प्रज्ञा पुराण भाग-3

अथ चतुर्थोऽध्याय: शिशु-निर्माण प्रकरणम्-1

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दिवसोऽद्य चतुर्थस्तु धर्मसत्रस्य तस्य च ।
अभूद् गृहस्थजस्याशु यत्र धर्मात्मसु शुभा॥१॥ 
नृषु कुम्भागतेष्वेषा चर्चा प्रचलिताऽभित: ।
ऋषिधौंम्य: करोत्यत्र सत्संगमुपयोगिनम्॥२॥
श्रुतं येनैव सोत्साह: च नरोभूद् विहाय च ।
कर्माण्यन्यानि सत्संगे समयात्पूर्वमाययौ ॥३॥
आगन्तृणां तमुत्साहं दृष्ट्वा चैव प्रतीयते ।
विस्मृतं ते गृहस्थस्य ज्ञातुं गौरवमुत्तमम् ॥४॥
अभूवन् सफलता येन दायित्वानां स्वकर्मणाम्।
नवीनमिव संज्ञानं तेषां तत्नोदगात्रृणाम्॥५॥
श्रवणानन्तरं तत्र सन्दर्भे ते परिष्कतिम्।
परिवर्तनमानेतुमदृश्यन्त समुत्त्सुका:॥६॥
तेषामाकृतिगण्याश्च भावा एवं समुद्गता:।
अभूत्प्रवचनस्याद्य विषय: शिशुनिर्मिति:॥७॥

भावार्थ-आज गृहस्थ सत्र का चौथा दिन था। कुंभ पर्व में आए धर्मप्रेमियों में यह चर्चा फैली कि ऐसा उपयोगी सत्संग धौम्य ऋषि चला रहे हैं। जिसने सुना उसी का उत्साह भरा और सब काम छोड़कर उसी पुण्य प्रयोजन में सम्मिलित होने के लिए समय से पूर्व ही जा पहुँचे। आगतुकों के उत्साह को देखते हुए प्रतीत होता था कि वे भूली हुई गृहस्थ गरिमा को समझने में बहुत हद तक सफल हुए हैं। उन्हें अपने कर्तव्य और उत्तरदायित्व सिरे से भान हुआ है। सुनने के उपरांत वे उस संदर्भ में सुधार, परिवर्तन के लिए उत्सुक दृष्टिगोचर होते थे। यह विचार-भाव उनके चेहरों से टपके पड़ रहे थे। आज के प्रवचन का विषय था-'शिशु निर्माण'॥१-७॥

धौम्य उवाच-

महर्षिधौंम्य आहाग्रे प्रसंगं स्वं विवर्द्धयन् ।
तत्र सम्बोध्य तान् सर्वान् सद्गृहस्थांस्तु पूर्ववत् ॥८॥
बालो योऽद्यतन: सः वै भविता राष्ट्रनायक:।
समाजग्रामणीर्वृक्षा भवन्त्येव यथा क्षुपा:॥९॥
कुशला अत एवात्र मालाकारा विशेषत:।
क्षुपाणां रक्षणे ध्यानं ददत्यावश्यके विधौ॥१०॥
गोमयादेर्जलस्याऽपि न्यूनता न भवेदपि ।
वन्य: पशव एतान् न नाशयेयुरितीव ते॥११॥
सावधाना भवन्त्येव कस्मिन् क्षेत्रे च सम्भवा।
क्षुपाणां कियतां वृद्धिं संकुलत्वं न तन्वते ॥१२॥
गृहस्थैश्चेतनैर्भाव्यं मालाकारैरिव स्वयम् ।
गृहोद्यानस्य रम्यास्ते क्षुपा बोध्याश्च बालका:॥१३॥

भावार्थ-महर्षि धौम्य ने अपने प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए उपस्थित सद्गृहस्थों को संबोधित करते हुए कहा, आज का बालक कल समाज संचालक और राष्ट्र नायक बनता है । छोटे पौधे ही विशाल वृक्ष बनते हैं । अतएव कुशल माली छोटे पौधों की आवश्यकता एवं सुरक्षा पर पूरा-पूरा ध्यान देते हैं। उन्हें खाद-पानी की कमी नहीं पड़ने देते । वन्य पशु उन्हें नष्ट न कर डालें, इसका समुचित ध्यान रखते हैं। किस खेत में कितने पौधों के बढ़ने की गुंजायश है-इस बात का ध्यान रखते हुए घिच-पिच नहीं होने देते । गृहस्थों को जागरूक माली की तरह होना चाहिए तथा गृह-उद्यान के सुरम्य पौधे बालकों कौ समझना चाहिए ॥८-१३॥

व्याख्या-परिवार एक फुलवारी के समान है, जिसमें बालकों के रूप में पुष्प विकसित होते एवं अपनी सुरभि से सारे वातावरण को आह्लादयुक्त बना देते हैं। जैसा कि पूर्व प्रकरणों में चर्चा की जा चुकी है, परिवार समाज की एक छोटी इकाई है। राष्ट्र के भावी नागरिक, परिवार रूपी खदान से ही निकलते हैं एवं अपनी प्रतिभा द्वारा सारे समुदाय के उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका विभाते हैं। बच्चे छोटी पौध के समान हैं एवं माता-पित्रा की भूमिका एक माली की होती है। पौधे को वृक्ष का रूप लेने से पूर्वे काफी उपचारों से गुजरना पड़ता है । यह कार्य कुशल माली द्वारा ही संभव हो पाता है। निराई, गुड़ाई, काट-छाँट, वर्षा-पानी एवं सघनता से बचाव इत्यादि के माध्यम से ही नर्सरी की पौध एक वृक्ष का रूप लेती है। परिवार रूपी पौध में माता-पिता को ही सारा ध्यान रखना होता है कि बालकों के समुचित विकास में उनका योगदान हो पा रहा है या नहीं। थोड़ी सी भी असावधानी अनेकानेक समस्याओं को जन्म दे सकती है । बालक की अपरिपक्व स्थिति से परिपक्व स्थिति में विकास होते समय यदि कोई त्रुटि रह जाती है, तो उसका सारा दोष परिवार रूपी धुरी के दो महत्वपूर्ण अंग माता-पिता पर ही जाता है। इसीलिए बालकों को जन्म दने से भी अधिक जागरूक बने रहकर उनके विकास को समुचित महत्व देने वाले अभिभावकों की महत्ता बताई जाती रही है एवं ऐसे आदर्श माता-पिता के नाम इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखे जाते रहे हैं।

भारतीय माताएँ सुसंतांनों के निर्माण में तथा देश को अमूल्य नररत्न प्रदान करने में हमेशा बेजोड़ रही हैं।

शकुंलता का शिशु निर्माण

महर्षि कण्व के आश्रम में पली, विश्वामित्र कन्या शकुंतला अपने अध्ययन और आश्रम प्रबंध में संलग्न रहती थी । एक दिन राजा दुष्यंत उधर आ निकले और आश्रम में ठहरे। उनने कितने ही आश्वासन देकर भोली कन्या को बहका लिया और उसके साथ सहवास-संपर्क स्थापित किया ।

पेट में बच्चा आ जाने पर कण्व ने विद्यार्थियों के साथ लड़की को राजा दुष्यंत के पास पत्नी रूप में रखने के लिए भेजा । पर दुष्यंत ने परिस्थितिवश पीछा छुड़ाया और शकुंतला को पहचानने से इन्कार करके उसे लौटा दिया। लड़की ने अपना पुरुषार्थ जगाया। बिना पति के ही पहले की तरह ऋषि आश्रम में निर्वाह किया । बच्चे को स्वयं इतना सुयोग्य बनाया कि वह सिंह शावकों के साथ खेलता था और अंत में चक्रवर्ती भरत के नाम से प्रख्यात हुआ। भारतवर्ष का नामकरण उसी के कारण हुआ । लव-कुश का लालन-पालन और प्रशिक्षण माता सीता द्वारा ही हुआ था, जिन्होंने युद्ध में अपने पिता राम और चाचा लक्ष्मण के भी छक्के छुड़ा दिए थे । सम्राट् शांतनु की पत्नी गंगा ने अपने सभी पुत्रों को वसु, ब्रह्मचारी, तपस्वी और ज्ञानी बनाया था। भीष्म उनके अंतिम पुत्र थे। वे भी राज्याधिकार से दूर और ब्रह्मचारी ही बने रहे एवं कौरवों तथा पांडवों का मार्गदर्शन करते रहे । ऋतध्वज की पत्नी मदालसा ने अपने सभी बालकों को ब्रह्मज्ञानी बनाया। भर्तृहरि के भानजे गोपीचंद को संसार सुख छोड़कर विश्व कल्याण के लिए तप साधना में प्रवृत्त होने की प्रेरणा उनकी माता ने ही दी थी। वस्तुत: माताएँ ही बालकों में सुसंस्कार भरती और उन्हें सभ्य-सुसंस्कृत बनाती हैं ।

माताओं की प्रेरणा एवं प्रशिक्षण

राष्ट्रपति आइजन होबर कहा करते थे कि 'अब तक मैं जो कुछ भी बन सका हूँ वह माँ की स्नेह अभिपूरित प्रेरणा एवं प्रशिक्षण का ही प्रतिफल है ।"

जान कैनेडी ने एक प्रेस इंटरव्यू में अपने आकर्षक व्यक्तित्व एवं सफलताओं का रहस्योद्घाटन करते हुए कहा था कि मेरी माँ सिद्धांतों एवं आदर्शो की दृष्टि से अधिक कठोर और संवेदनाओं की दृष्टि से मोम से भी अधिक मुलायम थी । उसके अगाध स्नेह ने ही मुझे वर्तमान स्थिति तक पहुँचाया है।

अब्राहम लिंकन जब अमेरिका के राष्ट्रपति बने, तो अपनी सफलता के विषय में कहा-" मैं जो कुछ बन पाया हूँ या आगे आशा करता हूँ, उसका सारा श्रेय और यश मेरी माता को है।"

सिकंदर कहा करता-"अपनी माँ की आँख के आँसू को मैं संपूर्ण साम्राज्य से भी बढ़कर मानता हूँ ।"

शिवाजी, राणा प्रताप से लेकर स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारियों में भगतसिंह, आजाद तक सभी ने माँ के अंचल में बैठकर ही शासन, पराक्रम एवं चरित्र निष्ठा का पाठ पढ़ा था। मातृभूमि के प्रति त्याग-बलिदान का बीजारोपण बचपन में ही हुआ था। महात्मा गाँधी और विनोबा को महामानव की श्रेणी में पहुँचाने में उनकी माताओं का असामान्य योगदान रहा है । जिन दिनों गाँधी जी विलायत अध्ययन के लिए जा रहे थे, उनकी माँ ने उनसे सदाचार और सत्य की प्रतिज्ञा करवा ली थी, जिसका निर्वाह वे जीवनपर्यंत करते रहे। माँ के प्रति अनन्य भक्ति उनका पथ प्रदर्शन करती रही । गाँधी जी कहा करते थे, "सदाचार एवं सत्य निष्ठा का जो पाठ हमारी माँ ने पढ़ाया, वह मेरे जीवन का मूल मंत्र बन गया ।" बचपन में त्याग और बलिदान के संस्कारों को अपनी ममता के साथ पिलाने वाली माँ ही होती है ।

विलक्षण मेधावी बालक

इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते है, जिनसे विदित होता है कि अभिभावकों की सजगता के कारण कई महामानव अल्पायु में ही असंभव प्रतीत होने वाली प्रगति कर सकने में सफल हुए।

शिवाजी ने १३ वर्ष की आयु में तोरण का किला जीता था । सिकंदर ने १७ वर्ष की आयु में शोरोनियाँ का युद्ध जीता । अकबर ने १६ वर्ष की आयु में गद्दी सँभाली और विशाल साम्राज्य को बुद्धिमत्तापूर्वक चलाया। अहिल्याबाई ने १८ वर्ष की आयु में राज-काज अपने हाथ में ले लिया। संत ज्ञानदेव ने १२ वर्ष की आयु में गीता का ज्ञानेश्वरी भाष्य लिखा था। जगद्गुरु शंकराचार्य ने १६ वर्ष की आयु में अनेक शास्त्रार्थ जीते। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने १४ वर्ष की आयु में शेक्सपियर के मैकवैथ नाटक का बँगला अनुवाद किया। बंगाली कवियत्री तारादत्त १८ वर्ष की आयु में विश्व विख्यात ही गईं । हरीन्द्र चट्टोपाध्याय का प्रथम नाटक 'अबूहसन' १४ वर्ष की आयु में लिखा गया। सरोजनी नायडू ने १३ वर्ष की आयु में तेरह सौ पंक्तियों की मर्मस्पर्शी कविता लिखकर साहित्य क्षेत्र में चमत्कार उपस्थित कर दिया।

इसमें इन विलक्षण मेधा संपन्न बालकों को मिले आनुवांशिक संस्कारों का महत्व तो है ही, उस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता, जिसे इनकी पुरुषार्थ-परायणता, लगन एवं प्रतिभा को समुचित पोषण देने वाले वातावरण के रूप में जाना जाता है।

एडीसन महा-मानव कैसे बने?

विश्व विख्यात वैज्ञानिक आविष्कारक थामस अल्वा एडीसन ने जीवन भर एकनिष्ठ भाव से आविष्कारों में रुचि ली और अपनी समूची तत्परता उसी एक काम में लगायी । ग्रामोफोन, टैपरिकार्ड, चलचित्र, कैमरा, बिजली के वल्ब जैसे छोटे-बड़े २५०० आविष्कारों का उनका अपना कीर्तिमान है । दूसरा कोई भी अभी तक इतने प्रकार के, इतने महत्वपूर्ण काम नहीं कर सका है एडीसन बचपन में ही बहरे हो गए थे, लेकिन इसका उन्होंने कभी दुख नहीं माना । माता-पिता के शिक्षण से वे स्वावलंबी बने एवं हमेशा अपनी इस प्राकृतिक कमी को ईश्वरीय वरदान कहते रहे। उनका कहना था कि दूसरे लोग बेकार की गपबाजी में अपना समय गुजारते है। मुझे ऐसी बर्बादी का सामना नहीं करना पड़ता, वह समय मैं सोचने और पढ़ने में लगाता रहता हूँ । यदि दूसरों की तरह मेरे भी कान खुले होते, तो इतना न कर पाता, जो कर पाया ।

एडीसन ने छोटे कामों में भी कभी हेठी अनुभव न की । वे हर काम को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर उसे सही, पूरा और शानदार स्तर का बनाने का प्रयत्न करते थे। रेल के डिब्बों में सब्जी बेचना, अखबार बेचना, तार बाँटना जैसे अनेक छोटे काम उन्हें अपने आरंभिक जीवन में करने पड़े, पर इसमें कभी हीनता का अनुभव नहीं किया। हर काम की इज्जत का मानना और हर अवसर के महत्वपूर्ण सदुपयोग का शिक्षण, उन्हें उनके माता-पिता द्वारा बचपन से ही मिला था।

अनुचित लगे तो छोड़ दो 

दार्शनिक कांट की माता बड़ी ईश्वर भक्त थीं। वे चर्च के कामों में बहुत मन और समय लगातीं । पर उनका बालक संप्रदायवाद में रुचि नहीं रखता था। धर्म के नाम पर चल रहे अंधविश्वासों और अनाचारों का खंडन करने के लिए उसने माता की आज्ञा माँगी। माँ ने प्रसन्नतापूर्वक आज्ञा दे दी और कहा-"जिसे तुम अनुचित समझते हो, उसके लिए आवाज अवश्य उठाओ ।" उनने बड़े होकर अनेक ग्रंथ लिखे जिसमें ईसाई समाज में अवांछनीय प्रचलनों के विरुद्ध बहुत कुछ लिखा गया है।

दर्प का दमन

अपने समय की प्रख्यात लेखिका नारी स्वातंत्र्य की हिमायती मेरी स्टो किशोरावस्था में बहुत सुंदर लगती थी। इसकी चर्चा और प्रशंसा भी बहुत होती थी। इस पर लड़की को गर्व होने लगा और इतरा कर चलने लगी। बात पिता को मालूम हुई, तो उन्होंने बेटी को बुलाकर प्यार से कहा-"बच्ची, किशोरावस्था का सौंदर्य प्रकृति की देन है। इस अनुदान पर उसी की प्रशंसा होनी चाहिए ।"

"तुम्हें गर्व करना हो तो साठ वर्ष की उम्र में शीशा देखकर करना कि तुम उस प्रकृति की देन को लंबे समय तक अक्षुण्ण रखकर अपनी समझदारी का परिचय दे सकी या नहीं।" इस शिक्षा का ही परिणाम था कि अपने अहंकार को गलाकर मेरी स्टो एक समाज सेविका के रूप में विकसित हो सकीं।

स्वावलंबन के संस्कार

एक फ्रींसीसी ने सड़क की पहाड़ी पर बैठे एक गरीब लड़के से जूते की मरम्मत कराई और उसक गरीबी को देखते हुए एक् रुपया दे दिया । लड़के ने बाकी पैसे लौटा दिए और कहा-"जो मेरा उचित पारिश्रमिक है, वही मुझे लेना चाहिए । मेरी माता ने मुझे सिखाया है जितना मैं श्रम करूँ, उससे अधिक उसके बदले में न लूँ ।" यही बालक आगे चलकर फ्रांस का राष्ट्रपति दगाल बना ।

मुझे सहायता नहीं चाहिए 

ग्रीस में किलेन्थिस नामक बालक एथेंस के तत्ववेत्ता जीनो की पाठशाला में पढ़ता था। किलेन्थिस बहुत ही गरीब था। उसके बदन पर पूरा कपडा नहीं था । पर पाठशाला में प्रतिदिन जो फीस देनी पड़ती थी, उसे किलेन्थिस रोज नियम से दे देता था। पढ़ने में वह इतना तेज था कि दूसरे सब विद्यार्थी उससे ईर्ष्या करते। कुछ लोगों ने यह संदेह किया कि 'किलेन्थिस जो दैनिक फीस के पैसे देता है, सो कहीं से चुराकर लाता होगा, क्योंकि उसके पास तो फटे चिथड़े के सिवा और कुछ है नहीं ।' और उन्होंने आखिर उसे चोर बताकर पकड़वा दिया । मामला अदालत में गया । किलेन्थिस ने निर्भयता के साथ हाकिम से कहा कि 'मैं बिल्कुल निर्दोष हूँ । मुझ पर चोरी का दोष सर्वथा मिथ्या लगाया गया है । मैं अपनें इस बयान के समर्थन में दो गवाहियाँ पेश करना चाहता हूँ ।' गवाह बुलाए। पहला गवाह था एक माली । उसने कहा, 'यह बालक प्रतिदिन मेरे बगीचे में आकर कुएँ से पानी खींचता है और इसके लिए इसे कुछ पैसे मजदूरी के दिए जाते हैं। ' दूसरी गवाही में एक बुढ़िया आई, कहा-"मैं बूढ़ी हूँ । मेरे घर में कोई पीसने वाला नहीं है। यह बालक प्रतिदिन मेरे घर पर आटा पीस जाता-है और बदले में अपनी मजदूरी के पैसे ले जाता है ।"

इसे प्रकार शारीरिक परिश्रम करके किलेन्थिस कुछ आने प्रतिदिन कमाता और उसी से अपना निर्वाह करता तथा पाठशाला की फीस भी भरता। किलेन्थिस की इस नेक कमाई की बात सुनकर हाकिम बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे इतनी सहायता देनी चाही कि जिससे उसको पढ़ने के लिए मजदूरी करनी न पड़े, परंतु उसने सहायता लेना स्वीकार नहीं किया और कहा कि'मैं स्वयं परिश्रम करके ही पढ़ना चाहता हूँ। किन्हीं से दान लेने के स्थान पर स्वावलंबी बनकर आगे बढ़ना ही मेरे माँ-बाप ने मुझे सिखाया था ।

बाल्यकाल के जीवन में समाविष्ट ये संस्कार ही व्यक्ति को आगे चलकर महामानव बनाते एवं समुदाय को श्रेष्ठ नागरिक देते है ।

स्वाभिमानी माता

कवि डनियल निर्धनों को मिलने वाली सुविधाएँ स्कूल से लेकर आया । उसकी माँ ने कहा-"वापस जाओ और इन्कार करके आओ। मैं मेहनत-मजूरी करती हूँ और तुम्हारी फीस तथा पुस्तकें जुटा सकती हूँ । यह सुविधा उनके लिए है जो सर्वथा असमर्थ हैं । हमें असमर्थों का हक नहीं मारना चाहिए ।"

मैं झूठा नहीं हूँ 

गाँधी जी को बचपन में खेलों में कोई रुचि तो नहीं थी फिर भी वे स्कूल का नियम पालन करने के लिए समय पर क्रीड़ा मैदान में जाया करते थे । एक दिन शनिवार था । उस दिन प्रात:काल कक्षाएँ लगीं और सायं समय चार बजे खेलकूद। बालक मोहन के पास घड़ी थी नहीं और बारिश के दिन थे, अत: उन्हें समय का ठीक-ठीक ज्ञान न हो सका और वे खेलों में देर से पहुँचे। प्रधानाध्यापक ने देर से आने का कारण पूछा तो गाँधी जी ने सही कारण बता दिया, किन्तु प्रधानाध्यापक ने उनकी बात का विश्वास नहीं किया और एक आना जुर्माना कर दिया । गाँधी जी रो उठे । तो प्रधानाध्यापक ने कहा-"तुम्हारे पिताजी तो बड़े आदमी है, उनके लिए एक आना जुर्माना भरना कोई बड़ी बात नहीं है ।" "मैं इसलिए नहीं रो रहा हूँ"-गाँधी जी ने कहा-"बल्कि मुझे रोना इस बात पर आ रहा है कि मुझे झूठा समझा गया ।" प्रधानाध्यापक ने इस भोले और सरल हृदय बालक की सत्य निष्ठा से प्रभावित होकर उनका जुर्माना माफ कर दिया ।

बचपन की ये ही छोटी-छोटी बातें व्यक्ति को कहाँ से कहाँ पहुँचा देती हैं। सत्य बोलने का शिक्षण मोहन दास को माता-पिता से मिला । इसको पोषण हरिश्चंद के नाटक से मिला एवं उन्होंने अपने सारे जीवन को ही सत्य बोलने की प्रयोगशाला बनाकर यह प्रमाणित कर दिया कि बचपन के श्रेष्ठ संस्कारों की कितनी महान परिणति होती है ।

कुशरीरभृतो ये तु मनोरोगगाभिबाधिता:।
दु:स्वभावा दुराचारा वर्द्धयेयुर्न सन्ततिम्॥१४॥ 
भारायिता: समाजाय तेषां सन्ततिरन्तत: ।
सन्ततौ हि सुयोग्यायां पितृसद्गतिरिष्यते॥१५॥
हीना चेत्सन्ततिस्तस्या जन्मदातृनृणां तत:।
इहलोके परत्राऽपिं दृर्गतिनिंश्चिताऽभित:॥१६॥

भावार्थ-शारीरिक मानसिक और स्वभाव-चरित्र की दृष्टि से जो लोग पिछड़ी स्थिति में हो वे बच्चे उत्पन्न न करें । समाज का भार न बढ़ाएँ यही उपयुक्त है। संतान के सुयोग्य होने पर पितर सद्गति प्राप्त करते हैं किन्तु हेय स्तर के होने पर जन्मदाताओं को इस लोक में तथा परलोक में दुर्गति का भाजन भी बनना
पड़ता है॥१४-१६॥ 

व्याख्या-स्त्रष्टा ने विवाह की व्यवस्था इंद्रिय लिप्सा की पूर्ति और भोग विलास के लिए नहीं वरन् सृष्टि संचालन के सबसे अधिक महत्वपूर्ण प्रयोजन राष्ट्र की संपत्ति, श्रेष्ठ नागरिकों को जन्म देने के लिए, नियमित जीवन जीने के लिए की है। विवाह एक संकल्प है, जो राष्ट्र के भावी बल, सत्ता और सम्मान को जागृत रखने के लिए किया जाता है ।

शास्त्रकार का कथन है -

तावेहि विवहावहै सह रेती दधावहै। प्रजां प्रजनतावहै पुन्नान् विन्दावहै बहून्॥

अर्थात-"विवाह का उद्देश्य परस्पर प्रीति युक्त रहकर राष्ट्र को सुसंतति देना है।"

शारीरिक, मानसिक और स्वभाव-चरित्र की दृष्टि से स्वस्थ समुन्नत और सुयोग्य व्यक्ति को ही विवाह करना चाहिए न कि दुष्ट, पतित, दुराचारी और पिछड़ी शारीरिक, मानसिक स्थिति के व्यक्ति को ।

ऋग्वेद का स्पष्ट आदेश है-

"तमस्मेरा युवतयो युवानं मर्मृज्यमानाः परियन्त्याप: ।
स शुक्रेभि: शिकनमीरेवदस्मे दादायानिघ्मोवृत निर्णिगप्सु ॥" (ऋग्वेद २/३५/४)

अर्थात, जिनके हृदय शुद्ध, निर्मल और पवित्र हों तथा जिनकी आयु इस हेतु पूर्ण हो चुकी हो, वे युवक और युवती परस्पर पाणिग्रहण करें । वे शक्ति संपन्न जन विवाह करके परिवार को सतेज बनाएँ ।

समाज को सुयोग्य नागरिक देने के लिए ही प्रजनन किया जाय, न कि कीड़े-मकोड़ों की तरह अयोग्य और प्रतिभाहीन बच्चों को जन्म दिया जाय । वंश वृद्धि का अर्थ है-समाज को रण को, सुयोग्य नागरिक प्रदान करना।

मरणोत्तर जीवन एवं पितर योनि का अस्तित्व जितना सत्य एवं महत्वपूर्ण है, उतना ही सत्य यह भी है कि योग्य संतान के श्रेष्ठ कर्मो से ही पितरों-अभिभावकों को वांछित योनि एवं सुख मिलता है ।

संख्या नहीं स्तर

गॉंधारी के सौ पुत्र जन्मे, किन्तु उनकी सुसंस्कारिता की ओर ध्यान नहीं दिया गया। कुंती के पास पाँच पांडव ही थे, पर माता ने उन्हें सुयोग्य बनाने में कमी न रखी। महाभारत युद्ध में कौरव मारे गए और पांच पांडव विजयी ।

महाराजा सगर की दोनों रानियों ने तप किया और वरदान माँगने के अवसर पर एक ने हजार पुत्र माँगे और दूसरी ने एक । समुचित भावनात्मक पोषण के अभाव में हजारों पुत्र झगड़ालू उपद्रवी, उद्धत और अनाचारी निकले । अंतत: अपने दर्प एवं दुर्बद्धि के कारण महर्षि कपिल के साथ अन्याय कर बैठे और मारे गए। दूसरी रानी का जो एकमात्र अकेला पुत्र था, उसने समुचित भावनात्मक पोषण, मार्गदर्शन प्राप्त कर महर्षि कपिल को भी प्रसन्न कर लिया तथा राज्य का समुचित संचालन भी किया एवं कीर्ति का भागीदार बना। सगर पुत्रों की भाँति रावण के लाखों पुत्रों की यही दुर्दशा हुई । नीति शास्त्रो में इसीलिए कहा गया है -

"वरमेको गुणी पुत्रो, न च मूर्खा: शतान्यपि।
एकाश्चन्द्रस्तमो हन्ति, न तु तारा सहस्रश:॥" 

अर्थात, सैकड़ों मूर्ख बेटों की अपेक्षा एक ही गुणी पुत्रश्रेष्ठ है। जैसे अकेला चाँद अंधकार को दूर करता है, हजारों तारे नहीं । उसी प्रकार एक गुणी पुत्र समाज में अंधकार दूर करता व प्रकाश फैलाता है। 

कर्मभि: सद्भिरेवैतत्कुलं संशोभूते नणाम्।
सन्तते: संस्कृताया हि हस्तदत्तैं: प्रियैरलम्॥१७॥
पिण्डै: पितर आयान्ति सुखं सन्तोषमेव च।
कुपात्राणां ध्रुंव यान्ति नरकं पितर: सदा ॥१८॥
उत्पाद्या तावती मत्यैं: सन्तति: सम्भवेदपि।
स्नेहरक्षा विकासादि यावत्या:सुव्यवस्थितम्॥१९॥
बिना विचारं दायित्वं सन्ततीनां च गृह्यते ।
यदि दु:खं तदा यान्ति सन्ततिं दु:खयन्ति च॥२०॥

भावार्थ-वंश सत्कर्मों से चलता है सुसंस्कारी संतान के हाथ का दिया पिंडदान पितरों को सुख देता है । कुपात्रों के पितर तो नरक में गिरते हैं । संतान उतनी उत्पत्र करें जितनों को, संरक्षण एवं विकास-पोषण का समुचित प्रबंध संभव हो। बिना विचारे संतानों का उत्तरदायित्व लाद लेने वाले दुख पाते और संतान को दुखी करते हैं॥१७-२०॥

व्याख्या-जन सामान्य में एक रूढ़िवादी मान्यता यह है कि वंश परंपरा का निर्वाह संतान के माध्यम से ही संभव है । जबकि यह नितांत भ्रांत चिंतन है। संतान यदि गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से निकृष्ट हुई; तो वंश को डुबाती, घर-परिवार को दुर्गति के गर्त में डालती भी है ।

शास्त्रों में यह नहीं कहा गया है कि वंशवृद्धि से ही सद्गति मिलती है, नि:संतान व्यक्ति को
सद्गति मिलती है, सद्गति तो मिलती है, व्यक्ति को अपने सत्कर्मो से । मनुस्मृति का यह श्लोक द्रष्टव्य है-

अनेकानिक सहस्त्राणि कुमार ब्रह्मचारिणाम्। दिवंगतानि विप्राणाम् कृत्वा कुलसंततिम्॥
(अ० २५ श्लोक १५९)

अर्थात, कइयों हजार कुमार, ब्रह्मचारी ब्राह्मणों ने बिना संतान उत्पन्न किए ही अपने उच्च विचारों, सत्कार्यो और सेवा व्रतों द्वारा स्वर्ग लोक को प्राप्त किया है ।

संतान न होते हुए भी कितने ठी लोगों का यश उज्ज्वल और धवल हैं । कृष्ण को सभी जानते हैं, पर उनकी संतानों के नाम भो शायद ही किसी को मालूम हों । राम के बाद लव-कुश को छोड़कर उनकी अगली पीढ़ी के नाम शायद किसी को ज्ञात हों । महावीर तो वीतराग और गृहत्यागी तपस्वी थे, उनका यश आज भी बढ़ रहा है। बुद्ध को राहुल से अधिक लोग जानते हैं । ईसा, शंकराचार्य, रामानंद, तुलसीदास, सूरदास, मीरा, कबीर, ज्ञानेश्वर, रैदास, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, महर्षि रमण, रामतीर्थ; अरविंद, राजा महेंन्द्र प्रताप आदि कितने ही महात्मा महापुरुष थे, जो या तो अविवाहित रहे अथवा गृहस्थ भी रहे, तो उनकी कीर्ति संतान से नहीं उनके अपने सत्कार्यो से ही अमर हुई। अत: व्यक्ति का नाम और यश संतान से नहीं, उसके सद्गुणों और सत्कर्मो से बढ़ता और अमर होता है। संतान यदि निकृष्ट स्तर की हो तो जन्म देने वाले माता-पिता एवं पूर्वज सभी इसका फल भोगते एवं मरणोत्तर जीवन में त्रास पाते हैं ।

महर्षि धौम्य उपस्थित जन समुदाय को समझाते हैं कि माता-पिता संतान उतनी ही उत्पन्न करें, जितनों के प्रति समुचित जिम्मेदारी का निर्वाह कर सकें, अन्यथा संतानों की संख्या ज्यादा बढ़ा लेने और उचित उत्तरदायित्व का निर्वाह न कर पाने के कारण संतान ऐसी निकलेगी, जो कुल को कलंकित करेगी और समाज पर अनावश्यक भार बनेगी ।

ऋग्वेद में स्पष्टत: कहा गया है-

"बहुप्रजा निरृतिंमाविवेश॥" (ऋग्वेद १९६४/ ३२)

अर्थात, अधिक संतानें सदा कष्ट का कारण बनती हैं । इतना ही नहीं अवांछनीय प्रजनन कितने संकट उत्पन्न करता है, इसे गंभीरता से समझने का प्रयत्न करने पर लगता है 'मरणं बिन्दुपातेन.........' की उक्ति अक्षरश: सही है। विशेष प्रकार की बिच्छू मादा और एक खास किस्म की मकड़ी प्रजनन के साथ
ही मृत्यु के मुख में चली जाती है । मनुष्य को वैसा तो नहीं करना पड़ता, पर त्रास लगभग उतना ही मिलता है।

व्यास जी एवं शुकदेव

व्यास जी की इच्छा हुई की पुत्र उत्पन्न करें, जो पिंडदान और बुढापे सहारा बने । पत्नी के गर्भ में एक बालक आ गया । बालक बडा तेजस्वी था । गर्व में ही तपश्चर्या करने लगा। सोलह वर्ष पेट मे हो गए, तो व्यास जी ने गर्भस्थ आत्मा से बाहर न्म आने का कारण पूछा और कहा-"हमने तुम्हारी सुविधा की सब व्यवस्था कर रखी है। तुमसे वंश चलने की आश रखी है ।" शुकदेव ने गर्भ से ही बोलना शुरू किया और पिता को डाँटते हुए कहा-"यदि संतान से वंश चला होता, तो कुत्ते और शूकरों की भी सद्गति हो गई होती। आप अपने कल्याण की बात सोचें । मुझे तो चौरासी लाख योनियों के कटु अनुभव हैं ।"

पिता के बहुत आग्रह पर शुकदेव जी जन्मे तो सही, पर इसके पश्चात ही वन प्रदेश में साधना के निमित्त चले गए । पिता का कोई सहयोग न उनने लिया न दिया ।

कुलीनता का आदि एवं अंत

एक बाँस का पेड़ था, जंगल में अकेला खड़ा था । पड़ौस में रहने वाले समय-समय पर उसमें से छोटी-बडी लकड़ी काट ले जाते थे। एक दिन नारद जी उधर से गुजरे । बाँस गिड़गिड़ाकर बोला-"मुझे बड़ा परिवारी होने का आशीर्वाद दीजिए ।" मुनि सहज भाव से  'तथास्तु' कहकर आगे चले गए । थोड़े दिनों में बाँस के अंकुर उपजे और बड़ी सी झाड़ी बन् गई । धूप न मिलने से बूढ़ा बाँस सूखने लगा । झाड़ी इतनी बड़ी और कटीली थी कि उसमें हाथ डालने तक की किसी की हिम्मत न पड़ती । जरूरत होने पर भी लोग मन मार कर बैठ जाते । घने पत्तों से खिन्न होकर चिड़ियों ने घोंसले तक वहाँ बनाने बंद कर दिए ।

एक बार तेज आँधी आई । बाँस आपस में रगड़ने लेगे और उनमें आग पैदा हो गई । पूरा समूह जलगया । बाँस सोचने लगा, निरर्थक परिवार बढाने की अपेक्षा तो अकेले रहना अच्छा था।

पिता-माता जे अनुरुप 

राजगृह की रानी चेतना को गर्भावस्था में मांस खाने की इच्छा हुई। उसने कितने ही निरीह प्राणियों का वध कराया और उनका मांस खाया । बालक नियत समय पर उत्पन्न हुआ । वह बड़े क्रूर स्वभाव का था। बड़ा हुआ तो बंदीगृह में डालकर स्वयं सिंहासनारूढ़ हो गया । पिता को पुत्र द्वारा त्रास दिए जाने पर रानी चेतना को दुख हुआ। वह कुछ कर तो सकती नहीं थी । दिन में एक बार मिलने की आज्ञा प्राप्त कर ली, सो उन्हें बालों में छिपाकर कुछ भोजन दे आती थी । इसी प्रकार बहुत दिन बीत गए ।

पिता को इस प्रकार त्रास देने पर एक दिन पुत्र को बहुत आत्मग्लानि हुई । वह उन्हें बंदीगृह से मुक्त करने और बेडी काटने को स्वयं हथौड़ा लेकर चला । हथौड़े की चोट गलती से राजा को लगी और उनका वही प्राणांत हो गया ।

चेतना और उसके पति दोनों ही मांसाहार के पापकर्म का प्रतिफल प्राप्त करते हुए परलोक चले गए । पिता-माता के कुमार्गगामी होने से संतान भी वैसी ही होती है।
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