प्रज्ञा पुराण भाग-3

॥ अथ प्रथमोऽध्याय:॥ परिवार-व्यवस्था प्रकरणम्-1

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एकदा सु हरिद्वारे कुम्भपर्वणि पुण्यदे।
पर्वस्त्रानस्य सञ्जात: समारोहोऽत्र धार्मिक:॥१॥
देशान्तरादसंख्यास्ते सद्गृहस्थाश्च संगता:।
अवसरे च शभे सर्वे पुण्यलाभाप्तिकाम्यया॥२॥
सद्भिर्महात्मभिश्चाऽपि संगत्यात्र परस्परम्।
सन्दर्भे समयोत्पन्नस्थितीनां विधय: शुभा:॥३॥ 
मृग्यास्तथा स्वसम्पर्कक्षेत्रजानां नृणामपि ।
समस्यास्ता: समाधातुं सत्प्रवृत्तेर्विवर्धने ॥४॥
मार्गदर्शनमिष्टं च राष्ट्रकल्याणकारकम् ।
भागीरथीतटे तस्मात् सम्मर्द: सुमहानभूत्॥५॥
पुण्यारण्येषु गत्वा च सर्वे देवालयेष्वपि।
प्रेरणा: प्राप्नुवन्त्यूच्चा धार्मिकास्ते जन: समे॥६॥ 

भावार्थ-एक बार पुण्यदायी कुम्भपर्व पर हरिद्वार क्षेत्र में विशाल पर्व-स्नान का धर्म समारोह हुआ । देश-देशांतरों से अगणित सद्गृहस्थ उस अवसर पर पुण्य-लाभ पाने के लिए एकत्र हुए । साधु-संतों को भी परस्पर मिल- जुलकर सामयिक परिस्थितियों के संदर्भ में उपाय खोजने थे, साथ ही अपने संपर्क क्षेत्र के लोगों की समस्यायें सुलझाने एवं सत्प्रवृत्तियाँ बढ़ाने के संदर्भ में राष्ट्र-कल्याणकारी मार्गदर्शन भी करना था । भागीरथी के तट पर अपार भीड़ थी, तीर्थ आरण्यकों और देवालयों में पहुँचकर धर्मप्रेमी उच्चस्तरीय प्रेरणाएँ प्राप्त कर रहे थे ॥१-६॥

व्याख्या-कुम्भ आदि पर्वों पर, तीर्थस्थानों पर भारी संख्या में संतों और गृहस्थों के संगम होते रहने के प्रमाण स्थान-रथान पर मिलते रहते हैं । मोटी मान्यता यह है कि समय विशेष पर स्नान आदि का विशेष पुण्य प्राप्त करने के लिए ही लोग पहुँचते हैं । वह भी एक पुण्य हो सकता है; किन्तु प्रस्तुत संदर्भ में अनेक महत्वपूर्ण उद्देश्यों की चर्चा की गयी है । अनादिकाल से ऋषियों का, संतों का एक देशव्यापी तंत्र कार्य करता रहा है । अपनी-अपनी साधनाओं से उपलब्ध महत्वपूर्ण सूत्रों का एकीकरण, बदलती परिस्थितियों के अनुरूप धर्म-तंत्र के क्रियात्मक सूत्रों का निर्धारण, सामाजिक-राष्ट्रीय समस्याओं के संदर्भ में सर्वसम्मत हल तथा तदनुरूप मार्गदर्शन की व्यवस्था जैसे महत्वपूर्ण पुण्यदायी कार्य ऐसे अवसरों पर किए जाते थे । इनका लाभ जनसामान्य भी उठाते थे और जन-जन तक पहुँचाने का क्रम भी चलाता रहता था ।

अस्मिन् पर्वणि धौम्यश्च महर्षि: स व्यधाच्छुभम् ।
सत्रं तत्र गृहस्थानां मार्गदर्शनहेतवे ॥७॥
तस्या आयोजनस्येयं सूचना विहिताऽत्र च ।
शंखनादेन घण्टानां निनादेनाऽपि सर्वत:॥८॥ 


भावार्थ-इस पर्व आयोजन के बीच महर्षि धौम्य ने सद्गृहस्थों के मार्गदर्शन हेतु एक विशेष सत्र का अयोजन किया । इस आयोजन की सूचना शंख बजाते हुए सभी को दे दी गयी ॥७-८॥

व्याख्या-प्राचीनकाल के ऋषियों ने अपनी समय की समस्याओं पर उसी समय की परिरिथतियों का ध्यान रखते हुए प्रकाश डाला था । आज की स्थिति उस समय से भिन्न है । आज वे समस्याएँ नहीं रहीं जो प्राचीनकाल में थीं । तब परिवार सीमित और सुसंस्कारी होते थे, साधन भी पर्याप्त थे । परंतु अब नयी समस्याएँ सामने हैं, उनके समाधान आज के हिसाब से ही ढूँढ़ने होंगे । यह काम युगद्रष्टाओ और काल पुरुषों का है । वे ही समय-समय पर युगानुरूप समस्यायों के समाधान प्रस्तुत करते रूठे हैं । यहाँ महर्षि ने बदलती परिस्थितियों में समयानुकूल समाधान प्रस्तुत करने के लिए सद्गहस्थों-सामान्यजनों को आमंत्रित किया है ।

सत्रसप्ताहमारब्धं विषयेष्वपि च सप्तसु ।
प्रथमे दिवसे चाभूदौतसुक्यमधिकं नृणाम् ॥९॥ 
जिज्ञासवो गृहस्थाश्च बहवस्तस्त्र संगता: ।
गृहिण्योऽपिं विवेकिन्यो बह्वयस्तत्र समागता: ॥१०॥
उपस्थितान् गृहस्थाँश्च संबोध्योवाच तत्र सः ।
ऋषिधौंम्यो गृहस्थस्य गरिम्णो विषयेऽद्भुतम्॥११॥
पुण्यदं घोषितं तच्च गृहेऽपि वसतां नृणाम् ।
वातावृतेस्तपोभूमे: समानाया विनिर्मिते:॥१२॥ 
गुरुकुलस्य विशालस्य संचालनविधेरिव ।
ओजस्विन्यां गभीरायां वाचि वक्तव्यमाह च ॥१३॥

भावार्थ-सत्र प्रारंभ हुआ । इसे सात दिन चलना था और सात विषयों पर प्रकाश डाला जाना था । प्रथम दिन उत्सुकता अधिक थी । बहुत से जिज्ञासु गृहस्थ उपस्थित हुए । विचारशील महिलायें भी उसमें बड़ी संख्या में उपस्थित थी । उपस्थित सद्गृहस्थों को संबोधित करते हुए महर्षि धौम्य: ने गृहस्थ-धर्म की अद्भुत गरिमा बताई । उसे घर में रहते हुए तपोवन का वातावरण बनाने और गुरुकुल चलाने के समान पुण्य-फलदायक बताया। गंभीर ओजस्वी वाणी में अपना प्रतिपादन प्रस्तुत करते हुए वे बोले-॥९-१३॥

व्थाख्या-गृहरथ धर्म जीवन का एक पुनीत, आवश्यक एवं उपयोगी अनुष्ठान है । आत्मोन्नति करने के लिए यह एक प्राकृतिक, स्वाभाविक और सर्वसुलभ योग है । गृहरथ-धर्म के परिपालन से ही आत्मभाव की सीमा बढ़ती है, एक से अनेक तक आत्मीयता फैलती-विकसित होती है । इसमें मनुष्य अपनाई दिन-दिन की खुदगर्जी के ऊपर अकुंश लगाता जाता है, आत्मसंयम सीखता और स्त्री, पुत्र, संबंधी, परिजन आदि में अपनी आत्मीयता बढ़ाता जाता है । यही उन्नति धीरे-धीरे आगे बढ़ती जाती है और मनुष्य संपूर्ण चर-अचर में, जड़-चेतन में आत्मसत्ता को ही समाया देखता है । उसे परमात्मा की दिव्य ज्योति जगमगाती दीखती है।

गृहस्थाश्रम को ऐसा आश्रम कहा है, जिसकी परिधि में आज के विश्व की बहुसंख्य जनसंख्या समा जाती है । इस दृष्टि से इस आश्रम की मर्यादाओं में किसी भी भले-बुरे परिवर्तन का प्रभाव सर्वाधिक लोगों को प्रभावित करता है, जो कि समाज की एक इकाई है । समाज का एक स्वरूप ही मनुष्य का अपना परिवार है। परिवार संख्या को लौकिक तथा आध्यात्मिक उत्कर्ष के लिए अतीव उपयोगी माना गया है । परिवार जीवन की परिभाषा करते हुए ऋषि-मनीषियों ने कहाँ है-"परिवार परमात्मा की ओर से स्थापित एक ऐसा साधन है, जिसके द्वारा हम अपना आत्म-विकास सहज ही में कर सकते हैं और आत्मा में सतोगुण को परिपुष्ट कर सुखी, समृद्ध जीवन प्राप्त कर कर सकते हैं । मानव-जीवन की सर्वांगीण सुव्यवस्था के लिए पारिवारिक जीवन प्रथम सोपान है । मनुष्य केवल सेवा कर्म और साधना में ही पूर्ण शांति प्राप्त कर सकता है ।

जिस प्रकार परामात्मा और आत्मा में सिवाय छोटे-बडे़ स्वरुप के और कोई अंतर नहीं है, उसी प्रकार समाज और परिवार में कोई अंतर नहीं है । परिवार को समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाना समाज के उत्थान करने की एक छोटी प्रक्रिया है । उसको क्रियात्मक रूप देने की प्रयोगशाला परिवार है । समाज सेवा का परिपूर्ण अवसर अपने परिवार के छोटे से क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति को प्राप्त है और उतने का सुधार कर सकना सरल एवं साध्य भी है । यदि हम सब अपने कौशल, ज्ञान और क्षमता का पूरा-पूरा लाभ देकर परिवार के माध्यम से समाज सेवा का उत्तरदायित्व निभाते चलें, तो जल्दी ही वे परिस्थितियाँ आ सकती हैं,

वह सुकाल आ सकता है जो कभी प्राचीन युग में रही हैं । शास्त्र का 'वचन' है-

तथा तथैव कार्याडत्र न कालस्य विधीयते ।
अभिन्नेव प्रयुआनो ह्यमिन्नेव. प्रलीयते ॥

अर्थात इस संसार के साथ हमारा संयोग है इसी संसार में हमारा लय हो जायेगा, तब हमें जिस समय जो कर्तव्य हो, वही करना अनिवार्य है । व्यक्तिगत सुविधा अथवा असुविधा को लेकर कर्तव्य के पुण्य पथ पर चलते रहना चाहिए । इसीलिए धर्म ने गृहस्थाश्रम को तपोभूमि कहकर उसकी महत्ता स्वीकार की है ।

गृहस्थ एव इज्यते गृहस्थयस्तप्यते तप: ।
चुतुर्णामाश्रमाणान्तु गृहस्थस्तु विशिष्यते॥

अर्थात् गृहस्थ ही वास्तव में यज्ञ करते हैं। गृहस्थ ही वास्तविक तपस्वी हैं । इसलिए चारों आश्रमों में गृहस्थाश्रम ही सबका सिरमौर है । गृहस्थ जीवन एक तप है, एक साधना है । इसका समुचित प्रयोग
करके ही वारतविक जीवन लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।

यहाँ ऋषि श्रेष्ठ ने गृहस्थाश्रम को तपोवन बताते हुए उसकी गरिमा बताने एवं इस आश्रम को एक समग्र गुरुकुल व्यवस्था के रूप में चलाने, विकसित करने की महत्ता दर्शाने का प्रयास आरंभ किया है।
उन्होंने अपने उद्बोधन का शुभारंभ ही गृस्थाश्रम के माहात्म्य से किया है । जो स्पष्टत: इस प्रकरण की गंभीरता जताता है।

धन्यो गृहस्थाश्रम:

गृहस्थाश्रम समाज को सुनागरिक देने की खान है । भक्त, ज्ञानी, संत, महात्मा, सुधारक, महापुरुष, विद्वान, पंडित गृहस्थाश्रम से ही निकलकर आते हैं । उनके जन्म से लेकर शिक्षा-दीक्षा, पालन- पोषण, ज्ञानवर्द्धन गृहस्थाश्रम के बीच ही होता है । परिवार के बीच ही मनुष्य की सर्वोपरि शिक्षा होती है । गृहस्थाश्रम ही समाज के संगठन, मानवीय मूल्यों की स्थापना, समाज निष्ठा, भौतिक विकास के साथ-साथ मनुष्य के आध्यात्मिक-मानसिक विकास का क्षेत्र है । गृहस्थाश्रम ही समाज के व्यवस्थित स्वरूप का मूलाधार है ।

गृहस्थ धर्म मानव जीवन का एक पवित्र, आवश्यक एवं उपयोगी अनुष्ठान है । आत्मोन्नति का अभ्यास करने के लिए सबसे अच्छा स्थान-आश्रम स्थल अपना घर-परिवार ही है । इसीलिए गृहस्थ धर्म अन्य सभी धर्मो से अधिक महत्वपूर्ण माना गया है । महर्षि व्यास के शब्दों में ' गार्हस्थ्येव हि धर्माणां सर्वेषां मूलमुच्यते ।' गृहस्थाश्रम ही सर्वधर्मों का आधार है ।' धन्यों गृहस्थाश्रम: चारों आश्रमों में गृहस्थाश्रम धन्य है । जिस तरह समस्त प्राणी माता का आश्रय पाकर जीवित रहते हैं, उसी तरह सभी आश्रम गृहस्थाश्रम पर आधारित है ।

धौम्य उवाच-

गृहस्थाश्रमधर्मस्य परिपालनमप्यहो ।
योगभ्यास इवास्तीह संयमादात्मन: सदा ॥१४॥
यथाकालं तु ये चैनं धर्मं सम्पादयन्त्यलम् ।
परलोकेऽथ लोकेऽपि सुखं सन्तोषमेव च ॥१५॥
यशं श्रेयश्च विन्दन्ति मोदन्ते सर्वदा तथा ।
स्वप्रयासानुरूपं च लभन्ते पुण्यमुत्तमम्॥१६॥ 
सद्गतेरधिकारित्वं प्राप्यते यान्ति निश्चितम् ।
जीवनस्य परं लक्ष्य पदं च योगिनी यथा ॥१७॥

भावार्थ - महर्षि धौम्य ने कहा- गृहस्थ धर्म का परिपालन भी एक प्रकार का योगाभ्यास है । चूँकि इसमें सदा आत्मसंयम का पालन करना पड़ता है जो इसे यथा समय सही रूप से सम्पन्न करते हैं वे लोक और परलोक में सुख संतोष यश एवं श्रेय को प्राप्त करते हैं तथा प्रसन्न रहते हैं। अपने प्रयास के अनुरूप वे पुण्यफल पाते और सद्गति के अधिकारी बनकर योगियों की तरह ही जीवन लक्ष्य तक पहुँचते और परमपद पाते हैं ॥१४-१५॥ 

व्याख्या-गृहस्थ धर्म का पालन करना एक प्रकार से योग की साधना करना है। अनेक प्रकार के योगों में एक 'गहरथ योग' भी है। इसमें परमार्थ, सेवा, प्रेम, सहायता, त्याग, उदारता उमैर बदला पाने की इच्छा से विमुखता-यही दृष्टिकोण प्रधान है। यह योग महत्वपूर्ण, सर्वसुलभ तथा स्वल्प श्रम-साध्य है । योग के नाना रूपों का एक ही प्रयोजन है-आत्मभाव को विस्तृत करना, तुच्छता को महानता के साथ बाँध देना । भगवान मनु का कथन है कि गृहस्थाश्रम में पुरुष, उसकी पत्नी और और मिलकर ही एक पूर्ण 'मनुष्य' बनता है उनकी आत्मीयता का दायरा क्रमश: बढ़ता ही जाता है । अकेले से पति-पत्नी दो में, फिर बालक के साथ तीन में, संबंधियों में, पड़ोसियों में, गाँव, प्रांत, प्रदेश, राष्ट्र और विश्व में यह आत्मीयता क्रमश: बढ़ती है । अंततः समस्त जड़ चेतन में आत्मभाव फैल जाता है और अंत में जीव पूर्णतया
आत्मसंयमी हो जाता है । गृहस्थ योग की छोटी सी सर्वसुलभ साधना जब अपनी विकसित अवस्था तक पहुँचती है तो आत्मा परमात्मा बन जाता है और पूर्णता की प्राप्ति होती है ।

ऋषि श्रेष्ठ यहाँ यह समझा रहे हैं कि परिवार निर्माण एक विशिष्ट स्तर की साधना है, उसमें योगी जैसी प्रज्ञा और तपस्वी जैसी प्रखर प्रतिभा का परिचय देता पड़ता है । कलाकार अपने आपको साधता है, किन्तु परिवार निर्माता को एक समूचे समुदाय के, विभिन्न प्रकृति और स्थिति के लोगों का निर्माण करना पड़ता है । यह कार्य सघन आत्मीयता, समग्र दूरदर्शिता एवं समर्थ तत्परता से ही संभव हो सकता है । इसके लिए धरती जैसी सहनशीलता, पर्वत जैसा धैर्य धारण और सूर्य जैसी प्रखरता का समन्वय सँजोना पड़ता है । इन सद्गुणों के अभाव में सुसंस्कृत-सुसंरकारी परिवार के निर्माण का संयोग संभव नहीं ।

पूरी निष्ठा और सही ढंग से साधा गया गृहस्थ धर्म किस प्रकार फलता है, यह प्रस्तुत उदाहरणों से स्पष्ट है ।

सद्गृहस्थ सुधन्वा की शक्ति

महाभारत में सुधन्वा और अर्जुन के बीच भयंकर द्वंद्व युद्ध छिड़ा । दोनों महाबली थे और युद्ध-विद्या में प्रवीण-पारंगत भी। घमासान लड़ाई चली । विकरालता बढ़ती जा रही थी । निर्णायक स्थिति आ नहीं रही थीं।

अंतिम बाजी इस बात पर अड़ी कि फैसला तीन बाणों में ही होगा । या तो इतने में ही किसी का वध होगा, अन्यथा युद्ध बंद करके दोनों पक्ष पराजय स्वीकार करेंगे ।

जीवन-मरण का प्रसंग सामने आ खड़ा होने पर कृष्ण को भी अर्जुन की सहायता करनी पड़ी । उनने हाथ में जल लेकर संकल्प किया कि गोवर्धन उठाने और व्रज की रक्षा करने के पुण्य मैं अर्जुन के बाण के साथ जोड़ता हूँ । आग्नेयास्त्र और भी प्रचंड हो गया ।

काटने का सामान्य उपचार हलका पड़ रहा था । सो सुधन्वा ने भी संकल्प किया कि एक पत्नीव्रत पालने का मेरा पुण्य भी इस अस्त्र के साथ जुड़े ।

दोनों अस्त्र आकाश मार्ग में चले । दोनों ने दोनों के अस्त्र बीच में काटने के प्रयत्न किए । अर्जुन का अस्त्र कट गया और सुधन्वा का बाण आगे बढ़ा किन्तु निशाना चूक गया ।

दूसरा अस्त्र फिर उठाया, अबकी बार कृष्ण ने अपना पुण्य उसके साथ जोड़ा और कहा-"ग्राह से गज को बचाने और द्रोपदी की लाज बचाने में मेरा पुण्य अर्जुन के बाण के साथ जुड़े ।" दूसरी ओर सुधन्वा ने भी वैसा ही किया और कहा-" मैंने नीतिपूर्वक ही उपार्जन किया है और चरित्र के किसी पक्ष में त्रुटि न आने दी हो तो पुण्य इस अस्त्र के साथ जुड़े ।"

इस बार भी दोनों अस्त्र आकाश में टकराये और सुधन्वा के बाण से अर्जुन का बाण आकाश में ही कटकर धराशायी हो गया । तीसरा अस्र और शेष था । इसी पर अंतिम निर्णय निर्भर था । कृष्ण ने कहा-"मेरे बार-बार अवतार लेकर धरती का भार उतारने का पुण्य अर्जुन के बाण के साथ जुड़े ।" दूसरी ओर सुधन्या ने कहा-"यदि मैंने स्वार्थ का क्षण भर चिंतन किए बिना धन को निरंतर परमार्थ में निरत रखा हो तो मेरा पुण्य बाण के साथ जुड़े।"

इस बार भी सुधन्वा का बाण ही विजयी हुआ । उसने अर्जुन का बाण काट दिया।

दोनों पक्षों में से कौन अधिक समर्थ है, इसकी जानकारी देवलोक तक पहुँची, तो वे सुधन्वा पर आकाश से पुष्प बरसाने पहुँचे । युद्ध समाप्त कर दिया गया। भगवान कृष्ण ने सुधन्वा की पीठ ठोंकते हुए कहा-"नर श्रेष्ठ! तुमने सिद्ध कर दिया कि नैष्ठिक गृहस्थ साधक किसी भी तपस्वी से कम नहीं होता ।"

शालीन परिवार 

काफी वर्षों पूर्व जापान में एक मंत्री श्री ओ ०पी० शाद्र हुए हैं । उनका परिवार सारे जापान में सबसे बड़ा परिवार था । इस भरे-पूरे परिवार में कुल सदस्यों की संख्या एक हजार से भी ज्यादा थी । इस विशाल
परिवार में कभी भी किसी ने तू-तू मैं-मैं तक नहीं सुनी थी ।

इस शालीन परिवार की ख्याति तत्कालीन जापानी सम्राट् यामातो तक पहुँची, तो उसने वास्तविकता की जाँच करनी चाही । इसके लिए सम्राट् ओ०पी० शाद्र के घर पहुँचे । वृद्ध मंत्री ने सम्राट् का यथोचित आदर-सत्कार किया । सम्राट् ने वृद्ध मंत्री से इतने बड़े परिवार की शालीनता एवं सजनता का कारण पूछा।

वृद्ध मंत्री ने संयत वाणी में कहा-"हमारे परिवार का हर सदस्य संयम, सहनशीलता और पारस्परिक सहकार का महत्व समझता है । शालीनता को बनाए रखना सभी अपनी पवित्र साधना का एक महत्वपूर्ण अंग मानते है ।

सम्राट् ने परिवार संस्था में गुणों के समावेश एवं इस प्रकार संभव हुए विकास की महत्ता को समझा एवं अन्य नागरिकों के लिए इसे एक आचरण संहिता के रूप में अपनाने को कहा ।

सद्गृहस्थ की सिद्धि-साधना

एक सद्गृहस्थ था। संयम से रहता। परिवार को सुसंस्कारी बनाने में निरत रहता। नीतिपूर्वक आजीविका कमाता। बचा हुआ समय और धन परमार्थ में नियोजित किए रहता । वह तपोवन में बसा तो नहीं, पर घर में ही तपोवन बसा दिया ।

देवता इस धर्मात्मा विरक्त गृहस्थ की योग साधना से बहुत प्रसन्न हुए । इंद्र उसके सम्मुख प्रकट हुए और वर माँगने के लिए कहा ।

क्या-माँगता! जब असंतोष ही नहीं, तो अभाव किस बात का? हाथ पसारने में हेठी भी तो होती है । स्वाभिमान गँवाकर ही किसी से कुछ पाया जा सकता है । सो उसनें ऐसा उपाय खोजा, जिसमें ऋण भार भी न लदे और देवता बुरा भी न मानें ।

उसने वर माँगा । उसकी छाया जहाँ भी पड़े, वहाँ कल्याण बरसने लगें । वरदान मिल गया । पर अचंभित देवता ने पूछा-"हाथ रखने पर कल्याण होने पर तो आनंद भी आता, प्रशंसा भी होती और प्रत्युपकार की संभावना रहती । छाया से कल्याण होने पर इन लाभों से वंचित रहना पड़ेगा । फिर ऐसा विचित्र वर क्यों माँगा?"

सद्गृहस्थ ने कहा-"देव! सामने वाले का कल्याण होने पर तो अपना अहंकार पनपेगा और साधना में विघ्न डालेगा । छाया किस पर पड़ी, कौन कितना लाभान्वित हुआ, इसका पाता न चलना ही मेरे जैसे विनम्रों के लिए श्रेयस्कर है ।

साधना का यही स्वरूप वरेण्य है । यही क्रमिक प्रगति के पथ पर चलते-चलते व्यक्ति को महामानव बना देता है ।
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