प्रज्ञा पुराण भाग-3

॥ अथ प्रथमोऽध्याय:॥ परिवार-व्यवस्था प्रकरणम्-2

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लघुराष्ट्रं समाजोऽल्प: परिवारस्तु वर्तते ।
सीमिताश्र जनास्तत्र परिवारे भवज्यपि॥१८॥
अतएव विधातुं च गृहस्थं सुव्यवस्थितम् ।
विकासोपेतमप्यत्र सुविधा अधिका मता:॥१९॥
वसतां परिवारे च सञ्चालनकृतामपि ।
दायित्वमुभयोरेतत्समुदायमिमं सदा ॥२०॥
समाजं राष्ट्रमेवाऽपि सादर्शं निर्मितुं समान् ।
सद्भावान् बुद्धिमत्तां च क्रियाकौशलमाश्रयेत् ॥२१॥

भावार्थ-परिवार एक छोटा राष्ट्र या समाज है। उसमें सीमित लोग रहते हैं । अस्त्र उसे सँभालने विकसित करने का अभ्यास करते रहने की सुविधा भी अधिक है । जो परिवार में रहें या उसे चलाये उन दोनों
ही वर्गों का उत्तरदायित्व है कि इस समुदाय को एक आदर्श समाज आदर्श राष्ट्र बनाने में अपनी समस्त सद्भावना बुद्धिमत्ता एवं क्रिया-कौशल नियोजित करें ॥१९-२१॥

व्याख्या-महर्षि ने बड़ा महत्वपूर्ण सूत्र यहाँ दिया है । जो व्यक्ति की, समाज की, राष्ट्र की महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ सँभालना चाहते हैं, वे उसके अनुकूल अनुभव किसी परिवार को आदर्श ढंग से संचालित करके प्राप्त कर सकते हैं । अभ्यास का यह मार्ग सबके लिए खुला है ।

समाज को आदर्श बनाने के लिए कोई कुछ कर सके या न कर सके, पर उसकी एक इकाई अपने परिवार को उस आधार पर विकसित किया जा सकता है । पारिवारिक प्रवृत्तियाँ ही संयुक्त होकर सामाजिक स्तर पर प्रकट होती हैं। परिवार में रहने वाला हर छोटा-बड़ा व्यक्ति इस जिम्मेदारी को समझे और निबाहे,
तो परिवार भी आदर्श बने और समाज भी।

यह एक जाना-माना सिद्धांत है कि जैसा साँचा होगा वैसी ही मूर्तिकार की रचना ढलेगी । समाज एक ऐसी मूर्ति है, जिसका साँचा परिवार है । समाज निर्माण, समाज सुधार, सत्प्रवृत्ति विस्तार सबसे पहले परिवार संरथा से आरंभ होता है । आदर्श परिवार ही किसी सशक्त समाज की आधारशिला बनाते हैं । इसी कारण महामानवों का ध्यान परिवार पर सर्वाधिक रहा है ।

पुष्ट इकाइओं से बना समर्थ राष्ट्र 

फ्रांस ने हालैंड पर हमला किया पर वह बहुत बड़ा और साधन संपन्न होते हुए भी उस छोटे से देश पर विजय प्राप्त न कर सका ।

इस पर खीज कर फ्रांस के राजा लुई चौदहवें ने मंत्री कालवर्ट को बुलाया और पूछा कि इतना बड़ा और समर्थ होते हुए भी फ्रांस क्यों जीत नहीं पा रहा है?

कालवर्ट गंभीर हो गए । उनने नम्रतापूर्वक धीमे शब्दों में कहा-"महत्ता और समर्थता किसी देश के विस्तार या वैभव पर निर्भर नहीं करती, वह तो वहाँ के नागरिकों की देशभक्ति और बहादुरी पर निर्भर करती है।" 

हालैंड के घर-घर में, बच्चे-बच्चे को राष्ट्र की सशक्त इकाई के रूप में ढाला जाता है । यह साधना उन्हें दुर्धर्ष बनने की शक्ति देती है ।

हालैंड के नागरिकों की देशभक्ति का विस्तृत विवरण विदित होने पर फ्रांस ने अपनी सेना वापस बुला ली।

जल्दबाजी का दुष्परिणाम  

एक राजा था । संसार का सबसे धनवान बनने की लालसा रखता था । एक सिद्ध पुरुष उसके यहाँ पहुँच गए । स्वागत से प्रसन्न होकर वर माँगने को कहा । राजा ने जल्दबाजी में माँग लिया-" जो हाथ से छू लूँ वह सोना हो जाय ।"

वरदान मिल गया । राजा प्रसन्न था कि जिस वस्तु को चाहूँ-सोना बना लूँगा । पर उसके भोजन के पदार्थ, पानी आदि सभी हाथ में आते ही सोना बनने लगे । भूख से व्याकुल राजा सोचने लगा, धनवान बनने की जल्दबाजी में मैंने स्वयं अनर्थ मोल ले लिया ।

दुर्योधन का दर्प

दुर्योधन को अहंकार दिखाये बिना चैन नहीं पडता था । पांडव वनवास में थे । दुर्योधन को महलों में संतोष न हुआ, अपने वैभव का प्रदर्शन करने जंगल के उसी क्षेत्र में गया, जहाँ पांडव रहते थे । वहाँ अपने को सर्व समर्थ सिद्ध करने के लिए मनमाने ढंग से जश्न मनाने लगा । अहंकारी में शालीनता-सौजन्य नहीं रह जाता । अपने आगे किसी को कुछ समझता भी नहीं । उसी क्रम में कौरव गंधर्वो के सरोवर को गंदा करने लगे, रोकने पर भी न माने । क्रुद्ध होकर गंधर्वराज ने उन्हें बंदी बना लिया । पता पड़ने पर युधिष्ठिर ने अर्जुन को भेज कर अपने मित्र गंधर्वराज से उन्हें मुक्त कराया । दुर्योधन को शर्म से सिर झुकाना पड़ा ।

अहंकार का प्रदर्शन

राबिया बसरी कई संतों के संग बैठी बातें कर रही थी । तभी हसन बसरी वहाँ आ पहुँचे और बौले-"चलिए, झील के पानी पर बैठकर हम दोनों अध्यात्म चर्चा करें ।" हसन के बारे में प्रसिद्ध था कि उन्हें पानी पर चलने की सिद्धि प्राप्त है ।

राबिया ताड़ गई कि हसन उसी का प्रदर्शन करना चाहते हैं । बोलीं-"भैया! यदि दोनों आसमान में उड़ते- उड़ते बातें करें तो कैसा रहे?" (राबिया के बारे में भी प्रसिद्ध था कि वे हवा में उड़ सकती हैं ।) फिर गंभीर होकर बोलीं-"भैया! जो तुम कर सकते हो, वह हर एक मछली करती है और जो मैं कर सकती हूँ वह हर मक्खी करती है । सत्य करिश्मेबाजी से बहुत ऊपर है । उसे विनम्र होकर खोजना पड़ता है । अध्यात्मवादी को दर्प करके अपनी गुणवत्ता गँवानी नहीं चाहिए ।" हसन ने अध्यात्म का मर्म समझा और राबिया को अपना गुरु मानकर आत्म-परिशोधन में जुट गए ।

विदुर का भोजन और श्रीकृष्ण

विदुरजी ने जब देखा कि धृतराष्ट्र और दुर्योधन अनीति करना नहीं छोड़ते, तो सोचा कि इनका सान्निध्य और इनका अन्न मेरी वृत्तियों को भी प्रभावित करेगा । इसलिए वे नगर के बाहर वन में कुटी बनाकर पत्नी सुलभा सहित रहने लगे । जंगल से भाजी तोड़ लेते, उबालकर खा लेते, तथा सत्कार्यों में, प्रभु-स्मरण में समय लगाते।

श्रीकृष्ण जब संधि दूत बनकर गए और वार्ता असफल हो गयी तो वे धृतराष्ट्र, द्रोणाचार्य आदि सबका आमंत्रण अस्वीकार करके विदुर जी के यहाँ जा पहुँचे । वहाँ भोजन करने की इच्छा प्रकट की ।

विदुर जी को यह संकोच हुआ कि शाक प्रभु को परोसने पड़ेंगे? पूछा-"आप भूखे भी थें, भोजन का समय भी था, और उनका आग्रह भी, फिर आपने वहाँ भोजन क्यों नहीं किया?" भगवान बोले-"चाचाजी! जिस भोजन को करना आपने उचित नहीं समझा, जो आपके गले न उतरा, वह मुझे भी कैसे रुचता? जिसमें आपने स्वाद पाया, उसमें मुझे स्वाद न मिलेगा, ऐसा आप कैसे सोचते है?"

विदुर जी भाव विह्वल हो गए, प्रभु के स्मरण मात्र से हमें जब पदार्थ नहीं संस्कार प्रिय लगने लगते है, तो स्वयं प्रभु की भूख पदार्थों से कैसे बुझ सकती है । उन्हें तो भावना चाहिए । उसकी विदुर दंपत्ति के पास कहाँ कमी थी । भाजी के माध्यम से वही दिव्य आदान-प्रदान चला । दोनों धन्य हो गए ।

वस्तुत: परिवारस्तु संयुक्तं कथितं बुधै: ।
पुण्यं संघटनं यस्य सुव्यवस्था मता तु सा॥२२॥ 
सद्भावस्य बाहुल्यात् सहकारस्य सन्ततम् ।
कर्तव्यपालने बुद्धि: कर्तव्या परिवारगै:॥२३॥
अधिकारोपलब्धेश्च यावत्य: सुविधाश्च ता: ।
भवेयु: कर्म कर्तुं च तत्र यत्नो विधीयताम्॥२४॥
स्वापेक्षया परेषां हि सुविधासु भवेद् यदि ।
ध्यानं तदैव कस्मिंश्चित् समुदाये तु मित्रता॥२५॥
आत्मीयता तथा नूनं सहकारस्य भावना ।
विकसिता दृश्यते यैश्च विना शून्यं हि जीवनम्॥२६॥

भावार्थ-परिवार वस्तुत: एक पवित्र संयुक्त संगठन है । उसकी सुव्यवस्था पारस्परिक सद्भाव-सहकार की बहुलता से ही बन पड़ती है । सभी सदस्य कर्त्तव्यपालन पर अधिक ध्यान दें और अधिकार उपलब्ध करने की जितनी सुविधा मिले उसी में से किसी प्रकार काम चलाने का प्रयत्न करें । अपनी अपेक्षा दूसरों की सुविधा का ध्यान अधिक रखने पर ही किसी समुदाय में मैत्री, आत्मीयता एवं सहकार के सद्भाव विकसित होते हैं, जिनके बिना जीवन शून्य प्रतीत होता है ॥२२-२६॥

व्याख्या-परिवार क्या है? इसका बड़ा सुंदर विवेचन यहाँ किया गया है । सामान्य रूप से एक कुटुंब के व्यक्ति परिवार में माने जाते हैं । परंतु ऋषि कहते हैं यह सद्भावना और सहकार के आधार की पृष्ठ भूमि पर विनिर्मित पावन संगठन है । इस आधार पर यदि एक कुटुंब के व्यक्ति भी स्वार्थं भरी आपाधापी के बीच रहते हैं, सद्भाव सहकार उनमें नहीं है, तो वह भी परिवार नहीं; मजबूरी में एक बाड़े में बंद जानवर जैसे लोग हैं ।

दूसरी ओर कोई भी व्यक्ति यदि परस्पर उच्च उद्देश्यों को लक्ष्य करके सद्भाव-संहकारपूर्क साथ- साथ रहते हैं, तो वह एक परिवार है । ऐसा परिवार सभी के लिए आवश्यक होता है । ऋषि, संत आदि आश्रमों में इसी आधार पर परिवार भाव बनाकर रहते हैं । जहाँ परिवार भाव है, वहाँ कोई भी समूह परिवार कहलाता है । इसीलिए पारिवारिकता को आदर्श सामाजिक व्यवस्था माना जाता है ।

व्यक्ति एकाकी रह तो सकता है, पर वह बड़ी कष्टकारी साधना है । भूणावस्था से लेकर बड़े ठोकर स्वावलंबी बनने तक मानव के विकास में समाज का हर घटक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । कोई चाहे कि वह बिना किसी, के सहयोग के अपनी यात्रा चलाता रहे, तो ऐसे व्यक्ति को इक्कड़, संकीर्ण, स्वार्थी ही कहा जायेगा ।

परिवार की सार्वभौम नूतन परिभाषा में मैत्री के आधार पर बना वह संगठन भी आता है, जिसके हर सदस्य परस्पर अन्योन्याश्रित होते हैं, एक दूसरे के सद्भाव का अवलंबन लेकर आगे बढ़ते हैं । कोई जरूरी नहीं कि व्यक्ति विवाह करके, परिवार बसाकर ही गृहस्थ धर्म निभाएँ। यदि वह एक परिकर विशेष को पारिवारिकता का पोषण देता है, तो प्रकारांतर से परिवार धर्म की साधना ही करता है । महत्ता संगठन की, संरचना की नहीं, उस भावना की, निष्ठा की है, जो ऐसी प्रक्रिया अपनाने पर अंत में विकसित होती है।

सहचरों की आवश्यकता

ब्रह्मा जी सृष्टि का निर्माण करने लगे तो इतना बड़ा कार्य उन अकेले से सँभलने में न आया । उन्हें साथियों की आवश्यकता हुई । उनने चिर कुमार चार मानस पुत्र उत्पन्न किए सनक, सनंदन, सनातन, सनत्कुमार । कार्य ठीक प्रकार चल निकला । सहचरों की आवश्यकता सर्वसमर्थों को भी होती है । पारिवारिकता की पृष्ठभूमि इसी आधार पर बनी है ।

पीला पत्ता क्यों गिरा?

पत्ता पीला पड़ा और झड़कर नीचे गिर पड़ा । देखने वालों ने उसे पत्ते का दोष और दुर्भाग्य बताया । पर जानने वालों ने जाना कि इस पतन को पूरे वृक्ष का परोक्ष समर्थन प्राप्त था । यदि वृक्ष के रसवाही तंतु समथ रहे होते, तो पत्ते के जोड़ ढीले न पड़ते और वह असमय इस प्रकार अपने परिवार से विमुख होकर धूल न चाट रहा होता । पर पूरे पेड़ में घुसी विकृति को दोष कौन दे, पत्ते को ही कोस देना पर्याप्त मान लिया गया, यही जग की रीति है। पारिवारिकता में किसी के उत्थान-पतन के लिए सारा तंत्र श्रेय अथवा दोष का भागीदार होता है ।

कौन अधिक सौभाग्यशाली

राम और सीता वनवास जाने लगे तो लक्ष्मण की माता और पत्नी ने भी उनके साथ जाने पर प्रसन्नता व्यक्त की और कहा-"हम दोनों तुम्हें बिदा देते हैं ।" सुमित्रा कौशिल्या की, उर्मिला सीता की और लक्ष्मण राम की तुलना में अपने इसी त्याग के कारण संसार में अधिक आदर्शवादी समझे और अधिक सराहे गए। ऐसे सौभाग्य का लाभ तीनों में किसी ने भी नहीं त्यागा । जिस किसी को अवसर मिले उसे कभी भी अवसर नहीं चूकना चाहिए।

दोनों साथ चलें 

सुभद्रा कुमारी चौहान प्रयाग के एक राजपूत घराने में जन्मीं । पढ़ती भी रहीं, पर उस समय के प्रचलन के अनुसार उनका विवाह खंडवा के लक्ष्मण सिंह नामक लड़के से हो गया । सुभद्रा कुमारी आरंभ से ही विद्या प्रेमी थीं । विवाह के बाद भी पति से आगे पढ़ने की प्रार्थना की, तो उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर ली । उन्हें कॉलेज में भर्ती करा दिया गया । इस बीच पति ने भी वकालत पास कर ली ।

आगे क्या करना हैं? दोनों ने निश्चय किया कि देश-सेवा करेंगे । उन्हीं दिनों कांग्रेस आंदोलन चल पड़ा । पति-पत्नी दोनों झंडा सत्याग्रह में सम्मिलित हुए और जेल गए।

उनके पति ने खंडवा के 'कर्मवीर' साप्ताहिक में सहायक संपादक का काम कर लिया । माखनलाल चतुर्वेदी उसके संचालक थे । दोनों में से एक संपादक का कार्य करके घर चलाता और दूसरा जेल चला जाता । यह क्रम कई वर्षों तक चलता रहा । इस बीच सुभद्रा  कुमारी की प्रतिभा भी विकसित हुई । उनने अनेकानेक उच्चकोटि की कविताएँ तथा कहानियों लिखी, जो देशभर में बहुत प्रख्यात हुईं । 'खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थीं' कविता सुभद्राजी की ही है । दोनों ने मिलकर समाजसेवा के भी अनेक कार्य किए । पारिवारिक धर्म निबाहते हुए भी राष्ट्र-सेवा का यह एक अनुपम उदाहरण है।

संयुक्त रहने का लाभ

एक व्यक्ति के पास रेशम का थान था, धागे आपस में लड़ने लगे । अलग-अलग रहने की सबने ठानी । दर्जी ने उनके टुकड़े काट दिए । एक जगह खजूर की पत्तियाँ थीं । सूखी और बिखरी पड़ी थीं । उनने मिल-जुलकर रहने का निश्चय किया । माली ने इकट्ठी करके उनकी चटाई बुन दी । रेशम की धज्जियाँ दुकान-दुकान पर मारी-मारी फिरी; किसी ने नजर उठाकर भी उन्हें नहीं देखा, जबकि चटाई का गट्ठा हाथों-हाथ बिक गया । अलग होने और शामिल रहने का अंतर दोनों ने समझा और भविष्य के लिए सही रास्ता अपनाया ।

चमत्कार ईसा का या सद्भाव का

महात्मा ईसा अपने शिष्यों सहित कहीं जा रहे थे । रात्रि में एक जगह ठहरे । देखा तो पास में केवल पाँच रोटियाँ थीं, इतने से सबका पेट कैसे भरेगा, यह प्रश्न सामने था। यह समस्या ईसा ने सुनी तो कहा-" सारी रोटियाँ एक पात्र में टुकड़े-टुकड़े करके डाल दो । सभी लोग एक-एक टुकड़ा निकाल-निकाल कर खाते जायें । सबको समान रूप से भोजन मिल जायेगा।"

सबने श्रद्धापूर्वक गुरु आज्ञा मानी । सोचा जितना सबके पेट में समान रूप से अन्न पहुँचे, वही ठीक है ।

भोजन शुरू हुआ, तो सबका पेट भर गया, टुकड़े हाथ में आते गए । शिष्य बोले-"यह गुरुदेव का चमत्कार है।" पर ईसा बोले-"यह तुम्हारे सद्भाव भरे सहकार का चमत्कार है । तुम स्वार्थ भरी छीना-झपटी करते, तो यह संभव न होता। जहाँ सद्भाव भरा पारिवारिक सहकार होता है, वहाँ प्रभु का अयाचित सहयोग मिलता है ।

श्रेष्ठ पहाड़ कौन सा?

पहाड़ थे पास ही पास । उनसे लगा हुआ एक लंबा गहरा खड्ड था । उसके कारण उस ओर किसी का आवागमन नहीं होने पाता था । एक बार देवता उधर से निकले, पहाड़ों से कहा-"इस क्षेत्र का नामकरण करना है । तुम तीनों में से किसी के नाम पर नामकरण किया जायगा ।' तुम तीनों अपनी एक-एक इच्छा पूरी करा सकते हो। एक वर्ष बाद जिसका जितना विकास होगा; उस आधार पर नामकरण किया जायगा।"

पहले पहाड़ ने कहा-"मैं सबसे ऊँचा हो जाऊँ, ताकि सबसे दूर से दिखाई दूँ ।" दूसरे ने कहा-"मुझे खूब हरा-भरा प्राकृतिक संपदा से भरा-पूरा बना दें, ताकि सब मेरी ओर आकर्षित हों ।" तीसरे पहाड़ ने कहा-"मेरी ऊँचाई छीलकर इस खड्ड को समतल बना दें, ताकि यह सारा क्षेत्र उपजाऊ हो जाय और लोग यहाँ सुविधा से आ जा सकें ।" देवता तीनों की व्यवस्था बनाकर चले गए ।

एक वर्ष बाद परिणाम देखने देवता पुन: पहुँचे । पहला पहाड़ ऊँचा हो गया था दूर से दिखता था, पर वहाँ कोई जाता नहीं था। हवा, सर्दी, गर्मी की मार सबसे अधिक उसे ही सहनी पड़ती थी ।

दूसरा पहाड़ प्राकृतिक संपदा से भर गया था, पर बीहड़ इतना था कि किसी के जाने की हिम्मत न पडती थी । वन्य पशुओं का आतंक भी उससे खूब बढ़ गया था ।

तीसरा पहाड़ खड्ड पाटने से समतल हो गया था । पर सारे क्षेत्र में फसलें उगायी जा रही थीं । खड्ड पट जाने से लोग वहाँ जाने लगे, बसने लगे । उपजाऊ भूमि का लाभ सबको मिलने लगा ।

देवताओं ने उस क्षेत्र का नाम उसी तीसरे पहाड़ के नाम पर रखा; जिसने अपने निकटवर्ती क्षेत्र को भी उपयोगी बना दिया। लोगों के आने-जाने का मार्ग बना और उपजाऊ भी । इस प्रयास में उसने अपने अस्तित्व को ही दाँव पर लगा दिया था । देवताओं ने कहा-"इसी ने इस क्षेत्र को अपना बनाया है। यह क्षेत्र इसी के परिवार के रूप में विकसित हुआ है । इसी के नाम से जाना जायेगा ।"

सह अस्तित्व का महत्व

किसी स्थान पर विशाल भवन का निर्माण हो रहा था । निर्माण स्थल के समीप ही लगा हुआ था ईंटों का एक ढेर! ईंटों के ढेर में जमी ईंटों ने कहा-"गगनचुंबी अट्टालिकाओं का निर्माण हमारे अस्तित्व पर ही आधारित है । भवन जब बनकर तैयार हो जायेगा, नि:संदेह उसके निर्माण का श्रेय मुझे ही मिलेगा ।"

मिट्टी-गारे ने ईटों की यह गर्व भरी बातें सुनीं, तो रहा न गया वह बोली-"तुम झूठ बोलती हो । क्या तुम नहीं जानती कि एक सूत्र में पिरोकर, ईंट से ईंट जोड़कर इस भवन को सुदृढ़ बनाने का श्रेय तो हमें ही है । मेरे अभाव में तो तुम्हारे ये ढेर एक ठोकर मारकर ही गिरा दिए जा सकते है।"

किवाड़ और खिड़कियों ने इसका प्रतिवाद किया-"यह तो सभी जानते हैं कि तुम ईंटों को जोड़-जोड़कर दीवारें खड़ी करती हो, पर यदि उस मकान में खिड़की-दरवाजे न रहेंगे तो पूछेगा कौन? उसमें रहने के लिए जायेगा कौन?" शिल्पी, जो इन सबकी बातों को चुपचाप सुन रहा था, अब बोला-"आप लोगों में भले ही कितना भी सहयोग क्यों न हो, परंतु जब तक मेरा हाथ न लगे, सब अपने-अपने स्थान पर ही पड़े रहेंगे ।"

अब भवन की बारी थी-"भवन ने जो कुछ कहा वह एक स्वीकार्य सत्य था । भवन बोला-"सबका महत्व है, परंतु उससे भी महत्वपूर्ण है सह-अस्तित्व । सह-अस्तित्व के अभाव में किसी का व्यक्तिगत कोई महत्व नहीं है, इसलिए आपको अपना झूठा अभिमान छोड़कर सहयोग का महत्व समझना चाहिए ।"

इस तथ्य को न समझने वाले यह भूलते हैं कि सारा मनुष्य समुदाय एक परिवार की तरह है, उसमें सबका समान अस्तित्व और महत्व है, परस्पर कल्याण का ध्यान रखने में ही भलाई है ।

इसी प्रकार एक बार हाथ, पाँव, नाक, मुख आँखें सब अपने-अपने महत्व के लिए झगड़ने लगे । यह देखकर मनुष्य को बड़ा गुस्सा आया । उसने खाना बंद कर दिया । अब सबका एक ही ध्यान था, कहीं से खाना मिले तो जिंदा रहें । मनुष्य बोला-" अब समझ गए, तुम्हारा सबका महत्व तो मिलकर रहने में ही है।"

सहयोगी ही पाते हैं

एक क्षैत्र में सूखा पड़ गया। एक सद्गृहस्थ ने सोचा जब तक वर्षा नहीं होती, यहाँ काम मिलेगा नहीं, चलो कहीं दूसरी जगह जाकर कुछ काम करें । सभी सदस्यों ने यह बात स्वीकार की और चल पड़े । थक गए तो एक पेड़ के नीचे सुस्ताने लगे । छोटा बच्चा बोला-"पिताजी! भूख लगी है, कुछ खाकर आगे बड़े ।" सबने कहा-ठीक है और तुरंत काम में जुट पड़े। माँ ने पत्थर इकट्ठे करके चूल्हा बनाना प्रारंभ कर दिया । पिता पानी लेने चल पड़ा। छोटे भाई-बहन लकड़ियाँ इकट्ठी करने लगे ।

ऊपर पक्षी रहते थे । उनका मुखिया बोला-"मूर्खो । सारी तैयारी तो कर रहे हो, पकाने के लिए तो तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है, खाओगे क्या?"

बड़ा लड़का इसी विचार में था, कहीं से कुछ कंदमूल ले आऊँ । पक्षियों के परिहास से उसे गुस्सा आया, बोला-"अभी सब मिलकर तुम्हारे परिवार को पकड़ कर पकायेगे ।" पक्षियों का मुखिया डर गया । सोचा यह पुरुषार्थी परस्पर सहयोग से कुछ भी कर सकते हैं । वह बोला-"हमारे परिवार को मत सताओ । मैं तुम्हें गड़े खजाने का ठिकाना बता देता हूँ । चैन से जीवन बिताना ।"

खजाना लेकर वे घर लौट आए । पड़ोस में एक आलसी, झगड़ालू परिवार रहता था। उसने सारा विवरण सुना, तो मुफ्त में धन पाने के लिए वे भी उसी पेड़ के नीचे पहुँचे। भोजन पकाने का नाटक करने लगे। परंतु जिससे जो काम कहा जाता, वह दूसरे पर टालता, देर तक चें-चें होती रही । पक्षी बोला-"भोजन बनाने की तैयारी में झगड़ तो रहे हो, पर पकाओगे क्या?"

परिवार प्रमुख झट बोला-"तुम्हें पकड़कर पकायेंगे ।" पक्षी हँसा और बोला-"हमें पकड़ने वाले और थे, वे धन ले गए । तुम तो एक दूसरे से लड़ते रहो, इसके अलावा तुम से कुछ न होगा ।" और वह उड़ गया।
कुसंस्कारी परिवार वाले एक दूसरे को कोसते, लड़ते-झगड़ते वापस लौट गए ।

एतत् कुटुम्बसंस्थाया: घटनं नैव केवलम् ।
कामकौतुकहेतोर्वा भोजनस्य कृते पुन:॥२७॥
वस्तुसंग्रहरक्षार्थं नित्यकर्मव्यवस्थिते:।
इयन्मात्राय दायित्वं बृहत्कश्चित्कथं वहेत्॥२॥ 
एतास्तु सुविधा द्रव्यात्पण्यशालासु चाञ्जसा ।
प्राप्तुं शक्या व्ययश्चऽपि न्यूनस्त भवेत्तथा॥२९॥ 
दायित्वेभ्योऽपरेभ्यश्च मुक्तास्तिष्ठन्ति मानवा:।
इयत्यपि नरा बद्धा कुटुम्बस्यानुशासने॥३०॥

भावार्थ- परिवार संस्था का गठन काम-कौतुक, भोजन-व्यवस्था, सामान की सुरक्षा एवं नित्य कर्मों की व्यवस्था मात्र के लिए नहीं होता । इतने भर के लिए कोई क्यों तैयार होगा? ये सुविधाएँ तो सराय में पैसा चुकाते रहने पर और भी सरलतापूर्वक मिल सकती हैं । उनमें खर्च भी कम पड़ेगा और जिम्मेदारियों से भी मुक्त रहा जा सकेगा । इतने पर भी हर बुद्धिमान् व्यक्ति पीरवारगत अनुशासन में ही बँधना चाहता है ॥२७-३०॥

व्याख्या-परिवार परंपरा को प्रोत्साहित करने में ऋषियों का मंतव्य केवल इतना ही नहीं रहा कि व्यक्ति एक से बहुत होकर रहें । दु:ख-तकलीफ पड़ने पर उसका हाथ बँटाने वाला साथ हो । व्यक्ति व्यवस्थित रूप से स्थायी होकर रहे और परिजनों के साथ अधिक उल्लासपूर्ण जीवनयापन करे । इस असाधारण मंतव्य के साथ उनका एक इससे कहीं ऊँचा मंतव्य भी रहा है, वह यह कि परिवार के माध्यम से मनुष्य आत्म कल्याण की ओर भी अग्रसर हो । उसमें सामाजिकता, नागरिकता और सबसे बड़ी बात विश्व-मानवता का कल्याणकारी भाव जागे। वह अपने जैसे अन्य मनुष्यों के लिए त्याग, सहानुभूति, सौहार्द्र एवं आत्मीयता का अभ्यास कर सके । पारिवारिक जीवन में ही आध्यात्मिक गुणों को विकसित करने का पूरा-पूरा अवसर मिलता है ।

यहाँ एक ऐसा भ्रम दूर करने का प्रयास किया गया है, जिसमें अधिकांश लोग उलझकर रह जाते हैं ।' परिवार की आवश्यकता जीवन की सामान्य सुविधाओं के लिए होती है । यह आम मान्यता बन गई है । यदि यही सच होता, कामवासना की तुष्टि, भोजन व्यवस्था, सामान की सुरक्षा, नित्यकर्म की सुविधाएँ आदि के लिए तो धर्मशाला जैसी व्यवस्था ही काफी होती ।

परंतु ऐसा है नहीं । मनुष्य की एक बड़ी आवश्यकता है, सघन आत्मीयता की अनुभूति, अपनत्व का विस्तार, अंतरंग स्नेह का रसास्वादन । पाश्चात्य परंपरा में परिवार को रसूल व्यवस्था के लिए बनाया गया एक ठेका मानकर प्रयोग किया गया । पहले तो कुछ समय यह व्यवस्था अच्छी लगी, पर फिर शोभ, असंतोष उभरने लगा। वहाँ साधन खूब हैं, एक दूसरे की स्वतंत्रता में कोई बाधक नहीं बनता, बल्कि पति-पत्नी, बच्चो और माँ-बाप के बीच यह सघन स्नेह नदारत हो गया, जिसे मानवीय अंत:करण की खुराक मानाजाता रहा है ।

अनेक सर्वेक्षणों के आधार पर यह पाया गया है कि अमेरिका जैसे संपन्न राष्ट्र, में ८० प्रतिशत व्यक्तियों को सोने के लिए नींद की गोली लेनी पड़ती है । उनमें से उनमें से उाधिक के मानसिक तनाव का
कारण उनके पारिवारिक जीवन में स्नेह सद्भाव, आत्मीयता का पूर्ण अभाव पाया जाना है ।

अंतःकरण की इस पवित्र स्नेह की भूख को शांत व कर पाने पर नशों से उसकी पूर्ति करने का प्रयास भी किया जाता है । पर यह भी कारगर वहीं हुआ । इसीलिए वहाँ के समाज विज्ञानी भारतीय पारिवारिक अनुशासनों के पक्षधर होते जा रहे हैं । जहाँ अंतरंग आत्मीयता के सहारे, अभावों में भी स्नेह, संतोष सतत् छलकता रहता है।

बुद्धिमत्ता का तकाजा है कि व्यक्ति परिवार संस्था के दर्शन एवं माहात्म्य को समझे, उस अनुशासन से स्वयं को जोड़े, ताकि वह सब कुछ उसे अर्जित हो सके, जिसके लिए यह मानव योनि मिली है ।

भरत का सौजन्य

वस्तुत: सुविधा और संपदा ही सब कुछ नहीं है । आदर्शो को चरितार्थ करने में यदि उपलब्धियों का परित्याग करना पड़े, तो उसमें भी हानि नहीं । भरत को राजगद्दी मिल रही थी, पर उनने अनीति के
आधार पर उस स्वीकार करने से स्पष्ट इन्कार कर दिया । इतना ही नहीं वे अपनी निस्पृहता को सिद्ध करने के लिए राम की तरह जटा-जूट धारण करके घर में ही वनवासी की तरह रहे । सिंहासन पर राम की ही चरण-पादुका प्रतिष्ठित कीं ।

इस प्रकार की आत्मीयता से ओत-प्रोत, त्याग और कर्तव्य की पारिवारिकता ने ही राम के परिवार को जन-जन का आराध्य बना दिया । राम का चरित्र अपनी जगह है एवं भरत का अपनी जगह । एक मर्यादा का पालन करने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में अवतार सत्ता के प्रतीक के रूप में पूजे जाते हैं, जबकि दूसरे उनके भाई अपनी पारिवारिक निष्ठा, उत्कृष्टता से जुडी आत्मीयता एवं अपनी गुण निधि के कारण।

सघन स्नेह का सहारा 

वन प्रदेश में भयंकर आँधी आने पर वे वृक्ष उखड़ जाते हैं, जो एकाकी खड़े होते है । भले ही वे कितने ही विशाल क्यों न हों? इसके विपरीत घने उगे हुए पेड़ एक दूसरे के साथ सट कर रहने के कारण उस दबाव को, सहज ही सहन कर लेते हैं । अंधड़ उनका कुछ भी बिगाड़ नहीं पाते।

यह उदाहरण देते हुए भगवान बुद्ध ने अपने प्रवचन में कहा-"परस्पर स्नेह की सघनता मनुष्यों को इसी तरह नष्ट होने से बचाती और विकास का अवसर प्रदान करती है । संघारामों में सघन पारिवारिक स्नेह का अभ्यास इसीलिए कराया जाता है।"


सहयोग से बढे़ रुजवेल्ट

अमेरिका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट अपनी सफलता का रहस्य बताते हुए कहा करते थे-"मैंने अपने को सदा सौभाग्यशाली समझा है, समय-समय पर ऐसा ही दूसरों पर प्रकट भी किया है । इस दुनिया में सहयोग उन्हीं को मिलता है, जिन्हें समर्थ, सुयोग्य और सफलता तक पहुँचने वाला समझा जाता है । असमर्थों और अभागों को सस्ती सहानुभूति भर मिल सकती है, पर उन्हें कहीं से कोई कहने लायक सहायता नहीं मिलती ।"

संसार में जिनने भी महत्वपूर्ण सफलताएँ पायी हैं, उन सबने जन-सहयोग अर्जित करने का प्रयत्न किया है। एकाकी मनुष्य कितना ही सुयोग्य क्यों न ही, बड़े काम करने और बड़े उत्तरदायित्व वहन करने में सफल नहीं हो सकता ।

भाई भार नहीं होता

एक महात्मा पहाड़ी पर चढ़ रहे थे, उसी समय एक दस वर्षीय लड़की अपने दो वर्ष के भाई को गोदी में लिए पहाड़ी की चढ़ाई चढ़ रही थी । महात्मा ने कहा-"बच्ची, तू इतना भारी बोझ गोद में लिए कैसे चढ़ पायेगी?"

लड़की ने तुरंत उत्तर दिया-"बाबा! यह बोझ नहीं, भाई है ।" जहाँ प्रेम व भावना होती है, वहाँ कोई काम भारी नहीं होता, अन्यथा भावना न हो, तो जीवन ही भारी लगने लगे । सच्ची पारिवारिकता वही है, जहाँ अंत: से उद्भूत भाव निष्ठा ही सर्वोपरि मानी जाती है ।

कागावा का विशाल परिवार

जापान के एक लड़के कागावा ने पढ़ाई के बाद पीड़ितों की सेवा करना अपना लक्ष्य बनाया और वे उसी में लग गए । पिछड़े, बुरी आदतों से ग्रसित बीमार लोगों के मोहल्लों में वे जाते और दिन भर उन्हीं की सेवा में लगे रहते । पेट भरने के लिए उनने दो घंटे का काम तलाश कर लिया । इस सेवा कार्य की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी । एक विदुषी लड़की को उनका यह कार्य बहुत पसंद आया । वह भी उनकें कंधे से कंधा मिलाकर कार्य करने को तैयार हो गयी । विवाह एक शर्त पर हुआ कि वे लोग वासनापूर्ति हेतु नहीं, समाज सेवा हेतु मैत्री की खातिर बँधेंगे । उस लड़की ने भी अपना पेट भरने के लिए दो घंटे रोज का काम तलाश लिया । दोनों के मिलकर काम करने से दूना काम होने लगा ।

उदार लोग उनके काम में सहायता देने लगे । फलत: कार्यक्षेत्र बहुत बढ़ गया । सरकार ने पूरे जापान में पिछड़े लोगों को सुधारने का काम उन लोगों को सौंपा । कागावा के प्रति जापान में इतनी श्रद्धा बड़ी कि उन्हें उस देश का गाँधी कहा जाने लगा।

परिवार का अर्थ मात्र विवाह का गठबंधन नहीं है, अपितु एक मित्र की तरह साथ चलकर काम करने वाले समूह का नाम है। कागावा को संयोगवश एक सुयोग्य पत्नी मिली एवं उन्होंने अपना परिवार परिकर अच्छा-खासा विशाल बनाकर अपने को सच्चे अर्थों में विश्वमानव प्रमाणित कर दिया।

समाज को सपर्मित कार्नेगी

एण्ड्रयू कार्नेगी के पिता एक स्काटिश जुलाहे थे । माता घर के काम से निपट कर एक धोबी और एक मोची की दुकान पर काम करने जाती थी । तब घर का खर्च चलता । माता जब नौकरी पर काम करने जाती, तब उसका पिता उसे इस प्रकार बिदा करता, मानो नई दुल्हन हो । दोनों में अगाध प्रेम था । एण्ड्रयू यह देखता तो उसके ऊपर गहरी छाप पड़ती । उसके पास एक ही कमीज थी । माता उसे रोज धोती और इस्री कर देती ।

पढ़ने का अधिक सुयोग न बना । किन्तु स्कूली संस्कार परिवार में रहते-रहते ही आत्मीयता के पड़ गए । तनिक बड़ा होते ही उसने तार घर में हरकारे की नौकरी कर ली । साथ ही तार देने और ग्रहण करने की विधि भी सीखता रहा । परीक्षा में पास हुआ और तार बाबू बन गया । उसके बाद उसने एक जमीन कृषि फार्म हेतु खरीदी । उसमें कृषि के अतिरिक्त एक तेल का कुँआ निकल आया और भी व्यवसायों में आमदनी बढ़ी । विवाह के कितने ही प्रस्ताव आये, पर उसने सभी यह कहकर अस्वीकार कर दिए कि अपनी माता के जीवित रहने तक मैं विवाह न कर उसकी सेवा करूँगा । विवाह में समय और मन दो ओर बँट जायेगा । माँ के मरने के बाद ५२ बर्ष की आयु में उसने शादी की । शादी देरी से करने पर लोगों के उलाहना देने पर कार्नेगी कहता कि" विवाह जिन उद्देश्यों के लिए किया जाता है, उन सभी की पूर्ति मैंने यथासंभव की है । मात्र सहजीवन और काम सेवन ही विवाह का अर्थ नहीं है ।"

विवाह के बाद भी एकाकी बच्चों के परिवार रूपी संगठनों के लिए एवं साधनहीनों को विद्याध्ययन हेतु वह सतत् दान देता रहा। उसने १५० करोड़ डालर की राशि इन्हीं कार्यों में खर्च की । मरते समय कर्जदारों के कागजात जलाकर सबको ऋणमुक्तकर दिया ।

स्थातुमिच्छन्ति तत्रास्ति योग आत्मपरिष्कृते:।
समाजाय सुयोग्यानां नागराणा समर्पिते:॥३१॥
वातावृतौ सुयोग्यायां व्यक्तिस्तिष्ठति सर्वदा।
संतुष्टा च प्रसन्ना च निश्चिन्ता चकुटुम्बके॥३२॥
अतएव चिरादेष मनुष्यो वसति स्वयम् ।
कृत्वा परिवारनिर्माणं वैशिष्टयं मौलिकं त्विदम्॥३३॥
पारिवारिकताऽऽधारं समाश्रित्यैव जीवनम् ।
अभूद् विकसितं तस्य जीवनं पशुता गतम्॥३४॥
सामूहिकस्य योगोऽभूदुत्कर्षस्यैवमेष तु ।
सृष्टेर्मुकुटरत्नं यन्मनुष्य: कथ्यतेऽधुना॥३५॥

भावार्थ-इसके साथ आत्म-परिष्कार और समाज को नागरिक प्रदान करने का परमार्थ भी जुडा है । उपयुक्त वातावरण में रहकर व्यक्ति प्रसन्न, संतुष्ट और निश्चिंत है। इसलिए मनुष्य चिरकाल से परिवार बनाकर रहता आ रहा है । यह उसकी मौलिक विशेषता है । पारिवारिकता के आधार पर ही उसका पशु-तुल्य निजी जीवन विकसित हुआ है और सामूहिक उत्कर्ष का ऐसा सुयोग बन सका है, जिसमें मनुष्य को सृष्टि का मुकुटमणि कहा जाता है॥३१-३५॥

व्याख्या-सभ्यता का जितना विकास वर्तमान समय में दिखलाई पड़ता है, उसका अधिकांश श्रेय परिवार प्रथा को ही दिया जा सकता है । जिस युग में मनुष्य बिना परिवार के एकाकी रहता था, तब उसमें और अन्य पशुओं में बहुत थोड़ा अंतर था । परिवार बनाकर रहने के पश्चात उस पर स्त्री और बच्चों की सुरक्षा तथा पालन का जो उत्तरदायित्व आया, उसी से उसमें सामूहिकता तथा सहयोग की वृत्तियाँ उत्पन्न हुईं । इसी के द्वारा उसे स्वार्थ, त्याग और समाज सेवा का पाठ पढ़ने को मिला, जिससे क्रमश: लोगों को संगठन और सहयोगपूर्वक काम करने का अभ्यास बढ़ता गया और मानव समाज अन्य प्राणियों से सशक्त स्थिति में पहुँच सका तथा स्रष्टा की उत्कृष्टतम कृति कहलाने का सौभाग्य प्राप्त कर सका ।

अध्यात्म क्षेत्र में सामान्यतया यह मान्यता बन गई है कि गृहस्थ एक बंधन है, उससे जान छुड़ाने का प्रयास किया जाय । इस मान्यता ने गृहस्थाश्रम की पवित्रता और उसकी व्यवस्था को भिन्न-भिन्न कर
दिया है । यह बात ठीक है कि कुछ महापुरुष गृहस्थी बसाये बिना भी अपना कार्य करते रहे हैं; परंतु इससे
गृहस्थाश्रम की श्रेष्ठता संदिग्ध नहीं हो जाती।

प्राचीवकाल के इतिहास पर दृष्टि डालने से प्रतीत होता है कि कुछ थोड़े से अपवादों को छोड़कर प्राय: गृहस्थ थे । योग-साधना एवं वनवास के समय भी उनकी पत्नियाँ साथ रहती थीं । सभी गृहस्थ मुनि सपत्नीक रहते थे । महर्षियों में प्रधान सप्त-ऋषियों की भी पत्नियाँ थीं, उनके बच्चे भी थे । देवताओं में सभी गृहस्थ हैं । ईश्वर के अवतारों में भी अधिकांश ने अपना गृहस्थ बसाया है । भगवान् राम और कृष्ण जिनका नाम लेकर हम भवसागर से पार होते हैं, गृहस्थ ही तो थे । दांपत्य जीवन की आवश्यकता और उपयोगिता को स्वीकार करते हुए उन्होंने मर्यादापालन के लिए एक सद्गृस्थ के रूप में ही अपना चरित्र प्रस्तुत किया है । जीवन की सुविधा तो गृहस्थ जीवन में बढ़ती है, साथ ही कितने जीवन लक्ष्यों की पूर्ति में भारी सहायता मिलती है ।

गृहस्थ में अधिक परमार्थ

एक संत मरने के बाद परलोक में पहुँचे। चित्रगुप्त ने उनसे कर्मों का लेखा-जोखा पूछा । संत ने बताया-"तीन चौथाई जीवन तो घर-गृहस्थी के काम-धामों में बीता और एक चौथाई एकांत जीवन के भजन-पूजन में लगा ।"

जितना समय परिश्रम और पुण्य-प्रयोजनों में लगा, उसी को परमार्थ माना गया और उस अनुपात में पुण्य मिला । भजन-पूजन वाले दिन तो अपने निज के लाभ भर के लिए माने गए और उतने दिन के श्रम परमार्थ से रहित होने के कारण सामान्य ही माने गए ।

संत की मान्यता से चित्रगुप्त का निष्कर्ष ठीक उल्टा निकला । जिस श्रम-साधना को, समय को वे प्रपंच मानते रहे, वही अनेक को सुविधा पहुँचाने और ऋण चुकाने के कारण परमार्थ गिना गया ।

संन्यासी से गृहस्थ विट्ठल पंडित

विट्ठल पंडित काशी जाकर संन्यास की दीक्षा लेकर वहीं रहने लगे । जब गुरु को पता लगा कि यह गृहस्थ के उत्तरदायित्वों को पूरा किए बिना ही संन्यासी हो गया है, तो उन्होंने संन्यास दीक्षा को रद्द कर दिया और गृहस्थ पालन की आज्ञा दी । उनसे कहा-"गृहस्थ को बंधन मानकर उससे भागो मत। उसके साथ जुड़ी आत्म-परिष्कार की ब्राह्मणोचित साधना करो तथा युग की आवश्यकता के अनुरूप श्रेष्ठ संतान समाज को देने का उत्तरदायित्व पूरा करो ।"

विट्ठल पंडित ने यही किया । जाति वालों ने पंडित जी को जाति बहिष्कृत कर दिया और उनके बच्चों को भी किसी काम में शामिल न होने देते । होना यह चाहिए था कि रास्ता भूला व्यक्ति यदि फिर रास्ते पर आ जाय, तो उसका स्वागत किया जाय, पर प्रतिगामियों को विवेक-बुद्धि से क्या संबंध?

परंतु विट्ठल पंडित गुरुदेव द्वारा बतलाए गए गृहस्थाश्रम के आदर्शों के अनुरूप चलते रहे और बच्चों को श्रेष्ठ संस्कार देते रहे ।

संत ज्ञानेश्वर सहित उनके तीनों बेटे तथा बेटी मुक्ताबाई चारों धर्म प्रचारक की तरह परिभ्रमण करने लगे । एक बार काशी गए तो पंडितों से शास्त्रार्थ ठन गया । समतावादी ज्ञानेश्वर जी ने श्रेष्ठ कार्यों में सबका अधिकार साबित करने के लिए भैंसों के मुख से वेद मंत्र का उच्चारण कराया । प्रतिगामी पंडितों का सिर नीचा हो गया । संत ज्ञानेश्वर के चमत्कारी रूढ़ि विरोधी प्रयासों से देव संस्कृति के विस्तार, धर्मधारणा के प्रयासों में सहायता मिली ।

प्रेम श्रद्धा, और शांति का संगम 'अपनाघर'

एक गृहस्थ को सर्वोत्तम सौंदर्य की खोज थी । सो वे एक तपस्वी के पास पहुँचे और अपनी जिज्ञासा प्रकट की । उनने उत्तर दिया-"श्रद्धा! श्रद्धा मिट्टी के ढेले को गणेश बना सकती है ।" समाधान न हो पाने से एक भक्तजन के पास पहुँचे । उनने कहा-"प्रेम ही सुंदर है । काले कृष्ण गोपियों को प्राणप्रिय लगते थे ।" समाधान कुछ हुआ, कुछ न हुआ । सोच-विचार करते वे आगे चल पड़े । युद्धभूमि से लौटा, शस्रों से लदा एक सैनिक मिला। उससे पूछा-"सौंदर्य कहाँ हो सकता है?" सैनिक का उत्तर था-"शांति में ।"

जितने मुँह उतनी बातें । निराश गृहस्थ अपने घर लौटा । दो दिन की प्रतीक्षा में सभी व्याकुल हो रहे थे । पहुँचा, तो सभी लिपट पड़े ।' पुत्री की आँखों से आँसू झर पड़े । आत्मीयता का, स्नेह का, गहन श्रद्धा का सागर सा उमड़ पड़ा । सभी को असाधारण शांति का अनुभव हुआ ।

गृहस्थ ने तीनों समाधानों का समन्वय अपने घर में देखा । उसके मुँह से निकल पड़ा, मैं कहाँ भटक रहा था । श्रद्धा, प्रेम और शांति इन तीनों के ही दर्शन तो अपने घर में हो रहे है । यही सबसे श्रेष्ठ एवं सर्वाधिक सौंदर्यपूर्ण कृति है ।

निस्पृह किन्तु कर्तव्यनिष्ठ

मिथिला के पंडित गंगाधर शास्त्री एक विद्यालय में पढ़ाते थे । उनका लड़का गोविंद भी वहीं पड़ता था । गोविंद भी पिता की तरह बड़ा शिष्ट और अनुशासनप्रिय था। सहपाठी उसे बहुत स्नेह एवं सम्मान देते थे ।

एक दिन शास्त्री जी के साथ गोविंद विद्यालय नहीं पहुँचा । स्कूल बंद करके जब वे चलने लगे तो विद्यार्थियों ने पूछा-"महाशय । गोविंद आज क्यों नहीं आया?"

शाखी जी ने भारी मन से उत्तर दिया-"गोविंद को अचानक दौरा पड़ा और वह वहाँ चला गया, जहाँ से फिर कोई नहीं लौटता ।"

विद्यार्थी स्तब्ध रह गए । साथी के निधन का भारी दुःख हुआ । साथ ही इस बात का आश्चर्य भी कि ऐसी दुर्घटना होने पर भी शास्त्री जी पड़ाने कैसे आ सके और बिना माथे पर शिकन लाए किस प्रकार रोज जैसी कक्षा चलाते रहे? अपना असमंजस लड़की ने शास्त्री जी के सामने व्यक्त भी किया ।

पंडित जी ने उत्तर दिया-"मेरा एक परिवार वह है और एक परिवार यह है । उस परिवार के बालक के विछोह का दुःख तो है, पर इस परिवार के बालकों का हक मारता तो एक दुःख और बढ़ जाता । उसके लिए जो कर सकता था किया, तुम्हारे लिए भी जो कर सकता हूँ उसे कैसे न करूँ?"

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