कौटुम्बिकाय नित्यं च सत्संगाय भवेदपि।
शुभ: कथाप्रसंगस्तु शुभसंस्कारदायक: ॥३८॥
कथा श्रोतुम् समाना वैरूचि: पुसां भवत्यलम् ।
बालानामथ वृद्धानां नारीणामथवा नृणाम्॥३९॥
व्यवस्थायाञ्ज जातायामस्यामत्र भवत्यलम् ।
मनोरञ्जनमस्त्येव कुटुम्बस्य प्रशिक्षणम् ॥४०॥
दृश्चिन्तनपरित्यागसद्विचारग्रहस्य च ।
शिक्षा प्रत्यक्षतो नैव लोके रूचिकरा नृणाम्॥४१॥
अत्रतेऽनुभवन्त्येव स्वापमानमिवाथ च ।
अहंत्वात् सत्परामर्शं श्रोतुं स्वस्मिंश्च तुच्छताम् ॥४२॥
अनुभवन्ति न सज्जन्ते तच्छ्रोतुं बोद्धमेव वा ।
लाभदाऽत: परोक्षेण शिक्षा साऽऽदर्शवादिनी॥४३॥
भावार्थ-पारिवारिक सत्संग के लिए घर में नित्य का शुभ संस्कारदायी कथा-प्रसंग चलना चाहिए ।
कथा कहने-सुनने में बाल-वृद्ध, नर-नारी सभी को समान रूप से अभिरुचि होती है । इसकी व्यवस्था चल पड़ने पर उपयोगी मनोरंजन भी होता है और प्रशिक्षण का सुयोग भी बनता है। दुश्चिंता न छोड़ने और सद्विचार अपनाने की प्रत्यक्ष शिक्षा लोगों को सामान्यतया रुचती नहीं । इसमें वे अपना अपमान अनुभव करते हैं । अहंकारवश वे सत्परामर्श सुनने में अपनी हेठी मानते है, उन्हें सुनने-समझने तक को तैयार नहीं होते। इसलिए आदर्शवादी शिक्षा को कथा-प्रसंगों के माध्यम से परोक्ष रूप से देने में ही लाभ है॥३८-४३॥
व्याख्या-सत्संग-ज्ञान गोष्ठी का सबसे अच्छा स्वरूप है-कथानकों-दृष्टांतों के माध्यम से सुसंरकारों का शिक्षण । इसके दो लाभ हैं। सुरुचिपूर्ण एवं सुग्राह्य होने के कारण वे नीरसता न पैदा कर स्वस्थ मनोरंजन भी करते हैं, साथ ही परोक्ष रूप से शुभ प्रेरणाएँ भी देते हैं । किसी को सुधारने के लिए सीधे कोई नैतिक शिक्षा न देकर, उसके अहं को चोट पहुँचाए बिना, उसी बात को कथा-प्रसंगों के माध्यम से कह दिया जाय। यह शैली शिष्टाचार की दृष्टि से भी उचित है एवं देव संस्कृति की परंपरा का एक अंग होने के कारण सबसे अनुकूल पड़ती है। सत्संग भी महापुरुषों का ही होना चाहिए अथवा उसकी पूर्ति सत्साहित्य के माध्यम से की जानी चाहिए, अन्यथा तथाकथित नाम वेशधारी बाबाओं, कुचालियों और वाक्-जंजाल में उलझाने वाले व्यक्तियों का सत्संग तो उलझन और भ्रम ही पैदा करते हैं। ज्ञानार्जन के लिए, सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन के लिए, कथाप्रसंगों का स्वाध्याय, श्रवण-मन सबके लिए सर्वसुलभ पड़ता है। ज्ञान प्राप्त करने के लिए वर्ग एवं आयु का कोई निर्धारण नहीं, वह सबके लिए समान है।
ज्ञान मार्ग सबके लिए एक सा
सिकंदरिया का राजा टालेमी, यूक्लिड से ज्यामिति सीख रहा था, किन्तु यह कठिन विद्या उनके पल्ले
ही नहीं पड़ रही थी । एक दिन टालेमी अपना धैर्य खो बैठा। उसने अपने गुरु से पूछा-"क्या ज्यामिति सीखने का कोई सरल मार्ग नहीं है?" यूक्लिड ने गंभीरता से कहा-"राजन् ! आपके राज्य में जनसाधारण और अभिजात्य वर्ग के लिए पृथक मार्ग हो सकते हैं, किन्तु ज्ञान का मार्ग सबके लिए एक-सा ही है । इसमें अभिजात्य वर्ग के लिए कोई राजमार्ग नहीं है।" बात टालेमी की समझ में आ गई । फिर इसके बाद टालेमी ज्यामिति सीखने के लिए कठोर परिश्रम करने लगा ।
प्रभु की प्रेरणा
कभी-कभी अनीति में प्रवृत्त होने वाले भी तर्क का आश्रय लेकर बचने का मार्ग निकालने का प्रयास करते है । किन्तु समझदार व्यक्ति उन तर्कों का सही जवाब परोक्ष प्रेरणा रूप में देते हुए, उन्हें सही मार्ग पर चलने हेतु प्रवृत्त कर देते है ।
एक न्यायाधीश था, वह बड़ा भक्त था। एक बार एक चोर उसके न्यायालय में लाया गया। पूछने पर, कहने लगा-"जज साहब, आप जैसे साधु वृत्ति के व्यक्ति के सामने उपस्थित हो मुझे बड़ा आनंद आ रहा है । मैंने चोरी कोई अपने वश होकर नहीं की । मुझे ऐसी प्रभु प्रेरणा ही हुई कि चोरी करूँ, अत: मैंने चोरी की । मेरे हाथों का दोष नहीं ।" चोर का तर्क सुन कचहरी वाले विस्मित से रह गए व सोचने लगे कि देखें, ऐसे में न्यायाधीश अब कैसा दृष्टिकोण अपनाते है । परंतु न्यायाधीश पके निकलें, उन्होंने फैसला सुनाया-"चोर का कथन पूर्णत: मान्य है । जिस भगवान ने उसे चोरी करने की प्रेरणा दी, उसी भगवान की प्रेरणा से मैं इस चोर को दंड देता हूँ ।"
सत् शिक्षाओं का मूल्य
एक मूर्ख मल्लह था। वह यात्रियों को बिठाकर पार ले जाता और उतर जाने पर किराया माँगता ।
इस पर आए दिन झंझट होता । कटु शब्द कहने पर उसकी पिटाई भी रोज होती । एक दिन एक
संत उसकी नाव में पार उतरे । रास्ते में उनने उसे दो शिक्षाएँ दीं । एक तो यह कि यात्रियों को चढ़ाने से पहले ही किराया वसूल कर लिया कर और बात-बात में आवेश में न आया कर । वार्ता करते रास्ता कट गया । संत से किराया माँगा, तो उनने कहा-" उनके पास तो कुछ भी नहीं है।" जो शिक्षाएँ दी हैं, वे कम मूल्यवान नहीं हैं । '' मल्लाह ने कहा-" मुझे शिक्षा नहीं पैसा चाहिए ।" झगड़ा बढ़ने लगा । इतने में नाविक की पत्नी भोजन लेकर आई और पति को समझाया कि यह राजगुरु है। इनेंसे झगड़ा ठीक नहीं । पत्नी की शिक्षा पर उसका क्रोध और भी दूना हो गया और थाली सहित भोजन पानी में फेंक दिया । समाचार राजा तक पहुँचा, उनने सेना भेजी और मल्लाह को जेल भिजवा दिया, उसकी नाव भी जप्त कर ली । संत ने उसे जाकर छुड़ाया और समझाया कि जो दो शिक्षाएँ उसे दी थीं, वे उसे आर्थिक लाभ भी देंगी और हानियों से भी बचाएँगी ।
मल्लाह की समझ में अब वे शिक्षाएँ आई और उसके अनुसार आचरण करके सुखी रहने लगा।
राजा का शंका-समाधान
एक विद्वान और जिज्ञासु राजा की सभा में हर समय विद्वानों का जमघट लगा रहता था। एक रात राजा अपने शयन-कक्ष में लेटा था । ठीक सामने दीपक जल रहा था । सहसी राजा के मन में प्रश्न उठा-"दीपक का प्रकाश कितना उज्ज्वल है । न तेल काला है और न बाती काली है । फिर भी यह काजल उगल रहा है, ऐसा क्यों होता है?" प्रात: होते ही उनने यह स्मस्या विद्वानों के समक्ष रखी। विद्वानों ने अपने-अपने विचार रखे, पर राजा संतुष्ट न हुआ। अंत में राजा ने राजसभा में बैठे एक वृद्ध महात्मा से पूछा-"गुरुवर! जग को प्रकाश देने वाले दीपक के पास सिर्फ कालिमा ही क्यों रह जाती है?" वृद्ध महात्मा बोले-"राजन्! पहले मेरे प्रश्न का उत्तर दें, दीपक क्यों जलाया जाता है?" "प्रकाश के लिए"-राजा ने कहा। "अर्थात अंधकार को नष्ट करने के लिए, इसका अर्थ यह हुआ कि दीपक अंधकार को खाता है । राजन्, जो जैसा खाएगा, वह वैसा ही उगलेगा। तभी तो राजन, यह कहा जाता है कि जैसा अन्न वैसा मन। जैसा पानी वैसी बानी ।" राजा इस समाधान से पूर्णतया संतुष्ट हो गए।
महामानवों की तुलना न कर
भगवान बुद्ध का प्रवचन सुनने के उपरांत श्रेष्ठिपुत्र ने अपनी भाव श्रद्धा व्यक्त करते हुए कहा- "आप जैसा ज्ञानी-तपस्वी न कोई है और न होगा ।" बुद्ध इस पर क्रुद्ध हुए और पूछा-"अब तक जो हुए हैं और भविष्य में जो होंगे, उनके बारे में तुमने सब कुछ जान लिया है क्या?" बात को कर आगे न बढ़ाते हुए उनने कहा-"आँखें खुली रखो । जो जैसा है, उसे उतना ही महत्व दो। उनकी अगलों या पिछलों से तुलना न करो। वास्तविकता को समझाने के लिए कथोपकथन की शैली को बदलना भी पड़ता है। यह अप्रीतिकर लगते हुए भी अनिवार्य है ।"
गोलिकाऽप्यञ्जसा कट्वी निगीर्या शर्करावृता।
भवत्येव कथास्वत्न मनोरञ्जनमप्यलम्॥४४॥
प्रशिक्षणं परोक्षेण भवत्यपि सुयोजितम् ।
अनुभवाच्छिक्षिंत लौकेर्व्यक्तित्वोन्कृष्टताविधे:॥४५॥
कृते नैवास्ति कोऽप्यत्र सरलो विधिरुत्तम:।
प्रभावयुक्तो वा नूनमृते योग्यकथाविधिम्॥४६॥
कारणं चेदमेवास्ति सूत-शौनकयोर्मुखात्।
अष्टादशपुराणानि ख्यातान्युपपुराणकै:॥४७॥
यथा ताश्च भवन्त्येवं जनांस्ता: प्रभवन्त्यपि।
अज्ञातायां दिशायां न वहन्त्यत्र बलादिव॥४८॥
भावार्थ-कडुवी गोली को चीनी में लपेट कर देने से, उसे आसानी से गले उतार लिया जाता है। कथाओं में रोचक मनोरंजन भी होता है और परोक्ष प्रशिक्षण भी इसलिए अनुभव ने यह सिखाया है कि व्यक्तित्व में उत्कृष्टता का समावेश करने के लिए उपयुक्त कथा-प्रसंगों से बढ़कर और कोई सरल एवं प्रभावी तरीका नहीं है। यही कारण है कि सूत-शौनक के मुख से अठारह पुराण और अठारह उपपुराण कहलाए गए। वे कथाएँ जैसी भी भली-बुरी होती है, दर्शकों पर वैसा प्रभाव भी निश्चित रूप से डालती हैं और व्यक्ति अज्ञात दिशा की ओर अनचाहे भी जबरदस्ती बहने लगता है॥४४-४८॥
व्याख्या-सुसंस्कारों का उपार्जन, अभिवर्धन एक समय-साध्य कष्टकर प्रक्रिया है । ढर्रे को तोड़कर सत्प्रवृत्तियाँ अपनाना कोई सरल काम नहीं । इसी कारण आर्ष साहित्य के माध्यम से ऋषिगणों ने कथा-प्रसंगों पर अत्यधिक जोर दिया । इससे जटिल आध्यात्मिक प्रतिपादन भी जन साधारण के गले उतरते चले गए । १८ पुराण, १८ उपपुराण, पंचतंत्र की कथाएँ, ईसप की कथाएँ इसके प्रत्यश उदाहरण हैं । पुरातन काल में ज्ञान संगम के रूप में विचार गोष्ठियाँ कथानकों के माध्यम से ही चलती थी। इनका प्रभाव परोक्ष रूप से सुनने अथवा पढ़ने वालों पर अवश्य पड़ता है, इसलिए विचार परिवर्तन हेतु कथानकों का आश्रय लिया ही जाना चाहिए।
सासनी का गुरुकुल
अलीगढ़ जिले के सासनी गाँव में लक्ष्मी देवी नामक एक बाल विधवा ने कन्या गुरुकुल की स्थापना की । गाँव से कुछ दूर जंगल में यह था। झाड़ियाँ काटकर जगह बनाई गई । संस्थापिका स्वयं देहातों में जाकर कन्याओं को पढ़ाने लगती । माध्यम रहता छोटी-छोटी दैनंदिन जीवन के प्रसंग व कथाएँ। यह माध्यम उन सभी को रुचिकर लगा। आरंभ बहुत छोटा और कठिनाइयों, अभावों से भरा था ।
निष्ठावान की निष्ठा ने उसे गतिशील और समुन्नत बना दिया था। आज सासनी कन्या गुरुकुल सराहनीय एवं प्रगतिशील संस्थाओं में है ।
लक्ष्मी देवी का समूचा जीवन इस संस्था के लिए खाद-पानी की तरह लगा, फलत: समुन्नत वटवृक्ष की स्थिति तक पहुँच सका ।
नेकी कर-बदले में पा
ग्रीक तत्वज्ञानी डायोवीनीज से किसी ने प्रश्न पूछा-"अपने शत्रु से बदला लेने, नीचा दिखाने उलट देने के लिए क्या करूँ?" उससे कहा कि उसकी बुराई की तुलना में अपनी भलाई बढ़ा दे, इससे तेरे तीनों उद्देश्य पूरे हो जाएँगे।
एक सप्ताह का समय व्यर्थ गया
एक व्यवसायी ने सुना कि राजा परीक्षित को एक सप्ताह भागवत सुनने से ज्ञान हो गया था। सो
उसने एक अच्छा कथावाचक तलाश करवाया। दोनों अपने-अपने लाभ के फेर में थे। कथावाचक सोचता था, धनी से प्रचुर दक्षिणा मिलेगी । व्यवसायी हिसाब लगाता रहता कि आत्मज्ञान हाथ लगा या नहीं। एक सप्ताह बीता, धनी ने कहा-"आपने ठीक कथा नहीं सुनाई,
दक्षिणा नहीं दूँगा ।" पंडित ने कहा-"तुम्हारा ध्यान दुकान में पड़ा रहा, ज्ञान कहाँ से होता?" पंडित का मन दक्षिणा में पडा रहा। सो दोनों एक दूसरे को दोष लगाते हुए झगड़ने लगे। एक विचारवान व्यक्ति उधर से निकले । उन्हें फैसले के लिए बुलाया गया। उनने दोनों के हाथ-पैर बाँध दिए और कहा-"अब एक दूसरे के बंधन खोलें ।" असमर्थ होने के कारण दोनों में से किसी से भी वह न बन पड़ा । निर्णयकर्त्ता ने कहा-"पूरा मन न लगा पाने के लिए दोनों का ही एक-एक सप्ताह का समय व्यर्थ गया । अपने-अपने घर इतना घाटा उठाकर चले जाओ।" एकात्मता के बिना आध्यात्मिक उद्देश्यों की पूर्ति नहीं हो सकती ।
बहम का उपचार
मस्तिष्क पर छाई सनक को मिटाने के लिए भी उदाहरणों की शैली अपनानी पड़ती है। एक आदमी जिद्दी स्वभाव का था। संयोगवश वह पागल भी हो गया। सनक चढ़ी कि वह मर गया है और भूत बन कर घूम रहा है । बहम मिटाने के लिए अनेक ने अनेक उपचार किए, पर कोई सफल न हुआ ।
एक प्रख्यात मनोरोग चिकित्सक के पास उसे ले जाया गया। उसने एक उपाय किया । उसे बहुत समय तक एक बात समझाई कि भूत के शरीर में खून नहीं होता और चोट लगने पर भी कुछ नहीं निकलता । रोगी की समझ में बात आ गई, तब एक बड़ा-सा दर्पण उसके सामने रखा गया और हाथ में तनिक-सी खरोंच लगाकर, खून निकालकर दर्पण में दिखा दिया गया। पूछा-" जब तुम्हारी देह में खून निकलता है, तो फिर भूत कैसे हुए? पगले को समझ में आ गया कि वह मरा नहीं है। उसने नए सिरे से सोचना व जीना आरंभ कर दिया ।"
नीति शिक्षण
कई बार प्रसंगों के अनुरूप कथाओं को चुना जाता है। अनीति-अन्याय, प्रतिकूलताएँ, क्रोध-आवेश जैसी प्रवृत्तियों की प्रतिक्रिया समझाने के लिए उदाहरणों का ही प्रश्रय लिया जाता है। शिक्षक, उपदेशक, संत इस माध्यम से ही नीति-शिक्षा देते हैं। एक नीति कथा है-एक शेर ने कुछ सियारों के सहयोग से बारहसिंगा मारा। मांस के बटवारे का निपटारा सिंह को ही करना था । उसने शिकार के टुकड़े किए।
कहा-"एक टुकड़ा राजवंश का कर । दूसरा टुकड़ा अधिक पुरुषार्थ करने से मेरा। तीसरा स्वयंवर जैसा है, उसे पाने के लिए जो प्रतिद्वंद्विता में आना चाहे, सो संघर्ष के लिए तैयार हो। सियार चुपचाप खिसक गया। सिंह ने पूरा बारहसिंगा खा डाला ।" शिक्षा यही है कि धूर्त के साथ सहयोग भी हितकारी नहीं होता। जहाँ तक हो, उससे बचना ही चाहिए ।
घमंडी अजगर
एक अजगर को अपने आकार और पराक्रम पर बडा अभिमान था। वह यह भी सोचता था कि जिसे भी अपनी पकड़ में जकड़ लेगा, उसका कचूमर निकालकर ही छोड़ेगा। मंदिर की चौखट पर जडे़ हुए संगमरमर का शेर उसने देखा, तो गुस्से में आग-बबूला हो गया । मुझे देखकर बड़े-बड़े जानवर डर कर भागते हैं, एक तू है, जो जहाँ का तहाँ बैठा अकड़ रहा है। सिंह कुछ बोल नहीं सकता था, सो बोला भी नहीं।
अजगर उससे लिपट गया और निगलने लगा। प्रयास निष्फल गया । जितना-जितना वह कुद्ध होता और आक्रमण करता, उतनी ही चोट उसे लगती और लहूलुहान होता जाता। अंत में उसे अपनी मूर्खता समझ में आई और लहूलुहान शरीर लेकर बिल में वापस लौट गया । आवेशग्रस्त की ऐसी ही दुर्गति होती है ।
मौत को भुला दो, डरो मत
जीवन और मृत्यु के संबंध में प्रतिपादन करते हुए, स्वामी रामतीर्थ ने एक मार्मिक कथा लिखी-जिंदगी उगते सूर्य की दिशा में अपने ढंग से बढ़ी चली जा रही थी । एक विराम पर उसने पीछे मुड़कर देखा, तो चौंक पड़ी। चांडालिनी सी काली और कुरूप छाया पीछे-पीछे दबे पाँवों चली आ रही थी । जिंदगी चिल्लाई । अभागिन, तू कौन है? मेरे पीछे क्यों आती है? तेरी काली कुरूप काया को देखकर मुझे तो भारी डर लगता है, जा भाग, मुझसे दूर हट। छाया छुप रही । पर जिंदगी जब डरती, घिघियाती ही चली गई, तो छाया ने अपना मुँह खोला और बोली बहिन! मै तेरी सहचरी हूँ, तेरे साथ ही चल रही हूँ और अंत में हमें और तुम्हें एक ही होकर रहना है । मुझसे डरने की क्या बात? जानती नहीं, मेरा नाम क्या है? अच्छा तो सुना-मुझे मौत कहते हैं । जिंदगी ने मौत को छाया बनकर पीछे लगे देखा, तो उसके डर का ठिकाना न रहा । सकपकाती, काँपती हुई वह मूर्छित होकर एक ओर गिर पड़ी । जिंदगी के सीने में दबा, उसका अंत करण उसे आश्वस्त करने का प्रयत्न करते हुए बोला-"दीदी! अपनी ही छाया से भला कोई डरता है? चोर को ही अपनी छाया से डर लगता है, तुम कोई चोर थोड़े ही हो, जिसे इस तरह डरने की आवश्यकता रहे?" तब से जिंदगी और मौत दोनों का क्रम तो यथावत् चलता आ रहा है, पर वह मौत को भुलाकर अपना काम करती रहती है, डरती नहीं।