प्रज्ञा पुराण भाग-3

अथ षष्ठोऽध्याय: सुसंस्कारिता-संवर्धन प्रकरणम्-5

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कथानकेषु चैतेषु नरोन्नतिकराणि च ।
श्रेष्ठानामिह नृणां च तान्युदाहरणानि तु॥६३॥
इत्थं बुद्धौ तु चेष्टन्ते प्रत्यक्षं सम्मुखे समे ।
तिष्ठन्त इव कृत्यं स्वमुपदेशं दिशन्ति न:॥६४॥
परिवाराय चाऽस्माभिर्यथा स क्रियते व्यय: ।
दीयते समयोऽथापि क्रियते स्म उत्तम:॥६५॥
तथैवेयं व्यवस्थाऽपि भवेदेव मिलेदयम् ।
सत्संगावसरो नूनं परिजनस्य कृते सदा ॥६६॥
ज्ञानमन्दिररूपाच्च स्वाध्याय: पुस्तकालयात्।
कथाप्रसंगात् सत्संगो लाभरूपेण सम्मतौ ॥६७॥
याववाप्य कुटुम्बस्य स्तर उन्नतिमाव्रजेत् ।
आशास्यते समैर्योग्यकमैंतत्कार्यमेव तु ॥६८॥

भावार्थ-इन कथानकों में ऊँचा उठने वाले, आगे बढ़ने वाले श्रेष्ठ व्यक्तियों के उदाहरण इस प्रकार
मस्तिष्क में घूमने लगते है, मानो वे सामने ही बैठे और अपना क्रिया-कृत्य अनुभव एवं उपदेश हमें प्रस्तुत कर रहे हों। परिवार के लिए जिस प्रकार छत खर्च किया जाता है, समय दिया और श्रम किया जाता है उसी प्रकार यह व्यवस्था भी होनी चाहिए कि परिजनों को स्वाध्याय एवं सत्संग का अवसर मिलता रहे। ज्ञान-मंदिर
पुस्तकालय से स्वाध्याय का और कथा-प्रसंग से सत्संग का लाभ मिलते रहने पर परिवार का स्तर हर दृष्टि से समुन्नत होने की आशा बँधती है। इसलिए यह कदम उठाए ही जाने योग्य हैं॥६३-६८॥

व्याख्या-कथानकों का, जीवन चरित्र प्रसंगों का, सबसे बड़ा लाभ यह है कि जिन महापुरुषों के हमें अब दर्शन नहीं हो सकते, जिनके सत्संग का लाभ हम नहीं उठा सकते, उनसे स्वाध्याय के माध्यम से प्रत्यक्ष भेंटें का प्रयोजन सध जाता है । यह एक प्रकार से परोक्ष सत्संग है । उनके विचार सत्साहित्य के पढ़ने सुनने से ही हमें मिलते हैं, जो प्रगति की दिशा में बढ़ने की दिशाधारा देते हैं । परिवार के सदस्यों का जीवन स्तर ऊँचा उठाने प्रगति पथ पर द्रुतगति से आगे बढ़ाने के लिए महापुरुषों का प्रत्यक्ष या परोक्ष मार्गदर्शन आवश्यक है । परोक्ष मार्गदर्शन घरेलू ज्ञान मंदिर पुस्तकालय से सहज सुलभ हो सकता है । इसके लिए परिवार के प्रत्येक सदस्य को स्वाध्याय के प्रति रुचि जागृत करनी चाहिए ।

सत्साहित्य का स्वाध्याय मात्र बौद्धिक विकास के लिए ही नहीं, आत्मिक विकास के लिए भी आवश्यक है । योग साधना में भी स्वाध्याय साधना को एक अभिन्न अंग माना गया है । वह शौच, संतोष, तप एवं ईश्वराधना इन चार के समान महत्वपूर्ण पाँचवाँ नियम है । आस्थाओं के अभिवर्धन एवं दृढ़ीकरण तथा चरित्र निर्माण के लिए स्वाध्याय अनिवार्य है ।

सृष्टि में सर्वोंत्तम वस्तु कौन है?

एक बार एक मित्र ने सर जान हर्शल नामक प्रख्यात पाश्चात्य विद्वान से प्रश्न किया-"आपको सृष्टि में सर्वोत्तम वस्तु कौन सी लगी ।" तो उन्होंने मुस्कराते हुए उत्तर दिया-"भाँति-भाँति के संयोग-वियोग आए, पर वह दृढ़तापूर्वक मेरे साथ जीवन के सुख और आनंद का झरना बना रहे। मेरे खिलाफ हवा चले, लोग मुझे बुरा कहें, धिक्कारे, रास्ता रोकें, उस समय मुझे बेपरवाह बना दें । जीवन में दुखों से मेरी ढाल बन जाए। ईश्वर से प्रार्थना करने का अवसर मुझे मिले, तो मैं निवेदन करूँगा-'हे प्रभु! मुझे विद्या पढ़ते रहने की रुचि दें। ज्ञान के धार्मिक महत्व को घटाए बिना यहाँ मैंने केवल उसके सांसारिक लाभ बताए हैं ।' विद्या की अभिरुचि कैसी आनंददायिनी है, संतोष का कैसा उन्मुक्त साधन है, इतना ही मैंने यहाँ स्पष्ट किया है ।"

गरीबी स्वाध्याय में बाधक नहीं

प्राचीन काल में स्वाध्याय लोगों की एक स्वाभामिक वृत्ति हुआ करती थी। 

"काव्यशास्त्रविनोदन कालो गच्छति धीमताम्" क सिद्धांत सभी मानते है। भारतीय संस्कृति की प्रतीक 'देवी सरस्वती' की लोग आजीवन उपासना किया करते थे और इस प्रकार बिना श्रम, संसार-सागर से पार उतर जाया करते थे। अब स्थिति भिन्न है। लोग अभाव और आर्थिक परिस्थितियों को कारण बताया करते हैं। कुछ लोगों को समय न होने की भी शिकायत होती है। मूल बात यह है कि ऐसे व्यक्तियों को विद्याध्ययन का न तो महत्व ही मालूम होता है और न उसकी रुचि ही होती है। अनेक दृष्टांतों से यह सिद्ध हो चुका है कि गरीबी विद्याभ्यास में बाधक नहीं है ।

पब्लियस, साइरस, इसप, किलेन्थिस, बुकर टी वाशिंगटन और टेरन्स आदि प्रतिभाशाली विद्वानों का प्रारंभिक जीवन बड़ी ही कठिनाइयों में बीता है, तो भी उन्होंने ज्ञानार्जन की महत्ता प्रतिपादित कर दिखाई है । एपिक टेटस १० वर्ष गुलाम रहा था । उसके मालिक ने उसका पैर ही तोड़ दिया था, किन्तु बाद में उसने अपनी झोपड़ी में बैठकर शास्त्रों का स्वाध्याय किया और विद्वत्ता उपलब्ध की । रोम के तत्कालीन सम्राट् आडियान भी उसके पांडित्य का लोहा मानते थे।

पाइथागोरस ज्यामिति शास्त्र का प्रकांड विद्वान हुआ है । वह जीवन शास्त्र और नैतिक दर्शन का भी पंडित था । बहुत कम लोग जानते होंगे कि वह जंगल से लकड़ियाँ काटकर लाता था और उन्हें बेचकर अपनी आजीविका चलाता था।

टस्कनी की टुयोरण्टाइन एकेडमी कौन्सिल के उच्च और महान प्रतिष्ठा के पद पर नियुक्त होने वाला प्रसिद्ध इटालियन लेखक जेली जाति का दर्जी था । उसने इतने ऊँचे पद पर पहुँच जाने पर भी अपना धंधा दर्जीगिरी नहीं बंद किया । वह कहा करते थे-"मैने इसी व्यवसाय के सहारे विद्या पाई है, मुझे ज्ञान से इतना प्रेम हो गया है कि अपनी इस अजीविका के सहारे मृत्यु पर्यंत ज्ञानार्जन करते रहने की हार्दिक अभिलाषा है।

इटली का मेटास्टासिओ जब बालक था, तो शहर की सड़कों में गाने गाया करता था। उससे जो पैसे मिलते थे, उनकी किताबें और पत्र-पत्रिकाएँ खरीदकर अधिकांश समय पढ़ने में लगाया करता था । अंत में उसकी भावना
सिद्ध हुई और वह एक दिन इटली का मशहूर कवि हुआ। डॉ० जान प्रीडा जो बुर्स्टर के पोप नियुक्त हुए थें, उन्हें पढ़ने की अभिलाषा इतनी तीव्र हुई कि वह आक्सफोर्ड तक पैदल चलकर गए । फीस और खाने के लिए कोई सहारा नहीं था, इसलिए वह कॉलेज के होटल में काम करने वाले रसोइए की मदद करते थे । उसी से उन्हें इतने पैसे मिल जाते थे, जिससे किसी तरह फीस और रोटी का साधन बन जाता था । वनस्पति शास्त्र के जन्मदाता मानियस भी इसी तरह एक मोची के पास काम करते हुए पढ़े थे ।

यह उदाहरण इसलिए दिए जा रहे हैं कि आर्थिक स्थिति विपरीत हो, तो भी ज्ञान की आराधना की जा सकती है । ज्ञान ही धन और ज्ञान ही जीवन है । उसके लिए किया गया कोई भी बलिदान व्यर्थ नहीं जाता । इसीलिए तो शास्त्रकार ने संदेश दिया है-

गतोऽसि वयसि ग्राह्या विद्या सर्वात्मना बुधै:। 
यद्यपि स्यान्न फलदा सुलभा सान्यजन्धनि॥

'हे मनुष्यो । उम्र बीत जाने पर भी  यदि विद्या प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हो, तो तुम निश्चय ही बुद्धिमान हो । विद्या इस जीवन में फलवती न हुई, तो भी दूसरे जन्मों में वह आपके लिए सुलभ बन जाएगी ।'

महापुरुषों के जीवन तथा उनसे संबंधित घटनाक्रमों के अध्ययन से प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रेरणाएँ ग्रहण की जा सकती हैं ।

स्वावलंबन ही पारिश्रमिक

बंगाल के एक छोटे से स्टेशन पर रेल रुकी । एक युवक ने जरा जोर से आवाज लगाई- "कुली! कुली!!" भला उस छोटे स्टेशन पर कुली कहाँ से आता? तभी एक अधेड़ आदमी ने देखा कि युवक के पास एक छोटी सी पेटी है, सो वह उसके पास चला गया । तब युवक ने उसे ही कुली समझ कर झिड़कते हुए कहा-"तुम लोग बड़े सुस्त हो जी, मैं कब सें पुकार रहा हूँ । ले चलो इस बक्से को उठाकर ।" उस आदमी ने बिना कुछ कहे-सुने पेटी उठा ली और युवक के पीछे-पीछे चल दिया । घर पहुँचने पर युवक ने मजदूरी के पैसे जो निकाले, तो वह आदमी बोला-"धन्यवाद! मुझे इसकी जरा भी जरूरत नहीं है ।" तभी घर के अंदर से युवक का बड़ा भाई आया और बोला-"नमस्कार विद्यासागर जी।" सुनते ही युवक के पैरों तले की जमीन खिसक गई । वह विद्यासागर जी के चरणों पर लोट गया । उसे उठाकर गले लगाते हुए वे बोले- "भाई, मेरे देशवासी व्यर्थ का अभिमान त्याग कर अपने हाथों से अपना काम स्वयं करने लग जाये, यही मेरी इच्छा है । तुम आगे से स्वावलंबी बनो, यही मेरा मेहनताना है ।"

ऐसे दृष्टांत व्यक्ति को आत्मावलंबन हेतु प्रेरणा तो देते ही हैं, बड़ों की उस विनम्रता-निरहंकारिता की भी झाँकी देते हैं, जिसे अपनाने के कारण ही वे महान बने ।

असफलता में सफलता 

राजार्षि पुरुषोत्तमदास टंडन उन दिनों बीमार थे। उन्हें देखने के लिए उनके एक पुराने सहपाठी मित्र प्रयाग गए। तब राजर्षि ने बातों ही बातों में अपना एक संस्मरण सुनाया-किसी समय मैं देशी रियासतो में राजाओं का सुधार करने के लिए एक आदर्श योजना बना रहा था। ताकि यह दिखाने का अवसर मिले कि भारतीय अंग्रेजों से अच्छा शासन कर सकता है। इसी उद्देश्य के लिए बनाई गई योजना को क्रियान्वित करने हेतु मैंने नामा रियासत में नौकरी की, परंतु मैं असफल रहा। उनके मित्र ने कहा-"यह तो बडा अच्छा रहा ।" "यही तो मैं भी कहना चाहता था। अंग्रेजों के कारण मैं असफल हुआ, तो मैने अपना ध्यान अंग्रेजों को यहाँ से हटाने में लगाया। ईश्वर के प्रति मैं धन्यवाद से भर गया हूँ। नामा में सफल होने पर संभव था कि मैं कूपमंडूक बना रह जाता । इस असफलता ने मेरे लिए सफलता और साधना का नया द्वार खोल दिया"-टंडन जी बोले ।

अपने कार्यो में मिली सफलता-असफलता के प्रति यह सृजनात्मक दृष्टि भर अपनाने से ही वे राजर्षि उपाधि के अधिकारी सिद्ध होते रहे । यह प्रसंग हर उस व्यक्ति के लिए जीवनमूरि के समान है, जो प्रगतिपथ पर असफलताओं से जूझते हुए आगे बढ़ना चाहता है ।

गीता का सार

एक युवक स्वामी विवेकानंद के पास गया और संक्षेप में गीता का सार समझा देने का आग्रह करने लगा । स्वामी जी ने कहा-"खेल के मैदान में जाओ और देखो कि खिलाड़ी कितनी दिलचस्पी से खेलते है, पर हार-जीत की चेहरे पर तनिक भी झलक नहीं आने देते-यही गीता का सार है ।"

स्वयं का आदर्श

सामान्यजन प्रेरणा तभी लेते हैं, जब आदर्शो की चर्चा करने वाले, नीतिवेत्ता, नियम बनाने वाले स्वयं भी उनका पालन करें। उस साल लू अधिक चली । प्रजा के झोंपड़े फूँस के बने थे। मजबूत सामग्री उपलब्ध न थी। न जाने क्यों लोग लापरवाह भी रहने लगे थे, सो आए दिन अग्निकांड की, घटनाओं के समाचार दरबार में पहुँचते। बिंबसार जैसे दयालु राजा के लिए स्वाभाविक था कि वह पीड़ितों की सहायता करें। बहुत अग्निकांड हुए, तो सहायता राशि का खर्च भी पहले की तुलना में बहुत बढ़ गया। लोगों की लापरवाही रोकने के लिए राजाज्ञा प्रसारित हुई, कि जिसका घर जलेगा, उसको एक वर्ष श्मशान में रहने का दंड भुगतना पड़ेगा। लोग
चौकन्ने हो गए। एक दिन राजा के भूसे के कोठे में आग लगी और देखते-देखते जल गया। समाचार मिलने पर दरबार से राजा को श्मशान में रहने की आज्ञा हुई। दरबारियों ने समझाया-" नियम तो प्रजाजनों के लिए होता है, राजा तो उन्हें बनाता है, इसलिए उस पर वे लागू नहीं होते ।" बिंबसार ने किसी की न मानी। वे फूँस की झोपड़ी बनाकर श्मशान में रहने लगे। समाचार फैला, तो सतर्कता सभी ने अपनाई और अग्निकांड की दुर्घटनाओं का सिलसिला समाप्त हो गया ।

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