प्रज्ञा पुराण भाग-3

॥ अथ सप्तमोऽध्याय:॥ विश्व-परिवार प्रकरणम्-2

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धौम्य उवाच-

पारिवारिकभावं तु जानीयात् संगां शुभम् ।
समन्वयकृतं यत्र धार्मिकत्वमथाऽपि च॥१६॥
आध्यात्मिकत्वमास्तिक्यं तत्वत्रयमपि स्थितम्।
साधनोपासनाऽऽधनानां सिद्धिर्यतो भवेत्॥१७॥
एनमाश्रित्य व्यक्तेश्च चरित्रं चिन्तनं तथा।
व्यवहारस्तरोऽभ्येति नित्यमेवोंन्नतिं स्थिराम्॥१८॥ 
परिवारस्तु प्रत्यक्षं शोधशालेव वर्तते ।
तत्र सम्मिलितै: सर्वै: सदस्यैराप्यतेऽनिशम्॥१९॥ 
काल: कौटुम्बिकान् सर्वानादर्शाञ्ज्ञातुमप्यथ। 
व्यवहर्तुं यदाश्रित्य पद्मायन्ते कुटुम्बगा:॥२०॥
सञ्चालयन्ति ते तस्य सूत्रं तेषां गुणेऽथ च ।
स्वभावे कर्मणीहास्ति विशेषा हि परिष्कृति:॥२१॥ 
उन्नतस्तरमेतच्च परिवर्तनमद्भुतम् ।
प्रवृत्तिमेनां स्वीकृत्य मानवो बुद्धिमत्तम:॥२२॥
समर्थ: प्रोन्नतश्चात्राऽपेक्षया ह्यन्यप्राणिनाम्।
जात: कारणमस्याऽस्ति पारिवारिक पद्धति:॥२३॥
नाऽभविष्यदिदं तस्मिन् वैशिष्ट्यं तहिं सोऽपि तु ।
जीर्णप्राणिस्थितौ प्राणा न करिष्यद्धि यापितान्॥२४॥

भावार्थ-धौम्य ने कहा-पारिवारिकता को एक ऐसा समन्वय-संगम समझना चाहिए, जिसमें आस्तिकता आध्यात्मिकता और धार्मिकता के तीनों ही तत्वों का समावेश है। इसे सही रूप से अपनाने पर उपासना साधना और आराधना के तीनों ही प्रयोजन पूर्व होते हैं । इसके सहारे व्यक्ति का चिंतन चरित्र और व्यवहार का स्तर ऊँचा उठता है । परिवार एक प्रत्यक्ष प्रयोगशाला है उसमें सम्मिलित रहने वाले सदस्यों को परिवारिकता के आदर्शों को व्यवहार रूप में समझने-अपनाने का अवसर मिलता है। यही वह आदर्श है, जिसे अपनाने पर परिवार के सदस्य कमल पुष्प बन विकसित होते हैं। जो उसका सूत्र संचालन करते हैं उनके गुण-कर्म-स्वभाव में उच्चस्तरीय परिवर्तन-परिष्कार संभव होता है । इस प्रवृत्ति को अपनाकर ही रुष्ट अन्य प्राणियों की तुलना में अधिक समर्थ, बुद्धिमान एवं प्रगतिशील बन सका इसका प्रमुख कारण उसकी पारिवारिकता अपनाने वाली प्रवृत्ति ही है। यदि यह विशेषता न रही होती, तो उसे भी अन्य दुर्बलकाय प्राणियों की तरह गई-गुजरी स्थिति में जीवन व्यतीत करना पड़ता॥१६-२४॥

व्याख्या-परिवार संस्था एक ऐसा संगठन है, जिसमें मनुष्य अध्यात्म दर्शन एवं व्यावहारिक जीवन-साधना के महत्वपूर्ण सोपानों को सीखता, जीवन में उतारता एवं उन्हें समाज परिवार में क्रियानित कर अपनों मनुष्य जीवन सार्थक करता है। आस्तिकता अर्थात निराकार परमसत्ता को विश्व ब्रह्मांड रूप में समाए होने की मान्यता को स्वीकार करना, आध्यात्मिकता अर्थात 'स्व' के संबंध में अपनी परमात्मा के वरिष्ठ पुत्र होने की स्थापना को परिपक्व बनाना एवं धार्मिकता अर्थात विश्व उद्यान को श्रेष्ठ-समुन्नत बनाने हेतु अपने
सत्कर्मो को नियोजित कर देना। ये तीनों ही उपादान परिवार में रहकर भली-भाँति संपन्न होते रह सकते हैं । प्रकारांतर से ये ही उपासना, साधना, अराधना के क्रमश: पर्यायवाची हैं । इन्हीं से व्यक्ति महान अथवा दुर्बल बनता है। पारिवारिकता एक दर्शन है, जिसे अपनाकर व्यक्ति स्वयं अपने चिंतन, चरित्र एवं व्यवहार को परिष्कृत करता एवं अपने माध्यम से अन्य-अनेक को ऊँचा उठाता, प्रगति पथ पर बढ़ाता है।

कर्तव्यपालन को वरीयता 

सर्वसाधारण के प्रति अपना कर्तव्य निभाए बिना कितनी ही साधना, कर्मकांड आदि क्यों न कर लिए जाँए, निरर्थक हैं।

एक-एक भिक्षु का तथागत को ध्यान था और यह भी कि कौन-कैसा है? एक बार उन्हें किसी भिक्षु का समाचार नहीं मिला और न ही वह दिखाई दिया। अपने समीप खड़े भिक्षु भदंत आनंद से उन्होंने पूछा कि अमुक भिक्षु कहाँ है, तो भदंत आनंद ने उत्तर दिया-"वह अतिसार से पीड़ित है ।" सुनते ही तथागत बोले-"चलो उसे देख आएँ।"

भदंत आनंद और कुछ अन्य भिक्षु भी बुद्ध के साथ हो लिए। बुद्ध ने देखा रुग्ण भिक्षु अपनी कुटिया में अकेला बेसुध पडा है । किसी के द्वारा परिचर्या न किए जाने के कारण वह कुटिया में ही मल-मूत्र से लिपटा, सना पड़ा था। भगवान ने उसे देख कर कहा-"भाई, तुम्हें क्या कष्ट है?" "मुझे अतिसार है भगवन्"-भिक्षु ने कहा ।
"क्या? कोई भी तुम्हारी परिचर्या को नहीं आया?" "नहीं आया भगवन् ।" "तो भिक्षु, ऐसा क्यों हुआ कि भिक्खुभाल तुम्हारी देखभाल नहीं करते?" "भगवन्, वे सब योग साधनाओं में निरत रहते हैं, मैंने यही सुना है । इसीलिए उन्हें मेरी चिंता नहीं है, यह भी वे लोग कहते ।"

अपने पास खड़े भिक्षुओं से कुछ न कहते हुए तथागत ने भदंत आनंद से कहा-" जाओ आनंद जल ले आओ । हम इस भाई की सेवा करेंगे ।" "हाँ भगवन् ।" आनंद ने कहा और जल लेने को चल दिया । जब जल कलश आ पहुँचा, तो भगवान् ने स्वयं जल डाला और अपने ही हाथों से भिक्षु का सारा शरीर धोया। तथागत को स्वयं परिचर्या करते देख, वहाँ खड़े भिक्षुगण भी परिचर्या में हाथ बँटाने लगे । तथागत ने किसी से कुछ कहा नहीं। संध्या होने को थी । संध्याकालीन प्रार्थना के लिए सभी भिक्षुकगण एकत्र हो गए । परिचर्या के उपरांत तथागत बैठक में
पहुँचे और उन्होंने बिना किसी भूमिका के भिक्षुओं को संबोधित करते हुए कहा-" ज्ञान, योग और तप की कितनी ही महत्ता क्यों न हो, पर वे करुणासिक्त सेवा के बिना किसी भी प्रकार की उपलब्धि नहीं करा सकते । तुम सब सेवा-साधना को प्राथमिकता दो, बाद में योगाभ्यास करो। उसी में तुम्हारी संघ में आने, भिक्षु बनने की सार्थकता है ।"

बोली मनुष्यों की बोलो

एवरम गारफील्ड जिस ग्राम में रहते थे, उसमें एक दिन भयंकर आग लगी। सारा गाँव स्वाहा होने जा रहा था, पर कोई बुझाने के कारगर प्रयत्न न कर रहा था। एवरम गारफील्ड गीला कंबल लपेट कर कुदाली-फावड़ा आदि लेकर आग बुझाने चले, जो मनुष्य अथवा सामान निकाल
सकते थे, उसे निकालने में जुट गए। उनकी पत्नी व बच्चों ने कहा-"आप क्यों जोखिम उठाते हैं?" एवरम ने डपटते हुए कहा-"मनुष्यों की बोली बोलो । पशुओं की नहीं । मनुष्य को दूसरों की कठिनाई से निकालने का प्रयत्न करना चाहिए ।" इस ललकार को सुनकर स्त्री-बच्चे भी जुट गए और तब तक लगे रहे, जब तक आग बुझ न गई । इसमें उस परिवार को कई जगह झुलसना भी पड़ा। उनके बेटे जेम्स ने अपने पिता की सदाशयता और गाँव वालों की कृतज्ञता को देखा, तो उनका जी भर आया। सोचा अपने पिता जैसा उदार ही मुझे होना चाहिए। उनने बड़े होकर निरंतर देश की प्रगति में लगे रहने का  निश्चय किया और उस व्रत को निभाया। जनता ने भी अपनी कृतज्ञता का परिचय दिया । एवरम गारफील्ड के पुत्र जेम्स गारफील्ड अमेरिका के राष्ट्रपति बने।

परिवार में रहकर की गई उनके पिता की सुसंस्कारिता उपार्जन रूपी साधना ही ऐसे फलदायी परिणाम उत्पन्न कर सकी ।

संत शबरी

भक्त का मूल्यांकन उनके कर्मो से किया जाता है न कि ध्यानमग्न होकर की गई तप साधना से ।

अत्रि ऋषि के आश्रम में ज्ञान चर्चा चल रही थी। एक जिज्ञासु ने कहा-"भक्त जन भगवान् का दर्शन पाने उनके निकट पहुँचने का प्रयत्न करते है ।" फिर शबरी में ऐसी क्या विशेषता है, जिसके कारण भगवान् न केवल उसके घर पहुँचे, वरन् मान बढ़ाने के लिए उसके जूठे बेर भी माँग-माँग कर खा लिए। अत्रि ने कहा-" शबरी भक्त नहीं संत है । वह रात्रि में भजन और दिन में परमार्थ कर्मो में निरत रहती है ।" मातंग ऋषि के आश्रमवासियों के वेत्रवती नदी तक पहुँचने का कंटीला मार्ग उसी ने झाड़ियों से रहित किया और नित्य ही उस मार्ग की सफाई भी की।

भगवान् ऐसे भक्तों को सम्मान देने स्वयं उनके घर जाते है ।

पहले कर्तव्य फिर पूजा 

संत विनोबा भगवान् कृष्ण के बड़े भक्त थे। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् दर्शन देने उनके घर आए । संत अपने वृद्ध माता-पिता की सेवा में संलग्न थे । भगवान् को घर आया देख कर वे पुलकित हो गए । पर विवेक नहीं खोया । भगवान् के लिए उनने पास में पड़ी ईंट उठाकर बैठने के लिए रख दी और कहा-"अपने कर्तव्य धर्म को पूरा कर लूँ तब आपकी पूजा-अर्चा करूँगा ।" भगवान् ईंट पर प्रतीक्षा में बैठे रहे । नियत उत्तरदायित्व से निवृत्त होने पर उनकी पूजा हुई । इंटवाला विनोबा मंदिर अभी भी
प्रख्यात है ।

नया प्रकाश-नयी प्रेरणा

तुकदेव का एक गद्य काव्य है।

मैं जा रहा था सुनसान सड़क पर। देखा एक बुभुक्षित भिखारी को । बहुत ही दुर्बलथा वह। याचना थी उसकी आँखों में। देना चाहा पर मेरी जेब में कुछ भी नहीं था, एक भी पैसा नहीं । क्या करूँ? अंत में मैने उसका हाथ पकड लिया । उठाया और सिर पर हाथ फिराया। आशा दिलाई। मैं न सही कोई दूसरा मदद करेगा । आप हताश न हों । भिक्षुक के होठ हिले । बोला-"मेरे ठंडे हाथों को अपने गर्म हाथों से पकड़कर जो गर्मी दी, उससे भी बहुत राहत मिली। आपका असहान भूलने वाला नहीं हूँ । मैं धीमे पैरों आगे बढ़ा। सोचता था उस भिक्षुक ने मुझे नया प्रकाश दिया। नया द्वार खोला और नई राह दिखाई । ये छोटे-छोटे से प्रसंग मनुष्य को श्रेष्ठ बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ऐसे अवसर कभी चूक न जाए, हर परिजन को इसके प्रति सतर्क रहना चाहिए ।

बोनीफेस झरना

संत बोनीफेस ने आजीवन औरों की सेवा की, पर कभी किसी से कुछ माँगा नहीं, भले ही उन्हें कई दिन उपवास ही क्यों न करना पड़ा हो ।

एक बार उन्हें कई दिन तक कुछ खाने को न मिला । एक स्त्री दूध निकाल रही थी । उन्हें ऐसा लगा कि अपने भीतर न माँगने का अहंकार उठ रहा है, सो उन्होंने तुरंत ही उस स्त्री से थोड़ा दूध माँगा। उसके पति ने बीच में ही रोककर दूध देने से इन्कार कर दिया। संत बिना किसी दुर्भाव से आगे बड़े, पर भूख सहन न करने के कारण जमीन पर गिरपड़े । वहीं एक निर्झर फूट पड़ा। जो आज भी बोनीफेस निर्झर के नाम से प्रख्यात है ।

संतों जैसी उदारता यदि हर किसी परिवार संस्था के सदस्यों के मन में जीवित हो, तो वे अभावों में रहते हुए भी संतोष भरा यशस्वी जीवन जी सकते हैं ।

कम में भी निर्वाह तो संभव है?

एक साधु ने अपने सो सकने जितने आकार की एक झोपड़ी बनाई। अकेला रहता था । वर्षा की रात में एक और साधु कहीं से आया । उसने जगह माँगी । झोपड़ी वाले ने कहा-"इसमें सोने की जगह एक के लिए है, पर बैठे तो दो भी रह सकते है ।" आधी रात काटी । इतने में एक तीसरा साधु और कहीं से भीगता हुआ आ गया । वह भी आश्रय चाहता था। झोपड़ी वाले साधु ने फिर कहा-"जगह तो कम है, पर खड़े होकर हम तीनों रात काट सकते हैं ।" तीनों खड़े रहकर वर्षा से बचाव करते रहे । यदि अंदर उदारता हो, वसुधैव कुटुम्बकम् का भाव हो, तो कम साधनों में भी अधिक व्यक्तियों का निर्वाह होता रह सकता है ।

सबसे प्रेम करो

कुछ व्यक्ति एक वट वृक्ष के नीचे बैठे वार्तालाप कर रहे थे । सभी दुनियाँ के झंझटों से परेशान होकर भाग आए थे और साधु होने जा रहे थे । तब एक ने कहा-" अपने सब मिलकर जंगल में रहेंगे और तपस्या करेंगे । लेकिन यह तो सोचो कि जब ईश्वर वरदान माँगने को कहेगा, तो माँगेंगे क्या?" दूसरे ने कहा-"अन्न माँगेंगे । उसके बिना जीवित रहना संभव नहीं ।" तीसरे ने कहा-"बल मागेंगे । बल के बिना सभी कुछ निरर्थक है ।" चौथे ने कहा-" बुद्धि माँगना ज्यादा उचित है । बुद्धि की आवश्यकता प्रत्येक कार्य को करने से पूर्व होती है ।" तब पाँचवाँ बोला-"ये सब वस्तुएँ तो सांसारिक हैं। आत्म शांति मागेंगे, जो अंतिम लक्ष्य है मनुष्य का।" 


तब पहले व्यक्ति ने कहा-"तुम सब मूर्ख हो, क्यों न हम स्वर्ग ही माँग लें । वहाँ समस्त उपलब्धियाँ एक साथ ही हो जाएँगी।" तब विशाल वट वृक्ष ठहाका लगाता हुआ बोला-"मेरी बात मानो, तुम लोगों से न तपस्या होगी, न उपलब्धियाँ प्राप्त होंगी, क्योंकि यदि इतना ही मनोबल होता, तो संसार से घबरा कर न भागते। बिना मागें ही मैं एक वरदान देता हूँ तुम्हें । उसका नाम है प्रेम-प्राणिमात्र से प्रेम करो। प्रेम का अर्थ आत्म संयम और दूसरों की
सेवा-सहायता समझो । फिर देखो, जो वस्तु चाहोगे, वही प्राप्त करने की क्षमता आ जाएगी ।" यह सुकर वे उठकर अपने-अपने घर चले गए और विश्व-मानवता की सेवा में जुट गए ।

पूरे राष्ट्र का दर्द

जिन्हें सारा विश्व अपना परिवार प्रतीत होता है, वे व्यक्तिगत जीवन में स्वयं के प्रति कठोर एवं दूसरों के प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाते हैं। वे अपने पर अंकुश लगाते हैं, ताकि औरों को अभाव न हो । लोकसेवियो की यही जीवन साधना वास्तविक ईश्वर उपासना है ।

बापू गोलमेज सम्मेलन में भोग लेने के लिए लंदन गए । उन्हें ब्रिटिश राजा से भेंट करनी थी । राजा के सचिव ने बताया कि वह इस ढंग से भेंट नहीं कर सकते । राजा से मिलने के लिए यहाँ की परंपरानुसार एक विशेष प्रकार की पोशाक होती है, जिसे धारण करना होता है । गांधी जी ने कहा-"मैं भारतवर्ष से आया हूँ । वहाँ के रहने वाले व्यक्ति को घुटनों तक की एक धोती और ऊपर डालने के लिए अँगोछे से अधिक कुछ भी उपलब्ध नहीं है।
आप तो इतनी दूर बैठे है। आपको वहाँ की स्थिति का कुछ भी ज्ञान नहीं है । लोग कड़ी मेहनत करते हैं, फिर भी एक समय का भोजन कठिनाई से जुटा पाते हैं। टूटे-फूटे मकान में निवास करते हैं। निर्धन भारतवासियों का प्रतिनिधित्व करने के कारण मैं भी उसी स्थिति में रहना चाहता हूँ । यदि आपके राजा मुझसे भेंट करना नहीं चाहते, तो मैं अपने देश लौट सकता हूँ ।" सचिव राजा के पास गया । उसने गांधी जी की सारी बात कह सुनाई । राजा ने आदेश दिया कि "गांधी जी जिस प्रकार वस्त्र धारण किए हैं, उन्हीं वस्त्रों से मिलने दिया जाए, उनके लिए पूर्व निर्धारित विशेष प्रकार की पौशाक पहनने की आवश्यकता नहीं है ।" गांधी जी धोती पहने और चादर ओढे ही अपनी वार्ता के लिए उनके सम्मुख जा पहुँचे । ये ही विशेषताएँ थीं, जिस कारण उन्हें महात्मा, राष्ट्रपिता जैसे संबोधन दिए गए ।
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