प्रज्ञा पुराण भाग-3

॥ अथ प्रथमोऽध्याय:॥ परिवार-व्यवस्था प्रकरणम्-3

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चर्चामिमा महर्षि: स धौम्योऽग्रे वर्धयत्युन:।
उवाच भद्रा: शृणुत परिवारस्तु वर्तते॥३६॥
दिव्या प्रयोगशालेव सद्गुणोन्मेषकारिणी।
तस्य सञ्चालनं सम्यड् निर्धारणमथाऽप च॥३७॥
यदि स्यान्निञ्चितं तत्र सुयोग्या: शिक्षितास्तथा।
नागरा: संभावेष्यन्ति महापुरुषसंज्ञका:॥३८॥
गुणं कर्म स्वभावं च कर्तुमुच्चस्तरं तथा।
व्यक्तित्व प्रखरं कर्तुं पाठशालेव च स्मृत:॥३९॥
अस्ति व्यायामशालेव परिवारस्तु निश्चितम् ।
जीवनस्योपयुक्तानि वैशिष्टयानि समभ्यसन्॥४०॥ 
समर्थो जायते यत्र नर: सर्वत एव च ।
आत्मन: परिवारस्य हितं राष्ट्रस्य सिद्धयति॥४१॥ 

भावार्थ- ऋषि प्रवर धौम्य अपनी चर्चा आगे बढ़ाते हुए पुन: बोले-हे भद्रजनो! परिवार तो सद्गुणों को विकसित करने की एक प्रयोगशाला है । उसका सही निर्धारण एवं सुसंचालन किया जा सके, तो निश्चय ही उस परिकर में से सुयोग्य-शिक्षित नागरिक एवं महामानव निकलेगे । गुण-कर्म-स्वभाव को उच्चस्तरीय बनाने एवं व्यक्तित्व को गौरवशाली बनाने का पाठ इसी पाठशाला में पढ़ा जाता है। यही वह व्यायामशाला है,जिसमें जीवन पर काम आने वाली विशिष्टताओं का अभ्यास करते हुए हर दृष्टि से समर्थ बना जा सकता है, जिससे अपने परिवार का, राष्ट्र का हित सिद्ध होता है ॥३६-४१॥

व्याख्या-परिवार को यहाँ एक प्रयोगशाला, पाठशाला एवं व्यायामशाला की उपमा देते हुए एक ऐसी टकसाल बताया गया है, जहाँ समर्थ राष्ट्र के लिए अभीष्ट महामानवों की ढलाई होती है ।

मुनुष्य का सारा जीवन भाँति-भाँति की परीक्षाओं से निपटते हुए कठता है। परिवार रूपी प्रयोगशाला में गुण, कर्म, स्वभाव की अच्छी-खासी परीक्षा हो जाती है। जहाँ पारिवारिक वातावरण श्रेष्ठ कोटि का होगा, वहाँ के प्रयोग निष्कर्ष भी अनुपम होंगे । महामानवों के जीवन ऐसे ही प्रयोगों की कड़ी कसौटी पर खरे उतरकर श्रेष्ठ बन सकने में समर्थ हुए हैं।

पाठशाला सुसंस्कारिता संवर्द्धन के साथ-साथ व्यक्ति के कर्तृत्व को लक्ष्य के साथ जोड़ देने हेतु विनिर्मित एक परिकर है । मात्र स्कूली पढ़ाई पर्याप्त नहीं । जब तक जीवन के विभिन्न पहलुओं का व्यावहारिक अध्ययन-अध्यापन यहाँ नहीं होगा, यह पठन-पाठन व्यर्थ है । व्यक्तित्व को श्रेष्ठ बनाने का काम पारिवारिक पाठशाला करती है ।

व्यायामशाला में शरीर को बलिष्ठ बनाने, अपनी सामर्थ्य को विकसित करने का प्रयास किया जाता है । भाँति-भाँति के संयम-अनुशासन पालने पड़ते हैं। व्यक्ति जब तक पूरी वर्जिश नहीं कर लेता, उसका एक बार किया हुआ व्यायाम पर्याप्त नहीं माना जाता । जागरूकता, कर्मठता के विकास हेतु जरूरी है कि परिवार को एक व्यायामशाला मानते हुए अपने विकारों पर नियंत्रण की एवं समर्थता-विशिष्टता बढ़ाने की साधना भली प्रकार की जाय, ताकि परिवार की, समाज की, राष्ट्र की सर्वांगपूर्ण इकाई के रूप में मनुष्य विकसित हो सके ।

अधिसंख्य महापुरुषों का जीवन् इस तथ्य का साक्षी है कि उन्होंने पारिवारिक वातावरण में ही महानता का पाठ सीखा ।

ईश्वरचंद्र विद्यासागर की नम्रता, सादगी एवं परदु:खकातरता को कौन वहीं जानता? यह शिक्षण उन्होंने पारिवार में ही पाया एवं स्वयं पर कम से कम खर्च कर जरूरतमंदों की अधिकतम सहायता की ।
अपनी माँ से यह गुण उन्होंने सीखा था ।

श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर विश्व कवि ने सामान्य स्कूली पढ़ाई ही स्कूल में प्राप्त की । कॉलेजों में प्रवेश ही नहीं लिया । उनका भाषा-ज्ञान, साधनात्मक अभिरुचि, काव्य प्रतिभा सब उनके पिता जी तथा भाइयों की देख-रेख में, उनके सान्निध्य-संरक्षण में ही विकसित हुई थी ।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के पिताजी के घर में साहित्यिक गोष्ठियाँ, चर्चाएँ हुआ करती थीं। सारा परिवार साहित्य-प्रेमी था । उसी पाठशाला में भारतेन्दु बचपन से ही काव्य सृजन करने लगे और संपन्न होते हुए भी
निस्पृह जीवन जीने की साधना करते रहे।

बिनोवा जी कहा करते थे उनकी माँ जिस भावना से अपने-पराये का भेद किए बिना सबसे नेक व्यवहार करती थीं । उपासना में जिस प्रकार तन्मय हुआ करती थीं, पिताजी जिस तरह विवेकपूर्ण परामर्श दिया करते थे, इसी सबके प्रभाव से वे तीनों भाई आदर्श लोकसेवी बन सके ।

समझ की परीक्षा

एक किसान के चार बेटे थे । उनकी बुद्धिमत्ता जाँचने के लिए बेटों को बुलाकर किसान ने एक-एक मुट्ठी धान दिए और कहा-इनका जो मर्जी हो सो करो ।

एक ने उसे छोटी वस्तु समझा और चिड़ियों को फेंक दिया । दूसरा उन्हें उबालकर खा गया । तीसरे ने सँभालकर डिब्बेमें रख दिया, ताकि कभी पिताजी मागेंगे तो दिखा सकूँ । चौथे ने उन्हें खेत में बो दिया और टोकरा भर धान पिता के सामने लाकर रख दिया ।

पिता ने बोने वाले को अधिक समझदार पाया और बड़ी जिम्मेदारियों के काम उसी को सुपुर्द किए । कहा-"परिवार में ऐसे ही गुण विकसित करने पड़ते हैं । ऐसी जिम्मेदारी निभा सकने वालों को ही परिवार का भार सौंपा जा सकता है । भगवान भी ऐसा ही करता है ।"

शारदा माँ ने सीख दी

विवेकानंद विदेश जा रहे थे । वे माता शारदामणि के पास आशीर्वाद लेने पहुँचे।

माता ने कहा-"पहले मेरा काम कर । बाद में आशीर्वाद दूँगी ।" सामने खुली तलवार पड़ी थी इशारा करते हुए कहा-"उसे उठा कर ला ।"


विवेकानंद ने माता के हाथ में मूँठ थमा दी और धार वाली नोंक उसने अपने हाथ में रखी । माता ने आशीर्वाद देते हुए कहा-" जो दूसरों की कठिनाई को समझता है और मुसीबत अपने हिस्से में लेता है, उसी पर भगवान का अशीर्वाद बरसता है । तुम्हें भगवान का अनुग्रह-सदा मिलता रहेगा ।"

विवेकानंद जी कहते थे महानता के ढेरों गुण मुझे परमहंस जी के पारिवारिक वातावरण में सीखने-विकसित करने का लाभ मिला । अन्यथा वे दुर्लभ ही रहते ।

मूलधन से क्या किया? 

एक बूढा तीर्थयात्रा पर तीन वर्ष के लिए निकला। चारों बेटों को बुलाकर अपनी जमा पूँजी उनके हाथों सौंप दी । कहा-" लौटने पर ले लूँगा। न लौटूँ तो तुम्हारी।"चारों को सौ-सौ रुपये सौंपे गए।

एक ने उन्हें सुरक्षित रख लिया । दूसरे से उसे ब्याज पर उठा दिया । तीसरे ने रुपयों को शौक-मौज में उड़ाया । चौथे ने उनसे व्यवसाय करना आरंभ कर दिया ।

तीन साल बाद बूढ़ा लौटा और धरोहर वापस माँगी । एक ने ज्यों की त्यों लौटा दी। दूसरे ने थोड़ी ब्याज भी सम्मिलित कर दी । तीसरे ने खर्च कर देने की कथा सुनाई और मजबूरी बताई । चौथे ने व्यवसाय किया मूलधन चौगुना करके लौटाया ।

बाप ने चौथे की सबसे अधिक प्रशंसा की और उसे अपना उत्तराधिकारी बनाया । इसके बाद उसकी बुद्धिमानी सराही गई जिसने कम से कम ब्याज तो कमाया ।

वृद्ध ने सबको समझाते हुए कहा-"रुपये को ब्याज पर चलाने या व्यवसाय में लगाने से वह बढ़ सकता है, यह सबको पता है । परंतु उसके लिए प्रयास-पुरुषार्थ वही कर सकता है, जो अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर पारिवारिक उत्तरदायित्वों का पालन सीखता है । परिवार में रहकर भी यह भाव विकसित न कर सकने से बुद्धि के उपयोग की उमंग भी नहीं उभरती। तुम्हारी यही परीक्षा लेने के लिए मेरी तीर्थयात्रा नियोजित थी ।"

गांधी जी व उनकी माता

गांजी जी छोटे थे । बड़े भाई ने उन्हें मार दिया । वे रोते हुए माँ के पास शिकायत करने गए । माँ ने कहा-"तू भी उसे मार।"

गाँधी जी माँ पर बिगड़े और कहा-"जो गलती करता है, उसे तो रोकती नहीं । उल्टे मुझे भी वही गलती करना सिखाती है।" 

माँ ने कहा-"बेटा! मैं तो तेरी परीक्षा ले रही थी । यदि परिवार के सदस्यों के प्रति मेरी भावना का इसी तरह विकास होता रहा, तो आगे चलकर तेरे मन में समग्र विश्व समुदाय के प्रति यही भावना पनपेगी । यह शिक्षण इसी पाठशाला में तो मिल सकता है ।

गाँधी जी इसी कारण महान बने एवं विश्व-वंद्य बापू कहलाए ।

शास्त्री जी का परिवार शिक्षण

सन् १९४९ की बात है । उन दिनों स्वर्गीय लालबहादुर शास्त्री उत्तरप्रदेश सरकार के गृहमंत्री थे । एक दिन लोक निर्माण विभाग के कुछ कर्मचारी उनके निवास स्थान पर कूलर लगाने आये । बच्चो को बडी प्रसन्नता हुई कि अब की बार गर्मियों अच्छी तरह गुजर जायेंगी ।

जब शाम को शास्त्री जी शाम घर आये, तो उन्हें पता चला कि कूलर लगाया जा रहा है, उन्होंने तुरंत विभागीय कर्मचारियों को टेलीफोन पर मना कर दिया । पत्नी ने कहा-"जो सुविधा बिना मागें मिल रही है, उसके लिए मना करने की क्या आवश्यकता है?

"यह आवश्यक नहीं कि मैं मंत्री पद पर सदा बना रहूँगा, फिर इससे आदत बिगड जायेगी । कल लड़कियों की शादी करनी है, मानलो विवाहोपरांत इस तरह की सुविधाएँ न मिलीं, तो उन्हें कष्ट ही होगा । जाने किस स्थिति में उन्हें रहना पड़े"-शास्त्री जी ने कहा ।

शास्त्री जी ने सारी शिक्षा अपनी माँ से ग्रहण की थी एवं वही पोषण अपने परिवार में भी दिया, ताकि बच्चे सद्गुणी बन सकें, पिता के पद का लाभ उठाकर सुविधाओं के अभ्यस्त न हो जाएँ । हर परिस्थिति में अपने को ढाल सकें ।

यही कारण था कि वे स्वयं राष्ट्र के सर्वोच्च पद पर पहुँच सकने में सफल हुए एवं अपने बच्चों को भी संस्कार दे सके ।

दूरदर्शित्वभावस्य तथैव सुव्यवस्थिते: ।
श्रेष्ठोऽभ्यासो गृहे कर्तुं शक्यो मर्त्येन चाञ्जसा॥४२॥
न तथा शक्यते प्राप्तुमन्यत्राऽनुभवो न च।
प्रशिक्षणं लभेताऽपि व्यवहारानुकूलगम्॥४३॥
आदिकालात् समाश्रित्याऽऽधारं तं पारिवारिकम् ।
चलतीह तु विश्वस्य व्यवस्था स्वर्गसौख्यदा । ॥४४॥
दिनेषु तेषु चाऽभूत् सा वातावृतिरत: शूभाः। 
सत्यस्यात्र युगस्येव मर्त्यकल्याणकारिका॥४५॥
परम्पराऽवहेलैव कारणं प्रमुखं तु तत् ।
नरो येन महान् स्वार्थी क्षुद्रो जातो निरन्तरम् ॥४६॥
समस्याभिरनेकाभिस्तथाऽन्ते च विपत्तिभि: ।
वृत: परं भविष्यत्तु वर्तते प्रोज्ज्वलं ध्रुवम् ॥४७॥ 

भावार्थ-सुव्यवस्था और दूरदर्शिता का जितनी अच्छी तरह अभ्यास घर-परिवार के बीच किया जा सकता है, उतना व्यावहारिक प्रशिक्षण एवं अनुभव अर्जित कर सकना अन्यत्र कहीं भी संभव नहीं हो सकता । स्वर्ग के समान सुखदायी विश्व-व्यवस्था आदिकाल से पारिवारिकता के आधार पर चलती रही है । सतयुगी वातावरण उन दिनों इसी कारण बना भी रहा, जो मनुष्य मात्र के कल्याण का कारण था । उस महान् परंपरा की अवहेलना ही मुख्य कारण है जिससें मनुष्य स्वार्थी व क्षुद्र बनता चला गया और अंत में अनेकानेक समस्याओं एवं विपत्तियों से घिर गया, लेकिन उसका भविष्य निश्चित ही उज्ज्वल है ॥४२ ४७॥

व्याख्या-परिवार एक पूरा समाज, एक पूरा राष्ट्र है । भले ही उसका आकार छोटा हो, पर समस्याएँ वे सभी मौजूद हैं जो किसी राष्ट्र या समाज के सामने प्रस्तुत रहती हैं। प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति को जो बात अपने देश को समुन्नत बनाने के लिए सोचनी-करनी चाहिए, वही सब कुछ व्यवस्था एवं दूरदर्शिता किसी सद्गृहस्थ को परिवार निर्माण के लिए अपनानी पड़ती है । परिवार को एक सहयोग-समिति, एक गुरुकुल के रूप में विकरित करना पड़ता है, जिससे परिवार का वातावरण अच्छा बने, परिजनों को सुसंस्कृत स्तर तक पहुँचाया जा सके ।

भारत में या विश्व में कहीं भी जब कभी भी आदर्श सामाजिक व्यवरथा स्वर्गीय परिस्थितियाँ बनी हैं, उसका आधार पारिवारिकता की भावना ही रही है । उस भावना के उदय से परिरिथतियाँ सुधरी और
उसके विलय से बिगडी । देश-विदेश के अगणित उदाहरण इसके साक्षी हैं ।

गुरुकुलों की पारिवारिकता 

बृहत्तर भारत में बच्चों का शिक्षण गुरुकुलों में किया जाता था, वहाँ गरीब, अमीर, विद्वान मजदूर के बच्चों का भेद किए बिना उन्हें एक ही परिवार के रूप में रहने का अभ्यास कराया जाता था । उस अभ्यास का प्रभाव उनके जीवन में बना रहता था और वे जहाँ रहते थे जो भी कार्य सँभालते थे, अपने संपर्क वालों के बीच परिवार भाव पैदा किए रहते थे। इसी कारण समाज-देव समाज बना रहा । राम, कृष्ण भरत, लवकुश सब इसी प्रकार विकसित हुए।

प्राचीनकाल में छोटों के लिए गुरुकुल और बड़ों के लिए आरण्यक बनाये और ऋषि-ऋषिकाओं द्वारा चलाये जाते थे । गाँधी, बुद्ध, टैगोर आदि आश्रम बनाकर रहे थे । यह विशुद्ध रूप से पारिवारिकता का प्रयोग है । संतों की जमातें, सैनिकों की छाबनियाँ वस्तुत: पारिवारिकता की प्रयोगशालाएँ हैं, जो सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन और कुरीतियों का उन्मूलन करने तथा सामाजिक एवं राष्ट्रीय व्यवस्था को बनाए रखने का कार्य करते हैं। 

राम राज्य: एक आदर्श वृहत् परिवार

राम राज्य श्रेष्ठ सामाजिक व्यवस्था का एक आदर्श माना जाता है । उसका आधार भी यही पारिवारिक भाव था । श्रीराम-लक्ष्मण वन को गए, तो भाई भरत उनके ट्रस्टी रूप में नंदि ग्राम में रहे । सारी अयोध्या इसे परिवार की ही घटना मानती रही तथा नागरिक गण अपनी जप, तप, साधना में उसी मनोयोग से लगे रहे, जिस भाव से भरत जी लगे थे । उस पृष्ठभूमि पर ही रामराज्य का भवन खडा किया गया था ।

श्रीराम वन में भीलों, वानर-भालुओं के साथ रहे । उन्होंने उन सबके साथ परिवार का ही भाव बनाए रखा। सीताजी को जब लंका से मुक्त करके लाया गया, तो विभीषण उन्हें राजकीय ढंग से डोली में पर्दे में ला रहे थे। तब भगवान श्रीराम ने कहा-"यह सब बालक अपनी माँ के दर्शन करने को आतुर हैं । सीताजी को पैदल इनके बीच से लाया जाय, ताकि इनके स्नेहभाव का पोषण हो सके ।"

जब श्रीराम अयोध्या लौटे तो साथ आए वानरों का परिचय उन्होंने अपने परिजनों के ही ढंग से दिया । उन्हें 'भरतहुँ ते मोहि अधिक पियारे' कहकर पारिवारिकता का बोध सबको कराया ।

राज्य सिंहासन पर बैठते ही उन्होंने मंत्रियों, ऋषियों, विचारकों तथा नागरिकों के बीच पहली घोषणा पारिवारिक स्तर पर ही की । उन्हें पारिवारिक अधिकार देते हुए कहा-

'जो कछु अनुचित भाखहुँ भाई । तौ बरजेहु मोहि भय बिसराई ॥

ऐसे स्नेहसिक्त पारिवारिक भाव ने ही समाज व्यवस्था को उस्के स्तर तक पहुँचा दिया था कि आज तक विश्व भर में राम-राज्य श्रेष्ठतम व्यवस्था का पर्याय बना हुआ है । विश्व में और भी जहाँ आदर्श स्थापित हुए हैं, वहाँ पारिवारिक भावना ही मूल में कार्य करती रही है ।

खलीफा उमर की संवेदना

खलीफा उमर अपने गुलाम के साथ एक देहात में जा रहे थे कि एक बुढ़िया को जोर-जोर से रोते देखा।
खलीफा ने बुढ़िया से रोने का कारण पूछा। उसने बताया-"मेरा जवान बेटा लड़ाई में मारा गया । मैं भूखी मरती हूँ । पर खलीफा को मेरा दु:ख-दर्द तक मालूम नहीं ।"

खलीफा गुलाम को लेकर वापस लौट गए और एक बोरी गेहूँ पीठ पर लादकर बुढ़िया के यहाँ चलने लगे। रास्ते में गुलाम ने कहा-"आप बोझ मत उठाइए। बोरी मैं ले चलूँगा ।" खलीफा ने कहा-"मेरे पापों का बोझ तो खुदा के घर मुझे ही ले चलना पड़ेगा । वहाँ तू थोड़े ही मेरे साथ जाएगा।"

बोरी बुढ़िया के घर पहुँचाने पर बुढ़िया ने उसका नाम पूछा तो बताया-"मेरा ही नाम खलीफा उमर है ।" बुढ़िया ने कहा-" अपनी प्रजा के दु:ख-दर्दों को अपने निजी परिवार के दु:ख-दर्द मानकर चलने की यह भावना तुझे खलीफाओं का आदर्श बना देगी । लाखों दुआएं तेरे लिए उठेंगी, तू अमर हो जाएगा ।"

हैरियट स्टो की पारिवारिक संवेदना 

अमर लेखिका हैरियट एलिजावेथ स्टो ने अपनी विश्व विख्यात पुस्तक 'टाम काका की कुटिया' किन जटिल परिस्थितियों के बीच रहते हुए लिखी यह बहुत कम लोग जानते है । आम जानकारी तो इतनी ही है कि इस क्रांतिकारी ग्रंथ ने अमेरिका से दासत्व की प्रथा उठा देने में अनुपम भूमिका का निर्वाह किया ।

उन्होंने अपनी भाभी के पत्र का उत्तर देते हुए लिखा था-"चूल्हा, चौका, कपड़े धोना, सिलाई, जूते गाँठना आदि की व्यवस्था बनी ही रहती है । बच्चों के लिए तैयारी, दिन भर सिपाही की तरह ड्यूटी देनी पड़ती है । छोटा बच्चा मेरे पास ही सोता है, वह जब तक सो नहीं जाता कुछ भी लिख नहीं सकती । गरीबी और काम का दबाव बहुत है, फिर भी पुस्तक लिखने का समय निकालती हूँ । क्योंकि मुझे लगता है कि गुलाम प्रथा में सताये जाने वाले व्यक्ति भी अपने ही परिवार के अंग है । इस परिवार के लिए १०-१२ घंटे लगाती हूँ, तो उस परिवार के लिए भी १-२ घंटे तो निकालने ही चाहिए ।

हैरियट स्टो की यह पारिवारिक संवेदना ही उपन्यास के पृष्ठों पर छा गयी । जिसने पढ़ा उसने भी अपने आपको एक बड़े परिवार का अंग अनुभव किया और इसी जागृत परिवार भाव ने समाज से उस कलंक को धो ही डाला ।

सच्ची पारिवारिकता

तीन दिन से पत्नी और बच्चों को भोजन न मिला था । गृह-स्वामी प्रयत्न करने पर भी एक समय का भोजन न जुटा सका । अंतत: वह निराश हो गया, उसे अपना जीवन बेकार लगने लगा । वह अपने घर से चला आया और आत्महत्या करने की तैयारी पर विचार करने लगा । कुछ क्षण बाद वह व्यक्ति संसार से विदा होने को था। पीछे से किसी ने कंधे पर हाथ रखते हुए कहा-"मित्र । इस मूल्यवान जीवन को खोकर तुम्हें क्या मिलेगा? निराश होने से तो कोई लाभ नहीं । मैं मानता हूँ कि तुम्हारे जीवन में आई हुई विपत्तियाँ ऐसा करने के लिए विवश कर रही है, पर क्या तुम इन विपत्तियों को हँसते-हँसते पीछे नहीं ढकेल सकते?"

आत्मीयता से परिपूर्ण शब्दों को सुनकर वह युवक रो पड़ा । सिसकियाँ भरकर अपनी मजबूरी की सात कहानी सुना दी । अब तो सुनने वाले व्यक्ति की आँखों में भी आँसू थे । यह सहृदय व्यक्ति जापान का
प्रसिद्ध कवि शिनीची ईंगुची था । 

उस युवक की परेशानियों ने भावुक कवि शिनीची को प्रभावित किया । उसने वहीं यह संकल्प किया कि मैं अपनी कमाई का अधिक से अधिक भाग उन व्यक्तियों की सेवाओं में लगाया करूँगा, जो अभावग्रस्त हैं । उस समय कवि शिनीची ने युवक के परिवार की भोजन व्यवस्था हेतु कुछ धनराशि दे दी, पर घर लौटकर उसने गुप्त दान पेटी बनाई और मुख्य चौराहे पर लगवा दी ।

उस पेटी के ऊपर लिखा गया-'जिन सजनों को सचमुच धन की आवश्यकता हो, वह इस पेटी से निकाल कर अपना काम चला सकते हैं । यह धन यदि कतिपय अभावग्रस्त व्यक्तियों की सहायता में लग सका, तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी । धन्यवाद!' उस पेटी पर नाम किसी व्यक्ति का न था । क्योंकि शिनीची की कर्म और सेवा में आस्था थी । वह लोकेषणा से बहुत दूर थे । विश्व बंधुत्व जिनका लक्ष्य हो, वे कभी नाम कमाने की इच्छा नहीं रखते। परदु:खकातरता का यह गुण ही उन्हें महामानव का पद दिलाता है ।

लक्ष्मी जी का पलायन और अनुग्रह

एक सैठ का पूर्व पुण्य समाप्त हो गया। नया उसने अर्जित नहीं किया । लक्ष्मी जी पुण्य के फल से आती हैं और उसके समाप्त होने पर चली जाती हैं । सो उनने अपने चले जाने की बात स्वप्न में बता दी । सेठ के अनुनय-विजय करने पर भी वे रुकीं नहीं । हाँ, इतना भर कह दिया कि मुझे रोको तो मत, पर कोई और वर माँग लो । सेठजी ने माँगा-मेरा परिवार सहयोगपूर्वक रहे, पराक्रमी और संयमी बना रहे, इतना और देती जाइये । लक्ष्मी जी ने प्रसन्नतापूर्वक वर दे दिया । वे लोग गरीबी मे भी अधिक सद्भाव और अधिक परिश्रम अपनाकर रहने लगे ।

कुछ समय बाद लक्ष्मी जी फिर लौट आईं। सेठ ने कारण पूछा तो उनने कहा-"पारस्परिक सद्भाव और
पराक्रम, पुरुषार्थ भी पुण्य में ही गिना जाता है । वह जहाँ रहेगा, वहाँ मुझे विवश होकर आना पड़ेगा । लक्ष्मी जी को पाकर वह परिवार बहुत प्रसन्न हुआ और वे फिर जाने न पावें-ऐसा आचरण प्रयत्नपूर्वक बनाकर रखने लगा ।

यह तथ्य हर परिवार पर लागू होता है। जहाँ भी आत्मीयता के संबंध प्रगाढ़ होंगे, सुव्यवस्था एवं विवेकशीलता संव्याप्त होगी, वहाँ अभाव कभी रह नहीं सकता। 
सतयुगी समाज इसी कारण समृद्ध संपन्न था ।

प्रस्तोतव्य: स आदर्श: पुरुषैरग्रजै: सदा ।
अनुकुर्वन्तु तं सर्वे तथैवाऽन्येनुयायिन:॥४८॥
कुतोऽप्येता: समायान्ति दुष्प्रवृत्तय उद्धता:।
परं प्रभावितान् कर्तुं सदस्यान् परिवारगान्॥४९॥
सत्प्रवृत्तिभिराश्चेदिष्टं तत्पुरुषैर्वरै:।
सदाचारैर्निजरेवादर्शा: स्थाप्या: स्वयं शुभा:॥५०॥
शिक्षा वास्तविकी चैवं दीयते नोपदेशज:।
प्रभाव: प्रभवत्यत्र यथाऽऽचारसमुद्भव:॥५१॥

भावर्थ- परिवार के बडे़ लोग छोटों के सामने अपना रखे, ताकि वे उनका अनुकरण कर सकें, दुष्प्रवृत्तियाँ तो कहीं से भी दौड़ती हैं । पर सत्प्रवृत्तियों से पारिवारिक सदस्यों को प्रभावित करना हो, तो उसके लिए बड़ों को भी अपना उदाहरण प्रस्तुत करना होगा । वास्तविक शिक्षा इसी प्रकार दी जाती है । प्रभाव
उपदेशों का नहीं, सामने प्रस्तुत होते रहने वाले आचरण का पड़ता है ॥४८-५१॥

व्याख्या-पतन सरल है, उत्थान कठिन है। पानी का प्रवाह नीचे की ओर ही बहता है। उसे ऊँचा उठाना हो, ती काफी पुरुषार्थ करना पड़ता है । मनुष्य का स्वभाव भी कुछ इसी प्रकार का है कि उसे पतन-पराभव के गर्त में जाते तनिक भी देर नहीं लगती । चिंतन को ऊर्ध्वगामी बनाने हेतु सत्प्रवृत्तियों के उदाहरण ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । दुष्प्रवृत्तियों के लिए किसी को आमंत्रित नहीं करना पड़ता । वे जहाँ कमजोरी देखती हैं, आ धमकती हैं।

ऊँचा उठने की प्रवृत्ति तभीक अंदर से उमगती है । जब वैसाही आचरण बडे़ भी करें। पारिवारिक जन अनुकरण हेतु अपने से बडो को ही देखते हैं । यदि घर के सभी वरिष्ठजन स्वयं निष्ठापूर्वक उस दिशा में प्रवृत हुए हों तो सहज ही सबको वह मार्ग अपनाने की प्रेरणा मिलती है । वरिष्ठों से तात्पर्य है वे जिन्हें अग्रणी-आदर्शपुंज माना जाता है । चाहे परिवार छोटा हो अथवा बडा, समाज हो या संस्था, राज्य हो अथवा राष्ट्र सभी पर यह एक ही तथ्य समान रुप से लागू होता है । शिक्षा देने की व्यावहारिक एवं आदर्श विधि यही है कि स्वयं भी वैसा ही आचरण किया जाय । कथनी व कहानी में अंतर न हो। वाणी से भले ही कितना ही आदर्श शिक्षण क्यों न दिया जा रहा हो, स्वयं आचरण में न उतारा गया, तो वह थोथा ही सिद्ध होता है।


संघाराम का कुलपति कौन?

एक बड़े बौद्ध संघाराम के लिए कुलपति की नियुक्ति की जानी थी । उपयुक्त विद्या और विवेक वाले आचार्य की छाँट का ऊहापोह चल रहा था । तीन सत्पात्र सामने थे, उनमें से किसे प्रमुखता दी जाय यह प्रश्न सामने था । चुनाव का काम महाप्राज्ञ मौद्गल्यायन को सौंपा गया ।

तीनों को प्रवास पर जाने का निर्देश हुआ। कुछ दूर पर उस मार्ग पर काँटे बिछा दिए गए थे ।

संध्या होने तक तीनों उस क्षेत्र में पहुँचे। काँटे देखकर रुके । क्या किया जाय, इस प्रश्न के समाधान में एक ने रास्ता बदल लिया । दूसरे ने छलाँगें लगाकर पार पाई । तीसरा रुक कर बैठ गया और काँटे बुहार कर रास्ता साफ करने लगा, ताकि पीछे आने वालों के लिए वह मार्ग निष्कंटक रहे। भले ही अपने को देर लगे।

परीक्षक मौद्गल्यायन समीप की झाड़ी में छिपे बैठे थे । उनने तीनों के कृत्य देखे और परीक्षाफल घोषित कर दिया । दूसरों के लिए रास्ता साफ करने की विधा सार्थक मानी गई और अधिष्ठाता की जिम्मेदारी उसी के कंधे पर गई । मौद्गल्यायन ने कहा-"संघाराम में सत्प्रवृत्तियों की परंपरा वही डाल सकेगा, जो स्वयं सबका ध्यान रखे और अपने आचरण से प्रेरणा उभारने की क्षमता रखता हो ।

रघुवंश की परंपरा 

रघुवंश के राजा सदैव अनीति के दमन के लिए सत्पुरुषों का साथ देते रहे । समय-समय पर देवताओं के समर्थन में वे असुरों को परास्त करने के लिए हर कठिनाई उठाकर भी जाते रहे । जब विश्वामित्र जी ने आकर राक्षसों द्वारा यज्ञों में बिघ्न डालने की बात कही तो राजा दशरथ ने स्वयं चलने का प्रस्ताव रखा । इसी परंपरा का प्रभाव था कि किशोरवय के राम, लक्ष्मण सहज भाव से ऋषि के साथ राक्षसों से लोहा लेने चल पड़े ।

युधिष्ठिर की प्रेरणा

युधिष्ठिर पांडवों में सबसे बड़े थे। वे सदा अपने सें बड़ों का भरपूर सम्मान करते थे। यहाँ तक कि महाभारत युद्ध प्रारंभ होने से पूर्व भी वे युद्ध स्थल में भीष्म पितामेह और गुरुद्रोण को प्रणाम करने, आज्ञा लेने गए। उनके आचरण का प्रभाव पांडवों पर यह पड़ा कि उन्होंने कभी स्वप्न में भी अपने अग्रज युधिष्ठिर की आज्ञा भंग नहीं की। इसी सामंजस्य के कारण वे एक रह सके और अजेय बने रहे।

नेपोलियन-श्रमिक का सम्मान

नेपोलियन अपने साथियों समेत एक राह जा रहा था । वे लोग पूरा रास्ता घेर कर चल रहे थे,  सामने से बोझा लिए एक मजदूर आ रहा था । नैपोलियन ने साथियों को हाथ पकड़कर खींचा और कहा-"श्रम का सम्मान करो और मजदूर के लिए रास्ता दो "

बाद में उसने साथियों को समझाया कि जिन सत्प्रवृत्तियों को राज्य में बढ़ावा देना है, उनका सम्मान हम स्वयं करेंगे, तो ही उनके प्रति जन उत्साह उभरेगा।

रानी को भिखारियों में रहना पडा  

काशी नरेश की धर्मपत्नी बड़ी प्रतिभावान् और सुंदरी थी । एक दिन दासियों समेत प्रात काल गंगा स्नान को गई। अभ्यास न होने के कारण ठंड से काँपने लगीं । सो उन्होंने गंगा तट पर बनी झोपडियों को जलाकर ठंड छुड़ाने का प्रयत्न किया।

यह सूचना काशी नरेश तक पहुँची । उन्होंने रानी को दरबार में अपराधी की तरह बुलाया और कहा कि वे सारे कीमती कपड़े उतार कर भिखारियों जैसे वस्त्र पहनें । आगे उन्होंने कहा-"अज्ञात रूप में भिखरियों केसाथ रहकर उसी तरह भिक्षा मागें और उपलब्ध धन से जली हुई झोपड़ियों को नई बनवायें ।"रानी अपनी सजा पूरी करके लौटीं तो काशी नरेश ने उनका सम्मान किया और कहा-"देवि । राज्य हमारा परिवार है । हम इस परिवार के प्रमुख हैं । हम जिन आदर्शो का स्वयं पालन करेंगे, वही राज्य में पनपेगी । तुम से भूल हुई, उसका प्रायश्चित सहर्ष करके तुमने प्रजा का विश्वास ही नहीं जीता, श्रेष्ठ परंपराओं को भी पोषण दिया है ।

फसल का रहस्य

इटली के क्रेसिन किसान की फसल अन्य किसानों की तुलना में कई गुनी पैदा होती थी । शत्रुता मानने वालों ने अदालत में मुकदमा चलाया कि या तो वह जादू जानता है या चोरी करता है ।

क्रेसिन अदालत में अपना हल बैल, लड़के, लड़की समेत पहुँचा और कहा-"मैं स्वयं भरपूर श्रम करता हूँ, इस नाते मेरे यह सहयोगी भी जी तोड़ मेहनत करते हैं । यही एक जादू है, जिससें फसल चमत्कारी ढंग से पैदा होती है ।"

अदालत में उपस्थित सभी लोगों ने उसे सराहा और सम्मान दिया ।

घायल लेनिन लगे रहे

साम्यवादी दल की ही एक सिरफिरी लड़की ने लेनिन पर पिस्तौल चला दी । गोली तो निकल गई पर छर्रे गले और गर्दन में फँसे रह गए ।

उसी बीच एक पुल टूट गया । आपात स्थिति घोषित करके उसे युद्ध स्तर पर सुधारा गया । राष्ट्रनिष्ठ नागरिक बड़ी संख्या में जुट पड़े । काम समाप्त होने को आया। तब पता चला कि लेनिन भी उसमें लगे थे । गले में गोली होते हुए भी मजदूरों के साथ भारी शहतीर उठावाने का काम नित्य बीस-बीस घंटे तक करते रहे । पूछने पर उन्होंने संक्षिप्त सा उत्तर दिया, कहा-"हम अग्रणी कहलाने वाले पीछे रहें, तो जन उत्साह में वह प्रखरता नहीं आ सकती जो आनी चाहिए ।

स्वयं अपनी चादर ओढा दी

लखनऊ स्टेशन पर तब एक अंग्रेज स्टेशन मास्टर था । उसके कमरे के आगे जलती अँगीठी पर एक वृद्धा अत्यधिक ठंड के कारण हाथ सेंकने जा पहुँची । स्टेशन मास्टर इसमें अपनी तौहीनी समझकर आपे से बाहर हो गए और इतने जोर से उसे धमकाने लगे कि यात्रियों की भीड़ जमा हो गई ।

भीड़ में से एक व्यक्ति निकला, बोला" आप तो ईसाई है न? बाइबिल पढ़ते या सुनते हैं न? फिर उनके संकेतों को ध्यानपूर्वक क्यों नहीं समझ पाते? यदि आप जैसे समाज के वरिष्ठ लोग भी ऐसा आचरण करेंगे, तो पारस्परिक व्यवहार के सारे मापदंड नष्ट हो जायेंगे ।" भीड़ के उस व्यक्ति ने अपनी ऊनी चादर बुढ़िया को उड़ा दी और भीड़ के साथ आगे बढ़ गया । वह यात्री था-पादरी सी०एफ० ऐंड्रूज, जो जीवन भर पीड़ित मानवता की सेवा में संलग्न रहे ।

बापू महान् क्यों?

काका कालेलकर गाँधी जी के अधिकतम घनिष्ठ थे । उनसे किसी विदेशी ने पूछा-" गाँधी जी का देश के हर वर्ग पर इतना प्रभाव किन कारणों से पड़ा?"

काका ने कहा-"वे अपने साथ संयम की कड़ाई बरतते हैं । जो मन में है, वही वाणी से कहते हैं और अपने क्रिया-कलापों को सार्वजनिक हित में लगाए रहते हैं । वे वही कहते हैं, जो करते हैं,इसीलिए वे विश्व भर
में असंख्यों के लिए अनुकरणीय है ।"

महान् बनने का यह प्रख्यात सिद्धांत है, जिन्हें गाँधी जी ने अपनाया।

सच्चे धर्मोपदेशक की परिभाषा 

रामकृष्ण परमहंस ने धर्मोपदेशकों की एक मंडली को उद्बोधन करते हुए कहा-" जिनके पास अपनी पूँजी नहीं, वह दूसरों को क्या बाँटेगा? तुम लोग धर्म के अनुशासन में अपने को बाँधो, ताकि कथनी और करनी के समन्वय से ऐसे प्रवचन कर सकी, जिसे लोग सुनें ही नहीं, अपनाएँ भी।"

बड़ों की जिम्मेदारियाँ

एक शराबी दलदल के किनारे खड़ा था । मदहोशी उसके भीतर और घुसती जा रही थी । हसन ने कहा"बेअकल, सँभल । नहीं तो ऐसा फँसेगा, जो कभी निकल न सकेगा।"

शराबी हँसा और बोला-"अपनी गलती की सजा तो मैं अकेला ही भुगतूँगा । पर अगर आपने गलतियाँ कीं तो स्वयं ही नहीं, शागिर्दों को भी ले डूबेंगे ।" समझदारों की जिम्मेदारियाँ भी बड़ी होती है । लोग उनसे अधिक अपेक्षा रखते है ।

राजा की बीमारी का कारण

एक था राजा । एक बार वह बीमार पड़ गया । उसे भोजन पचना बंद हो गया । जब भी कुछ खाता, पेट में पीड़ा होने लगती । राजवैद्यों ने बहुत इलाज किए। कई औषधियाँ आजमाईं, परंतु कोई लाभ न हुआ । उस राजा की रानियाँ घबरा गईं। मंत्रीगण सोच में पड़ गए । लोगों से कहा गया-"वे अपने राजा के स्वास्थ्य के लिए भगवान् से प्रार्थना करें ।" सब किया, फिर भी कोई लाभ न हुआ । राजा के पेट की पीड़ा बढ़ती गई ।

उन दिनों बसोहली राज्य के वैद्यों की ख्याति थी । तुरंत एक मंत्री बसोहली राज्य रवाना किया गया कि वह वहाँ के राजा से आज्ञा लेकर वहाँ से बड़े-बड़े वैद्यों को अपने साथ ले आयें ।

बसोहली नरेश ने अपने वैद्यों को मंत्री के साथ भेज दिया।

बसोहली के वैद्य वहाँ आये । राजा के रोग को जानने के बहुत प्रयत्न किए । परंतु किसी निर्णय पर न पहुँच सके कि आखिर कौन से रही से राजा पीड़ित है । वैद्य भी घबराएँ । यदि वे राजा को ठीक न कर सके, रोग का निदान भी न कर सके, तो उनकी ख्याति को बट्टा लग जायेगा और वापस अपने राज्य में जाने पर हो सकता है कि उनका राजा भी उन्हें राजवैद्य न रहने दे ।

सब कुछ करके भी वे कुछ न कर पाए ।

आखिर उन्होंने निश्चय किया कि यह देखना चाहिए, राजा सारा दिन करता क्या है? हो सकता है दिन में वह कोई ऐसी बात करता हो, जिसके कारण उसे भोजन न् पचता हो। उन्होंने राजा की दिनचर्या का सूक्ष्मता से निरीक्षण करना चाहा ।

वे सयाने थे । राजा की एक ही बात को देखकर वह सब समझ गए । उन्होंने देखा कि व्यस्तता के कारण राजा दरबार में ही भोजन करता है । तब उन्होंने राजा से कहा-"राजन् । आप दरबार में भोजन करना छोड़ दीजिए । जिस समय आप खाना खा रहे होते हैं, तब दरबार में अन्य सभी भूखे होते हैं । वह आपकी ओर भूखी नजरों से ताकते रहते है । आप पहले उन्हें खाना दीजिए, फिर स्वयं खाइए । ऐसा करके देखिए, आपके पेट में पीड़ा नहीं रहेगी ।

राजा ने ऐसा ही किया । पहले अन्य लोग खाना खा लेते, फिर वह खाता । पेट ठीक होने से वह स्वस्थ हो गया । रानियाँ प्रसन्न हो गयीं । मंत्री निश्चित हो गए ।

बाद में राजगुरु एवं राजवैद्य ने सभी मंत्रीगणों एवं वरिष्ठ दरबारियों को बताया कि जैसा वरिष्ठों का आचरण होता है, वैसी ही उनके प्रति मान्यता छोटो की बनती है । उसकी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है । वह सूक्ष्म मनोभावों के रूप में शरीर की संरचना व क्रिया को भी प्रभावित रखती है।

शिष्टाचारं तथा सर्वे सदस्या: परिवारगा: ।
व्यवहरन्तु ससम्मानं मधुरं प्रवदन्तु च ॥५२॥ 
वार्तालापं कटुं नैव नाऽपमानयुतं तथा ।
प्रकुर्वन्तु प्रणामस्य स्वीकुर्बन्तु परम्पराम्॥५३॥ 
अपशब्दोपयोगोऽथ भूत्वा क्रोधवशस्तथा।
केशाकेशि न कर्त्तव्यं बाहूबाहवि वा पुन:॥५४॥ 

भावार्थ- परिवार का हर सदस्य एक दूसरे के साथ शिष्टाचार बरते । सम्मान करे । मधुर शब्द बोले कटु और अपमानसूचक वार्तालाप कोई न करे । परस्पर अभिवादन की परंपरा का निर्वाह होता रहे । अपशब्द
कह बैठना, आवेश में आकर मारपीट सभ्यजनों को शोभा नहीं देता॥५२-५४॥

व्याख्या-परिवार का संतुलन बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है परिजनों में सभी शिष्टाचार का पालन करते और एक-दूसरे के सम्मान का ध्यान रखते हैं अथवा नहीं । किसी के प्रति सम्मान प्रकट करने या प्रणाम करने से मनुष्य छोटा नहीं हो जाता, वरन् इससे श्रेष्ठत्व की प्रतिष्ठा ही होती है और उस उच्च भावना का लाभ भी बिना मिले रहता नहीं । शुद्ध अंतःकरण से किया हुआ नमन आंतरिक शक्तियों को जगाता है । इसलिए श्रेष्ठ पुरुषों ने सदैव ही इस मर्यादा का पालन किया है । सम्मान से प्रत्येक मनुष्य को एक प्रकार की आध्यात्मिक तृप्ति मिलती है, उसे प्रत्येक व्यक्ति चाहता है, इसलिए विपरीत परिस्थितियों में भी इस नैतिक मर्यादा का पालन करना चाहिए ।

शिष्टाचार-भारतीय संस्कृति की अमूल्य निधि

भारतीय समाज में, शिष्टाचार में बड़ों के प्रति श्रद्धा-सम्मान की भावना, छोटों के प्रति स्नेह की भावना तथा व्यवहार में विनय एवं माधुर्य के समावेश पर विशेष बल दिया जाता रहा है । इस संदर्भ में अथर्ववेद में प्रदत्त वैदिक ऋषि का यह आदेश माननीय है-

अनुव्रत: पितु: पुत्रो, माता भवतु समना:। जाया पत्ये मधुमतीं, वाचं वदतु शान्तिवाम्॥ 

अर्थात्"पुत्र पिता के व्रतों का यानी श्रेष्ठ कर्मों और संकल्पों का अनुसरण करे और माँ जैसे (पवित्र कोमल) मन वाला बने । पति पत्नी के लिए, पत्नि पति के लिए माधुर्ययुक्त तथा शांतिप्रद वाणी का व्यवहार करे ।"

जो ऐसा नहीं करता, उसे नीच प्रकृति का उच्छृंखल व्यक्ति माना जाता है ।

वाल्मीकि रामायण में बताया गया है-

मातरं पितरं विप्नमाचार्यं चावमन्यते । स पश्यति फलं तस्य प्रेतराज वशं गत:॥

अर्थात् जो माता-पिता, ब्राह्मण और गुरुदेव का सम्मान नहीं करता, वह यमराज के वश में पड़कर पाप का फल भोगता है ।

सैद्धांतिक मतभेद के बावजूद भी व्यावहारिक जीवन में बड़ों को सम्मान देने का उच्च आदर्श भारतीय संस्कृति की अपनी निजी विशेषता है ।

भगवान राम और आचार्य रावण में पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता थी । राम रावण की कुटिलता को जानते थे, किन्तु पांडित्य और श्रेष्ठता के प्रति उनके हृदय में जो श्रद्धा- भावना थी, उसके वशीभूत होकर ही उन्होंने विपरीत परिस्थिति में भी इस मर्यादा का पालन किया था । रामायण में लिखा है-

अस कहि रथ रघुनाथ चलावा । विप्न चरन पंकज सिरु नावा॥

इस प्रकार रणोद्यत राम ने अपना रथ आगे बढ़ाया और रावण के सम्मुख पहुँचकर उसके चरण-कमलों में अपना शीश झुकाया ।

इतना ही नहीं, तुलसीदास जी ने तो यहाँ तक कह दिया है-

सिया राम मय सब जग जानी । करहुँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥

यों तो देश, काल की भिन्नता से संसार में शिष्टाचार के असंख्यों तौर तरीके प्रचलित हैं, पर भारतीय शिष्टाचार के जो मूलभूत नियम शास्त्रों में बतलाये गए हैं, वे लगभग सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक ही हैं । स्वागत-सत्कार करने के विषय में 'दक्ष-स्मृति' का कथन है-

सुधा वस्तूनि वक्ष्यामि विशिष्टे गृहमागते । 
मनश्चक्षुर्मुखंवाचं सौम्यं दत्वा चतुष्टयम् ॥
अभ्युत्थानं ततो गच्छेत् पृच्छालाप प्रियान्वित: । 
उपासनमनुव्रज्या कार्याण्येतानि नित्यश:॥

"गृहस्थों का कल्याणकारी नियम यह है कि वे किसी महानुभाव के पधारने पर मन, वचन, मुख और नेत्रों को प्रसन्न रखें । अभ्यागत को देखते ही खड़े होकर आने का हेतु पूछें । प्रेमपूर्वक वार्तालाप करें, यथोचित एवं यथासाध्य सेवा करें और चलते समय कुछ दूर पहुँचाने जाँय ।"

शास्त्रकारों ने कहा है-

शीलेन सर्वं वशम् शीलं परं भूषणम् ॥

अर्थात शील-शिष्टाचार से ही सबको वशवर्ती बनाया जा सकता है । शील ही परमभूषण है । सम्मान सबको भाता है, पर असम्मान किसी को नहीं सुहाता । वाणी और व्यवहार से जहाँ एक-दूसरे का सम्मान प्रकट करने का स्वभाव बन जाता है, वहाँ स्नेह और सहयोग निरंतर बढ़ता ही रहता है । जहाँ अपने-अपने सम्मान का तो बहुत ध्यान रखा जाता है, पर दूसरों को महत्व नहीं दिया जाता, वहाँ शेखी, अहंकार भरी उक्तियाँ, अपशब्द, मारपीट आदि अशोभनीय कृत्यों को प्रश्रय मिलता है ।

इससे बचना ही बुद्धिमानी है । यहाँ इस समस्या से बचने का उपाय सुझाते हुए ऋषि कहते हैं कि आपसी सम्मान-शिष्टाचार बनाये रखें । मधुर शब्दों का आदान-प्रदान करें तथा एक-दूसरे का भाव-भरा अभिवादन करने का अभ्यास करें । इससे स्नेह बढ़ता है, पारिवारिकता और स्वस्थ सामाजिकता पनपती है । यह एक जाना-माना सिद्धांत है कि दूसरों के साथ वह व्यवहार न करें, जो अपने लिए पसंद नहीं । जो इस तथ्य को समझते हैं, वे अपना व्यवहार संतुलित, शिष्ट ही रखते हैं ।

बालि-सुग्रीव में अनबन क्यों हु?

बालि और सुग्रीव में परस्पर अत्यधिक स्नेह था । एक के बिना दूसरे को चैन नहीं पड़ता । बालि जब राक्षस से लड़ने लगा, तो स्नेहवश सुग्रीव भी सहायतार्थ साथ गए । बालि वध का भ्रम होने पर सुग्रीव वापस लौट आये और राज-काज संभालने लगे । बालि ने वापस आकर सुग्रीव को राजसिंहासन पर देखा, तो उत्तेजित हो उठा और उससे राजसिंहासन छीन लिया और सुग्रीव को अपमानित करके भगा दिया ।

यदि बालि ने सुग्रीव की समस्याओं को सुन लिया होता, उसके सम्मात का ध्यान रखते हुए पूछताछ की होती, तो समस्या खड़ी ही नहीं होती । परंतु वह आवेशग्रस्त असभ्यों जैसे व्यवहार पर उतर आया। फलस्वरूप द्वेष बढ़ता गया और स्नेह तो टूटा ही, बालि को प्राण भी गँवाने पड़े।

अयोध्या का संतुलन बिगडा

कैकेयी मंथरा के बहकावे में आ गयी । भरत को राज्य तथा राम को वनवास माँग बैठी । राम वनवास पर दशरथ जी ने शरीर त्याग किया । भरत जी को वैराग्य हो गया। कौशल्या पर तो दुख का पहाड़ ही टूट पडा। परंतु ऐसी स्थिति में भी किसी ने किसी के सम्मान पर चोट नहीं की । कौशल्या राम को छोड़ना नहीं चाहती थीं, परंतु अन्य माताओं के सम्मान का उन्हें पूरा ध्यान था । अत: उन्होंने राम को वन जाने की अनुमति दे दी ।

जनक ने सुना, जानकी भी साथ गई हैं । उन्होंने दूतों द्वारा सही स्थिति का पता लगाया और तदनुसार भरत का समर्थन करने चित्रकूट पहुँच गए । भरत के कारण राम-सीता को वनवास हुआ । इस नाते उनको अपमानित करने का भूलकर भी प्रयास नहीं किया ।

ऐसे एक-दूसरे के सम्मान के भाव ने विकट परिस्थितियों में भी अयोध्या का संतुलन बनाए रखा । भूल सिर्फ भूल रह गई, उससे परस्पर के स्नेह में कोई फर्क नहीं पड़ा । राम की अनुपस्थिति में भी और राम के आने पर भी पारिवारिक सद्भाव स्वर्गीय सुख देता रहा ।

प्रणाम की परिपाटी

श्रेष्ठ परिवारों में, सज्जनों में बडों को प्रणाम करने, छोटों को स्नेह-आशीर्वाद देने की परिपाटी भारतीय संस्कृति की महत्वपूर्ण एवं अभिन्न अंग रही है ।

भगवान राम के संबंध में मानसकार ने लिखा है-

प्रातकाल उठि कै रघुनाथा । मात पिता गुरु नावहिं माथा॥

ऋषि विश्वामित्र के साथ दोनों भाई गए, तो वहाँ भी उनका प्रणाम का क्रम सतत् चलता रहा । राम वनवास प्रसंग में भगवान राम ऋषियों को वयोवृद्ध मानकर सम्मान देते है और महर्षि उन्हें अवतारी मानकर प्रणाम करते है ।

मुनि रघुवीर परस्पर नवहीं ।

अपने से श्रेष्ठ को प्रणाम करने की ऐसी उमंग सत्पुरुषों में ही देखने को मिलती है। शास्त्र वचन है-

अभिवादनशीलस्य, नित्यं वृद्धोपसेविनः । चृत्वारि तस्य वर्धन्ते, आयुर्विद्या यशो बलम्॥

अर्थात् जो अभिवादनशील है, बड़ी का सम्मान एवं आज्ञापालन करते हैं, उनकी आयु, विद्या, यश और बल चारों की वृद्धि होती रहती है ।

अभिवादन जब भावनापूर्वक किया जाता है, तो सामने वाले के हृदय से भी सद्भाव-आशीर्वाद निकलता है । उसका लाभ अभिवादनशील को मिलता है।

सीताजी के संबंध में ऐसे ही प्रसंग मिलते हैं-तब जानकी सासु पद लागीं ॥

वनवास काल में सीताजी अत्रि आश्रम में जाती हैं और सती अनुसुइया कों प्रणाम करती हैं अनुसुइया जी उन्हें स्नेह-आशीर्वाद देतीं और उपदेश करती है। 

यह सत्परंपरा जिन परिवारों में रहती है, वहाँ स्नेह-सद्भाव बढ़ता रहता है । कभी विसंगति आती है, तो भी वह टिक नहीं पाती, क्योंकि वे सामयिक होतीं हैं । परिवार संस्था की पृष्ठभूमि ही स्नेह-शिष्टाचार-सद्भाव पर टिकी है । इन गुणों का परिपालन जहाँ भी होगा, वे परिवार फूलें-फलेंगे ।


आवेश बनाम पिशाच

वन-विहार के लिए वासुदेव, बलदेव और सात्यकि अपने घोड़ों पर चढ़कर निकले । रास्ता भटक जाने से वे एक ऐसे सघन वन में जा फँसे, कि न पीछे लौटना संभव था, न आगे बढ़ना । निदान रात्रि एक पेड़ के नीचे बिताने का संकल्प किया । घोड़े बाँध दिए गए । तीनों नें एक-एक प्रहर पहरा देने का निश्चय किया, ताकि सुरक्षा होती रहे और दो साथी सोते रह सकें ।

पहली पारी सात्यकि की थी । वे जगे, दो सो गए । इतने में पेड़ पर से पिशाच उतरा और मल्लयुद्ध के लिए ललकारने लगा । सात्यकि ने उसके कटु वचनों का वैसा ही उत्तर दिया और घूँसे का जवाब लात से देते रहे । पूरे प्रहर मल्ल-युद्ध होता रहा । सात्यकि को कई जगह चोट लगी, पर उस समय साथियों से उस प्रसंग की चर्चा न कर, सो जाना ही उचित समझा ।

अब बलदेव के जागने की बारी थी । पिशाच ने उन्हें भी चुनौती दी, जवाब में वैसे ही गरमागरम उत्तर मिले। प्रेत का आकार और बल पहले की तरह ही बढ़ता रहा और बलदेव की बुरी तरह दुर्गति हुई।
दूसरा पहर इसी तरह बीत गया ।

तीसरी पारी वासुदेव की आई । उन्हें भी चुनौती मिली । वे हँसते हुए लड़ते रहे और कहते रहे-"बड़े मजेदार आदमी हो तुम! नींद और आलस्य से बचने के लिए मित्र जैसी मखौल कर रहे हो ।"

पिशाच का बल घटता गया और आकार भी छोटा होने लगा । अंत में वह झींगुर जैसा छोटा रह गया । तब वासुदेव ने उसे दुपट्टे के एक छोर से बाँध लिया ।

प्रात: नित्य कर्म से निपट कर, जब चलने की तैयारी होने लगी, तो सात्यकि और बलदेव ने पिशाच से मल्लयुद्ध होने की घटना सुनाई और चोटों के निशान दिखाए। वासुदेव हँसे और पिशाच को दुपट्टे के छोर में से खोलकर हथेली पर रख लिया ।

आश्चर्यचकित साथियों को देखकर वासुदेव ने बताया कि वह पिशाच और कोई नहीं कुसंस्कार रूपी क्रोध था, जो वैसा ही प्रत्युत्तर पाने पर बढ़ता और दूना होता है, पर जब उपेक्षा की जाती है, तो दुर्बल और छोटा हो जाता है।

शब्द की महिमा 

स्वामी विवेकानन्द एक सत्संग में भगवान् के नाम की महत्ता बता रहे थे, एक तार्किक ने कहा-"शब्दों में क्या रखा है, उन्हें रटने से क्या लाभ?"

विवेकानंदने उत्तर में उन्हें अपशब्द कहे-"मूर्ख, जाहिल आदि कहा । इस पर वह तार्किक आग-बबूला हो गया और भन्नाते हुए कहा-"आप संन्यासी के मुँह से ऐसे शब्द शोभा नहीं देते । उन्हें सुनकर मुझे बहुत चोट लगी है ।"

स्वामी जी ने हँसते हुए कहा-"भाई, वे तो शब्द मात्र थे । शब्दों में क्या रखा है । मैंने कोई पत्थर तो नहीं मारा?

सुनने वालों तक का समाधान हो गया । शब्द जब किसी को क्रोध उत्पन्न कर सकते हैं, तो जिसके लिए प्रिय शब्द भावपूर्वक कहे जायेंगे, उसका अनुग्रह वे क्यों आकर्षित न करेंगे?
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