प्रज्ञा पुराण भाग-3

॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-5

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विवेकिनां हि दायित्वमिदं यन्यूनता नहि।
नारीशिक्षाविधौ स्याच्च दायित्वं प्रतिबोधिता ॥४२॥
निर्वाहाय तथैषां च मार्गदर्शनमिष्यते ।
सहयोगश्च दातव्य: शिक्षा योग्याऽप्यपेक्षते ॥४३॥
नार्या: शिक्षणमेतस्या बौद्धिकं व्यवहारगम्।
भवेदीदृशमेवान्न यदाश्रित्य परिस्थिती:॥४४॥
प्रतिकर्तुं समर्था सा भवेदिह तथा निजम्।
परिवारं विधातुं च प्रोन्नंत प्रभवेदपि॥४५॥
शिक्षां निरर्थकां दत्त्वा भाररुपां नहि श्रमम्।
समयं चाऽपि तस्यास्तु नाशितुं युज्यते क्वचित्॥४६॥
भवेन्नारी स्वावलम्बं श्रिता शीलयुता भवेत्।
न संकोचं गता चैवं भवेद् यच्छोचितुं तथा॥४७॥
वक्तुं न क्षमता तिष्ठेद्दासीभावं व्रजेन्न च।
गृहलक्ष्म्या: स्वरुपे सा स्वतो विकसिता भवेत्॥४८॥
कौशलं चेदृशं तस्या भवेद् यद् यद्यपेक्ष्यते।
अर्थोपार्जनमेषा तत्कर्तुं च प्रभवेदपि॥४९॥
नराश्रयं विनैमैषा स्वयं दद्यादपि स्वकान्।
आश्रयं सहयोगं च सर्वानन्यानपि क्वचित्॥५०॥

भावार्थ- विचारशीलों का यह दायित्व है कि नारी शिक्षा में कमी न रहने दी जाय । उसे अपने महान उत्तरदायित्वों का ज्ञान कराया जाय । उसके निर्वाह के लिए मार्ग दिखाया जाय और सहयोग दिया जाय
उसके अनुरूप प्रशिक्षण व्यवस्था की नितांत आवश्यकता है । नारी का बौद्धिक एवं व्यावहारिक शिक्षण ऐसा हो प्रस्तुत हुए समुत्रत जिसके आधार पर उसे परिस्थितियों का सामना करते अपने संपर्क परिकर को कर सकना संभव हो सके निरर्थक शिक्षा का भार लाद कर उसका श्रम बर्बाद न किया जाय। नारी को स्वावलंबी बनने दिया जाय। वह शीलवती बनी रहे किन्तु इतनी संकोची भी न बने जिससे सोचने बोलने और करने की क्षमता ही चली जाय। उसे दासी न बनाया जाय। गृहलक्ष्मी के रूप में विकसित किया जाय। उसका कौशल ऐसा रहना चाहिए कि आवश्यकतानुसार उपार्जन भी कर सके। पराश्रित न रहकर वह समयानुसार दूसरों को आश्रय एवं सहयोग भी प्रदान कर सके॥४२-५०॥

व्याख्या-नारी जो राष्ट्र की जननी और निर्मात्री है, वह अविकसित स्थिति में अंधेरे में भटक रही है । यदि समाज की प्रगति हमें अभीष्ट है तो नारी को परावलंबन के गर्त से निकालकर उसे स्वावलंबी, सुसंस्कारी बनाना होगा । यह कार्य सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक शिक्षण द्वारा ही संभव है एवं इस दिशा में सभी अनिवार्य कदम उत्साहपूर्वक उठाए जाने चाहिए । यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि जहाँ भी, जिस भी समुदाय में स्वाभिमानी, सुसंस्कृत, श्रमशील नारी विद्यमान होती है, वह समाज निश्चित ही प्रगति करता है। ऐसे ही परिकर में देवत्व का अभिवर्धन संभव हो पाता है । यह सामूहिक दायित्व हम सबका है कि नारी का शील सुरक्षित बनाए रखें, उसे स्वावलंबी बनाएँ, ताकि वह अपनी विभूतियों का लाभ समाज को दे सके।

नारी के शिदाण हेतु स्तर के अनुरूप भिन्न-भिन्न उपाय अपनाने पड़ रकते हैं । इसका निर्धारण समाज की परिस्थिति एवं नारी की मनःस्थिति को देखकर ही किया जा सकता है ।

सुभाषचंद्र बोस की क्रांतिकारी महिला सेना 

नेताजी सुभाषचंद्र बोस महिलाओं की उन्नति के लिए सदैव प्रयत्नशील रहे। उन्होंने स्त्रियों की क्रांतिकारी सेना तैयार की थी । वे कहते थे-"समाज के अंदर स्त्रियों का स्थान उच्च होना चाहिए और सार्वजनिक कार्यों में वे भी अधिक से अधिक होशियारी के साथ भाग ले सकें, इसके लिए उन्हें शिक्षा दी जानी चाहिए ।

समाज के पहिए

इस्राइल में विमान चालक तथा चीन में इंजन व ट्रेन ड्राइवर प्राय: महिलाएँ ही हुआ करती है । ब्रिटेन एवं अमेरिका में अनेक औद्योगिक फर्मों में पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियाँ भी काम करती हैं। धीरे-धीरे अनेक देशों में उन्हें पुरुषों के समकक्ष कर्तव्य तथा अधिकार प्रदान किए जा रहे हैं। इसमें वहाँ की सरकार जनता व सामाजिक संगठनों का सहयोग उन्हें मिल रहा है। यह आवश्यक भी है, क्योंकि नर-नारी समाज रूपी गाडी के दो पहिए के समान है। एक के बिना दूसरे की तथा समाज की समग्र प्रगति संभव नहीं।

फूलों से भी कोमल और वज्र से भी कठोर

येरुशलम का एक व्यक्ति शाम को अपने घर पहुँचा, तो देखा कि गृहस्वामिनी वहाँ नहीं थी । किन्तु उसके अनुपस्थित होने से उसे कोई विशेष असुविधा नहीं हुई। मेज पर खाना रखा हुआ था। साथ ही एक छोटा सा पत्र भी, जिसमें उसकी पत्नी ने अपना प्यार और दायित्व भाव भर दिया था । लिखा था-"प्रिय! मैं सेना में बुला ली गई हूँ, भोजन कर लेना ।"

वह भोजन करके बैठा ही था, कि मोर्चे से उसकी पत्नी का फोन आया-"नए मोजे पहनना न भूलना, जो मैंने तुम्हारे लिए बुनकर रख छोड़े है। युद्ध के बाद मुलाकात होगी ।"

यह कोई कहानी नहीं, एक सत्य है जो इस्राइल में प्रचलित है। वहाँ के हर युवा पति को इस प्रकार के अकेलेपन का सामना करना पड़ सकता है । युद्ध काल में वहाँ की युवा स्त्रियाँ स्वेच्छा से राष्ट्र रक्षा में भाग लेती हैं, सैनिक बनकर। अन्य देशों में युद्धकाल में युवकों की अनिवार्य रूप से भर्ती की जाती है, पर इस्राइल ही एक ऐसा देश है, जहाँ की नवयुवतियों को भी अनिवार्य रूप से सेना में भर्ती किया जाता है। इससे नारी का एक और रूप उजागर हुआ है कि वह मात्र भावुक और कोमल ही नहीं, कठोर और राष्ट्र रक्षा में भी समर्थ है। यों तो सभी देशों में, सभी समय में, कुछ ऐसे नारी-रत्नी हुए हैं, जिन्होंने वीरता और युद्ध कौशल में पुरुषों का-सा ही जौहर दिखाया है, पर जहाँ तक समस्त नारी जाति का प्रश्न है, वह तो इस क्षेत्र में पुरुष से पीछे रही है। रणक्षेत्र के मामले में अब तक पुरुष वर्ग का लगभग एकाधिकार रहा है । किन्तु इस्राइल की नारी ने इस एकाधिकार को तोड़कर रख दिया है । पिछले बीस वर्षों में वहाँ की नवयुवतियों इस्राइली सेना की प्रधान अंग बन चुकी हैं। इस दृष्टि से वे विश्व की श्रेष्ठ महिला सैनिक कही जा सकती हैं।

आज तक नारी को कोमलता और दया-ममता की मूर्ति ही माना जाता रहा है । पर क्या नारी मात्र कोमल और भावनाशील ही है । नहीं, समय पड़ने पर वह अपने नारी सुलभ गुणों की रक्षा करते हुए भी निर्भय, कठोर और भावुकतारहित होकर, युद्ध जैसे कार्य में भी अनिवार्य सहयोग दे सकती है। नारी का यह पक्ष उजागर होने में कोई बुराई नहीं है । क्योंकि वह कोमलांगी और पुरुष के संरक्षण में सुरक्षित रहने वाली छुई-मुई गुड़िया बनी रहे? उसमें भी शारीरिक, समर्थता और बौद्धिक परिपक्रता आनी चाहिए! जहाँ प्रेम, दया, करुणा और ममता लुटाने की बात हो अवश्य लुटाए, पर यदि वह अपने में बौद्धिकता, कठोरता और निर्भयता जैसे गुणों को, जो आज तक पुरुषों की बपौती रहे हैं, का विकास कर सके, तो वे देश और समाज का तो अधिक काम कर ही सकती है। उन्हें अपनी आत्मरक्षा के लिए भी परमुखापेक्षी नहीं बनना पड़ेगा ।

विवेकशीलों का यह विशिष्ट और अनिवार्य कर्तव्य है कि वह नारी को उसके विकसित स्वरूप तक पहुँचाए, स्वावलंबी और आत्म निर्भर बनाए तथा उसे समता के क्षेत्र में अग्रगामी बनाए ।

स्त्रष्टा की समग्र संरचना

सृष्टि निर्माण का कार्य पूरा हो गया, तो ब्रह्माजी ने सभी प्राणी बुलाए और उनकी संरचना में जो कमी रह गई हो, उसे पूरा करा लेने के लिए कहा। प्राणियों ने अपनी-अपनी कमियाँ बताईं, फलत: ब्रह्मा जी ने किसी का पूरा, किसी का अधूरा सुधार कर दिया। अब मनुष्य की बारी आई, उनमें से पहले नारी को बुल गया। उसने कहा-"मैं रुपवान् तो बहुत हूँ, पर कभी अपने जैसी दूसरी किसी को देखती हूँ? तो जल-भुन जाती हूँ । ऐसी कृपा करें कि मेरी जैसी कोई न हो ।" ब्रह्मा जी ने उसे सांत्वना दी और एक दर्पण हाथ में थमा दिया, कहा-" बस एक ही सहेली तुम्हारे जैसी इस सृष्टि में रहेगी । जब इच्छा हुआ करे, इस पर दृष्टि डालकर उस सहेली से भेंट कर लिया करो, अन्यथा वह भी तुमसे ओझल रहेगी ।"

नथ का प्रदर्शन

एक गरीब किसान ने अपनी बहू के बहुत आग्रह पर उसके लिए नथ बनवा दी। बहू को जल्दी पड़ी थी कि कैसे सब लोग उसकी नथ को जाने और प्रशंसा करें । वह सबसे पहले मंदिर के पुजारी के पास गई। चरण छूकर प्रणाम किया। पुजारी समझ गए कि आज दोपहर को प्रणाम करने का क्या राज? पुजारी जी ने कहा-"बेटी, नथ देने वाले को धन्यवाद दे । पर कभी-कभी उसे भी याद कर लिया कर, जिसने नाक दी ।"

महिला को समझ में आ गया कि बड़प्पन प्रदर्शन में नहीं है ।

समझाने का तरीका

राहगीर को काशी जाना था, सो रास्ता चलते समय, उसकी दृष्टि मील के पत्थर पर पड़ी। काशी की दूरी और दिशा का संकेत उस पत्थर पर खुदा था । राहगीर रुककर बैठ गया, कहने लगा-"अंकन गलत नहीं हो सकता । प्रामाणिक लोगों ने लिखा है । काशी आई। अब आगे जाने की क्या जरूरत रही?" कोई समझदार उधर से निकला और पत्थर के पास आसन जमाकर बैठने का कारण जाना, तो कहा-"पत्थर पर संकेत भरहै । काशी पहुँचना है, तो पैरों से चलकर दूरी पार करनी होगी ।" भोले व्यक्ति ने अपनी भूल मानी और बिस्तर समेट कर चल पड़ा, पर बात समझदारों को समझाया जाना अत्यंत कठिन है । वे शास्त्र पढ़ते और सुनते रहते हैं और सोचते रहते हैं, इतने भर से धर्म धारणा का, आत्म कल्याण का उद्देश्य पूरा हो जाएगा, किन्तु नारी को संकेत भर चाहिए। एक बार शिक्षण की दिशा मिलने पर वह अपना मार्ग बना लेती है ।

गलती समझी एवं सुधारी

दार्शनिक हिक्री उन दिनों तुंबा में रहते थे। कई लोग उनसे उलझी गुत्थियाँ सुलझाने संबंधी परामर्श करने आते। एक दिन एक व्यक्ति अपनी पत्नी समेत उनके पास पहुँचा और उसके आलस्य तथा कंजूसी की बुराई करने लगा । सचमुच यह दोनों बुराइयाँ उसमें थीं भी। हिक्री ने उस औरत को अपने पास बुलाया । एक हाथ की मुट्ठी बाँधकर उसके सामने की और पूछा-"यदि यह ऐसे ही सदा रहा करे, तो क्या परिणाम होगा, बताओ तो लड़की ।" औरत सिटपिटायी तो, पर हिम्मत समेट कर बोली-"यदि सदा यह मुट्ठी ऐसी ही बँधी रही, तो हाथ अकड़कर निकम्मा हो जाएगा ।"

हिक्री इस उत्तर को सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और दूसरे हाथ की हथेली बिछल खुली रखकर फिर पूछा-"यदि यह हाथ ऐसे ही खुला रहे, तो फिर इस हाथ का क्या हस्र होगा, जरा बताओ तो ।" औरत ने कहा-"ऐसी हालत में यह भी अकड़ कर बेकार हो जाएगा।" हिक्री ने उस औरत की भरपूर प्रशंसा की और कहा-"यह तों बुद्धिमान भी है और दूरदर्शी भी । मुट्ठी बँधी रहने और हाथ सीधा रहने के नुकसान को यह अच्छी तरह जानती है । पति-पत्नी नमस्कार करके चले गए । औरत रास्ते भर संत के प्रश्नों पर बराबर गौर करती रही और घर जाकर पति की सहायता करके अधिक कमाना और बचत को खुले हाथ से दान करना आरंभ कर दिया ।

व्यस्तता के गुण

नारी को उपेक्षित छोड़ देने के कारण ही अनेक दुर्गुण पनपते हैं । यदि उस पर सचमुच ध्यान न दिया जा सके एवं उसे भी कुछ दायित्व सौंपकर स्वावलंबन की शिक्षा दी जा सके, तो ऐसी कोई वृत्ति पनपने का प्रश्न ही नहीं उठता ।

एक सेठ का पुत्र व्यापार में बहुत व्यस्त रहता था । घर-गृहस्थी की ओर ध्यान नहीं देता था। उसकी पत्नी सुंदर बहुत थी। काम-धंधा कुछ था नहीं । बैठे बैठे शृंगार किया करती। एक दिन उसने दासी के कान में कहा-"कोई सुंदर सा युवक ढूँढना, मन मचलता है ।" दासी ने यह बात उसके ससुर से कह दी । उनने ठाली बैठने की यह परिणति समझी । दूसरे दिन से बहू को घर-व्यापार का ढेरों काम सौंप दिया । वह सबेरे जल्दी उठकर गई, रात तक निरंतर काम में लगी रही। दासी ने ससुर के संकेत पर बहू से किसी युवक को ढूँढने की बात फिर पूछी, तो उसने कहा-"अब काम में मन लग गया है, सो और कुछ सोचने की फुर्सत ही नहीं मिलती ।" व्यस्तता में बुद्धि, स्वास्थ्य, धन, कौशल, प्रतिभा आदि बढ़ाने के अतिरिक्त एक गुण चरित्र रक्षा का भी है ।

अहंता मिटी

अहंकार को मिटाने एवं विनम्रता की शिक्षा देने हेतु कोई भी घटनाक्रम लिया जा सकता है । शाल्मली का एक वृक्ष था-बहुत बडा, ऊँचा भी और चौड़ा भी। पास में छोटे-छोटे झाड़-झंखाड़ भी उगे हुए थे । एक साधु उधर से निकले । दोनों के कुशल समाचार पूछे, वृक्ष से भी और झाड़-झंखाड़ से भी। दोनों के बीच परस्पर संबंध कैसे हैं? इस बात को भी उनने लगे हाथों पूछ ही लिया। विशाल वृक्ष ने अपने बड़प्पन की विस्तारपूर्वक प्रशंसा की और सौभाग्य सराहा । साथ ही पड़ोसी झाड़ियों का उपहास उड़ाया । झाड़ियाँ क्या कहतीं । उन्होंने अपनी स्थिति पर संतोष किया और कहा, जिस स्थिति में भी वे है, प्रसन्न हैं। बड़े प्राणियों को न सहीं, छोटे को ही छाया और आश्रम प्रदान करती हैं।

बहुत दिन बाद साधु इसी रास्ते फिर वापस लौटे । वृक्ष का पता न था और झाड़ियों का विस्तार हो चला था । पूछ तो पता चला कि एक बार भयंकर तूफान आया था। उसकी चपेट में अनेक वृक्ष आए और वह शाल्मली भी उसी चक्रवात में धराशायी हो गया । साधु ने दुख मनाया, साथ ही झाड़ियों से पूछा-" आप लोग उस कुचक्र से कैसे बच गए?"

झाड़ियों ने कहा-"देव । हमें अपनी तुच्छता का भान था, सो तूफान आते ही सिर झुका लिया, तूफान ऊपर से उतर गया। वृक्ष अकड़ा रहा और अंधड़ से टकरा कर धराशायी हो गया।"

अहंता और नम्रता के अंतर पर विचार करते हुए साधु अपने रास्ते आगे बढ़ गए ।

विद्वत्ता का मद

कभी-कभी यह सिखावन इसलिए अनिवार्य हो जाता है कि व्यक्ति अपने व्यर्थ के अहंकार में, विद्वत्ता के मद में चूर भूल जाता है कि वह अभी अपूर्ण है । उज्जयिनी के महाकवि माघ को अपने पांडित्य का बड़ा अभिमान था । कभी-कभी उनके आचरण से उसकी झलक भी मिलती रहती थी, पर उनको छेड़ने का किसी को साहस न होता।

एक बार माघ राजा भोज के साथ वन विहार से लौट रहे थे । मार्ग में एक झोंपडी पड़ती थी। एक वृद्धा उसके पास बैठी चरखा कात रही थी । माघ ने वही अभिमान प्रदर्शित करते हुए पूछा-"यह रास्ता कहाँ जाता है?" वृद्धा ने माघ को पहचान लिया, हँसकर बोली-" वत्स! रास्ता कहीं नहीं आता-जाता। उस पर आदमी आया-जाया करते है, आप लोग कौन हैं?" "हम यात्री हैं"-माघ नें संक्षिप्त उत्तर दिया। वृद्धा ने फिर मुस्कराते हुए कहा-"तात्! यात्री तो सूर्य और चंद्रमा दो ही है?" सच-सच बताओ आप लोग कौन हैं?" माघ थोड़ा चिंतित होकर बोले-"माँ! हम क्षणभंगुर मनुष्य हैं ।" वृद्धा भी थोड़ा गंभीर होकर बोली-"बेटा! यौवन और धन-क्षणभंगुर तो यही दो है, पुराण कहते हैं, इन पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए ।" माघ को चिंता थोड़ी और बढ़ी पर तो भी उन्होंने उत्तर दे ही डाला-" हम राजा हैं ।" उन्होंने सोचा संभवत: वृद्धा इससे डरेगी, पर उसने तत्काल उत्तर दिया-"नहीं भाई, आप राजा कैसे हो सकते है, शास्त्र ने तो यम और इंद्र दो को, ही राजा माना है ।" अपनी हेकड़ी छुपाते हुए माघ ने फिर उत्तर दिया-"नहीं माई, हम तो सबको क्षमा करने वाली आत्मा हैं ।" वृद्धा ने बिना रुके उत्तर दिया-"पृथ्वी और नारी की क्षमाशीलता की तुलना आप कहाँ कर सकते हैं, आप तो कोई और ही है ।"

निरुत्तर माघ ने कहा-"माँ! हम हार गए, अब रास्ता बताओ?" पर वृद्धा उन्हें इतने शीघ्र मुक्त करने वाली नहीं थी, फिर बोली-" महानुभाव । संसार में हारता कोई नहीं, जो किसी से कर्ज लेता है या अपना चरित्र बल खो देता है, बस हारने वाले इन्हीं दो कोटि के लोग होते हैं ।" इस बार माघ कुछ न बोले, चुप होकर अपराधी से खड़े रहे । वृद्धा ने कहा-"महापंडित, मैं जानती हूँ कि आप माघ है, आप महाविद्वान है, पर विद्वत्ता की शोभा अहंकार नहीं विनम्रता है ।" यह कहकर बुढ़िया चरखा कातने लगी और लज्जित माघ आगे चल पड़े । नारी के लिए भी कभी ऐसी ही सिखावन की आवश्यकता पड़ सकती है। उसका सहज रूप वैसे विनम्रता का है, पर आवश्यकता कड़ी शिक्षा की भी पड़ सकती है।

पतिव्रत का अभिमान ठीक नहीं 

अहंकार तो सत्कर्म का भी हानिकारक है, ऐसे में सही समय पर शिक्षा मिलनी जरूरी है। यह व्यावहारिक स्तर पर ही हो सकता है।

एक बार एक सी पहाड़ पर धान काट रही थी। इतने में एक दुष्ट मनुष्य उधर आया और उसके साथ दुष्टता करने पर उतारू हो गया। पहले तो स्त्री ने आत्म रक्षा के लिए लड़ाई-झगड़ा किया, पर शरीर से दुर्बल होने के कारण जब उसे विपत्ति आती दीखी, तो ईश्वर का नाम लेकर पहाड से नीचे कूद पड़ी। ईश्वर ने उसकी रक्षा की । उसे जरा भी चोट न लगी और प्रसन्नतापूर्वक घर चली गई।

अब उसे अपने पतिव्रत का अभिमान हो गया। हर किसी से शेखी मारती कि मैं ऐसी सतवंती हूँ कि पहाड़ से गिरने पर भी-मुझे चोट नहीं लगती । पड़ोसी इस बात पर अविश्वास करने लगे और कहा ऐसा ही है, तो चल हमें आंखों के सामने पहाड़ पर से कूद कर दिखा। दूसरे दिन उस स्त्री ने सारे नगर में मुनादी करा दी कि आज मैं पहाड़ पर से कूदकर सतवंती होने का परिचय दूँगी । सभी गाँव इकट्ठा हो गया और उसके साथ चल पड़ा । वह पहाड़ पर से कूदी तो उसकी एक टाँग टूट गई । मरते-मरते मुश्किल से बची। उस असफलता पर उसे बड़ा दुख हुआ और दिन-रात खिन्न रहने लगी । उधर से एक ज्ञानी पुरुष निकले, तो स्त्री ने अपनी इस असफलता का कारण पूछा । उन्होंने बताया कि"पहली बार तू धर्म की रक्षा के लिए कूदी थी, इसलिए धर्म ने तेरी रक्षा की । दूसरी बार तू अपनी प्रशंसा दिखाने और अभिमान प्रकट करने के उद्देश्य से कूदी, तो यश, कामना और अभिमान ने तेरा पैर तोड़ दिया ।"

स्त्री को अपनी भूल मालूम हुई और उसने अपना व्यर्थ का घमंड छोड़ दिया।

लज्जा-सर्वोत्तम सौंदर्य प्रसाधन

नारी का सहज रूप शील प्रधान है। वही उसका सबसे बड़ा आभूषण भी है ।

अरस्तू की एक कन्या थी । नाम था पीथिया। अरस्तू के शिष्य सिकंदर की रानियाँ एक दिन गुरुगृह गईं और आतिथ्य के उपरांत उनने पीथिया से पूछा-"चेहरे को अधिकाधिक सुंदर बनाने के लिए क्या उबटन लगायें?" पीथिया ने कहा-"उनका सबसे बड़ा सौंदर्य है-लज्जा ।" उसे वे बनाए रखें, तो अधिक उन्हें कुछ करने की आवश्यकता नहीं। सौंदर्यवान वही है, जो शीलवान भी है ।"

जैसी हूँ, वैसी ही रहूँगी

अपने सहज स्वाभाविक रूप में ही नारी की शोभा है, सम्मान है। जब भी कृत्रिमता का समावेश होता है, तो वह कुरुचिपूर्ण लगता है।

प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री की पत्नी श्रीमती ललिता शास्त्री ने अपने जीवन के रोचक प्रसंग सुनाते हुए बताया-

"जब मैं पहली बार अपने पति के साथ रूस यात्रा के लिए तैयार हुई, तो मुझे बड़ा डर लग रहा था । मैं सोच रही थी कि मैं सीधी-साधी भारतीय गृहिणी हूँ । राजनीति का मुझे ज्ञान नहीं विदेशी तौर-तरीकों का पता नहीं। कहीं मुझसे कोई ऐसे प्रश्न न किए जायें, जिसका उत्तर मैं ठीक से न दे पाऊँ और, तब मेरे पति अथवा देश का गौरव कुछ घटे अथवा उनकी हँसी हो । किन्तु फिर मैंने यह निश्चय करके अपना डर दूर कर लिया कि में एक महान देश के प्रधानमत्री की पत्नी के रूप में अपने को प्रस्तुत नहीं करूँगी। मैं तो सबके सामने अपने को एक साधारण भारतीय गृहिणी के रूप में रखूँगी । मैने वहाँ जाकर अपने को एक गृहिणी के रूप में ही पेश किया । वहाँ के अच्छे लोगों ने मुझसे घर-गृहस्थी के विषय में ही बातचीत की, जिसका उत्तर देकर मैंने सबको संतुष्ट कर दिया । इस प्रकार मैंने एक बहुमूल्य अनुभव यह पाया कि मनुष्य वास्तव में जो कुछ है, यदि उसी रूप में दूसरों के सामने पेश करे, तो उसे कोई असुविधा नहीं होती और उसकी सच्ची सरलता उपहास का विषय न बनकर स्नेह एवं श्रद्धा का विषय बनती है ।"

वनस्थली एवं हीरालाल शास्त्री

राजस्थान के हीरालाल शास्त्री साधारण अध्यापक थे । उनने नौकरी से पेट पालते रहने की अपेक्षा नारी शिक्षा को जीवन का लक्ष्य बनाया और एक छोटे देहात में अपने बलबूते छोटा कन्या विद्यालय चलाने लगे । लगन और उपेक्षा के आधार पर किए गए कामों में जमीन-आसमान जितना अंतर होता है । लगनपूर्वक चलाए गए कन्या विद्यालय की सार्थकता और लोकप्रियता आकाश चूमने लगी। समर्थन की कमी न रही। छप्पर के नीचे आरंभ किया गया वनस्थली बालिका विद्यालय देश की मानी हुई शिक्षण संस्थाओं में से एक है । शास्त्री जी के प्रति जनता की अपार श्रद्धा थी। लोकसेवा ने उन्हें राजस्थान के मुख्यमंत्री पद पर प्रतिष्ठित किया। उनकी स्मृति में डाकखाने की टिकटें तक छिपी। इस महान् लोक सेवी के पीछे नारी (बालिका) की प्रेरणा ही छिपी हुई थी ।

साधन हीन होने पर भी विकास किया

दादी मेरी अमेरिका की एक घोर परिश्रमी महिला का नाम है। वह १८ वर्ष की आयु में विधवा हो गई । पढ़ी-लिखी न होने पर भी उसके उत्साह ने चित्रकला सीखने की ठानी। साधन न होने पर भी प्रकृति के पेड़-पौधे देखकर वह चित्र बनाने लगी। पहले चित्र तो कुछ पैसे में ही बिके, पर उसने उत्साह ठंडा न होने दिया। अच्छे चित्र बनाने लगी और उनके पैसे भी अच्छे मिलने लगे। उत्साह बढ़ा तो चित्रों का स्तर भी बढ़ते लगा और वे संसार भर में प्रसिद्ध हो गए । चित्रों की बिक्री के धन से उसने महिला कल्याण का एक ट्रस्ट बना दिया । वह १०० वर्ष तक जीती रही। तब तक निरंतर चित्र बनाती रही । कोई १५०० चित्र उसने बनाए, जो कई लाख रुपये के बिके । उसकी जन्म शताब्दी पर अमेरिका के चार जीवित राष्ट्रपतियों ने शुभकामना भेजी । दादी मेरी के चित्र विश्वविख्यात हैं । बिना अध्यापक के इस प्रकार कलाकारिता का
यह एक अनोखा उदाहरण है ।

बुरका निकाल फेंका

सन् १९३० की बात है । मिस्र की एक विचारशील महिला विदेश का दौरा करने आई अपने देश में भी नव जागरण की हवा भरने लगी । नाम था उसका शानबी । जब जलयान पर भारी भीड़ उनके स्वागत के लिए आई, तो उनने सबके सामने अपना बुरका समुद्र में फेंक दिया । इसकी नकल उपस्थित सैकड़ों महिलाओं ने की । बुरका विरोधी आंदोलन वहीं से तेजी के साथ चल पड़ा ।

वस्तुत: नारी दासी नहीं है,गृहलक्ष्मी है। उसे अवसर तो मिले, दिशाधारा तो मिले, वह क्या नहीं कर सकती?

श्रमशील रानी

धनी होने से क्या होता है । परिश्रमी जीवन में जो आनंद है, वह ठाली बैठे वैभवशाली जीवन में कहाँ?

इंग्लैंड के बादशाह एडवर्ड सप्तम की पत्नी अलेक्जेण्ड्रा आरंभ से ही बड़ी परिश्रमशील थीं। निठल्ले बैठना उन्हें तनिक भी न सुहाता था, पर घर के सब कामों के लिए नौकर थे । वे करें तो क्या करें? उनने गरीबों के लिए अपने हाथ से कपड़े सीकर बाँटने का काम आरंभ किया और उसे जीवन भर चलाया । ठाली रहने के कारण उत्पन्न होने वाले दुर्गुणों से भी बचीं, पुण्य-परमार्थ की भागीदार भी बनी ।

स्वावलंबन में गौरव

गाँधी जी की बहिन गोकी बाई विधवा हो गई । उनके लिए डॉ० प्राण जीवन दास ने दस रुपया मासिक भेजना आरंभ कर दिया। दुर्भाग्य से गोकी बाई की एक लड़की थी, वह भी विधवा होकर माँ के पास आ गई । दोनों ने मिलकर आटा पीसने का काम प्रारंभ किया और यह समाचार गाँधी जी के पास भेजा। बापू ने उन्हें प्रोत्साहित ही किया। दूसरों की सहायता लेने की अपेक्षा अपने पुरुषार्थ से कमाने और कम में खर्च चलाने में मनुष्य का अपयश नहीं, गौरव होने की बात लिखी।

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