प्रज्ञा पुराण भाग-3

॥अथ द्वितीयोऽध्याय:॥ गृहस्थ-जीवन प्रकरणम्-1

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गंगाद्वारे तु कुम्भस्य पर्वण: समये शुभे।
गंगातटे सुसम्मर्दो नृणां धर्मात्मनां महान्॥१॥
वर्द्धते स्म तथा श्रद्धा तीर्थयात्रिनृणां शुभा।
गेंव गतिशीला च प्रोच्छन्तीव ददृशे॥२॥
सम्बोध्योस्थितान् धौम्यो महर्षि: स उवाच च।
जगन्मंगलबोधिन्यां वाचि शान्ते तपोवने॥३॥

भावार्थ-गंगा तट पर हरिद्वार क्षेत्र में संपन्न हो रहे कुम्भ पर्व के आयोजन में धर्मप्रेमियों की भीड़ बढ़ती ही जा रही है। गंगा की तरह तीर्थ-यात्रियों की श्रद्धा भी उमँगती और प्रगतिशील दृष्टिगोचर हो रही थी। शांत तपोवन के समान उस स्थान पर महर्षि धौम्य ने उपस्थित जनों को उद्बोधित करते हुए कहा, उनकी वाणी में जगत् की कल्याण कामना टपक रही है ॥१-३॥

व्याख्या-कुम्भ पर्व पर आयोजित इस विशेष सत्र में श्रोताओं की भीड़ का विस्तार बढ़ना उतने महत्व की बात नहीं, जितनी कि श्रद्धा में प्रगति होना । भीड़ तो हाट-बाजारों में बाजीगर एवं नट भी खूब इकट्ठी कर लेते हैं । हल्के मनोरंजन-कौतुक के नाम पर नित्य भीड़ें एकत्र होती देखी जा सकती हैं, पर इनसे लोकहित का प्रयोजन सधता नहीं। कुम्भ पर्वो के आयोजन सूत-शौनक परंपरा में होते ही इसीलिए थे कि जनमानस में श्रद्धा उभार कर सत्प्रवृत्तियों का पोषण उन्हें दिया जाय। यह सत्र तो गृहस्थों का होने के नाते और भी महत्वपूर्ण था ।

विशेष बात यहाँ पर यह देखी जा सकती है कि श्रद्धा उपस्थित समुदाय में है भी एवं वह प्रगतिशील है । आदर्शो पर दृढ़ रहना भर पर्याप्त नहीं है । जब अंत: से उद्भूत भावनाएँ काल-परिवर्तन के साथ लोकोपयोगी संशोधनों को भी सहज भाव से स्वीकार करने लगें, तो श्रद्धा को प्रगतिशील माना जा सकता है । ऐसी श्रद्धा उमँगने का माहात्म्य प्रतिपाद्य विषय की श्रेष्ठता एवं वक्ता की विद्वता से भी बढ़कर हैं । जहाँ जनसाधारण को जनहित की कामना से किए जा रहे आयोजन का महत्व समझ में आ जाता है, वहाँ सुपात्र श्रोता स्वत: ही फूल पर मधुमक्खी की तरह रमने लगते हैं ।

धौम्य उवाच-
भद्रा! सद्गृहस्थास्तु भवन्तः सर्व एव हि।
नात्मानमाश्रमाद्धीनं कस्माच्चिदपि मन्यताम्॥४॥
लोभमोहेविलासानां गुह्यन्ते दुष्प्रवृत्तय:।
पतनस्य महागर्ते तर्हि पातो नृणां ध्रुवम्॥५॥
ईदृशाऽवसरा नूनं गृहस्थे सम्भवन्त्यलम् ।
परं विवेकशीलास्तु रक्षन्त्यात्मानमात्मना॥६॥
दुर्बलाया मनोभूमे: प्रवाहे प्रवहन्ति ये ।
ईदृशीमधिगच्छन्ति प्रायस्ते पुरुषा गतिम् ॥७॥
कर्त्तव्यधर्मं जानन्ति नरा ये ते गृहस्थजाम्।
मर्यादां परिजानन्त: पालयन्ति सदा च ताम्॥८॥
ईदृशानां नृणामेव कृते सञ्जायते ध्रुवम्।
गृहस्थाचरणं स्वस्य विश्वस्याऽपि तथैव च ॥९॥
कल्याणकारको हेतुरूभयोरपि पूरक: ।
श्रूयतां सावधानैश्च भवद्भि: समुपस्थितै: ॥१०॥

भावार्थ-महर्षि धौन्म ने कहा-हे भद्रजनो! आप लोग सद्गृहस्थ हैं। किसी आश्रम से अपने को हीन न समझें। लोप मोह और विलास की दुष्प्रवृत्तियाँ अपनाने पर कोई भी निश्चित रूप से पतनके  गर्त में गिर सकता है । ऐसे अवसर गृहस्थाश्रम में अपेक्षाकृत अधिक रहते ई लेकिन  विवेकशील स्वयं को इनसे बचाए रखते हैं। दुर्बल मनोभूमि के प्रचलन-प्रवाह में बहने वाले ही प्राय: ऐसी दुर्गति प्रााप्त करते देखे जाते हैं । जिन्हें कर्तव्यधर्म का ज्ञान है, वे गृहस्थ की मर्यादा को समझते तथा उसका पालन करते हैं । ऐसो के लिए गृहस्थ का आचरण आत्म-कल्याण और विश्व-कल्याण के दोनों ही प्रयोजन पूरे करने का निमित्त कारण बनता है। हे उपस्थितजनो! तुम सब सावधान होकर सुनो॥४-१०॥

अर्थ-सामान्यतया सभी आश्रमों में गृहस्थ जीवन को सर्वाधिक माया, प्रपंचमय मानकर अन्य आश्रमों से छोटा माना जाता है । इस मान्यता को भ्रांतिपूर्ण बतलाते हुए, सत्राध्यक्ष महर्षि धौम्य उपस्थित श्रोताओं को एक मनोवैज्ञानिक ग्रंथि से मुक्त होने का उद्बोधन देते दृष्टिगोचर हो रहे है ।

दो अतिवाद इस आश्रम में देखने को मिलते हैं । अत्यधिक मोह-ममता के मायाजाल में फँसकर कइयों को और भी अधिक उलझते-पतित होते देखा जा सकता है । दूसरी ओर कुछ व्यक्ति भ्रांतिवश अथवा कायरतावश इसे त्यागकर वैराग्य की बात करने लगते हैं, जबकि वह मार्ग इस आश्रम की कसौटी पर खरा उतरने वाले साधकों के लिए है एवं इससे भी अधिक दुष्कर है ।

ऋषिश्रेष्ठ यहाँ कहते हैं कि मनुष्य के पतन का कारण, गृहस्थ जीवन नहीं, अपितु उसके निर्धारित अनुशासनों से भटक जाना है । लोभ, मोह, व्यसन आदि दुष्प्रवृत्तियाँ चाहें गृहस्थ हो, चाहे विरक्त, किसी को नहीं छोड़तीं । इनसे जूझने के लिए तो विवेक का अवलंबन अविवार्य है ही । गृहस्थ को उसका निमित्त कारण मानते हुए अन्य कहीं बिना मन लगे, समय काटने की अपेक्षा तो इस आश्रम को भली प्रकार निबाहते हुए विवेक का उपयोग कर दुष्प्रवृत्तियों से बचना चाहिए एवं आत्म परिष्कार की लक्ष्य सिद्धि की ओर बढ़ चलना चाहिए।

त्याग घर का नहीं, विकारों का

एक व्यक्ति अपने चार बच्चों को अनाथ छोड़कर ही एक रात्रि घर से भाग निकला, आत्म कल्याण के लिए । किसी संत के पास जाकर वह भगवत् प्राप्ति का उपाय पूछने लगा । उस व्यक्ति ने अपने त्याग की कहानी सुनाते हुए यों कहा -

"मेरी पत्नी उस समय सो रही थी, एकाएक बच्चा चीखा तो मुझे लगा अब पत्नी जाग पड़ेगी और मेरा घर से निकलना कठिन हो जायेगा, पर पत्नी ने बच्चे को छाती से लगाया और बच्चा चुप हो गया । मैं चुपचाप निकल आया । महात्मन् । अब संसार की मोह-माया में फँसना नहीं चाहता ।"

साधु बोले-"मूर्ख । भगवान तो तेरे घर में ही बैठें है, जिन्हें तू छोड़ आया था । जा, जब तक तू उनकी सेवा नहीं करेगा, तब तक तेरा उद्धार नहीं होगा । पहले परिवार को संभाल, अपने कर्तव्यों को पूरा कर, फिर सोचना कि पारिवारिक दायित्वों को निबाहते हुए तेरा आत्म-कल्याण का लक्ष्य पूरा हुआ या नहीं? अध्यात्म भगोडों का नहीं, शूरवीरों का साथ देता है । परिवार में रहते हुए भी तेरी साधना पूरी होती रह सकती है । त्याग करना ही है, तो अंत: के विकारों एवं भ्रम-जंजालों का कर।"  व्यक्ति ने वास्तविकता समझी एवं लौट पड़ा अपने घर को, अपनी व्यावहारिक साधना की पूर्ति हेतु ।

इसी तरह शिखिध्वज को यथार्थता का बोध हुआ ।

यथार्थता का बोध

शिखिध्वज ब्रह्मज्ञानी बनना चाहते थे । उनने सुन रखा था, त्याग और वैराग्य के द्वारा ब्रह्मज्ञानी बना जा सकता है । सो उनने घर-गृहस्थी, खेती-बाड़ी आदि सभी जिम्मेदारियों को छोड़कर बन में पलायन किया और वहीं कुटी बनाकर रहने लगे ।

उस वन में तपस्वी शतमन्यु रहते थे । इस नवागंतुक को एक गृहस्थी छोड़कर दूसरी बसाने के प्रयत्न में संलग्न देखकर खिन्न हुए और समझाने के लिए उनके पास पहुँचे ।

गाँव की गृहस्थी उजाड़कर वन में वही सरंजाम जुटाने से क्या लाभ? वस्तुओं से, व्यक्तियों से तो पाला पड़ेगा ही । वैराग्य तो अहंता और लिप्सा से होना चाहिए और बन पड़े तो घर भी तपोवन बन सकता है ।

शिखिध्वज को यथार्थता का बोध हुआ, वे घर वापस लौट गए और परिवार के बीच रहते हुए सेवा-साधना में निरत रहे । एकाकी मुक्ति पाने के स्थान पर उनने समूचे परिवार को ऋषि बनाया । उनके वंशज बाल्यखिल्य ऋषियों के नाम से प्रख्यात हुए और देव संस्कृति को, समूचे जम्बू द्वीप को देवभूमि बनाने में सफल रहे ।

स्वर्ण की झाँकी

शिष्यगण गुरुदेव से स्वर्ग-नरक का विवरण पूछते रहते । गुरुदेव ने कहा-"वे दोनों इसी धरती पर है । कर्मो के अनुसार इसी जीवन में मिलते रहते हैं ।"

शिष्यों का समाधान नहीं हुआ तो उन्हें साथ लेकर गुरु कई परिवारों में गए और उनको कर्म तथा प्रतिफल का प्रत्यक्ष दर्शन कराया ।

नरक का दर्शन करानं वे एक बहेलिए के घर गए, जो जीव हत्या करके पेट पालता, किन्तु था सर्वथा निर्धन। बच्चे सबके सब कुकर्मी, विग्रही और दुर्गुणी। घर में प्रत्यक्ष नरक था ।

दूसरा घर वेश्या का था । युवावस्था में उसने कमाया भी खूब और गिराया भी बहुतों को; पर इस वृद्धावस्था में वह अनेक रोगों से ग्रसित हो गयी थी । तिरस्कार सहती और भिक्षा से पेट भरती थी ।

तीसरा घर एक् सद्गृहस्थ का था । संयमी, परिश्रमी, उदार और सद्गुणी । पूरा परिवार सुखी-समृद्ध था । घर
में स्नेह-सौजन्य बिखरा फिरता था ।

चौथा प्रवेश एक संत की कुटी में हुआ । मस्ती देखते बनती थी । शिक्षा और प्रेरणा पाने के लिए अनेक श्रेयार्थी श्रद्धपूर्वक उनके चरणों में बैठे थे ।

गुरु ने दो नरक और दो स्वर्ग के रूप दिखाए और शिष्यों से कहा-"कर्मफल के अनुरूप इन दोनों ही परिस्थितियों को कहीं भी प्रत्यक्ष देखा जा सकता है ।

गृहस्थ एक प्रत्यक्ष स्वर्ग है, इसी धरती पर है । घर में सत्प्रवृत्तियों की फसल बोकर, उससे सब कुछ पाया जा सकता है, जिसकी कि स्वर्ग में होने की अलंकारिक गाथाएँ कही जाती हैं ।

सत्प्रवृत्तियाँ विकसित करें 

आत्म-कल्याण, मोक्ष, परमतत्व की प्राप्ति संबंधी बहुत सी भ्रांतियाँ व्यक्तियों में पाई जाती हैं । सत्प्रवृत्तियों का अभ्यास कहीं भी करते हुए, व्यक्ति अपना व दूसरों का हित साधन कैसे कर सकता है, इसका बड़ा सुंदर उदाहरण स्कंद पुराण की एक कथा में मिलता है ।

एक बार कात्यायन ने देवर्षि नारद से पूछा-"भगवन् । आत्म-कल्याण के लिए विभिन्न शास्त्रो में विभिन्न उपाय-उपचार बताए हैं । गुरुजन भी अपनी-अपनी मति के अनुसार कितने ही साधन-विधानों के माहात्म्य बतलाते है । जप, तप, त्याग, वैराग्य, योग, ज्ञान, स्वाध्याय, तीर्थ, व्रत, ध्यान-धारणा, समाधि आदि के अनेक उपायों में से सभी को कर सकना एक के लिए संभव नहीं । फिर सामान्यजन यह भी निर्णय नहीं कर सकते, इनमें से किसे चुना जाय? कृपया आप ही मेरा समाधान करें कि सर्व सुलभ और सुनिश्चित मार्ग क्या है? अनेक मार्गो के भटकाव से निकालकर मुझे सरल अवलंबन का निर्देश दीजिए।"

उत्तर देते हुए नारद ने कात्यायन से कहा-"हे मुनि श्रेष्ठ । सद्ज्ञान और भक्ति का एक ही लक्ष्य है कि मनुष्य सत्कर्मो में प्रवृत्त हो । स्वयं संयमी रहे और अपनी सामर्थ्यों को, इन गिरों को उठाने और उठो को उछालने में नियोजित करे । सत्प्रवृत्तियाँ ही सच्ची देवियाँ है । जिन्हें जो जितनी श्रद्धा से सींचता है, वह उतनी ही विभूतियाँ अर्जित करता है । आत्म-कल्याण और विश्व-कल्याण की समन्वित साधना करने के लिए परोपकाररत रहना ही सर्वश्रेष्ठ है, चाहे व्यक्ति किसी भी आश्रम में हो ।"

स्कंद पुराण के इस वार्ता प्रसंग में कात्यायन की तरह अन्यान्य जिज्ञासुजनों का भी समाधान विद्यमान है ।

आश्रम नहीं स्वभाव बदलो

एक युवक बड़े उद्धत स्वभाव का था । बात-बात पर आग-बबूला होता और कहने, समझाने पर संन्यासी हो जाने की धमकी देता । परिवार वालों ने आए दिन की खिच-खिच से तंग आकर उसे संन्यास की छूट दे दी ।

समीप ही नदी किनारे एक संन्यासाश्रम था । उसकी जानकारी भी युवक को थी, सो वह सीधा वहीं पहुँचा। उसके संचालक ने पहले ही उसकी उद्दंडता सुन रखी थी । पहुँचा तो रास्ते पर लाने का विचार करते हुए, और भी अधिक स्नेह दिखाते हुए पास बिठाया । संन्यास दीक्षा का प्रस्ताव किया, तो उसे दूसरे दिन देने की अनुमति मिल गयी । दीक्षा के विधान में पहला कर्म था, समीपवर्ती नदी में दिन निकेलने के पूर्व स्नान करके लौटना । आलसी प्रवृत्ति और ठंड से डरने वाले स्वभाव में यह निर्धारण उसे अखरा तो बहुत, पर करता क्या, नियम पाले बिना कोई-चारा भी न था ।

जिन कपड़ों को खूँटी पर टाँग कर युवक नहाने गया था । आश्रम के संचालक ने उन्हें फाड़ कर चिथड़े- चिथड़े कर दिया। काँपता-थरथराता वापस लौटा तो कपड़े फटे पाए । गुस्सा उसका और बढ़ रहा था ।

दीक्षा का मुहूर्त शाम का निकला । तब तक कुछ फलाहार करना उपयुक्त समझा गया, तो उसकी थाली में नमक मिले करेले रख दिए गए । कडवें बहुत थे, सो गले से नीचे न उतरे ।

जल्दी उठने, ठंडक में नहानै, कपड़े फट जाने और करेले खाने के कारण वह बहुत खिन्न-उद्विग्न हो रहा था। संचालक ने उसे फिर बुलाया और कहा-"संन्यास में कोई बारात की सी दावत नहीं होती । इसमें प्रवेश करने वालों को पग-पग पर मन को मारना पड़ता है । परिस्थितियों से तालमेल बिठाना, संयम बरतना और अनुशासन पालना पड़ता है । इसी अभ्यास के लिए तो संन्यास लिया जाता है।"

मुहूर्त आने तक युवक अपने प्रस्ताव पर पुनिर्विचार करता रहा । तीसरे प्रहर वह यह कहते हुए घर वापस लौट गया कि यदि संयम-साधना और मनोनिग्रह का नाम ही संन्यास है, तो उसे घर रहकर सुविधापूर्वक क्यों न पालूँ?

युवक बदली हुई मन:स्थिति लेकर घर वापस लौटा । स्वभाव बदला, तो वातावरण बदलते देर न लगी ।
परिवार में ही उसने तपोवन जैसा वातावरण बना लिया । भ्रांतियाँ दूर हुई तो सही राह भी मिली ।

संग्राम से जूझो, भागो मत

महर्षि अंगिरा ने गोपमाल को तिलक किया और कहा-"तात्! मैं जानता हूँ कि तुम्हारे अंत:करण में मुक्ति की आकांक्षा अत्यंत प्रबल है, तुम जाओ और वर्णाश्रम धर्म की मर्यादानुसार गृहस्थ धर्म का अनुशीलन करो।"

"आपकी आज्ञा शिरोधार्य है गुरुदेव! पर यह संसार तो बंधन है, वहाँ जाकर मुक्ति जैसे जीवन लक्ष्य को भूल गया तो" "भूलोगे नहीं तात्! यदि तुमने कर्म के फल में आसक्ति नहीं रखी, तो गृहस्थी जैसे कठोर उत्तरदायित्व का पालन करते हुए भी, तुम उसी लक्ष्य की ओर अपने आपको अग्रसर पाओगे । श्रावस्ती के एक ग्रामीण की कन्या हेममालिनि के साथ विवाह करो एवं सुख से जीवन बिताओ । गृहस्थ में रहकर ही व्यावहारिक जीवन की साधना करो ।"

गृहस्थी के कार्य बड़े बेढंगे होते हैं । एक बार धन के अभाव में गोपमाल को गायें बेचनी पड़ीं । गोपमाल को पता चला कि उन गायों का वध हो गया । वह स्वयं को इस पाप का कारण मानकर ग्लानि से भर गया, उसका मन छटपटाने लगा एवं गृहस्थी का परित्याग करने का निश्चय कर लिया । हेममालिनि ने भी उनके मन की बात जान ली, उसने निश्चय कर लिया कि मैं भी पति के साथ ही गृह त्याग दूँगी।

रात्रि के निविड अंधकार में गोपमाल चुपचाप उठा । पत्नी हेममालिनि भी साथ हो ली । ज्यों ही दोनों आगे बड़े, एक आकृति सामने आयी, गोपमाल ने पहचाना कि यह तो महर्षि अंगिरा खड़े है। उन्होंने दोनों को आशीर्वाद देते हुए कहा-"तुम दोनों आत्म-कल्याण के इच्छुक हो । परंतु जो सामाजिक जीवन की परिस्थितियों से ही नहीं लड़ सका, तप-तितीक्षाओं को कैसे सहन करेगा। मनुष्य कर्म करे, सफलता या विफलता, सुख-दु:ख, मान-अपमान में स्थिर रहकर फल से प्रभावित न हो। अपने आपको भगवान् का प्रतिनिधि मानकर लोक-सेवा में स्वयं को नियोजित रखे । फलसुतियाँ तो स्वयं ही मिल जाती है ।

गोपमाल ने तत्वदर्शन को समझा और लौट पड़ा अपने गृहस्थ रूपी तपोवन में पत्नी के साथ-पुन: समर मे जूझने हेतु। उसे अब आध्यात्मिकता की सही परिभाषा जो समझ में आ गयी थी।
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