प्रज्ञा पुराण भाग-3

अथ पञ्चमोऽध्याय: वृद्धजन-माहात्म्य प्रकरणम्-5

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कस्मादपि च हेतोस्तु येषां वासोऽधिकं नहि ।
बहि: सम्भव एतेऽपि निवासं स्वं तु सद्मनि॥५८॥
स्वीकुर्वन्तु कुटुम्बस्य सामान्यं हि निरीक्षणम् ।
दायित्वस्य धिंया चात्र परिवारव्यवस्थितिम्॥५९॥
कार्यं स्वयं प्रमुख ते च लोकमङ्गलमेव तु ।
मान्यन्तां तेषु कार्येषु रुचिं गृह्णन्तु चाऽधिकाम्॥६०॥
अधिकं समयं तत्र समीपतरवर्तिषु ।
क्षेत्रेषु वाहयन्त्येवं सदैवैभिर्निमित्तकै:॥६१॥
कार्यक्रमेषु तत्रैवंविधेष्वेव तथाऽऽयुष: ।
उत्तरार्ध जीवनस्य व्ययीकर्त्तव्यमुत्तमै:॥६२॥

भावार्थ-जिनका कारणवश बाहर रह सकना संभव न हो, वे निवास तो घर पर ही रखें, पर उत्तरदायित्व परिवार की देखभाल और व्यवस्था भर को सँभालें । अपना प्रमुख कार्य तो लोकमंगल को समझें । इन कार्यों में विशेष रुचि लें और समय का बड़ा अंश इस निमित्त समीपवर्ती क्षेत्रों में ही लगाते रहें । ऐसे ही कार्यक्रमों में संलग्न रहकर उत्तम पुरुषों को अपने जीवन का उत्तरार्द्ध बिताना चाहिए॥५८-६२॥ 

व्याख्या-अपनी जिम्मेदारियों के पूरा होने के बाद अनिवार्य नहीं कि सभी घर छोड़कर चल दें एवं तीर्थाटन कर जन-जन तक विचारधारा का प्रसार करें । जिनसे यह संभव हो, अवश्य करें। पर जब कल्याण के कार्य घर रहकर भी संभव है । सारा जीवन उपार्जन में बिता दिया। अब शेष बचे समय को नष्ट होने से बचाना चाहिए एवं जहाँ तक संभव हो, स्वयं को उस पुण्य-परमार्थ में नियोजित कर देना चाहिए, जिससे अपने आस-पास का परिकर ही लाभान्वित होता रहे ।

पुष्प की भाव गरिमा

महर्षि जावालि ने उस पर्वत पर ब्रह्म कमल खिला देखा । शोभा और सुंगध पर मुग्ध होकर ऋषि सोचने लगे कि इसे शिवजी के चरणों का सौभाग्य प्रदान किया जाय। ऋषि को समीप आया देख, पुष्प प्रसन्न तो हुआ, पर साथ ही आश्चर्य व्यक्त करते हुए आगमन का कष्ट उठाने का कारण भी पूछा । जावालि बोले-"तुम्हें शिव-सामीप्य का श्रेय देने की इच्छा हुई, सो अनुग्रह के लिए तोड़ने आ पहुँचा ।" पुष्प की प्रसन्नता खिन्नता में बदल गई। उदासी का कारण महर्षि नें पूछा, तो फूल ने कहा-"शिव सामीप्य का लोभ संवरण न कर सकने वाले कम नहीं। फिर देवता को पुष्प जैसी तुच्छ वस्तु की न तो कमी है और न इच्छा । ऐसी दशा में घाटे में पड़ने से, तितलियों-मधुमक्खियों जैसे छोटे कृमि-कीटकों की कुछ सहायता करता रहता, तो क्या बुरा था? आखिर उस क्षेत्र को खाद की भी तो आवश्यकता थी, जहाँ से उगा और बढ़ा ।" ऋषि ने पुष्प क्री भाव-गरिमा को समझा और वे उसे यथास्थान छोड़कर वापस लौट आए।

हमारा तो यही भजन है

महाराष्ट्र के पूना जिले में एक संन्यासी हुए हैं-स्वामी परमानंद। वे माला तो रात में जपते थे, दिन में खुरपी झोले में डालकर निकलते थे और अपने संपर्क क्षेत्र में पेड़-पौधे लगाते थे। फलस्वरूप वह सारा क्षेत्र हरा-भरा बन गया । वे कहते थे-हमारा यही भजन है, फलस्वरूप स्वर्ग जैसी हरियाली प्रत्यक्ष आँखों के सामने दीखती है ।

उदारता की प्रतिमूर्ति विद्यासागर

ईश्वरचंद्र विद्यासागर प्रतिभा के ही नहीं करुणा के भी धनी थे। उनके जीवन का कोई दिन ऐसा नहीं बीता, जिससे मतवी गरिमा के उपयुक्त संस्मरण जुड़े हुए न हों। एक दिन उनने सड़क पर पडी एक बुढिया को देखा, जो मल-मूत्र से सन रही थी । बीमारी से कराह रही थी। विद्यासागर उसे कंधे पर रखकर घर ले आए । इलाज किया । अच्छी हो गई, तो उस अनाथ का भरण-पोषण भी जीवन भर स्वयं ही करते रहे । विद्यासागर ने कोई तीर्थयात्रा न की, पर उससे भी हजारों गुना पुण्यफल प्राप्त किया।

वे उदारता के प्रतिमूर्ति थे। उनने सेवा-सहानुभूति को एक क्षण के लिए भी अपने से पृथक् न होने दिया । इन्हीं उदात्त भावनाओं से प्रेरित होकर उनने राजा राममोहन राय का मार्ग अपनाया और सती प्रथा बंद कराने में, विधवा विवाह प्रचलित कराने में प्राण-पण से संघर्ष किया । उस क्षेत्र के ब्राह्मणों ने उन्हें जाति बहिष्कृत कर दिया था, तो भी वे अकेले सत्य के समर्थक होने के नाते अपने में हजार हाथियों का बल अनुभव करते रहे और रूढ़िवादियों से करारी टक्कर ली ।

दावतों का भोजन गरीबों को

नित्य सैकडों भूखों को भोजन देने वाले डॉ ० मेहता बंबई भर में प्रसिद्ध थे। वे दावतों का पता लगाते रहते थे और जूठन बटोरने स्वयं अपनी गाड़ी लेकर जा पहुँचते थे। खराब जूठन जानवरों को खिला देते और जो साफ-सुथरी होती, उसे अपंग-भिखारियों को खिला देते। इस प्रकार हर दिन सैकड़ों का पेट भरते ।

माधव राव खत्रे

माधव राव खत्रे तिलक और आगरकर के सहपाठी थे । उन लोगों ने निश्चय किया कि अपनी प्रतिभा को पेट की खातिर सरकार के हाथों नहीं बेचेंगे और जैसे बनेगा पेट भरते हुए जन जागरण के कार्य में लगे रहेंगे। माधव राव  (पेण्ड्रा) बिलासपुर के निवासी थे । उन्हें राजकुमारों का ट्यूटर नियुक्त किया गया। थोड़े ही दिन में उनने बच्चों को हर दृष्टि से सुयोग्य बना दिया। राजा साहब ने उन्हें ऊँचा सरकारी पद दिया, पर उनने लेने से स्पष्ट मना कर दिया और ज्यों-त्यों करके गुजर चलाते रहे। उनने  'छत्तीसगढ़ मित्र' निकाले । इसके बाद नागपुर जाकर 'देश-सेवक' की स्थापना की। पत्रों के अतिरिक्त वे ऐसे साहित्य सृजन में भी लगे रहे, जो जन-जीवन को ऊँचा उठा सकें । कोल्हापुर की ग्रंथमाला के लिए भी उनने कितनी ही पुस्तकें लिखीं और अनुवाद की । उन दिनों हिंदी में आदर्शवादी साहित्य का एक प्रकार से अभाव ही था । खत्रे जी ने उस अभाव की प्रति के लिए अपना समूचा जीवन ही खपा दिया। लालच और दबावों का वे सामना ही करते रहे । उनकी साहित्य साधना ने समय की आवश्यकता को बहुत कुछ हद तक पूरा किया। उच्च पद की उपेक्षा कर लोक मंगल में प्रवृत्त होकर उन्होंने बहुत कुछ पाया ।


विगतार्धायुषा पुसां वर्गेणैवं न वंशजा: ।
कुटुम्बत्वेन विज्ञेया: केवलं परमत्र तै:॥६३॥
आत्मीयताऽपि वृद्धि: सा कर्तव्या क्रमशश्च ते ।
प्रतिवेशिन एवं च सर्वान् परिचिताँस्तथा॥६४॥
अज्ञातानपि मन्येरन् परिवारगतानिव ।
अल्पेभ्यो वंशजेभ्यो न जीवनं यापयन्तु ते॥६५॥
समयस्य बृहद्भागं जनान् सर्वान् कुटुम्बिन:।
विशालक्षेत्रगान् मत्वा तेषां तत्र समाहितौ॥६६॥
समस्यानां तथा तेषामभ्युत्थानविधावपि ।
व्ययं कुर्युर्निषिद्धात्र पश्चिमायुषि सन्तति:॥६७॥
विचारपरिवारे तु वंशवृद्धि: सुसम्भवा ।
मता वसन् कुटुम्बे च तत्र संरक्षको भवेत्॥६८॥
आधिपत्यं स्थापयेन्न सन्मार्गं शिक्षयेदपि ।
खिन्नतां न व्रजेत्तत्रोपेक्षिते शालने निजे॥६९॥
यथाऽन्येषु जनेष्यत्र मन्यतेऽप्यनुशासनम् ।
बहवो नाऽपि चाऽन्ये तु तत्र नो खेदसंस्थिति:॥७०॥
जायते तद्वदेवात्र मान्यता हि कुटुम्बजे ।
सम्बन्धे पुरुषै: सर्वेर्ज्ञातव्या सुखदायिनी॥७१॥

भावार्थ-अधेड़ व्यक्ति मात्र अपने वंशधरों को ही कुटुंबी न समझेम्, वरन् आत्मीयता के क्षेत्र का विस्तार करें । पड़ोसी संबंधी एवं परिचितों अपरिचितों को भी कुटुंबवत् मानें। थोड़े से कुटुंबियों के लिए ही न मरते-खपते रहें । समय का एक बड़ा भाग विशाल क्षेत्र में फैले हुए जन-समुदाय को अपना कुटुंब मानते हुए? उनके समाधान एवं अभ्युत्थान के लिए लगाते रहें जीवन के उत्तरार्द्ध में संतानोत्पादन वर्जित है। विचार परिवार के रुप में वंशवृद्धि करते रहने की छूट है। परिवार में रहते हुए भी अपनी स्थिति उस परिकर के संरक्षक जैसी रखें। आधिपत्य न जमाएँ । सन्मार्ग की शिक्षा तो देते रहे पर न मानने पर मन को खिन्न न करें। जिस प्रकार अन्य लोगों में छत से परामर्श मानते हैं, बहुत से नहीं मानते, तो भी खेद नहीं होता। यही सुखदायी मान्यता घर-परिवार के संबंध में भी रखें॥६३-७१॥

व्याख्या-मात्र अपने परिवार के, जाति-वंश के-व्यक्तियों को अपना समीपवर्ती मानना, इन्हीं के प्रति अपनी निष्ठा-सद्भावना होना, व्यक्ति का सीमित परिधि में समाया हुआ, मोहभाव भर है। वस्तुत: हम निखिल विश्व के, विराट परिवार के एक अंग हैं । हम सभी के उत्थान आत्मिक प्रगति के लिए उत्तरदायी हैं। "उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्" की शास्त्र उक्ति पर चलते हुए, हमें अपने विचार परिकर का निरंतर विस्तार करते रहना चाहिए । जैसे-जैसे हृदय में उदार आत्मीयता का विस्तार होगा, आयु के ढलते जाने पर भी, अपने परिवार के सदस्यों के अपने-अपने दायित्वों के कारण सुदूट स्थानों पर होते रहने पर भी परिवार छोटा नहीं लगेगा। स्वार्थ-परमार्थ में परिणत होगा एवं सारा विश्व, सारा समुदाय अपना परिवार एवं कार्यक्षेत्र प्रतीत होने लगेगा ।

एक बात वृद्धजनों के लिए और भी ध्यान में रखने योग्य है। वह यह है कि स्वयं को परिवार के ट्रस्टी के रूप में एक संरक्षक, उत्तरदायी सदस्य मानाना, न कि उसका मालिक स्वयं को समझ बैठना । सत्परामर्श देते रहना उनका पुनीत कर्तव्य है, किन्तु कोई उस पर न चले, तो इससे निराश होने की आवश्यकता नहीं। यह मान्यता विकसित होने पर ही एक लोकसेवी के रूप में विकास-अभ्युदय संभव है ।

दरिद्रनारायण 

दीनबंधु ऐण्ड्रज प्रारंभिक जीवन में पादरी थे। उनसे किसी भारतीय साधु ने पूछा-"आपने भगवान देखा है।" उनने कहा-"मैने देखा है। आप चाहें, तो आपको भी दिखा सकता हूँ ।" वे उन्हें एक हरिजन मुहल्ले में ले गए और एक वृद्ध मेहतर को दिखाया, जो क्षयग्रस्त नर कंकाल बेटे की सेवा में लगा रहता था और रोटी कमाने के लिए सफाई के काम पर भी जाता था। ऐण्ड्रूज ने कहा-"देखा । यही भगवान है । इसका नाम दरिद्र नारायण है ।" बापू ने उनका नाम सही ही दीनबंधु रखा था ।

पुण्यात्माओं में वरिष्ठ

विधाता ने जय-विजय को धरती पर यह तलाश करने के लिए भेजा कि उस वर्ष किसे सम्मानपूर्वक प्रवेश दिया जाय । दोनों दूत सर्वत्र घूमते फिर और सज्जनों, भक्तजनों का लेखा-जोखा नोट करते रहे । इस बीच उन्होंने एक अंधा वृद्धजन देखा, जो रास्ते के किनारे दीपक जलाए बैठा था । देवदूतों ने पूछा-" वृद्ध! घर से दूर, आँखें न होते हुए भी, दीपक जलाना और रात भर जागना, कुछ समझ में नहीं आता।" वृद्ध ने कहा-"जो किया जाय, वह अपने लिए हो, यह क्या जरूरी है? संसार के सब लोग भी तो अपने ही हैं । रात्रि को निकलने वालों को ठोकर लगने से बचाकर मुझे संतोष और आनंद मिलता है । स्वार्थरत रहने की तुलना में यह लाभ क्या कम है?" देवदूत पर्यवेक्षण करके वापस लौटे और सारे विवरण सुनाए, तो सर्वश्रेष्ठ वह अंधा ही निकला। देवता अपने कंधों पर पालकी से उसे स्वर्ग लाए और पुण्यात्माओं में मूर्धन्य वरिष्ठों को दिए जाने वाले स्थान पर उसे रखा गया ।

सारा समाज ही भगवान्

कबीर सिद्ध पुरुष की तरह प्रख्यात हो गए । दूर-दूर से जिज्ञासु लोग आते, तब भी वे पहले की तरह कपड़ा बुनते रहते और साथ-साथ सत्संग चलाते। शिष्यों में से एक ने पूछा-"आप जब तक साधरण थे, तब तक कपड़ा बुनना ठीक था । पर अब जबकि आप सिद्ध पुरुष हो गए, तो आप कपड़ा क्यों बुनते हो?" कबीर ने सरल भाव से उत्तर दिया-"पहले मैं पेट पालने कें लिए बुनता था, पर अब मैं जन-समाज में समाए हुए भगवान का तन ढकने और अपना मनोयोग साधने के लिए बुनता हूँ ।" कार्य वही रहने पर भी दृष्टिकोण की भिनता उत्पन्न होने वाले अंतर को समझने से शिष्य का समाधान हो गया ।

मेरा दंड दूसरों को क्यों?

जब उदार आत्मीयता अंत:करण में विकसित होती है, तो सभी जीवधारी अपने लगने लगते हैं । गांधी जी के पास वर्धा सेवाग्राम में एक कुष्ठ रोगी रहते थे-परचुरे शास्त्री । गांधी जी उनकी मरहम-पट्टी स्वयं करते । एक दिन कोई गुणी आए । उनने कुष्ठ रोग की दवा बताई-काला साँप हाँडी में बंद करके आँवे पर पकाया जाय। उसकी भस्म खाते रहने से रोग अच्छा हो जाएगा । शास्त्री जी ने नुस्के के बारे में सुना, तो उत्तर दिया-"इससे तो अधिक अच्छा यह है कि मुझे ही घड़े में बंद करके जला दिया जाय। साँप ने क्या अपराध किया है, जो उसे ऐसा दंड मिले?"

ससीम से असीम की ओर

बडौदा दीवान पद पर काम करते हुए, अरविंद घोष को ७५० रुपये वेतन मिलते थे । कलकत्ता में राष्ट्रीय विद्यालय खुला और उसके लिए ७५ रुपये मासिक का प्रिंसिपल योग्यता का व्यक्ति चाहिए था । घोष बाबू ने ७५० रुपयों की सीमित परिकर वाली नौकरी छोड़ दी औंर ७५ रुपयों के प्रिंसिपल पद पर चले गए, क्योंकि वे एक बड़े परिवार को ज्ञान लाभ दे सकते थे। नेशनल कॉलेज ने कितने ही कर्मठ राष्ट्रीय कार्यकर्ता निकाले । यही घोषबाबू योगिराज अरविंद बनकर बाद में पांडिचेरी जाकर बस गए एवं विराट विश्व की सेवा करते रहे ।

मुझे रोको मत, बहने दो

एक छोटी नदी तालाब के किनारे से बह रही थी। तालाब बरसात भर भरा रहता, इसके बाद सूख जाता । नदी थी तो छोटी, पर उसका स्त्रोत हिमालय था, आगे चलकर गंगा में मिलती और विशाल सागर में विलीन हो जाती । तालाब नदी को समझाता, इतनी लंबी और कष्टसाध्य यात्रा क्यों करती हो? मेरा घर क्यों नहीं बसा लेती? हप्त दोनों मिलकर रहें, तो क्या हर्ज है? नदी ने कहा-"तुम तक सीमित होने के बाद मैं अन्यत्र कहीं न जा सकूँगी और किसी के काम न आ सकूँगी? इसलिए मुझे रोको मत । प्रवाहित होते रहने में मेरा और संसार का कल्याण है ।"

वंशजा अर्थदृष्ट्या चेत् स्वावलम्बं गतास्तदा ।
सद्म: प्रयोजनेभ्यस्तु सम्पदा दीयतां स्वयम्॥७२॥ 
अर्जितं यत्समं तच्च प्राप्नुवन्तु कुटुम्वगा: ।
आवश्यकं न चैतत्तु परं ये स्वाश्रिता नहि॥७३॥
अधिकारिण एते हि स्वाभिभावकसम्पद: ।
विराड्ब्रह्मस्वरूपाय समाजाय यथा नृणाम्॥७४॥
कृतं जीवनदानं तत् कालदानं भवेदिह ।
तथा कुटुम्बदायित्वाऽवशिष्टं लोकभूतये॥७५॥
परम्परेयमेवास्ति धार्मिकानां विवेकिनाम् ।
पुण्यदा येन भूरेषा देवभूमिर्निगद्यते ॥७६॥

भावार्थ-वंशजीवी यदि आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी हो गए हैं, तो अपनी संपदा सत्प्रयोजनों में लगा दें । जो कमाया जाय, वह सब घर वालों को ही मिले, यह आवश्यक नहीं । जो स्वावलंबी नहीं मात्र वे ही अभिभावकों के उपार्जन को उपलब्ध करने के अधिकारी हो सकते हैं जिस प्रकार विराट् ब्रह्म जन समाज को समयदान-जीवनदान गिया गया है, वैसे ही पारिवारिक उत्तरदायित्व निर्वाह के उपरांत बचा हुआ धन भी लोक मंगल के लिए समर्पित होना चाहिए। यही विवारशील धर्म परायणों की पुण्य परंपरा है जिससे यह भूमि सदा देवभूमि कही गयी है॥७२-७६॥ 

व्याख्या-घर वालों तक ही अपने कुटुंब की सीमा मानने वाले अपना स्नेह-दुलार ही नहीं, धन-संपदा का अधिकार भी उन्हीं तक सीमित मानते हैं । अपनी संतानों को स्वावलंबन का शिक्षण दिया जाय, वे उत्तराधिकार में मिलने वाली पूँजी पर निर्भर न रहें। उन्हें यह सरकार दिए जाँय कि जो धन समाज के एक-एक घटक के सहयोग से जुटाया गया है, उसका सुनियोजन यथा संभव समाज सेवा में ही हो। विवेक यही कहता है कि जो भी कुछ धन ढलती आयु वाले पुरुषों-स्त्रियों के पारा शेष बचे, उसे वे अपने विराट परिवार विश्ववसुधा को ऊँचा उठाने में लगा दें ।

कर्तव्य का बंधन

सबसे प्रथम एवं सर्वोपरि धर्म है-अपनी संतान को स्वावलंबी बनाना। आद्रिक मुनि ने बसंतपुर के एक विद्वान की कन्या से इस शर्त पर विवाह किया कि जब तक पुत्र उत्पन्न न होगा, तब तक वे गृहस्थ रहेंगे । बाद में संन्यास ले लेंगे । पुत्र उत्पन्न हुआ । माता ने अपने गुजारे के लिए सूत कातने का अभ्यास किया । एक दिन पुत्र ने माता के चरखे का सूत लेकर पिता की बीस परिक्रमा की और कच्चे सूत से बाँध दिया । साथ ही कहा-"मुझे स्वावलंबी बनाने का कर्तव्यपालन किए बिना कहीं नहीं जा सकते।" आद्रिक मुनि ने सूत के कच्चे धागे को कर्तव्य का प्रतीक माना और संन्यास की अपेक्षा कर्तव्यपालन को श्रेष्ठ मानकर उनने वन जाने का विचार छोड़ दिया ।

दोनों बच्चों का दान

सम्राट अशोक ने आधे मन से नहीं पूर्ण समर्पण भाव से बुद्ध की शरणागति ग्रहण की थी। उनने धर्म चक्र प्रवर्तन की आवश्यकता को देखते हुए अपना वैभव पहले ही समर्पित कर दिया था। स्वयं उसी कार्य में अहर्निश लगे रहते थे। अशोक की दो संतानें थीं-एक पुत्र महेन्द्र, दूसरी कन्या संघमित्रा। दोनों को ही उनने दीक्षित कर दिया । संघमित्रा सिंहल द्वीप गई । वहाँ की राजकुमारी अनुला अपनी पाँच सौ सहेलियों समेत दीक्षित हुई और उस देश में महिला बुद्ध सभा ने उस पूरे देश को बुद्ध का अनुयायी बनाया । महेन्द्र को मलाया देश में भेजा । इस प्रकार वह पूरा परिवार तन, मन, धन से उस महान प्रयोजन के लिए समर्पित हुआ। उनके कारण उस अभियान की सैकड़ों गुनी वृद्धि हुई ।

आमदनी का लाभ दूसरों को

इटली का मेवाडों जन्मजात रूप से गरीब नहीं था, पर उसने निश्चय किया कि अपने देशवासियों
की औसत आमदनी से अधिक खर्च न करेगा । इतना वह हाथों की मजूरी से कमा लेता था। इसके अतिरिक्त उसने कितने ही उद्योग चलाए। जिसमें होटल उद्योग प्रमुख था। उसके विभिन्न स्थानों में ५१ होटल थे । इसके अतिरिक्त उसने रेल के डिब्बे में सुधार के कई लाभदायक आविष्कार किए थे। इनकी आमदनी का अधिकांश लाभांश मजूरों को मिलता था। जो बचता वह उस क्षेत्र के अभावग्रस्त-दुखिहारों के लिए दे दिया जाता था। मेवाडों के चार बच्चे थे। उन सबको उसने यही परंपरा सिखाई। पैतृक धन के रूप में ५० शिलिंग उसके पास थे, वही वह अपने बच्चों के लिए छोड़ मरा।

निस्पृह देशभक्त

सुभाषचंद्र बोस आजीवन कुँवारे रहे। अपनी सामर्थ्य को उन्होंने पारिवारिक झंझटों में से बचा कर उच्च प्रयोजनों में लगाए रहने के लिए सुरक्षित रखा। उनकी आजाद हिन्द फौज का निर्माण और विश्व मत को भारत के पक्ष में करने का प्रयास सर्वविदित है। अपनी संपत्ति का वे ट्रस्ट बना गए, ताकि उसका उपयोग विदेशों में भारतीय पक्ष को उजागर करने का प्रचार कार्य उस धन से होता रहे ।

धन का उपयोग लोकहित में

राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन राज्य सभा के सदस्य थे, तब की बात है। एक बार अपने भत्ते का चेक लेने वे राज्य सभा के कार्यालय में गए। चेक लेकर वहीं बैठे एक सज्जन से पेन लेकर टंडन जी ने वह चेक लोक सेवा मंडल के नाम हस्तांतरित कर दिया । इन महोदय से न रहा गया । कहने लगे-"टंडन जी! मुश्किल से भत्ते के चार सौ रुपये मिल पाए है। उन्हें भी आपने लोक सेवा मंडल को दे दिया ।" पेन सौंपते हुए टंडन जी कहने लगे-"देखो भाई, मेरे सात लड़के हैं और सब अच्छी तरह कमाते हैं । मैंने प्रत्येक पुत्र पर सौ रुपये प्रति माह का 'कर' लगा रखा है । इस प्रकार मुझे हर माह सात सौ रुपये मिल जाते है । इनमें से मुश्किल से तीन-चार सौ रुपये का व्यय होता है। शेष रकम भी लोक सेवा मंडल को भेज देता हूँ । फिर यह तो और ऊपरी आय है। इसे मैं क्यों अपने लिए रखूँ?" राजर्षि टंडन जी की यह निस्पृहता याद दिलाती है कि धन चाहे कितने ही रास्तों से व्यक्ति के पास आए, लोकहित में उसके विसर्जन से अच्छा कोई विवेकपूर्ण सदुपयोग नहीं होता ।
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