प्रज्ञा पुराण भाग-3

॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-1

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सत्रप्रवचने तत्र तृतीयस्य दिनस्य तु ।
अभूदुपस्थिति: सा च श्रोतृणां महती नृणाम्॥१॥
संख्या प्रतिदिनं विज्ञजनानां वर्द्धते यत:।
अन्वभूवनिन्नदं सर्वे प्रथमं यद् गृहस्थज:॥२॥
धर्मोऽपि समतुल्य: स योगसाधनया ध्रुवम्।
निर्वाहेण च तस्यैव सीमितानामिह स्वयम्॥३॥
मर्यादानामुदाराणामनुरूपतया नर: ।
पुण्यस्य परमार्थस्य योग्यतामेति सत्वरम्॥४॥ 
स हैवावधिकालेऽस्मिन्नध्यसंश्च पराक्रमम्।
प्रतिभोपार्जनेनैव परार्थं प्रचुरं सह॥५॥
कर्तुं क्षमों भवेदत्र श्रोतुं च वचनामृतम् ।
औत्सुक्यं सत्रृणां वीक्ष्य धौम्य: सन्तोषमागत:॥६॥
यच्छुतं सावधानैस्तु नरैर्मे प्रतिपादनम् ।
सार्थेक्यं स्वप्रयासस्य अन्यभूत्स प्रहर्षित:॥७॥

भावार्थ-तीसरे दिन के सत्र प्रवचन में श्रोताओं की और भी अधिक उपस्थिति थी। विज्ञजनों की संख्या प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी । लोगों ने प्रथम बार यह अनुभव किया कि गृहस्थ धर्म भी योग-साधन के समतुल्य है और उसका निर्वाह निर्धारित उदार मर्यादाओं के अनुरूप करने से रुष्ट पुण्य-परमार्ध का भागी बन सकता है । साथ ही इस अवधि में पराक्रम का अभ्यास करते हुए प्रतिभा अर्जन के साथ-साथ प्रचुर परमार्थ भी कर सकता है। अमृतवचन सुनने के लिए आतुर जन समुदाय की उत्सुकता देखकर महर्षि धौम्य को संतोष हो रहा था कि उनका कथन-प्रतिपादन ध्यानपूर्वक सुना गया । वे अपने प्रयास की सार्धकता अनुभव कर रहे थे॥१-७॥

व्याख्या-गृहरथ धर्म को सामान्यतया उपभोग प्रधान माना जाता है एवं यह समझा जाता है कि अध्यात्म की लक्ष्य-सिद्धि इसमें संभव नहीं । किन्तु प्रस्तुत सत्र में, जो विशेष रूप से गृहरथ जीवन को लक्ष्य करके ही आयोजित किया गया, सत्राध्यदा द्वारा स्थान-स्थान पर इसे एक योग साधन, जीवन देवता की साधना-आराधना की उपमा देते हुए, उसके माहात्म्य पक्ष पर ही जोर दिया जाता रहा है । विभूतियों को अर्जित करने के लिए परिवार संस्था विशुद्धतः एक प्रयोगशाला-पाठशाला है, जहाँ मानवी पराक्रम की परीक्षा होती है, तदनुसार उसे उपलब्धियाँ मिलती हैं । कौन उन्हें कितना, किस प्रकार पुण्य प्रयोजन के निमित्त खर्च करता है, यह उसके आंतरिक स्तर एवं सुसंस्कारिता पर निर्भर है । ऐसे हृदयग्राही प्रतिपादनों को सुनकर श्रोताओं को, स्वयं को धन्य अनुभव करना सहज ही संभाव्य है ।

भद्रजना:! गृहिण्याश्च महत्वं वर्णितं परम्।
वस्तुतस्तु, यतो धुर्या गृहिणी परिवारगा॥८॥
उत्कृष्टत्वे निकृष्टत्वे तस्या एव गृहस्थजम् ।
उत्थानं पतनं नूनमाश्रितं नात्र संशय:॥९॥
तस्या: सहायकस्त्वेष पुरुष: केवलं सदा।
साधनान्यर्जयत्रस्या साहाय्यं विदधाति तु॥१०॥
शथ्यात्यागात्समारभ्य यावद्रात्रौ समेऽपि च।
शेरते तावदेवेयं गृहेऽभिरमतेऽभित:॥११॥
तथा निरन्तरं तस्य परिवारस्य मध्यगा।
छायेव बद्धमूला सा प्रशस्तैवाऽधिका हि सा॥१२॥
गृहिणी विद्यते तेन गृहलक्ष्मीरसंशयान्।
मन्दिरस्थेव देवी सा गेहे मान्या समैरपि॥१३॥
सम्मानमनुदानं च तथैवास्यै विधीयताम्।
प्रत्येकस्य गृहस्थस्य कर्त्तव्यं प्रथमं त्विदम् ॥१४॥
मातु: पत्न्या भगिन्या वा कन्याया वाऽपि संस्थिता।
रूपे नारी यदा यत्र तत्र तां स्वावलम्बिनीम् ॥१५॥
स्वस्थां प्रसन्नां संस्कारयुतां च प्रतिभामयीम् ।
शिक्षितां मानव: कर्तुं न्यूनतां न समाश्रयेत् ॥१६॥
प्रयासा: सर्वदा कार्या नरैरेवंविधास्तथा ।
ग्राह्या चाल्पाऽपि नोपेक्षा तेषु हानेर्भयादिह ॥१७॥

भावार्थ-महर्षि धौम्य ने कहा-हे भद्रजनो! शास्त्रों में नारी की बड़ी महत्ता वर्णित की गई है । नारी परिवार की धुरी है, उसी की उत्कृष्टता-निकृष्टता पर गृहस्थ का उत्थान-पतन निर्भर रहता है, इसमें जरा भी संदेह नहीं है । पुरुष तो उसका सहायक मात्र है। वह साधन जुटाता और सहयोग देता है। प्रात: शैय्या त्याग से लेकर जब तक रात्रि में घर के सदस्य सोते है, तब तक होने वाले घर के प्रत्येक कार्य में प्रतिक्षण इसी में व्यस्त देखी जाती है। निरंतर उस परिकर पर छाई रहने के कारण उसी की प्रशंसा अधिक है। नारी गृहलक्ष्मी है । उसे घर के देवालय में अवस्थित प्रत्यक्ष देवी माना जाना चाहिए। वैसा ही सम्मान एवं अनुदान भी उसे प्रस्तुत किया जाना चाहिए। प्रत्येक सद्गृहस्थ का प्रथम कर्तव्य है कि माता, भगिनी, पत्नी और कन्या के जिस भी रुप में नारी रहे, उसे स्वस्थ, प्रसन्न, शिक्षित, स्वावलम्बी एवं सुसंस्कृत, प्रतिभावान बनाने में कुछ कमी न रखें। इस प्रकार के प्रयत्न निरंतर जारी रहें। उन प्रयासों की तनिक भी उपेक्षा न करें, अन्यथा महान हानि का भय बना रहेगा ॥८-१७॥

व्याख्या-शास्त्रों में नारी की महत्ता और उसकी गरिमा का वर्णन करते हुए कहा गया है कि नारी ब्रह्माविद्या है, श्रद्धा है, शक्ति है, पवित्रता है, कला है और वह सब कुछ है, जो इस संसार में सर्वश्रेष्ठ के रूप में दृष्टिगोचर होता है । नारी मूर्तिमान कामधेनु है, अन्नपूर्णा है, सिद्धि है और वह सब कुछ है, जो मानव प्राणी के समस्त अभावों, कष्टों और संकटों के निवारण करने में समर्थ है। यदि उसे श्रद्धासिक्त सद्भावना से सींचा जाय, तो यह सोमलता विश्व के कण-कण को स्वर्गीय परिस्थितियों से ओत-प्रोत कर सकती है ।

नारी को परिवार का हृदय और प्राण कहा गया है । परिवार का सम्पूर्ण अस्तित्व तथा वातावरण नारी पर सुगृहिणी पर निर्भर करता है । नारी अपनी कोमलता, सुशीलता, संवेदना, करुणा, स्नेह और ममता आदि हार्दिक विशेषताओं के कारण परिवार के निर्माण में महत्वपूर्ण स्थान रखती है और इन विशेषताओ के कारण ही घर-परिवार के सदस्यों के अधिक निकट रहती है और उन्हें प्रभावित करती है।

बृहत्संहिता में कहा गया है-
"पुरुषाणां सहस्रं च सती नारी समुद्धरेत्।"

अर्थात् सती स्त्री अपने पति का ही नहीं, अपने उत्कृष्ट आचरण की प्रत्यक्ष प्रेरणा से सहस्त्रों पुरुषों का उद्धार यानी श्रेष्ठता की दिशा का मार्गदर्शन करती है।

नारी स्वभावत: गृहलक्ष्मी है। घर की अंदरूनी व्यवस्था से लेकर परिवार में सुख, शांति और सौमनस्यता के वातावरण का दायित्व प्राय: नारी को ही निभाना पड़ता है । उसमें परिवार को स्वर्ग बनाने की प्रकृति प्रदत्त क्षमता विद्यमान है । इसीलिए उसे गृहिणी, सुगृहणी, गृहलक्ष्मी जैसे सम्मानजनक विशेषणों से संबोधित किया जाता है और जीवन संगिनी के रूप में जन्म-जन्मांतरों का साथी समझा जाता है।

मनुस्मृति में कहा गया है-"पूजा हि गृहदीप्तय:। स्त्रिय: श्रियश्च लोकेषु न विशेषोऽस्ति कश्चन॥"

(१/२६) गृहस्वामिनी स्त्री पूजा के योग्य है। इनमें और लक्ष्मी में कुछ भी भेद नहीं है ।

नारी का देवत्व 

नारी देवत्व की मूर्तिमान प्रतिमा है। देवी भागवत में कहा गया है-

'विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा: स्त्रिय: समस्ता: सकला जगस्तु॥"

अर्थात, समस्त स्त्रियाँ और समस्त विद्याएँ देवी रुप ही हैं। नारी के अंत:करण में कोमलता, करुणा, ममता, सहृदयता एवं उदारता की पाँच देव-प्रवृत्तियाँ सहज स्वाभाविक रुप से अधिक हैं। इसलिए उसे 'दैवी' शब्द से अलंकृत-सम्मानित किया जाता है। यदि यह बहुलता न होती, तो वह पत्नी का समर्पणपरक, माता की जान जोखिम में डालने जैसी बलिदानी प्रक्रिया, बहन और पुत्री की अंतरात्मा को गुदगुदा देने वाली विशेषता कैसे संभव होती । उसके इन दैवी गुणों ने ही उसे इस प्रकार का परमार्थपरायण तपस्वी-जीवन जी सकने की क्षमता प्रदान की है ।

ऐसा अनायास ही नहीं हुआ। इस प्रतिष्ठा को प्राप्त करने के लिए नारियों ने चिरकाल से गहन तपश्चर्या की
है । 'पुण्या कापि पुरन्ध्री', नारि कुलैकशिखामणि:' अर्थात उसने अपनी सम्पूर्ण शक्तियों के चरम विकास द्वारा ही यह गौरव प्राप्त किया है।

लोक कल्याण की विधायिका, पथ प्रदर्शिका और संरक्षिका शक्ति का नाम ही देवी है । अपने इस रूप में
भारतीय नारी आज भी उन प्राचीन गुणों को धारण किए हुए है, जिनके द्वारा अतीत काल में उसने समाज के समग्र विकास में योगदान दिया था। यद्यपि वह तेजस्विता आज धूमिल पड़ गई है, तथापि यदि उस पर पड़े मल आवरण के विक्षेप को हटा दिया जाये, तो नारी सत्ता अपनी पूर्ण महत्ता को फिर से ज्यों की त्यों चरितार्थ कर सकती है ।

ब्रह्म पुराण में व्यास-जाबालि संवाद के रूप में एक आख्यायिका आती है। व्यास जी जाबालि को बताते है-"पितुरप्यधिका माता गर्भ-धारणपोषणात् । अतो हि त्रिषु लोकेषु नास्ति मातृ समो गुरु:।" हे जाबालि! पुत्र के लिए माता का स्थान पिता से बढकर है, क्योंकि वही उसे गर्भ में धारण करती है, अपने रस, रक्त और शरीर से ही नहीं, भावनाओं और संस्कारों से भी पालन-पोषण करती है। इसलिए वह सर्वोपरि मार्गदर्शक और कल्याणकारक गुरु के रूप में प्रतिष्ठा की पात्र है । "नास्ति पुत्र सम प्रिय:।" उसे पुत्र से बढ़कर और कोई प्रिय नहीं। अतएव मनुष्य मात्र का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह परम आध्यात्मिक शक्ति के रूप में  'माँ' को प्रतिष्ठा प्रदान करे, प्रत्येक नारी में भाववत्सला नारी का रूप देखें ।

'नास्ति भार्या समं मित्रम्'-माँ के बाद नारी का दूसरा रूप 'पत्नी' का, 'सहधर्मिणी' का है । इस रूप में उसे सबसे बड़े विश्वासपात्र मित्र की संज्ञा दी गई है। जीवन की कठिन परिस्थितियों में जब संसार के अन्य सभी लोग साथ छोड़ जाते हैं, धन-सम्पत्ति का विनाश हो जाता है, शरीर रोगी और निर्बल हो जाता है, उस स्थिति में भी सहनशीला पत्नी ही पुरुष का साथ देती है और उसकी हर कठिनाई में और कोई योगदान भले ही न बन पड़े, किन्तु पुरुष के मनोबल, उसकी आशा और संवेदनशीलता को बल प्रदान करती रहती है ।

'नास्ति स्वसा समा मान्या' बहिन के समान सम्मानीय और कोई नहीं । इस रूप में नारी ने पुरुष को जो स्नेह प्रदान किया है उससे हमारे सामाजिक संबंध और जातीय बंधन सुदृढ़ हुए है । भारतीय वीरों को बुराइयों से लड़ने की प्रेरणा देने वाली, उनके गौरवपूर्ण मस्तक पर तिलक करने वाली बहिन का संबंध आज भी कितना मधुर है, इस बात को रक्षा बंधन पर्व पर हर भारतीय अनुभव किया करता है ।

'गृहेषु तनया भूषा'-अर्थात कन्या के रूप में नारी घर की शोभा है । वह अपने आमोद-प्रमोद से गृहस्थ जीवन में जो सरसता लाती है, वह अपेक्षाकृत पुत्र नहीं ला पाते । कन्या पुत्र की अपेक्षा कहीं अधिक भावनाशील होती है, अतएव उससे मिलने वाली स्नेहधारा का मूल्य और महत्व बहुत अधिक है ।

अपने इन चारों रूपों में अतीतकालीन भारतीय नारी ने पुरुष वर्ग के साथ जो उपकार किए हैं, उनकी तुलना किसी भी दैवी सत्ता के साथ सहर्ष की जा सकती है। उसमें उसका पलड़ा भारी ही बैठेगा । अतएव उसका 'देवी' कहलाना प्रत्येक दृष्टि से उचित और न्यायपूर्ण है। उसकी इस गरिमा को पूरी-पूरी प्रतिष्ठा मिलनी ही चाहिए ।

नारी-स्त्रष्टा की जीवंत कलाकृती

नारी इस सृष्टि का सौंदर्य है। उसे जीवंत कलाकृति के रूप में देखा जा सकता है। स्नेह उसकी  प्रवृत्ति है और अनुदान उसका स्वभाव। उसमें जीवन-संचार के सभी तत्वों को स्रष्टा ने कूट-कूट कर भरा है और सृजन की अनगढ़ कुरूपता को लड़ता के रूप में परिणत कर सकने की कष्मता से नारी को सँजोया है ।

मनुष्य के पास अपना कहलाने योग्य जो कुछ है, वह नारी का अनुदान है। जीवन उसी की उदरदरी से उपजता है। हरीतिमा उपजाने वाली धरित्री की अपनी गरिमा है; पर मानुषी-सत्ता की सृजनकर्त्री तो जननी है । खनिजों और वनस्पतियों से मनुष्य श्रेष्ठ है, इसलिए धरित्री से जन्मदात्री जननी की महिमा असंख्य गुनी अधिक मानी जायेगी । पृथ्वी पर हम निर्वाह करते है, पर नारी तो समूची मानवी-सृष्टि का ही सृजन और परिपोषण करती है ।

मानवी-अंड माता के गर्भ में पकता है। शिशु का आरंभिक आहार ममतामयी माँ के वक्षस्थल से टपकता है । दुलार पीकर अंतरात्मा हुलसती और विकसित होती है। उससे बढ़कर पोषण, अभिवर्द्धन और संरक्षण और कोई कर नहीं सकता । न केवल शरीर, वरन् अंत करण का अधिकतर निर्माण माता के अंचल की छाया में ही होता है। वयस्क पुरुष नारी का समर्पण भरा अनुराग पाकर अलौकिक आनंद से भरता और तृप्ति अनुभव करता है । सृजन की देवी जिस घर में पहुँचती, निवास करती है, वहाँ गृहलक्ष्मी की भूमिका सम्पन्न करती है और मिट्टी के घरौंदे में स्वर्ग का अवतरण किस प्रकार संभव हो सकता है, उसे सिद्धांत और व्यवहार में प्रत्यक्ष कर दिखाती है ।

नारी की महानता

गायत्री मंत्र का छठा अक्षर 'व' नारी जाति की महानता और उसके विकास की शिक्षा देता है-

वद नारी बिना कोऽन्यो निर्मांता मनुसन्तते:। महत्वं रचना शक्ते: स्वस्या: नार्या हि ज्ञायताम्॥

अर्थात, मनुष्य की निर्मात्री नारी ही है । नारी को अपनी शक्ति का महत्व समझना चाहिए । नारी की गरिमा उसके जननी पद में सन्निहित है । सचमुच साधारण प्राणियों से भरी इस धरती पर माता का हृदय एक दैवी विभूति ही है ।

"माता धरित्री, जननी दयार्द्रहृदया शिवा। देवी त्रिभुवनश्रेष्ठा निर्दोषा सर्व दुःखहा॥
आराधनीया परमा दया शान्ति: क्षमा: वृति:। स्वाहा स्वधा च गौरी च पद्मा च विजया जया ॥"

भगवान वेदव्यास जी ने नारी को उक्त इक्कीस नामों से सम्बोधित करते हुए गुणगान किया है और फिर आगे कहा है-

नास्ति गंगा संम तीर्थ नास्ति विष्णु सम: प्रभु:। नास्ति शम्भु सम: पूज्यो नास्ति मातृ समो गुरु ॥"

"गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं, विष्णु के समान कोई प्रभु नहीं और शिव के समान कोई पूजनीय नहीं तथा वात्सल्य स्रोतस्विनी मातृ हृदय नारी के बराबर कोई गुरु नहीं, जो इस लोक और परलोक में कल्याण का मार्ग प्रशस्त करे ।"

ब्रह्मा इस संसार की रचना करते है और विष्णु इसका भरण-पोषण, संवर्धन करते है । इस सूक्ष्म आध्यात्मिक रहस्य को यदि स्थूल रूप में कहीं देखना हो तो उसकी झाँकी माता को देखकर की जा सकती है। ब्रह्मा, और विष्णु की दैवी शक्तियों इस धरा पर नारी के मातृ रूप में अपना कार्य कर रही है । इसी की अनुभूति के आधार पर शास्त्रकार ने कहा है-

"या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।"

संसार की रचना उसका भरण-पोषण करने वाली दैवी शक्ति इस स्थूल संसार में नारी के मातृ रूप में ही स्थित हो अपना कार्य कर रही है । इसलिए इस मातृ रूपा नारी को हम बार-बार नमन करते हैं ।

इसी तथ्य के द्रष्टा एक मनीषी ने कहा है-"ईश्वर के पश्चात हम सर्वाधिक ऋणी नारी के हैं । प्रथम तो जीवन के लिए, पुनश्च इसे जीने योग्य बनाने के लिए ।" तात्पर्य यह है कि मनुष्य जीवन की सभी संभावनाओं के मूल में माँ का असीम प्यार, उसका त्याग, उसकी महान सेवायें ही निहित हैं ।

जुडे़ होने के कारण महत्ता

वन में खड़े एक पौधे के साथ लिपटी हुई लता भी धीरे-धीरे बढ़कर पौधे के बराबर हो गई । पौधे का आश्रय लेकर उसने फलना-फूलना आरंभ कर दिया।

बेल को को फलते-फूलते देखकर वृक्ष को अहंकार हो गया कि मैं न होता, तो लता कब की नष्ट हो गई होती । उसने धमकाते हुए कहा-"ओ री बेल! मैं जो कुछ कहूँ, तू उसका पालन किया कर, नहीं तो तुझे मार भगा दूँगा ।"

अभी वह लता को डाँट ही रहा था कि दो पथिक उधर से निकले । एक बोला-" बंधु! देखिए, यह वृक्ष कैसा शीतल और सुंदर है । इस पर कैसी अच्छी लता पुष्पित हो रही है आओ, यहाँ कुछ देर बैठकर विश्राम करें ।"

अपना सारा महत्व लता के साथ है, यह सुनकर वृक्ष का सारा अभिमान नष्ट हो गया, उस दिन से उसने लता को धमकाना बंद कर दिया ।

कथा का मर्म समझाते हुए संत बोले-"भक्तो! नारी के साथ जुड़ा होने से ही नर का महत्व है । दोनों एक दूसरे के सहयोगी-सहचर है। ऐसे में किसी एक को कनिष्ठ-वरिष्ठ नहीं माना जाना चाहिए।"

प्रेम में अलगाव कहाँ

भिक्षुणी उद्यान में से सुवासित फूल चुनकर लाई थी। अधमुँदे नेत्रों से अपने आराध्य को खोजती हुई एक दिशा विशेष में वह चली जा रही थी। पैर अविकाल गति से उठ रहे थे । 

राह में जहाँ भी अंगुलि के फूल खिसक पड़ते, वहाँ दिशाएं महक जाती, सूखे पत्ते मुस्कराने लगते ।

जिसे खोज रही थी, वह मिल गया। भिक्षुणी ने ध्यानमग्न के चरणों पर सारे फूल उँडेल दिए। मस्तक भी उस श्रद्धा से नत हो गया ।

भिक्षु ने ओंखें खोलीं और सकुचाते हुए कहा-"यह क्या किया?"

भिक्षुणी ने स्थिर वाणी से कहा-"अपने भगवान के लिए जो लाई थी, सो उसे सौंप दिया ।"

भिक्षु की चेतना तीखी हुई और उससे कहा-"तो क्या तुम मेरे मार्ग का अवरोध बनोगी?"

भिक्षुणी बोली-"नहीं, आप अपनी राह चलें । मैंने अपने भगवान बदल लिए हैं और दोनों रास्ते एक कर रही हूँ । प्रेम में अलगाव होता ही नहीं ।"

यह समझना भूल है कि नारी प्रगति के मार्ग का रोड़ा है । इसके विपरीत सत्य यह है कि आत्मिक प्रगति उसके सहयोग से और भी सरल हो जाती है।

आदर्श दंपत्तियों के उदाहरण

शास्त्रों में व इतिहास में जितने भी आदर्श दम्पत्तियों के जीवन क्रम को देखें, तो यही निष्कर्ष निकलता है कि परस्पर एक-दूसरे को सम्मान-सहयोग देकर ही वे सफल-अनुकरणीय जीवन जी सके।

बंगाल के निर्धन विद्वान प्रताप चंद्र राय ने अपनी सारी शक्ति और सम्पत्ति को बाजी पर लगाकर महाभारत के अनुवाद का कार्य हाथ में लिया। वे उसे अपने जीवन में पूरा न कर सके, तो उनकी पत्नी ने अपना संस्कृत ज्ञान पूरा करके उस अधूरे काम को पूर्ण करके दिखा दिया, ऐसी साहसिकता वहाँ दिखाई पड़ती है, जहाँ उच्चस्तरीय आदर्शों का समावेश हो।

साम्यवाद के प्रवर्त्तक कार्लमार्क्स भी कुछ कमा नहीं पाते थे । यह कार्य उनकी पत्नी जैनी करती थी । वे पुराने कपड़े खरीद कर उनमें से बच्चों के छोटे कपड़े बनातीं और फेरी लगातार बेचती थीं। आदर्शों के लिए पतियों को इस प्रकार प्रोत्साहित करने और सहयोग देने में उनका उच्चस्तरीय संकल्प-बल ही कार्य करता था ।

मैत्रेयी याज्ञवल्क्य के साथ पत्नी नहीं, धर्मपत्नी बनकर रहीं । रामकृष्ण परमहंस की सहचरी शारदामणि का उदाहरण भी ऐसा ही है । सुकन्या ने च्यवन के साथ रहना किसी विलास-वासना के लिए नहीं, उनके महान लक्ष्य को पूरा करने में साथी बनने के लिए किया था। जापान के गांधी कागाबा की पत्नी भी दीन-दुखियों की सेवा का उद्देश्य लेकर के ही उनके साथ दाम्पत्य सूत्र में बँधी थीं ।

समान लक्ष्य के पति-पत्नी

महाराष्ट्र के जमींदार भाऊ रघुनाथ ठाकुर जब १३ वर्ष के थे, तब उनका विवाह ढाई वर्ष की पत्नी से हुआ था । बड़े होने पर वे समाज सुधारक बने और बाल विवाह के कट्टर विरोधी थे ।

उनने अपनी पुत्री सरला को एम०ए० तक पढ़ाया । लड़की ने महिला जागृति का काम करने का निश्चय कर लिया था। उपयुक्त वर न मिलने पर वे सभी रिश्ते अस्वीकार करती रहीं और महर्षि कर्वे के महिला विद्यालय में अध्यापिका हो गई। उसकी शर्त थी कि जो साथी महिला शिक्षा के उसके लक्ष्य में सहायक हो, उसी से विवाह करेंगी । संयोग से इन्दौर के प्रेमनायक इसी प्रवृत्ति के मिल गए। दोनों ने मिलकर उस लक्ष्य को पूरा करने में समूची क्षमता नियोजित की ।

इस प्रयास से ३० कन्या विद्यालय खुले, जिनमें बाईस हजार लड़कियाँ पढ़ने लगी थीं । इनके अतिरिक्त इस दम्पत्ति ने मालवा और महाराष्ट्र में नारी उत्थान के और भी अनेक कार्य किए। इसे कहते हैं एक और एक मिलकर ग्यारह होना।

दासप्पा दम्पत्ति

मैसूर की यशोधरा दासप्पा पति-पत्नी दोनों ही स्वराज्य आंदोलन में अग्रणी रहे। रचनात्मक कार्यों में भी उनकी भारी लगन थी । यशोधरा जी की शिक्षा वकालत की हुई थी । पर वकालत उन्होंने कभी की नहीं । उन्हें आग्रहपूर्वक विधानसभा का सदस्य और मंत्री बनाया गया। पर सरकार के साथ नशाबंदी पर मतभेद होने के कारण उनने इस्तीफा दे दिया। इसके बाद भी पहले की तरह गांधी जी के रचनात्मक कार्यो में दोनों लगे रहे।

उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। परखे हुए गांधीवादियों में दासम्मा को उस क्षेत्र का चमकता हीरा माना जाता है। सरकार ने यशोधरा जी को पद्यभूषण की उपाधि से अलंकृत किया ।

आजीवन सच्चे सहयोगी

कस्तूरबा के निधन पर गांधी जी नेर कहा था-"मेरा सबसे गहरा ने सचमुच आजीवन बापू की सबसे गहरा सहयोगी बनने का प्रयत्न किया और वे उस प्रयास में पूरी तरह सफल हुईं । दक्षिण अफ्रीका का फिनिक्स आश्रम, अहमदाबाद का साबरमती आश्रम जिस सुचारू रूप से चले, उसे देखकर यह कहा जा सकता है, उनने बापू की इच्छाओं के अनुरूप अपने शरीर, मन और स्वभाव को पूरी तरह ढाल लिया था। व्यक्तित्व की दृष्टि से वे कोई बड़ी प्रतिभाशाली न थीं; पर भारतीय नारी के समर्पण आदर्श को उन्होंने पूरी तरह निभाया। इसलिए वे राष्ट्रपिता के अनुरूप राष्ट्रमाता कहलाई और गांधी जी की काया के लिए छाया बन कर रहीं ।

समर्पित पत्नी

ब्रिटिश सरकार ने चाल खेली और कहा यदि जवाहरलाल नेहरू राजनीति में भाग लेना छोड दें, तो उन्हें श्रीमती कमला नहेरू की देखरेख! के लिए हमेशा के लिए जेल मुक्त किया जा सकता है। कमला नेहरू को क्षय हो गया था। उन दिनों स्वतंत्रता आदोलन तीव्र गति से चल रहा था । नेहरू जी तब बनारस जेल में थे । उक्त आशय का एक सूचना-पत्र जवाहरलाल जी को भी भेज दिया गया था। उन्हें उस पर निर्णय करने के लिए समय दिया गया था। जवाहरलाल जी के सामने विकट समस्या थी। एक ओर धर्मपत्नी के प्रति कर्तव्य-भाव और दूसरी ओर देशप्रेम। आखिर उन्होंने परामर्श के लिए कमला नेहरू को एक दिन जेल आकर मिलने का आग्रह किया।

कमला जी समय पर वहाँ पहुँच गईं । अपने एक निकट संबंधी से उन्होंने पूछा-"पंडितजी को जेल में क्या
काम दिया गया है?" "वे यहाँ रस्सी बँटते हैं" उन्होंने उत्तर दिया और उसकी कल्पना करते ही कमला की आँखों से टपटप आँसू झरने लगे । अगाध प्रेम था, पति के लिए उनके हृदय में ।

थोड़ी देर में जेल का फाटक खुला। वे उनसे भीतर मिलने गई, इससे पूर्व कि जवाहरलाल जी उनसे कुछ पूछे, उन्होंने अत्यंत विनीत भाव से उत्तर दिया-"आप राजनीति में सहर्ष बने रहें, मेरे हित के लिए राष्ट्रहित की भावना का आप परित्याग न करें ।" कमला जी के देहांत का कारण क्षय तो था; पर यह मानसिक दबाव भी था, तो भी उन्होंने राष्ट्रीय हित को ही सर्वोपरि माना ।

नाम ग्रंथ के कारण अमर

वाचस्पति मिश्र भारतीय दर्शन के प्रसिद्ध भाष्यकार हुए है । उन्होंने पूर्व मीमांसा को छोड़कर शेष सभी दर्शनों का भाष्य किया है। वे अपने इस पुण्य-प्रयास में जुटे थे । इसी बीच उनकी पत्नी ने एक दिन संतान उत्पन्न करने की इच्छा प्रकट की ।

वाचस्पति गृहस्थ तो थे; पर दाम्पत्य जीवन उन्होंने वासना के लिए नहीं, दो सहयोगियों के सहारे चलने वाले प्रगतिशील जीवन-क्रम के लिए अपनाया था । उन्होंने पत्नी से पूछा-"संतान उत्पन्न क्यों करना चाहती हो?"

पत्नी ने संकोचपूर्वक कहा-"इसलिए कि पीछे नाम रहे ।"

वाचस्पति मिश्र उन दिनों वेदांत दर्शन का भाष्य कर रहे थे । उन्होंने तुरंत उस भाष्य का नाम 'भामती' रख दिया। यही नाम उनकी पत्नी का था । उन्होंने पत्नी से कहा-"लो तुम्हारा नाम तो अमर हो गया, अब व्यर्थ प्रसव वेदना और संतान पालन का झंझट सिर पर लेकर क्या करोगी? यह नाम हमेशा तुम्हारी सम्पर्क भावना का परिचय देता रहेगा ।"

आत्मा की अभिन्नता-एकता 

भक्तराज जयदेव की धर्मपत्नी का राजभवन में बड़ा सम्मान था। एक बार उन्होंने रानी से कहा कि पति के मरने पर उसकी देह के साथ सती होना निम्न श्रेणी का पतिव्रत धर्म है। सच्ची पतिव्रता तो वे है, जो पति का मृत्यु संवाद मिलते ही प्राण त्याग देती है ।

रानी को शंका हुई । एक दिन राजा के साथ जयदेव भी आखेट स्थल पर गए थे । अवसर पाकर रानी ने कहा कि पंडितजी को वन में एक शेर खा गया । जयदेव की स्त्री 'श्रीकृष्ण, श्रीकृष्ण' कहती हुई धड़ाम से भूमिगत हो गईं । उनके मरने का रानी को बडा दु:ख हुआ । बहुत देर तक वे अपने झूठ बोलने पर पछताती रही।

राजा के साथ जयदेव लौटे तो उन्हें पूर्ण समाचार दिया गया । जयदेव ने कहा-" रानी माँ से कहो कि वे घबराएँ नहीं, मेरे मृत्यु संवाद से उनके प्राण गए हैं, जो मेरे जीवित लौटने पर लौट भी आयेगे ।" भक्तराज अपनी पत्नी की मृत देह के पास हरिकीर्तन में विह्वल हो गए । एक क्षण तक उन्हें अपनी पत्नी की मृत्यु का भी ध्यान नहीं रहा । धीरे-धीरे मृत पत्नी की देह में चेतना लौट आई।

ऐसा होता है पति-पत्नी का प्रेम एक दूसरे से कभी अलग वे रह नहीं सकते।

सुकन्या का प्रायश्चित 

सुकन्या अपने पिता की इकलौती कन्या थी। राजमहल में पली थी । गुणों की दृष्टि से वह साक्षात् सरस्वती जैसी थी। एक दिन राजा वन विहार को गए, तो पुत्री को भी साथ लेते गए ।

लड़की ने एक टीले में दो चमकदार चीजें देखीं । उसने लकड़ी के सहारे उन्हें कुरेदा, तो रक्त की धार बह निकली। कन्या ने पिता को यह समाचार सुनाया, तो उनने कहा-"अनर्थ हुआ । यहाँ तपस्वी च्यवन तप करते थे, उन्हीं के नेत्र फूट गए, मालूम पडते हैं ।" वस्तुत: ऐसा ही हो गया था ।

सुकन्या सोचने लगी नेत्रों के अभाव में ऋषि का जीवन इस निविड़ वन में कैसे कटेगा । उसने तत्काल निश्चय किया कि प्रायश्चित स्वरूप सदा उनके पास रहूँगी।

राजा के मना करने पर भी सुकन्या ऋषि के पास रह गई और सच्चे मन से उनकी सेवा कैरने लगी । देवताओं ने प्रसन्न होकर च्यवन की गई नेत्र ज्योति वापस लौटा दी एवं उन्हें युवा-चिरायु बना दिया।

स्वामी श्रद्धानंद की धर्मपत्नी

समय-समय पर पत्नी के रूप में नारी ने पति को सचेत कर अपना कर्तव्य निभाया है । भारतीय नारी सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति है।

आर्य समाज के प्रख्यात नेता स्वामी श्रद्धानंद जब नवयुवक थे, तब उनका नाम मुंशीराम था, उन्हें मद्यपान, व्यभिचार, अपव्यय जैसी बुरी आदतें लग गई थीं ।

उनकी पत्नी शिवदेवी, अपने पक्ष के कर्तव्य-उत्तरदायित्व पर सुदृढ़ रहीं। वे पति के दोषों पर कुद्ध होने की अपेक्षा धैर्य और प्रेमपूर्वक उन्हें समझाती और प्रभावित करती रहीं । फलत: उनके जीवन में कायाकल्प हो गया। वे
उच्चकोटि के लोकसेवी और संत बन सके, इसमें बहुत कुछ श्रेय उनकी धर्मपत्नी का था ।

शिवदेवी के सुसंस्कार लेकर जन्मीं उनकी संतानें भी उच्च स्तर की हुई। इन्द्र विद्यवाचस्पति की प्रतिभा और देव सेवा से सभी परिचित है।

संयोगिता की फटकार

पृथ्वीराज चौहान संयोगिता को कन्नौज से अपहरण करके लाए थे, उसके रूप सौंदर्य पर इतने मुग्ध थे कि राजमहल छोड़कर शासन कार्य संभालने भी न जाते थे । इस स्थिति का लाभ उठाकर मुहम्मद गोरी ने दिल्ली पर चढ़ाई कर दी और नेतृत्व के अभाव में पराजय निकट दीखने लगी ।

स्थिति को देखते हुए चन्द्र वरदाई ने सारा विवरण संयोगिता को लिख भेजा, उसने पृथ्वीराज को लताड़ा और मोर्चा सँभालने के लिए विवश किया । प्रेम से कर्तव्य को उनने श्रेष्ठ बताया और दिग्भ्रांत पति को नीति मार्ग पर चलाया।

असली पुण्य

कुशी नगर का राजा लोगों के पुण्य खरीदने के लिए प्रसिद्ध था। उसने तराजू लगा रखी थी । पुण्य बेचने वाले अपनी ईमानदारी की कमाई का विवरण लिखकर एक पलड़े में रखते। उस कागज के अनुरूप तराजू स्वयं स्वर्ण मुद्राएँ देने की व्यवस्था कर देती।

जय नगर पर शत्रुओं का आक्रमण हुआ और वहाँ के राजा को स्त्री-बच्चे समेत रात्रि के अंधेरे में भागना पड़ा । पास में कुछ न था । वे मार्ग व्यय तक के लिए कुछ साथ लेकर न चल सके ।

दूर पहुँचने पर एक वृक्ष की छाया में बैठकर राजा-रानी विचार करने लगे कि अगले दिनों उदरपूर्ति किस प्रकार होगी? रानी ने सुझाया आपने जीवन भर बहुत दान-पुण्य किया था, उसी में से थोडे़ से कुशी नगर नरेश को बेचकर धन प्राप्त कर लिया जाय ।

राजा सहमत हो गए; पर भूखे पेट कुशीनगर तक पहुँचा कैसे जाय? रानी को एक उपाय सूझा, बोली-"ग्रामीणों के घरों में जाकर आटा पीसेंगी और नित्य के खाने में से जो बचेगा उसे जमा करती जाऊँगी । राजा रोटी बनायेंगे।

राजा उस दिन रोटी सेंक रहे थे । कई जगह से अपने हाथ जला भी चुके थे । भोजन के पूर्व ही एक भिखारी वहाँ आ पहुँचा । उसने जब क्षुधित मुद्रा में रोटी माँगी, तो राजा हतप्रभ रह गए। अगर यह भी दे दिया, तो खाएँगे क्या? खाएँगे नहीं, तो दूसरे राज्य कैसे पहुँचेंगे?

रानी मदद को सामने आईं । बोलीं-" हम एक दिन और भूखा रह लेंगे; पहली वरीयता इसकी है ।" रानी की सलाह पर राजा ने सारी रोटियाँ उसे दे दीं व पूरा परिवार आगे चल पड़ा भूखे पेट।

मार्ग व्यय के लायक आटा हो गया; तो उसे लेकर राजा बनाते-खाते दस दिन में कुशीनगर पहुँचे। राजा को अपना अभिप्राय सुनाया । उत्तर मिला-"धर्मकांटे पर चले जाइये, जो ईमानदारी का कमाया हो, उसे एक पलड़े में रख दीजिए । कांटा आपको उसी आधार पर स्वर्ण मुद्राएँ दे देगा ।"

जयनगर के राजा ने अपने पुराने पुण्य स्मरण किए और उनमें से कई का विवरण कांटे के पलड़े में रखा; पर
उससे कुछ भी न मिला । उपस्थित पुरोहित ने कहा-"आपने परिश्रमपूर्वक जो कमाया और दान किया हो उसी का विवरण लिखें ।"

राजा को पिछले दिनों भिखारी को दी हुई रोटियाँ याद आईं । उनने उसका ब्यौरा लिखकर तराजू में रखा । दूसरे पलड़े में उसके बदले में सौ स्वर्ण मुद्राएँ गिन दीं।

पुरोहित ने कहा-"उसी दान का पुण्य फल होता है, जो ईमानदारी और परिश्रमपूर्वक कमाया गया हो ।"
राजा ने रानी की तरह उस दिन की सलाह को, परोपकार वृत्ति को धन्यवाद दिया, जिसके फलस्वरूप उन्हें पुण्य का सही अर्थ ज्ञात हो सका व प्रतिफल मिल सका ।

पत्नी के अलावा दूसरा रूप नारी का बहिन के रूप में है, जिसे परम पवित्र संबंध माना गया है ।

भगिनी रूप में नारी

बिजली चमकी और पथिक को एक वृक्ष के नीचे खड़ी तरुणी दिखाई दी। लगा विपदा की मारी है तो यात्री ने पास जाकर पूछा-"देवि! मैं तुम्हारी कोई सेवा कर सकता ।"

"नहीं राही"-स्त्री ने कहा-"सेवा के नाम पर पुरुषों ने मुझे छला ही है, अब पुरुष मात्र से मुझे विरक्ति है ।"

"आर्ये! मैं वचन देता हूँ"-पथिक ने कहा।
"कैसा वचन?
"मैं तुम्हें अपनी माँ के समान आदर और सम्मान दूँगा"-राही ने आश्वासन दिया।
"घर में बैठी माँ के प्रति वयस्क पुत्र एक अजीब तिरस्कार का भाव रखते हैं। जबकि माँ अपने शिशु के लिए शरीर का सारा सत्व निचोड़ती है ।"-स्त्री बोली।
"तो चलो तुम्हें अपनी पुत्री मानूँगा ।"
"पिता-पुत्री को भी पराया धन समझकर एक दिन उसे अनजान हाथों में सौंप देते हैं । पुरुष यहाँ भी अपनी गुरुता से उसे परास्त कर देता है ।"
"तो फिर पत्नी बनकर रहना । यदि तुम्हें इसमें कोई शंका न हो तो ।"
"शंका"-स्त्री हँसी-"पत्नी को भी अपनी प्रभुता के चंगुल में फँसाने से पुरुष क्या बाज आते है? रोटी और कपड़े के बदले उसका सब कुछ तो छीन लेते हैं ।"

अब राही को कुछ समझ में न आ रहा था। और स्त्री कहे जा रही थी-"इन सब संबंधों का मैंने कटु अनुभव किया है। आर्य! तुम अपना समय न गँवाओ और गंतव्य की ओर बढ़ते चलो...... ।" राही जैसे यह सब सुन ही रहा था, अपने विचारों में खोए ही उसने यकायक गंभीरता को तोड़कर कहा-"यदि तुम मेरे निःस्वार्थ भ्रातृप्रेम को स्वीकार कर सकी, तो भगिनी बनकर ही मेरी सेवाग्रहण करो।"

स्त्री के चेहरे पर एक चमक भरी प्रफुल्लता फैल गई और वह फिलहाल तो पथिक के साथ जाने के लिए तैयार हो गई। कहते हैं यह कथा उतनी ही पुरानी है, जितनी कि प्राचीन राखी का पर्व।

तीसरा रूप नारी का माँ का है। वह माँ जो नौ माह कष्ट सहती एवं संतान को जन्म देकर स्वावलंबी जीवन जीने योग्य बनाती है । वह माँ, जो बच्चे के मन में संस्कारों के प्राण फूँकती है। वह माँ, जो किसी भी देश के लिए नर-रत्नों की खदान बनकर सच्चे नागरिक प्रदान करती है। वह माँ, जो सारे उलाहने-उपहास सहकर भी अभाव भरा जीवन जीती है, ताकि उसकी संतान सुखी जीवन जी सके।

माता की वेदना

आंधी का तेज झोंका आया और वृक्ष को जड़ से उखाड़ कर नीचे गिरा गया । वृक्ष को धरती पर बड़ा गुस्सा आया। बड़बड़ाते हुए बोला-"आज जो मेरी दुर्गति हुई, उसके लिए तूही उत्तरदायी है। तूने मेरी खुराक बंद न दी। एक-दो की बात होती, तो मैं सहन भी कर लेता। मैं भूख और प्यास से तड़प-तड़प कर सूख गया और तूने मेरे साथ यह निर्दयता दिखाई। अब भूमि पर पड़ा देखकर तेरा कलेजा ठंडा गया ।"

वृक्ष की यह जली-कटी बातें सुनकर धरती बड़ी दु:खी हुई, वह कैफियत देते हुए बोली-"भला माँ अपने बच्चे की दुर्गति देखकर कभी खुश हो सकती है। मैं तो तुम सभी के लिए अपने अंतर में जल तथा अन्य पौष्टिक तत्वों को समेट-समेट कर रखती हूँ । जिस प्रकार तुम जैसे वृक्ष-फलों का उपयोग अपने लिए न कर दूसरों को बाँटते रहते हो, वैसे ही एकत्रित खुराक को मैं भी तुम सबके लिए ही रखती हूँ और आवश्यकतानुसार देती रहती हूँ । पर तुम्हारी जड़ें ही खोखली हो गईं थी, इसके लिए मैं क्या करती?"

बच्चे-नारियाँ ही बनाती हैं

मैंडम च्यांगकाई शेक कहती थीं-"गर्भ में प्रवेश करने से लेकर पांच वर्ष की आयु तक बच्चों के स्वभाव का महत्वपूर्ण अंश पूरा होता है, इसलिए नए समाज निर्माण की जिम्मेदारी विशेषतया नारियों के कंधे पर ही आती है; क्योंकि बालकों की यह अवधि माता तथा घर में रहने वाली अभिभाविकाओं के सम्पर्क-सान्निध्य में ही व्यतीत होती है ।"

माँ को छोड़ कर सिद्धि कैसी?

वैधव्य का भार सहते हुए भी माँ ने पुत्र का पालन कर उसे बडा किया; किन्तु पुत्र तो अपनी वृद्धा माता को निराश्रित छोड़ तांत्रिक साधना करके शक्ति पाने घर से निकल पड़ा। देव शर्मा नामक इस युवक ने अपनी तांत्रिक रिद्धियों के बल से अपना चीवर लेकर उड़ते दो कौओं को भस्महोते देख, अभिमान से भर उठा ।

एक सद्गृहिणी के द्वार पर वह भिक्षा देने में देर होते देख वह क्रोध से भर उठा, तो गृहिणी बोली-"महात्मा जी! आप शाप देना जानते हैं, पर मैं कोई कौआ नहीं हूँ जो भस्म हो जाऊँ । जिस माँ ने तुम्हें जीवन भर पाला उसे त्याग कर मुक्ति के लिए भटकते आप मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते ।"

"यह सुन देव शर्मा को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने पूछा-"आप कौन सी साधना करती हैं?" "कर्तव्य साधना"। देव शर्मा भी तांत्रिक साधना छोड़ अपनी माँ की सेवा करने चल पड़ा ।

माँ की शिक्षा मैं कैसे भूल गया?

दक्षिण भारत की यात्रा करते समय एक बार गांधी जी, महादेव भाई और काका कालेलकर जी को एक साथ काम करने का अवसर पड़ा। एक दिन सभाओं और विचार गोष्ठियों का कुछ ऐसा तांता बंधा कि उन्हें दिन भर एक क्षण का भी विश्राम करने का अवसर नहीं मिला। लौटे भी काफी रात गए । थकावट के मारे उनके शरीर बुरी तरह शिथिल हो चुके थे। वहाँ से आते ही तीनों चारपाइयों पर पड़ गए और पड़ते ही सो गए।

चार बजे नींद टूटी । गांधी जी का नियम था कि वह सायंकाल सोने के पूर्व और प्रात:काल जगते ही प्रार्थना किया करते थे। उनके सभी साथी और अनुयायी भी इस नियम का पालन किया करते थे । प्रात:कालीन प्रार्थना के लिए एकत्रित हुए, काका कालेलकर से गांधी जी ने बड़े दु:ख भरे स्वर में पूछा-"शाम की प्रार्थना का क्या हुआ?" काका जी ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया-"बापू जी! मैं तो थकावट के मारे आते ही सो गया, प्रार्थना करना बिल्कुल भूल गया ।"

महादेव भाई ने भी डरते-डरते कहा-" बापू जी! थकावट के कारण मैं भी सो गया । मेरी बीच में नींद टूटी, तब मैंने चारपाई में बैठकर मन ही मन प्रार्थना कर ली, भगवान से क्षमा माँगकर फिर सो गया ।"

गांधी का दु:ख बहुत गहरा था । उन्होंने कहा-"मेरा मन तो आज बहुत ही अस्वस्थ है । मैं कल की प्रार्थना क्यों नहीं कर सका? क्या सोना इतना आवश्यक था कि भगवान का स्मरण तक न किया जाता?" इसके बाद प्रात:कालीन प्रार्थना सम्पन्न की गई । सब लोग प्रसन्न हो गए, पर उस दिन बापू का चेहरा उदास ही बना रहा । काका साहब ने उन्हें समझाते हुए कहा-"बापू जी आप ही तो कहते हैं कि भगवान के नाम से उनका काम बड़ा है । आप उनका काम करते हुए सो गए, इसमें बुरा क्या हो गया? माँ की इस सिखावन को कि भगवान का नाम लेना कभी न भूलना, मैं कैसे भूल गया, इसी बात का मुझे विशेष दु:ख है । दूसरा दु:ख इस बात का है कि आलस्य और प्रमाद, जिससे मेरी माँ ने मुझे सदैव दूर रहने की शिक्षा दी थी, में डूबकर मैं भगवान का नाम और काम कहीं दोनों न भूल जाऊँ ।" उस दिन सभी उपस्थित लोगों ने एक शिक्षा ग्रहण की। संस्कारों की जीवन साधना में महत्ता की व छोटी सी बात समझकर कभी किसी की भी शिक्षा की उपेक्षा न करने की ।

जस्टिस नहीं, माँ के बेटे

कलकत्ता के जस्टिस गुरुदास चट्टोपाध्याय का पालन-पोषण उनकी विधवा माता ने बड़ी कठिनाइयों के बीच किया था; पर उन्होंने इस बच्चे में प्रयत्नपूर्वक कर्मनिष्ठा भर दी । छात्रवृत्ति से ही वे पढ़ाई का खर्च चला लेते और अपनी योग्यता एवं सज्जनता के बल पर जस्टिस एवं वायसचांसलर बने । माता जी अपने धर्मकृत्यों की सुविधा के कारण पुराने घर में ही रहती थीं।

एक दिन उनकी माता कलकत्ता आई । जल स्नान करके भीगे कपड़ों से ही जस्टिस, के कोर्ट में सीधी चली आईं। पहचाना तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा । कचहरी छोड़कर वे उठे और माताजी को साष्टांग दंडवत किया, साथ ही उपस्थित लोगों को अपनी माता का परिचय कराते हुए कुहा-"वे आज जो कुछ है, इन्हीं माताजी के प्रयत्नों का प्रतिफल है ।"

कौशल्या और जनक का संतान शिक्षण

राजा दशरथ राज-काज में व्यस्त रहते थे। उन्हें घर आकर अपनी ही सुविधा का ध्यान रहता था । उनकी धर्मपत्नी कौशल्या ने परिवार को सँभाला और सभी बहिनों को आदर्शवादी तथा प्रतिभावान बनाया। उनकी सहेली सुमित्रा उन्हीं के समान गुणवती थीं । उनके पुत्र लक्ष्मण और शत्रुघ्न उन्हीं जैसे सुशील और आदर्शवादी निकले । यहाँ तक कि उनकी पुत्र वधुएँ भी अपने पतियों की कर्तव्यपरायणता में सदा सहायक रहीं। कैकेयी मंथरा के सिखावन में आकर कुछ समय स्वार्थपरता की अनुचित बातें सोचने लगी थी, पर पीछे वे भी कौशल्या के प्रभाव में आकर फिर पहले जैसी श्रेष्ठ हो गई। भरत और उनकी पत्नी पर भी परिवार निर्मात्री कौशल्या का ही प्रभाव था ।

राजा जनक की चार पुत्रियों थीं। सीता, उर्मिला, मांडवी और श्रुतिकीर्ति। पिता के सद्गुणों वाले वातावरण में पत्नी भी और अयोध्या में चारों दशरथ पुत्रों को विवाही गई। जनक के प्रभाव को माता कौशल्या के संरक्षण में और भी अधिक बल मिला और वे सभी आदर्श नारियाँ मानी गई।

चंद्रशेखर आजाद व बुढिया की कैद 

क्रांतिकारी दल उन दिनों डकैतियाँ डालकर पैसा इकट्ठा करता था। एक बार रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में पार्टी एक गाँव में डाका डालने गई । दल के लोगों को जहाँ जो मिला समेट लिया; पर चन्द्रशेखर आजाद का पाला बुढ़िया से पड़ा । उसने अपने जेवर व नकदी वाले बक्से पर बैठकर आसन जमा लिया।

क्रांतिकारी पार्टी का अनुशासन था कि न किसी महिला को हाथ लगाया जाय और न उनका जेवर लिया जाय । आजाद बुढ़िया को समझाने में लगे थे कि माताजी आप बक्से पर से हट जाइए। हम सिर्फ नकदी-लेंगे, आपके जेवर नहीं। डाकूको ऐसी नम्रता की बातें करते देखकर बुढ़िया की हिम्मत बढ़ी और उसने आजाद का हाथ कसकर पकड़ लिया । वे हाथ छुड़ाने के लिए धक्का-मुक्की भी नहीं कर सके ।

इतने में काम समाप्त होन की नेता ने सीटी बजाई । सब इकट्ठे हो गए; पर आजाद नहीं थे । उन्हें क्या हुआ?
देखने पार्टी के दूसरे लोग गए । देखा तो वे बुढ़िया की कैद में कसे पड़े हैं। कारण पूछा, तो सुनकर सब हँस पड़े । कैद से छुड़ाने जैसे ही दूसरे आगे आए, आजाद ने कहा-"माँ का पूरा धन लौटा दो, हाथ न लगाओ।" भावुक बुढ़िया ने हाथ छोड़ दिए । आजाद की माँ द्वारा कैद का जिक्र कई दिनों तक क्रांतिकारियों में होता रहा। इससे उन्होंने सीखा कि उन सबको भी नारी का सम्मान करना चाहिए।

नारी को सम्मान दो

महापुरुष सदैव नारी शक्ति को सम्मान देते आए हैं। यही उनकी महानता का कारण रहा है । ये संस्कार जो बीज रूप में जन्म से बोए जाते हैं, उन्हें उन ऊँचाइयों पर पहुँचाते हैं, जिससे वे इतिहास मे अमर हो जाते है।

नैपोलियन बोनापार्ट ने टुई लेरिस नामक अपने महल के स्नानागार की मरम्मत कराई । महल के अधिकारियों ने फ्रांस के अच्छे चित्रकारों द्वारा वहाँ सुंदर चित्र बनवाये। स्नानागार की सजावट पूरी हो जाने पर नेपोलियन खान करने गया। वह क्या देखता है कि स्नानागार की दीवारों पर नारियों के चित्र टँगे हैं। वह स्नान किए बिना ही लौट आया और महल के अधिकारियों को आज्ञा दी-"नारी का सम्मान करना सीखो । स्नानगार में नारियों के विलासपूर्ण चित्र बनवाकर नारी का अपमान मत करो। जिस देश में नारी को विलास का साधन माना जाता है, उस देश का विनाश हो जाता है ।"

झरने का दर्प-सहचर का परामर्श

"झरने को अपने वैभव पर गर्व था। वह सूखे रेगिस्तान को अपना दर्प दिखाने के लिए उसकी ओर एकाकी चल पड़ा।

कुछ ही दूर चलने पर झरना कीचड़ मात्र बनकर रह गया। आगे बढ़ने की उसकी गति ही रुक गई ।

सहचर दूसरे झरने ने उसे पुकारा-" वापस लौट और सरिता के साथ आत्मसात् हो । महान के साथ जुड़ कर ही कोई महानता के लक्ष्य तक पहुँचा है।"

झरने ने भूल अनुभव की । दर्प छोड़ा और नदी की गोद में बैठकर सागर की महानता का भलीदार बना ।"

मनुष्य को नारी पर हेकड़ी जमाने का जो दर्प छाया रहता है, उसकी ओर इंगित करते हुए यहाँ ऋषि कहते है, नर व नारी दोनों मिलकर ही महानता के श्रेयाधिकारी बनते हैं ।

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118