-कहते, प्रार्थी करुणा से रो पड़ा । तभी मूर्ति ने गंभीरता के साथ कहा-" मैं मनुष्यों से बहुत डरता हूँ ।" प्रार्थी ने विस्मयपूर्वक पूछा-"भगवन्। आप मनुष्य से डरते हैं-यह क्यों?"

मूर्ति पुन: बोली-"इसलिए कि यदि मैं संसार में सशरीर ईश्वर के रूप में आ जाऊँ, तो मनुष्य मेरी दुर्गति बना डालें। क्योंकि हर मनुष्य को मुझ से कुछ न कुछ शिकायत है, हर मनुष्य मुझ से कुछ न कुछ सेवा चाहता है। अपनी शिकायतों को ढूँढ़ने और उन्हें दूर करने की अपेक्षा वह दोष मुझे देता है। पुरुष अपनी समस्याएँ आप हल करने की अपेक्षा मुझी से सारे काम कराना चाहता है और मूल्य चुकाए बिना वैभव पाने की याचना करता है। अब तुम्हीं बताओ ऐसी स्थिति से मैं सशरीर ईश्वर के रूप में कैसे आ सकता हूँ?" मूर्ति इतना कह कर मौन हो गई ।

एक की जड़ता, एक की श्रद्धा

उपासना तभी सार्थक है, जब उसके साथ श्रेष्ठ कर्म भी जुड़े। मात्र पूजा उपचार तो बहिरंग का कर्मकांड भर है।

दो आदमी थे। उनके सामने दो पत्थर रखे थे। एक ने सामने के पत्थर को देखा । हाथ जोडे़। मन रोका और ध्यान के लिए आँखें मूँद लीं। पत्थर भी उसी मुद्रा में निस्तब्ध पड़ गया। दूसरे ने आँख खोली । मन को उछाला छैनी-हथौडे़ हाथ में लेकर पत्थर की देव प्रतिमा गढ़ने लगा । वह लगातार लगा रहा । मूर्ति बनकर तैयार हो गई । सुंदर अति सुंदर । दर्शकों का तांता लग गया, कलाकार की कला को मुक्त कंठ से सराहा गया। अंतत: किसी श्रद्धालु ने उसे खरीदा और विशाल देवालय बनाकर उस प्रतिमा की प्रतिष्ठापना कर दी । पहले आदमी का पहला पत्थर अभी भी जहाँ का तहाँ उसी ऊसर जमीन में पड़ा था । भक्त का हाथ जोड़ना, आँखें
मूँदना और मन को रोकना अभी भी उसी क्रम से चल रहा था ।

एक दिन वे दोनों व्यक्ति मिले। अपने-अपने आराध्य की चर्चा करने लगे । एक ने जड़ता की शिकायत की और दूसरे ने प्रगति का हर्ष संवाद सुनाया । उसी रात्रि उन पत्थरों की आत्माएँ भी भेंट का अवसर पा गई, । एक ने भक्त की जड़ता पर दुख प्रकट किया और दूसरी ने क्रियाशील श्रद्धा को मुक्त कंठ से सराहा ।

देश भक्तों का अंतर

एक तपस्वी ने इंद्र देव की अराधना की । वे प्रसन्न हुए और वरदान देने पहुँचे। तपस्वी ने उनका वज्र माँगा, ताकि संसार को आतंकित करके चक्रवर्ती शासन कर सके । इंद्रदेव रुष्ट होकर वापस चले गए। वरदान न पाने के दुख से तपस्वी निराशाग्रस्त मन:स्थिति में शरीर त्याग गया। इंद्र को यह समाचार मिला, तो वे बहुत दुखी हुए और सोचने लगे। तपस्वी को कष्ट देने की अपेक्षा उनकी मनोकामना पूर्ण करना उचित है। कुछ समय बाद किसी तपस्वी ने फिर इंद्र की वैसी ही आराधना की । निदान उन्हें वरदान देने के
लिए जाना पड़ा ।

अब की बार वे वज्र साथ ही लेकर गए और पहुँचते ही बिना मागें वज्र तपस्वी के आगे रख दिया । तपस्वी ने आश्चर्यचकित होकर उस निरर्थक वस्तु को देने का कारण पूछा-तो इंद्र ने पूर्व तपस्वी का सारा वृत्तांत कह सुनाया । व्रज को लौटाते हुए उसने निवेदन किया, देव ऐसे वरदान से क्या लाभ, जिसे पाकर अहंकार भरी तृष्णा जगे और न मिलने पर निराशाग्रस्त मरण का वरण करना पड़े। मुझे तो ऐसा वर दीजिए कि उपलब्ध तप शक्ति को सत्प्रयोजनों के लिए नियोजित कर सकूँ।

उपासना इस स्तर के श्रेष्ठ उद्देश्य को लेकर की जाय, वही सार्थक है। यही विभिन्न उपासकों को मिलने वाले
प्रतिफलों में अंतर का कारण बनती है।

देह में समाए देवाता

ईश्वर-परब्रह्म तो रोम-रोम में समाया है। किसी के अहित की कामना करना ही अपने लिए संकट बुलाना है । दधीचि पुत्र पिप्पलाद ने जब माता से अपने पिता को देवताओं द्वारा अस्थियाँ माँगे के जाने और उनसे बने वज्र से अपने प्राण बचाने का विवरण सुना, तो उन्हें देवताओं के प्रति बड़ी घृणा उपजी। अपना स्वार्थ साधने के लिए दूसरों का प्राण हरण करने का छद्म करने वाले यह लोग कितने नीच है। इनसे पिता को सताने का बदला लूँगा। पिप्पलाद तप करने लगे । लंबी अवधि तक कठोर तपश्चर्या में प्रसन्न होकर भगवान् शिव प्रकट हुए और बोले-"वर माँग!" पिप्पलाद ने नमन किया और बोले-"देव प्रसन्न हैं, तो अपना रूद्र रूप प्रकट कीजिए और इन देवताओं को जलाकर भस्म कर दीजिए।"

शिव स्तब्ध रह गए । पर वचन तो पूरा करना था । देवताओं को जलाने के लिए तीसरा नेत्र खोलने का उपक्रम करने लगे। इस आरंभ की प्रथम परिणति यह हुई कि पिप्पलाद का रोम-रोम जलने लगा। वे चिल्लाए, बोले-"भगवान, यह क्या हो रहा है? देवता नहीं, उलटा मैं जला जा रहा हूँ।" शिव ने कहा-"देवता तुम्हारी देह में
ही तो समाए हुए है। अवयवों की शक्ति उन्हीं की सामर्थ्य है । देव जलें और तुम अछूते बेच रहो। यह नहीं हो सकेगा, आग लगाने वाला स्वयं ही जल मरता है ।

पिप्पलाद ने अपनी याचना लौटा ली। शिव ने कहा-"देवताओं ने त्याग का अवसर देकर तुम्हारे पिता को कृत-कृत्य और तुम्हें गौरवान्वित किया है। मरना तो होता ही है, न तुम्हारे पिता बचते न काल के ग्रास से वृत्तासुर बचा रहता। यश-गौरव प्राप्त करने का लाभ प्रदान करने के लिए देवताओं के प्रति कृतज्ञ होना ही उचित है। पिप्पलाद का भ्रम दूर हो गया । उनकी तपस्या आत्मकल्याण की दिशा में मुड़ गई ।

देव प्रतिमा एवं भक्त की भावना 

प्रतिमा की स्थापना की जाती है, धन की कामना से विक्रय नहीं किया जाता। एक व्यक्ति अपने गणेश जी और उनके चूहे की स्वर्ण प्रतिमाओं को बाजार में बेचने गया । दोनों का वजन बराबर था । सो मूल्य भी समान ही बताया। बेचने वाले ने कहा-"कहाँ चूहा क्षुद्र प्राणी और कहाँ देवाधिदेव गणेश। दोनों का मूल्य समान कैसे?" खरीदने वाले ने कहा-"देव प्रसन्न तभी तक रहते हैं, जब तक उनके साथ सघन भक्ति-भावना जुड़ी रहे। तुम बेचने लाए, तो वह भावना चली गई। अब यह धातु मात्र है, उसी हिसाब से दाम मिलेगा।" 

गाडी वाले रैक्य मुनि 

रैक्य मुनि गाँव-गाँव गाड़ी ले जाते और उसमें विराजमान भगवान के सबको दर्शन कराते । राजा जनश्रुति ने कहा-"आपके लिए सुविधाजनक रथ का प्रबंध किए देते हैं । इतना कष्ट न उठाएँ । रैक्य ने कहा-" गाड़ी खींचने से रास्ता चलते लोगों को भी दर्शन, कराता चलता हूँ, और श्रमदान से शरीर भी स्वस्थ रहता है। अपनी उदारता का कहीं अन्यत्र उपयोग कीजिए। जनश्रुति निरुत्तर थे । ज्ञान मंदिर के रूप में प्रतिमा स्थापित कर गाँव-गाँव घूमना,अन्यों को दर्शन के साथ ज्ञान का लाभ भी देना सबसे बड़ा पुण्य है ।

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