प्रज्ञा पुराण भाग-3

॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-4

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मणयोऽपि च पंके चेन्मग्नास्तर्हि तिरस्क्रियाम्।
उपेक्षां च लभन्तेऽत्र तथा तासु सतीष्वपि॥३३॥
विशेषतासु नार्यश्चेत्कृता: स्युर्नहि संस्कृता:।
प्रतीयन्ते ह्ययोग्यास्ता अविकासस्थिता: सदा॥३४॥
मलीनोऽसंस्कृतो हीर: काच एव हि दृश्यते।
टंकनादेव सौन्दर्यं भ्राजते मूल्यमाव्रजेत् ॥३५॥
सम्मुखे दर्पणस्यैष यथारागस्तथैव तु।
छाया सा दृश्यते तस्मिंस्तथा स्थितिगता सदा॥३६॥
उत्तमा मध्यमा हेया नारी सा दृश्यते क्रमात्।
मौलिकं तु स्वरुपं तत्तस्या: स्वच्छं न संशय:॥३७॥
बुधै: प्रोक्ताविवायैंव नारीह भावनामयी।
बाधिता स्यान्न तस्यास्तु भावनैषा कदाचन॥३८॥
स्नेहं सम्मानमुत्साहदानं प्रशिक्षणं तथा।
सहयोगं च नारी चेत्प्राप्नुयात्तर्हि निश्चितम्॥३९॥
उच्चतां स्तर आगच्छेत्तस्या सोऽप्यञ्जसैव तु।
कल्पवृक्षोऽस्ति नारी तु तां यो यत्नेन सिञ्च॥४०॥
पुष्पाणि तस्याश्छायायां स्थित: स्वान् स मनोरथान्।
इच्छितान् वरदाने वै प्राप्नोत्येव सुखावहान्॥४१॥

भावार्थ-मणि भी कीचड़ में फँसी रहने पर उपेक्षित और तिरस्कृत रहती है। मौलिक विशेषताएँ होते हुए भी यदि नारी को निखारा-उभारा न जाय तो वह भी पिछड़ी स्थिति में पड़ी रहती है व अयोग्य प्रतीत
होती है । मैला और अनगढ़ हीरा भी काँच जैसा प्रतीत होता है । खरादने पर ही उसका सौदर्य चमकता और मूल्यांकन होता है । दर्पप के समुख जैसा भी रंग होता है, वही उसमें छाया दीखती है। परिस्थितियों के अनुरूप ही नारी उत्कृष्ट, मध्यम और हेय स्तर जैसी दीखती है। उसका स्वरूप स्फटिक मणि की तरह स्वच्छ है । यह एक सुविचारित तथ्य है कि नारी भावना प्रधान है। उसकी भावना को चोट न लगने पाए। उसे समुचित स्नेह सम्मान प्रोत्साहन प्रशिक्षण और सहयोग दिया जाय तो उसका स्तर ऊँचा उठाना तनिक भी कठिन नहीं । नारी कल्पवृक्ष है जो उसे लगनपूर्वक सींचता-पालता है, वह उसकी छाया में बैठकर मनोरथ, पूरा करता और इच्छित प्रतिफल वरदान रूप में प्राप्त करता है॥३३-४१॥

व्याख्या-नारी को देवमानवों, नररत्नों को जन्म देने वाली खदान की उपमा ऋषि ने दी है, किन्तु इस स्थिति को भी स्पष्ट कर दिया है कि पिछड़ेपन का कारण समाज का उपेशा भरा रूप है। वह उस हीरे के समान है, जिसे खराद पर चढ़ाया व तराशा नहीं गया है। उसका मूलभूत रूप अत्यंत उज्ज्वल, स्वच्छ एवं श्रेष्ठता से युक्त है । अंगारे पर चढ़ी राख की परत उसके ज्वलनशील, ताप प्रदान करने वाले गुण को उजागर नहीं होने देती। नारी भी एक प्रकार से ऐसे ही उपेक्षित पड़े अंगारे, कोयले के ढेर में पड़े हीरे की तरह अनगढ़ स्थिति में होती है। जहाँ समाज जागृत होता है, वहाँ या तो स्वयं नारी की ओर से या अथवा प्रगतिशील नागरिकों द्वारा ऐसे प्रयास होते हैं, जिससे कठिनाइयों के बीच से उसका रूप और भी अधिक निखर कर आता है। वह प्रखरता की मूर्ति के रूप में उभर कर आती है और समाज को नवीन चेतना
प्रदान करती है, नई दिशा धारा दे जाती है।

मूलत: नारी की मानसिक बनावट भावनात्मक है । वह तर्कों से नहीं, भाव संवेदनाओं से अभिप्रेरित होकर अपनी जीवन दिशा बनाती है । भावुक हृदय होने के कारण अनंत वत्सला नारी को उसकी करुणा सहज ही उसे उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित कर विराट विश्व का एक अभिन्न अंग बना देती है । इसलिए कवि रस्किन ने कहा है-"माता का हृदय एक स्नेहपूर्ण निर्झर है, जो सृष्टि के आदि से अनवरत झरता हुआ मानवता का सिंचन कर रहा है ।" नारी की भाव संवेदनाओं को यदि समुचित पोषण मिलता रहे, तो उसका अभ्युदय संभव है, सुलभ है। यह भी अनिवार्य है कि उसकी भाबुक मानसिकता का दोहन न हो, ऐसी स्थिति में वह अंदर से टूट जाती है।

नारी को परिवार तथा समाज के अन्याव्य सदस्यों का स्नेह, श्रद्धा औंर सम्मान भरा सहयोग भी चाहिए । उसके बहुमुखी-स्तर को ऊँचा उठाने के लिए समुचित प्रशिक्षण-प्रोत्साहन की व्यवस्था अनिवार्य रूप से की जानी चाहिए । शास्त्रकारों ने नारी के साथ कदम-कदम पर सहयोग और सम्मान करने का निर्देश दिया है तथा उसी आधार पर परिवार में सुख-शांति व सुव्यवस्था की स्थापना को संभव बताया है।

यदि कुलोन्नयने सरसं मनो, यदि विलासकलासु कूतूहलम्।
यदि निजत्वमभीप्सितनेकदा, कुरु सतां श्रुतशीलवतीं तदा॥

यदि तुम चाहते हो कि तुम्हारे कुल की उन्नति हो। यदि तुम अपना और अपनी संतान का कल्याण करना चाहते हो, तो अपनी कन्या को विद्या, धन और शील से युक्त करो ।

पितृभिर्भ्रातृभिश्वैता: पतिभिर्देवरैस्तथा। पूज्या भूषयितव्याश्च बहुकल्याणमीप्सुभि:॥ 
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:। यत्रतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राऽफला क्रिया:॥
(मनु० ३/५५-५६)

पिता, भाई, पति और देवर जो भी कोई, परिवार में हों, यदि वे अपना कल्याण चाहते हों, तो उन्हें चाहिए कि वे स्त्रियों का सम्मान करें और उन्हें प्रसन्न रखें। जहाँ स्त्रियों का सत्कार होता है, वहाँ देवता निवास करते हैं और जहाँ उनका सत्कार नहीं होता, वहाँ सारी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं । नारी की उपमा ऋषि ने उस कल्पवृक्ष के रूप में दी है, जिसके सान्निध्य से सब कुछ पाया जा सकता है । यदि उसे समुचित सम्मान मिलता रहे, उसे ऊँचा उठाने के प्रयास चलते रहे, तो प्रत्युत्तर में वह अनुदानों की वर्षा कर सारे समाज को उपकृत करती, धन्य बनाती है । वह मानव के समस्त मनोरथों को पूर्ण करने में समर्थ है।

जैसा बोया-वैसा काटा

किसी को कुछ, किसी को कुछ देने के लिए लोग भगवान् की निंदा कर रहे थे और उसे पक्षपाती ठहरा रहे थे। सुन रहे थे कोई दार्शनिक। वे लोगों को साथ लेकर खेतों पर गए । एक में गुलाब बोया था, दूसरे में तंबाकू। एक से सुगंध उठ रही थी, दूसरे से बदबू । दार्शनिक ने कहा-" जमीन बहुत बुरी है । किसी को  क्या, किसी को क्या देती है । उसका पक्षपात देखा ।" लोग बोले-"नहीं, यह धरती का पक्षपात नहीं, बोने वालों के कृत्यों का फल है ।" हँसते हुए ज्ञानवान् ने कहा-"भगवान् की यह सृष्टि एक प्रकार का खेत है । उसमें परिस्थितियों का जो जैसा बीज बोता है, वह वैसा ही काटता है।"

नारी को हेय स्थिति में रखने का दोष भी समाज को जाता है । समाज रूपी खेत में जैसी परिस्थितियाँ बनती हैं, वैसे ही मनुष्य जन्म लेते है । नारी की अनगढ़ता, उचित स्तर के प्रयासों के प्रति मूर्धन्यों की निरुत्साहिता का ही परिणाम है।

रत्न गँवाने का दु:ख

एक गोताखोर बहुत दिन से असफल रह रहा था । घोर परिश्रम करने पर भी कुछ हाथ न लगा । पेट भरने के लाले पड़ गए। कोई रास्ता सूझता न था । सो एक दिन उसने किनारे पर बैठकर देवता की बहुत प्रार्थना की-"आप सहारा न देंगे, तो मैं जीवित कैसे रहूँगा?" देवता पसीजे। इस बार डुबकी में उसे एक पोटली हाथ लगी । खोल कर देखा उसमें छोटे-छोटे पत्थर भर बँधे थे। दुर्भाग्य को उसने कोसा देवता को निष्ठुर बताया और पत्थर के टुकड़ों को पानी में फेंकना आरंभ किया। सोचने लगा-"अब वह गोताखोर का धंधा छोड़ेगा। कल से मछली पकड़ेगा, उसमें हाथों-हाथ लाभ भी है और जोखिम भी नहीं । इन्हीं विचारों के बीच एक-एक करके पत्थर के टुकड़ों को भी फेंकता चला गया । अंतिम टुकड़े को ध्यान से देखा तो वह बहुमूल्य नीलम था। देवता के अनुग्रह से मिली इतनी राशि उसने अपने हाथों गँवाई, इस पर भारी रोष प्रकट कर रहा था। देवता प्रकट हुए और बोले-"अकेले तुम्हीं इस दुनियाँ में प्रमादी नहीं हो और लोग भी रस राशि से बढ़ कर जीवन संपदा को इसी प्रकार बर्बाद करते हैं । जाओ जो बचा है, उसे बेचकर आज का काम चलाओ । समझ बढ़ाओ, ताकि धन पाने का ही नहीं, उसके उपयोग का भी बोध हो सके।

नारी भी समाज का एक ऐसा ही उपेक्षित रत्न है, जिसे हम कौड़ियों के मोल गँवाते और फिर सिर धुनते पछताते है।

अनमोल हीरा

किसी किसान को जमीन खोदते समय एक चमकीला काँच मिला । खेलने के लिए बच्चों को दे दिया । बच्चे को उसकी चमक बहुत सुहाई। पड़ौस में एक सेठ रहते थे । दोनों के बच्चे साथ- साथ खेलते। सेठ के बच्चे को भी हीरा सुहाया। वह भी बाप से वैसा ही मँगा देने का हठ करने लगा । सेठ हीरे की कीमत जानते थे, किसान नहीं। इसलिए उन्होंने फुसलाकर सौ रुपये में खरीद लिया । सेठ के बच्चे के स्कूल में जौहरी का बच्चा पड़ता था । उसने अपने बाप से उस हीरे की चर्चा की और लेने का हठ किया। जौहरी ने उसे देखा और कम समझ सेठ से हजार रुपये में खरीद लिया। जौहरी की राजपरिवार तक पहुँच थी। हीरा वहाँ तक पहुँचा । राजकुमार उसके लिए हठ करने लगा । सौदा लाख रुपये में पका हुआ और अंतत: वह राजमुकुट की शोभा बढ़ाने लगा । कम दाम में बेचने वाले अनजान थे। मोल हीरे का ही नहीं जानकारी का भी मिला।

नारी, समाज की एक बहुमूल्य हीरा है। उसकी कीमत बहुत कम लोग जानते हैं । जो उसका मूल्य जानते और उसे उपयुक्त दिशा में सुनियोजित कर देते है, वे निहाल हो जाते है।

आंतरिक सौंदर्य की अनुभूति

संगीतकार गाल्फर्ड के पास उसकी एक शिष्या अपने मन की व्यथा कहने गई कि वह कुरूप होने के कारण संगीत मंच पर जाते ही यह सोचने लगती है कि दूसरी आकर्षक लड़कियों की तुलना में उसे दर्शक नापसंद करेंगे और हँसी उड़ाएंगे । यह विचार आते ही वह सकपका जाती है और गाने की जो तैयारी घर से करके ले जाती है, वह सब गड़बड़ा जाती है। घर पर वह मधुर गाती है, इतना मधुर जिसकी हर कोई प्रशंसा करे, पर मंच पर जाते ही न जाने उसे क्या हो जाता है कि हक्का-बक्का होकर वह अपनी सारी प्रतिभा गँवा बैठती है । गाल्फर्ड ने उसे एक बड़े शीशे के सामने खड़े होकर अपनी छवि देखते हुए गाने की सलाह दी और कहा-"वस्तुत न् वह कुरूप नहीं, जैसी कि उसकी मान्यता है। फिर स्वर की मधुरता और कुरूपता का कोई विशेष संबंध नहीं है। जब वह भाव-विभोर होकर गाती है, तब उसका आकर्षण बहुत बढ़ जाता है और उसमें कुरूपता की बात कोई सोच भी नहीं सकता । वह अपने मन में से हीनता की भावना निकाले। सुंदरता के अभाव को  ही न सोचती रहे, वरन स्वर की मधुरता और भाव-विभोर होने की मुद्रा से उत्पन्न आकर्षण पर विचार करे और अपना आत्मविश्वास जगाए।"

लडकी ने यही किया और आरंभिक दिनों में जो सदा सकपकाई हुई रहती थी और कुछ आयोजनों में जाने के बाद एक प्रकार से हताश ही हो गई थी, नया साहस और उत्साह इकट्ठा करने पर उसने बहुत प्रगति की और फ्रांस की प्रख्यात गायिका 'मेरी बुडनाल्ड' के नाम से विख्यात हुई ।

आदत सुधरी महामानव बनाया

एक बालक बहुत जिद्दी था। वस्तुएँ इधर-उधर बिखेर देता था; बोलने में हकलाता या, पर जब उसे उपयुक्त अध्यापक मिले, तो लड़के की सभी बुरी आदतें छुड़ा दीं। इतना ही नहीं, देश का महापुरुष बनाया, जिसका नाम था बाल गंगाधर तिलक। यदि यह प्रयास करने के लिए अध्यापक उद्यत न हुए होते, तो एक प्रतिभा समाज के समक्ष न आ पाती । लगभग यही बात नारी समुदाय पर भी लागू होती है। उसकी वर्तमान परिस्थितियों का कारण है, अनगढ़ से सुगढ़ बनाने हेतु अभीष्ट पुरुषार्थ का अभाव।

जस्टिस रानाडे ने पत्नी को सुयोग्य बनाया 

पूना के जस्टिस महादेव गोविंद रानाडे अपने समय के प्रसिद्ध कांग्रेस नेता भी थे। उनका विवाह छोटी आयु में ही हो गया था । धर्मपत्नी रमाबाई सर्वथा अनपढ़ थीं । तो भी परिवार व्यवस्था में बड़ी कुशल और सज्जनता की मूर्ति थीं। रानाडे ने अपनी पत्नी को पढ़ाना आरंभ किया । वे उच्चकोटि की विदुषी बन गईं । पति के साथ सार्वजनिक कामों में भी भाग लेने लगीं । मराठी, अंग्रेजी और बंगाली तीनों भाषाओं में उनने अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली । विधवा होने पर रमाबाई ने अपनी सारी संपत्ति महिलाओं की सेवा के लिए मातृ सदन स्थापित करके उसमें लगा दी । वे हर दृष्टि से एक आदर्श गृहस्थ रहीं ।

अवसर मिला तो चरम पराक्रम कर दिखाया

बंगाल के वर्धमान जिले में शारदा-सुंदरी का जन्म एक देहाती झोपड़ी में हुआ। वहीं वे माता-पिता से पढ़ीं। उनसे विवाह एक बड़े जमींदार पुत्र ने कन्या के रूप-गुण देखकर अपनी पसंदगी से किया । रियासत कोर्ट ऑफ वार्ड में थी । लड़का अंग्रेजी ठाट-बाट में सारे दुर्गुण छोटी से आयु में सीख गया और कुसंग में उसने आत्महत्या कर ली। शारदा सुंदरी, जिनका नाम ससुराल में स्वर्णमयी रखा गया था, अठारह वर्ष की आयु में ही विधवा हो गई । इंग्लैंड सरकार ने मात्र पंद्रह सौ रुपया वार्षिक पेंशन बाँधी और जमींदारी जप्त कर ली। इस पर वे सुप्रीम कोर्ट तक लड़ी और अपनी रियासत उपलब्ध कर ली । परिवार वाले भी उन्हें फूटी आँख से न देखते थे, पर उन्होंने अपने निजी बल पर राजकाज चलाया । पति लाखों रुपया कर्ज छोड़ गए थे, उसे चुकाया और आमदनी का बड़ा हिस्सा उस क्षेत्र के निर्धन बालकों की उन्नति में लगाया । वे प्राय: साठ लाख रुपया रियासत का पिछडापन दूर करने में लगाती रहीं । अपना निजी रहन-सहन बड़ा सादा था। उनकी व्यवस्था से प्रसन्न होकर अंग्रेज सरकार ने उन्हें महारानी की उपाधि दी । उनका कौशल अभी भी सराहा जाता है । अवसर मिले तो स्रियाँ क्या नहीं कर सकती हैं ।

निखरी हुई प्रतिभा-दुर्गाबाई

दुर्गाबाई आध्रप्रदेश के एक जमींदार, किन्तु रूढ़िवादी परिवार में जन्मीं। उनकी इच्छा विद्या पढ़ने की थी । जल्दी विवाह करने में उनकी तनिक भी रुचि नहीं थी । घर रहकर ही उन्होंने मैट्रिक उत्तीर्ण कर ली और विशाखापट्टम विश्वविद्यालय में पढ़ने का आवेदन किया। छात्रावास न होने पर उनका आवेदन स्वीकृत न हुआ। उनने अपनी जैसी इच्छा वाली १२ छात्राएँ तलाश कर लीं । छात्रावास बन गया, वे ग्रेजुएट बनीं और वकालत पास कर ली ।

सत्याग्रह आंदोलन चला, तो वे उसमें कूद पड़ीं । श्रीनिवास उस प्रांत के कांग्रेस संचालक थे । वे जेल गए, तो अपने स्थान पर दुर्गाबाई को इंचार्ज बना गए । उनके पीछे भी उनने आंदोलन का इतनी अच्छी तरह संचालन किया कि प्रगति पहले से भी अधिक हुई । उन्हें भी जेल जाना पड़ा। उनने प्रांत भर में हिंदी का प्रचार किया । काकिनाड़ा कांग्रेस अधिवेशन में वे आध्र में ५०० स्वयं सेविकाएँ लेकर पहुँचीं । महिला सुधार के लिए उनने उस प्रांत में घूम-घूम कर बहुत काम किया। भारतीय संविधान बनाने वाली समिति में भी वे सदस्य रहीं। आयु ढल जाने पर उनने भारत के वित्तमंत्री सी० डी० देशमुख से विवाह किया। इसके बाद भी वे राष्ट्र कल्याण के कार्यों में आजीवन
दिन-रात जुटी रहीं ।

विकलांगता बाधक नहीं

ग्रिम्स्वे इंग्लैड की एक महिला है-इलेन डेल । इसके दोनों हाथ नहीं हैं, किन्तु इसके बावजूद उसने परिस्थितियों के आगे घुटने नहीं टेके और आज विकलांगों के लिए प्रेरणा स्रोत बनी हुई है। हाथ के अभाव में भी इलेन ने अपना मनोबल नहीं टूटने दिया और इसके बिना ही सफल जिंदगी जीने का संकल्प लिया तथा हौसला हर वक्त बुलंद रखा। जब वह युवावस्था को प्राप्तु हुई, तो विवाह कर लिया एवं पत्नीत्व व मातृत्व का उभयपक्षीय सुख प्राप्त किया तथा एक पुत्र और पुत्री की माँ कहलाने का गौरव प्राप्त हुआ । वह एक सफल गृहिणी भी साबित हुई । बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करना, सफाई करना, भोजन बनाना, कपड़े धोना, सिलाई करना आदि सारा का सारा काम वह अपने पैरों, उँगलियों व पंजों के बल पर ही कर लेती और अच्छे-अच्छों के कान काटती।

पर वह इतने से ही संतुष्ट नहीं थी । कार चलाने में भी उसने निपुणता अर्जित कर ली। इससे भी उसे चैन नहीं मिला, तो एक वस्त्र-विक्रेता के यहाँ सेल्समैन की नौकरी कर ली और तीन महीने की अल्पावधि में ही अपने कार्य में इतना दक्ष हो गई कि वहाँ के पुराने सेल्समैनों की निरीक्षक बन बैठी। बाद में यह नौकरी भी छोड़ दी और अब वह खुद का वस्त्र उद्योग चला रही है ।

लाखों के लिए आशा की किरण-हेलन कीलर

हेलन कीलर के साथ प्रकृति ने बदी करने में कोई कमी नहीं रहने दी। वह अंधी, बहरी और गूंगी तीनों ही व्यथाओं से पीड़ित थी । पर अपनी सूझबूझ और संकल्प बल के सहारे शिक्षा प्राप्ति का कोई न कोई तरीका निकालती रही और बुद्धि कौशल के सहारे सफल होती रही। उसने अंग्रेजी में एम०ए० किया और साथ  ही लैटिन, जर्मन आदि में प्रवीण बनी। घरेलू काम रोटी बनाते से लेकर कपड़े धोने तक के वह भली-भाँति कर लेती थी। उसने कुशलता का अपने लिए ही उपयोग नहीं किया, वरन् अपंगों की शिक्षा तथा स्वावलंबन के लिए सारे संसार में भ्रमण करके करोड़ों रुपया एकत्रित किया । उसकी विद्या से प्रभावित होकर कितने ही विश्वविद्यालयों ने उसे मानद डॉक्टरेट की उपाधि दी । लोग उसे देखकर संसार का आठवां आश्चर्य कहते थे ।

कलम से आग उगली

हेरियट स्टो अमेरिका की उस महिला का नाम है, जिसने अपनी कलम से आग उगली और दक्षिण अफ्रीका का में प्रचलित नीग्रो समुदाय के विरुद्ध चल रहे अत्याचारों को उधेड़ कर रख दिया। उन
दिनों नीग्रो अफ्रीका से जानवरों की तरह पकड़ कर लाए और बेचे जाते थे। उन्हें पशुओं से भी बुरी स्थिति में रखा जाता था। पर उनका हिमायती कोई न था । हेरियट स्टो ने एक किताब लिखी 'टाम काका की कुटिया' इसमें अत्याचारों को ऐसी मार्मिक भाषा में व्यक्त किया गया था, कि जो पड़ता वही तिलमिला जाता । फलत: इसी समस्या को लेकर उत्तर अमेरिका और दक्षिण अमेरिका में गृह युद्ध छिड़ गया । दास प्रथा के विरुद्ध कानून बनाने में इस किताब का बहुत बड़ा हाथ था । तत्कालीन राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी ।

यह उनकी सहज भावनाशील मानसिकता का ही परिणाम था कि तत्कालीन परिस्थितियों का इतना सुंदर चित्रण कर रंगभेद जैसी समस्या के वे विश्व मंच पर लाने में सफल हुईं ।

सर्जन जनरल मेरी

डॉ० मेरी नौकरी के आरंभिक दिनों में एक छोटे देहात में भेजी गईं। वैसे तो वहाँ १५० प्रसूति बैड थे, पर भर्ती वहाँ मुश्किल से १५ होती थी । दाइयाँ लोगों के घर जाकर प्रजनन कराती थीं और ऊपरी आमदनी करती थीं । मेरी ने जन संपर्क साधा और दाइयों को सहमत कराया, तो १५० के स्थान पर ३०० पलंग भरे रहने लगे। मेरी की लगन के साथ उनकी पदोन्नति भी होती गई। अंतत: वे ' सर्जन जनरल के पद से रिटायर हुईं। उनके समय में अस्पताल ने असाधारण उन्नति की।

वीरबाला ताराबाई

शिवाजी वंश की एक रानी ताराबाई की देशभक्ति और वीरता का असाधारण इतिहास है । पति के यवन पक्ष में जा मिलने पर उनने राजसत्ता स्वयं संभाली और शिवाजी परंपरा को जीवित रखने के लिए न केवल उनने राजकाज संभाला, वरन् विपक्षियों और विश्वासघातियों के साथ बड़ी हिम्मत और सूझबूझ के साथ लड़ाइयाँ लड़ती रहीं । सत्तर वर्ष की आयु में भी उनका जोश और कौशल नवयुवकों जैसा बना रहा । यह कौशल उन्होंने अपनी लगन और कुशलता के आधार पर स्वयं सीखा था । न वे गुड़िया बनी रहीं और न सती हुई ।

नर्सिंग आंदोलन की जन्मदात्री नाइटिंगेल

द्लोरेंश नाइटिंगेल का मन आरंभ से ही दीन-दुखियों की सेवा में जीवन लगाने का था, सो उसने नर्स की शिक्षा प्राप्त करने की कोशिश की । पिता को यह अच्छा नहीं लगा और विवाह के लिए जोर देते रहे । अंत में आग्रह नाइटिंगेल का ही माना गया । ३३ वर्ष की आयु में उसे आज्ञा मिली । वह क्रीमिया के युद्ध में घायल सैनिकों की सेवा करने युद्ध मोर्चे पर चली गई ।

उसके आगे बढ़ने पर अन्य महिलाएँ भी नर्स सेवा में सम्मिलित हुई । उसके पहुँचते ही अस्पताल में आशातीत सुधार हुआ । पहले जहाँ घायलों में से १०० पीछे ८० मर जाते थे, अब वहाँ हजार पीछे २५ की मृत्यु दर रह गई । डॉक्टर उससे बहुत कुढ़ते थे, पर उसने किसी की परवाह न की । युद्ध समाप्त होने पर उसने नर्सों की शिक्षा का एक विद्यालय खोला और सारा जीवन पीड़ितों की सेवा में लगाया ।

तिरंगा झंडा एवं मैडम कामा

बंबई के सोरावजी पटेल ने अपनी पुत्री भीकाजी कामा को एलेक्चेण्ड्रिया कन्या विद्यालय में पढ़ने भेजा । इन्हीं दिनों जर्मनी में विश्व समाजवादी सम्मेलन हुआ। उसमें स्वतंत्र देश ही भाग ले रहे थे । भारत को पराधीन होने के कारण प्रवेश न मिला । इसका कामा को बड़ा दुख हुआ और वे स्वेच्छा प्रतिनिधि बनकर उस सम्मेलन में दहाड़ी । साड़ी का एक हिस्सा फाड़कर तिरंगा झंडा बनाया और उसे लगाया । उपस्थित देशों ने भारत की जय-जयकार की । जब वे भारत लौटीं, तो उनका विवाह रुस्तम जी से कर दिया गया । वे बंबई क्रांतिदल के संपादक थे । उनने पत्नी की आकांक्षा में कोई प्रतिरोध न डाला । वे भारत में राष्ट्रीय आंदोलन तथा आए दिन पड़ने वाले अकालों में राहत कार्य करती रहीं । इसके बाद इंग्लैंड गई । वहाँ से 'वंदेमातरम्' पत्र निकाला । अंग्रेज सरकार के चिढ़ने पर वे फ्रांस, जर्मनी, रूस आदि में अपना अड्डा जमाकर भारत के पक्ष में वातावरण बनाती रहीं । ७४ वर्ष की आयु में वे भारत लौटीं । तिरंगे झंडे की जन्मदात्री भीकाजी कामा ही थीं । बाद में उसमें थोड़ा सुधार कर लिया गया ।

पति के छोडे़ काम में खपने वाली तलाश कुमारी

सन् १८५७ के विद्रोह में जिन तेजस्वी महिलाओं ने बढ़-चढ़कर भाग लिया, उन्हें इतिहासकार कभी भूल न सकेंगे। जिनका भ्रम है कि नारी रोने, बच्चे जनने, पूजा-पत्री करने और पति के साथ सती हो जाने के लिए बनी है, उनकी मान्यताओं को इन देवियों ने पूरी तरहगलत सिद्ध कर दिया और समुचित शिक्षण के अभाव में भी उनने विदेशी शासन को उखाड़ने में बढ़-चढ़ कर पराक्रम दिखाया। भारत कें नारी-रत्नों में रानी लक्ष्मीबाई, दुर्गावती, चाँदबीवी, चेणाम्मा, गुडलू जैसी प्रख्यात रणबाँकुरी देवियों की तरह अमोढा रियासत की रानी तलाश कुमारी भी थीं। उनके पति इस विद्रोह में अंग्रेजों द्वारा मारे गए थे। इसके बाद रानी के कमान सँभाली और थोड़े से साधनों में इतनी लंबी लड़ाई लड़ी कि अंग्रेजों को मोर्चा छोड़कर अपनी सेना हटानी पड़ी। रानी ने हथियारों और बारूद से भरा एक जहाज उड़ा दिया था। उनसे लड़ने जो सेनाएँ सामने आती रहीं, उन्हें ऐसा छकाया कि वे लौटकर वापस ही न जा सकीं । अवसर की घात में रहने वाले पड़ोसी सामंतों की भी अक्ल ठिकाने लगाती रहीं । पति के छोड़े काम में जीवन खपा देने वाली सच्ची पतिव्रताएँ ऐसे ही पराक्रम दिखाती हैं ।

ब्रिटेन की पहली महिला डॉक्टर

उन दिनों घायलों की सेवा एक घृणित कार्य समझा जाता था। मर्द भी डॉक्टर कम बनते थे, फिर महिला तो बने ही कौन? संसार भर में एक महिला डॉक्टर अमेरिका में रजिस्टर्ड हुई थी । इंग्लैंड के शाही परिवार की लाडली एलिजाबेथ नोरथ ने डॉक्टर बनने की हठ ठानी और उसे सभी संबंधियों का विरोध सहते हुए पूरा किया। घर में पैसे की कमी न थी । वह डॉक्टर बनकर व्यवसाय नहीं करना चाहती थी। उद्देश्य मात्र पीड़ितों की सेवा करना था । जब उसका निश्चय न बदला, तो प्रधान सर्जन ने उसे पहले नर्स कोर्स कर लेनें की शर्त रखी। यह और भी छोटा पद था, पर उसने उसे सहर्ष स्वीकार किया और बड़ी आयु में डॉक्टर बन सकी।

एलिजाबेथ ब्रिटेन की पहली मान्यता प्राप्त डॉक्टर थी । उनके आगे बढ़ने से इस दिशा में बढ़ सकना अन्य लड़कियों के लिए भी संभव हुआ ।

कोढियों के लिए सेवा समर्पित-मेरी रीड 

मेरी रीड अमेरिका से ईसाई मिशन के अंतर्गत भारत में सेवारत रहने के लिए आई थीं । उन्हें महिला शिक्षा का काम सौंपा गया, पर पिथौरागढ़ प्रवास के समय उनने देखा कि भारत में कोढियों की संख्या तेजी से बढ़ता जा रही है। न कोई उनसे संपर्क रखता है, न चिकित्सा पर ध्यान देता है। रीड ने अपनी रुचि कोढ़ी सेवा में व्यक्त की । मिशन ने वैसा ही प्रबंध कर दिया । वे उत्तरप्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों का दौरा करके कोढ़ियों को एकत्रित करने और उनकी चिकित्सा के साथ उन्हें अध्यापन तथा स्वावलंबन भी सिखाने लगीं। रोगियों को भारी राहत मिली। लोगों ने अनुभव भी किया कि हम अपने देशवासियों के लिए कुछ नहीं कर सकते और विदेशी दया-धर्म का मूल समझ कर कितना सेवा धर्म निबाहते है ।

मेरी रीड को कुष्ठ प्रधान वातावरण में रहते स्वयं को भी वह व्याधि लग गई। उन्हें अमेरिका वापस बुलाया गया, पर उनने यह कहकर इन्कार कर दिया कि मैंने सारा जीवन उद्देश्यों के लिए सौंपा है। उससे पीछे कदम नहीं हटा सकती । वह स्वयं पीड़ित हो गई, पर उस रोग के रोगियों के कल्याण के लिए जो संभव था, आजीवन करती रहीं।

उड़ीसा की साहसी प्रतिभाएँ

उत्कल में उन दिनों नारी वर्ग बहुत पिछडी दशा में था। शिक्षा नाम को भी न थी। घर के पिछड़ों में कैद रहते हुए त्रास सहते-सहते उनका व्यक्तित्व ही गया-बीता हो गया था । किसी नारी को स्वतंत्र जीवन जीने की सुविधा ही न थी। ऐसे विषम समय में भगवान् की भक्ति को माध्यम बनाकर कई नारियाँ प्रकाश में आई और अपना वर्चस्व तथा अन्यों का स्तर ऊँचा उठाने में समर्थ हुई उड़ीसा की प्रतिभावान प्रख्यात नारियों में गुडिया देवी,गौरी देवी, रत्नमणि देवी, अन्नपूर्णा देवी के प्रकाश में आते ही पिछड़े नारी समाज में जागृति की लहर दौड़ गई और रूढ़िवादियों की चें-चें भी कुछ दिन बाद बंद हो, गई । उन दिनों महिला शिक्षा की दिशा में बहुत काम हुआ ।

नगर वधू से भिक्षुणी

श्रावस्ती की नगर वधू दुबलया भी आम्ब्रपाली की तरह अपनी कला के लिए उस क्षेत्र में प्रख्यात थी। उसकी एक मुस्कान के लिए संपन्न लोग सब कुछ निछावर करते थे । एक दिन वह भगवान् बुद्ध का दर्शन करने जैतनव गई । वहाँ उनका तप-तेज देखकर इतनी प्रभावित हुई कि केश मुडाकर भिक्षुणी बन गई । इस परिवर्तित जीवन से उसने दूर-दूर तक धर्म प्रचार करके असंख्यों का कल्याण किया । वैदिक इतिहास बताता है कि नारी अपने उज्ज्वल प्रखर रूप में नर से भी बढ़कर अनुदान प्रस्तुत करती रही है । भौतिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्रों में उसने वरीयता प्राप्त कर यह प्रमाणित कर दिया है कि अवसर मिलने पर वह क्या नहीं सकती।

ब्रह्मचारिणी विवाहिता-रोमशा

वृहस्पति की पुत्री रोमशा ने इस शर्त पर देवता से दिव्य-भाव से विवाह किया था कि वे कहने भर की पत्नी रहेंगी, पर उनके गृहस्थ कार्यों एवं दांपत्य प्रयोजनों में अपना उपयोग न होने देंगी । वे नारी समुदाय की ज्ञान वृद्धि में अपना जीवन लगाती थीं । उनके पति ने उन्हें पूरा सहयोग दिया एवं वे आजीवन अध्यात्म क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निबाहती रहीं ।

ब्रह्मवादिनी गार्गी

राजा जनक ने एक बार सुदूर देशों के विद्वानों को आमंत्रित करके यह जानने का प्रयत्न किया कि वर्तमान काल में सबसे बड़ा ब्रह्मवेत्ता कौन है? सर्वोच्च को १००० गौयें पुरस्कार में मिलनी थीं । पुरस्कार याज्ञवल्ल जी लें, इसमें किसी को आपत्ति न थी, पर शास्त्रार्थ में ब्रह्मवादिनी गार्गी ने सभी को ललकारा और सभी प्रश्नकर्त्ताओं का समाधान किया । उनकी विद्वता और अनुभव की सभी ने छाप मानी । बृहदारण्यक उपनिषद् में इस शास्त्रार्थ की चर्चा है ।

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