आगामिषु दिनेष्वेव समाजस्य नवास्थिति:।
प्रज्ञायुगे समाश्रित्याधारं वै पारिवारिकम्॥८७॥
भविता यत्र नीतिस्तु वसुधैव कुटुम्बकम्।
सदस्यं स्यात्तथा सर्वे ज्ञास्यन्त्यात्मानमुत्तमम्॥८८॥
सदस्यं सन्ततं विश्वपरिवारगतं स्वत:।
सुसंस्कृते समाजे स्याद् ब्रह्मविम्बोदयास्थिति:॥८९॥
एतदर्थ नरै: सवैंर्विधेयोऽभ्यास उत्तम:।
महत: परिवारस्य सञ्चालनविधौ तथा॥९०॥
सदस्यतां सुमान्या च ग्रहीतुमपि सर्वथा।
विनाऽनेन समृद्धिनों भवेत् सर्वसुखवहा॥९१॥
भावार्थ-अगले दिनों प्रज्ञायुग में समाज का अभिनव निर्माण परिवारिकता के अधार पर ही होगा। 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की नीति अपनाई जायेगी सभी अपने की विश्व परिवार का सदस्य मानेने । मानो विराट् ब्रह्म की ही सुसंकृत समाज में झाँकी परिलक्षित होने लगेगी। इसके लिए हर किसी को विशाल परिवार का संचालन कर सकने तया उसका सम्मानित सदस्य बनने का अभ्यास करना चाहिए । बिना इसके विश्व में वैसी समृद्धि संभव नहीं, जो प्रत्येक को सुख दे सके॥८७-९१॥
व्याख्या-प्रथम दिन के समागम के समापन पर सत्राध्यक्ष एक महत्वपूर्ण घोषणा करते हुए, उज्ज्वल भविष्य की सम्यक् तैयारी का सूत्र भी बतला रहे हैं । यह युग संधिकाल है, एक युग समाप्त होकर दूसरा प्रारंभ होगा । नया युग-प्रज्ञा युग कहलायेगा जिसमें मानवीय उत्कर्ष के नए कीर्तिमान् बनेंगे ।
उस महान् युग का आधार भी श्रेष्ठ पारिवारिक अनुशासन ही होगा । उसके अनुरूप जिनके मानस, जिनके अभ्यास नहीं बन पाएँगे, वे उस प्रवाह में ठीक से खप न पाने के कारण दुःख, कठिनाई, अनुभव करेंगे जो पहले से वैसा विकास-अभ्यास पा लेंगे वें श्रेय पायेंगे, सुखी रहेंगे।
सामान्य रूप से लोग छोटी इकाइयों में रह लेते हैं । विशाल परिवारों में मानवीय गुणों आत्मीयता आदि का अधिक विकसित होना आवश्यक हो जाता है। दो संगीतज्ञ एक साथ मजे में गा-बजा सकते हैं, किसी विशेष अभ्यास की जरूरत नही पड़ती । पड बड़े आर्केस्ट्रा में बजाने के लिए सधे हुए कलाकारों को भी पर्याप्त अभ्यास करना पड़ता है ।
प्रज्ञा युग में वसुधा पर रहने वाले एक कुटुम्ब का भाव रखेंगे, यही नहीं उससे भी ऊपर समाज में विराट् ब्रह्म की झाँकी स्पष्ट होगी । इस स्तर के परिवार के योग्य विकसित पारिवारिक भावों का अभ्यास अचानक सहज ही नहीं हो जायेगा । उसके लिए लंबा साधनात्मक अभ्यास चाहिए । महर्षि उसी अभ्यास को पहले से बजा लेने का आग्रह करते हैं । पिछला इतिहास बतलाता है कि जब-जब कोई बड़ा परिवर्तन हुआ है श्रेष्ठ जब पहले से उसके अनुरूप अभ्यास बनकर अग्रणी रहते रहे हैं ।
मत्स्यावतार के पूर्व महाराज मनु ने अपनी संवेदनाएँ उस और की बना ली थी कि उन्हें सृष्टि बीज सम्भालने की जिम्मेदारी सौंपी जा सकी ।
रामावतार के पूर्व ही ऋषि तथा देवावतार वानर अपने साधना क्रम तथा अभ्यास उन परिस्थिति के अनुरूप बनाने लगे थे।
महाभारत विशाल भारत के लिए पांडवों को परस्पर सहयोग तथा तप तितीक्षामय जीवन का अभ्यास लंबे समय तक काराया गया था । यदुवंशी उस पारिवारिक शालीनता के अनुरुप स्वभाव न ढाल सकें, तो उन्हें वष्ट ही डोना पड़ा।
पारिवारिक सूत्र के माध्यम से सतयुगी समाज बनाने का जो तत्वदर्शन यहाँ बतलाया गया, वह सभी के लिए अपनाये जाने योग्य है । पारिवारिकता को एवं इससें जुड़े गुण समुच्चय को अपनाए बिना न आत्म विकास संभव है न विश्व कल्याण ही ।
समाप्तिं समयोऽगास्त जयघोष पुरस्सरम् ।
सहैव शान्तिपाठेन तत्र नीराजनेन च॥९२॥
प्रथमस्य दिनस्याऽयं समाप्तिं प्रययौ तत:।
उपदेशो जना: सर्वेऽप्यनयाऽमृतवर्षया॥९३॥
आत्मन: कृतकृत्यांश्च मन्यमाना मुहुर्मुहु:।
उत्साहिता स्ववासाश्च ययुस्ते दृढ़पौरुषा:॥९४॥
भावार्थ-समय समापन की ओर था। शांतिपाठ, आरती और जयघोष के साथ प्रथम दिन का प्रवचन समाप्त हुआ। विदा होते समय अमृत वर्षा से श्रवणकर्त्ता गृहस्थगण अपने को कृतकृत्य अनुभव कर रहे थे तथा अत्यंत उत्साहित प्रतीत हो रहे थे, उनके पुरुषार्थ में दृढ़ता आ गयी थी ॥९२-९४॥
इति श्रीमत्प्रज्ञापुराणे ब्रह्मविद्याऽऽत्मविद्ययो: युगदर्शनयुगसाधनाप्रकटीकरणयो:,
श्रीधौम्यऋषिप्रतिपादिते "परिवारसंस्थे," ति
प्रकरणो नाम प्रथमोऽध्याय: ॥१॥