प्रज्ञा पुराण भाग-3

॥ अथ सप्तमोऽध्याय:॥ विश्व-परिवार प्रकरणम्-1

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धौम्यश्चिन्तनलग्नोऽभूत्कुटुम्बस्य मयाऽत्र तु।
बोधितायां महत्तायामियत्यां कर्हिचित्समे॥१॥
श्रोतारों मागमन् भ्रान्तिं गृहप्राचीरगानि न:।
कर्तव्ययानि तथैतानि दायित्वानि तु सन्ति वै॥२॥
सीम्नि तस्यां जनैरल्पै: सहादानप्रदानयो:।
व्यवस्थायां च लिप्तेऽस्मिन् मनुष्ये भवबन्धनम्॥३॥
सीमाबन्धनमेतत् स्यान्मानवस्य स्थितिस्तु तम्।
कूपमण्डूकतामेषा नेष्यतीह न संशय:॥४॥
तदा देशस्य धर्मस्य समानायाश्च संस्कृते:।
विषये नहि कोऽप्यत्र चिन्तयिष्यति मानव:॥५॥
भ्रमोऽयं च समुत्पन्नो यदि चित्ते तु कस्यचित्।
तं भ्रमं च निराकर्तुं समायाताऽनिवार्यता॥६॥

भावार्थ- महर्षि धौम्य सोचने लगे, परिवार की इतनी महत्ता बताने के कारण कहीं श्रवणकर्त्ताओं को यह मतिभ्रम न होने लगे कि घर की चहारदीवारी तक ही उनके कर्तव्य-उत्तरदायित्व सीमित हैं। उतनी ही
परिधि में थोड़े से लोगों के साथ आदान-प्रदान करते रहने भर से यह रुष्ट लिप्त हो गया तो फिर वह सीमा
बंधन का काम करेगा, मनुष्य की स्थिति कूपमंडूक जैसी बना देगा, इसमें जरा भी संदेह नहीं । तब कोई देश धर्म समाज संस्कृति की बात सोचेगा ही नहीं। यह भ्रम यदि मेरे प्रतिपादनों से किसी को हुआ हो तो उसका निराकरण समय रहते करने की आवश्यकता है ॥१-६॥

गृहान् स्वान् परिवारं च मन्येतात्र नर: सदा।
विद्यालयमिवाऽथापि व्यायामभवनं पुन:॥७॥ 
क्षेत्रेऽस्मिंश्च लघावाप्ता उपलब्धीर्नियोजयेत्।
हिते लोकस्य चात्रैव विद्यते नरजन्मन:॥८॥
सार्थक्यं परमेशस्य निहिताऽत्र प्रसन्नता ।
प्रसन्ने परमेशे च न किमप्यस्ति दुर्लर्भम्॥९॥ 
संसार एव ब्रह्मास्ति विंराट्क्षेत्रेऽत्र मानवा: ।
स्वशक्ते: पुण्यबीजानि मुक्तहस्तं वपन्तु ते॥१०॥
विश्वसेदपि चैतत् स्यात् सहस्त्रं परिवर्द्धितम्।
श्रेयसां परिणामे च यन्नरैरिष्यते सदा॥११॥
धौम्योऽथ निश्चिचायैतद्दातु प्रोत्साहनं तथा ।
परामर्शं तु तान् सर्वान् सदस्यान् भवितुं स्वतः॥१२॥
विश्वस्य परिवारस्य व्यवस्था विषयेऽस्य च ।
योगदान विधातुं स्यादपूर्णं यद्विना त्विदम्॥१३॥ 
तेन चाऽपूर्णभावेन भ्रान्त्युत्पत्तेरथाऽपि च।
प्रगतेरवरोधस्य भयं तत्रोदितं महत् ॥१४॥
उपस्थिताँश्च जिज्ञासून् प्रतिगम्भीरमुद्रया ।
धौम्य: स्वकथनञ्चैवं प्रारंब्धं स व्यधाच्छुभम्॥१५॥ 

भावार्थ-घर-परिवार को व्यायामशाला-पाठशाला के समान माना जाना चाहिए उस छोटे क्षेत्र में उपार्जित उपलब्धियों को लोकहित में नियोजित करना चाहिए। इसी में मनुष्य जन्म की सार्थकता और ईश्वर की
प्रसन्नता सन्निहित है । परमेश्वर के प्रसन्न होने पर कुछ भी दुर्लभ नहीं है । यह संसार ही विराट् ब्रह्म-साकार परमेश्वर है इसके खेत में अपनी क्षमताओं को जी खोलकर बोना चाहिए अरि बदले में हजार गुने श्रेय- सत्परिणामों का विश्वास रखना चाहिए और मानव-मात्र का अभीष्ट भी यही है आज धौम्य ने विश्व-परिवार
का नागरिक रहने-विश्व-व्यवस्था को सँभालने में भाव भरे योगदान देने के लिए परामर्श-प्रोत्साहन देने का निश्चय किया इसके बिना सत्र का शिक्षक् अधूरा ही रह जाता । उस अधूरेपन के कारण भ्रांति उत्पत्र होने, प्रगति उत्पन्न होने और रुक जाने का भी भय था । धौम्य ने उपस्थित जिज्ञासुओं की ओर उन्मुख होकर गंभीर
मुद्रा में अपना मंगलमय कथन आरंभ किया॥७-१५॥

व्याख्या-चिंतन की परिधि यदि अपने पारिवारिक परिजनों तक ही सीमित रहे, तो व्यक्ति-समुदाय का एक अंग होते हुए भी अपने दायित्वों का अहसास न होने के कारण उपार्जन-उपभोग में ही जीवन किसी
तरह काटकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेता है । वस्तुस्थिति यह है कि समाज के एक-एक घटक ने परिवार संस्था के विकास में महत्वपूर्णं भूमिका निभाई है। एकाकी कोई नही जी सकता, न ही पनप
सकता है । ऐसे में इक्कड़, स्वार्थप्रधान जीवन जीने वाले व्यक्ति संस्कृति, समुदाय, विश्ववसुधा के लिए कलंक ही सिद्ध होते हैं।

गृहरथ जीवन, नारी, शिशु एवं वृद्धजन प्रकरणों को अपने तर्क सम्मत विवेचन द्वारा प्रस्तुत करने वाले महर्षि धौम्य का यह अनुमान सत्य ही है कि जानकारी के अभाव में कहीं भ्रांतियाँ न पनपने लगें।

इसी कारण वे विचारते हैं कि परिवार के सदस्यों को बताया जाना चाहिए कि उनका कार्यक्षेत्र कितना विशाल है । जिन गुणों का अभ्यास गृहस्थाश्रम में करने हेतु उन्हें प्रेरित किया गया, उन्हें समष्टि में संव्याप्त विराट् ब्रह्म रूपी विश्व परिवार में भी लागू किया जाना चाहिए, यह समझे बिना सारा प्रतिपादन अधूरा है । किसान अपने खेत में थोड़े से गेहूँ के दाने बोकर पूरे खेत में लहलहाती फसल काटता है । यही बोने व काटने की प्रक्रिया हर व्यक्ति को सत्प्रवृत्ति विस्तार के माध्यम से समग्र समाज पर लागू करनी चाहिए। आराधना की यह प्रक्रिया प्रकारांतर से उसकी विश्व-ब्रह्मांड के सभी घटकों के प्रति उऋण होने के रूप में संपन्न होनी चाहिए। इसी में उसका गौरव और बड़प्पन है।

मानव जीवन व्यक्तिगत संपत्ति नहीं, विश्व विराट् की धरोहर

हमारा जीवन समाज का दिया हुआ है । वह हमारी व्यक्तिगत संपत्ति नहीं, समाज की, विश्व विराट् की एक धरोहर है । इसका उपयोग समाज के, राष्ट्र के कल्याण और उसके हित के लिए ही होना चाहिए। इस तथ्य को तभी चरितार्थ किया जा सकता है, जब हम यह आधार लेकर चलें कि हमारा जीवन अपने व्यक्तिगत रूप में भले ही कुछ कष्टपूर्ण क्यों न हो, पर दूसरों का सुख और दूसरों की सुविधा तथा दूसरों का क्लेश, हमारा सुख-क्लेश है-यह परमार्थ भाव मनुष्य में जिस व्यक्तित्व का विकास करता है, वह बड़ा आकर्षक होता है । इतना आकर्षक होता है कि समाज की शक्ति और विकास मूलक सद्भावनाएँ आपसे आप खिंचती चली आती हैं । पूरा समाज उसका अपना
परिवार बन जाता है । ऐसी बड़ी उपलब्धि मनुष्य को किस ऊँचाई पर नहीं पहुँचा सकती ।

भारतीय संस्कृति की अमरता का मुख्य कारण उसकी सहयोग तथा पारस्परिकता की भावना ही है । भारतीय संस्कृति ने कभी व्यक्तिवाद को प्रोत्साहन नहीं दिया। समस्त विश्व का हित ही उसका मूलमंत्र रहा है । अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताएँ घटाते रहना और समझ, शक्ति तथा योग्यता का अधिकांश भाग विश्व हित में लगाते रहना हमारा आदर्श रहा है। कम से कम भोजन, वस्त्र और सुविधाएँ अधिक से अधिक दूसरों की सेवा करना ही हमारी परिपाटी रही है । भारतीय संस्कृति का निर्देश है-"हे मनुष्यो! अपने हृदय में विश्व प्रेम की ज्योति जला दो । सबसे सहयोग करो । भुजाएँ पसारकर प्राणी मात्र को अपने हृदय से लगा लो । विश्व के कण-कण को प्रेम की सरिता से सींच दो । विश्व प्रेम वह रहस्यमय दिव्य रस है, जो एक से दूसरे हृदय को चाहता है। हम सबका जीवन आदर्श एवं उद्देश्य के लिए ही होना चाहिए । जब तक जियो विश्वहित की समस्त वस्तुओं को अपने प्रेम की छाया में रखो । सबको आत्मभाव और आत्मदृष्टि से देखो । सब अपने है, इस विश्व में कोई पराया नहीं है ।"

मानव मात्र की, प्राणिमात्र की एकता के इस सिद्धांत को भारतीय मनीषी तो हजारों वर्ष पूर्व "वसुधैव कुटुम्बकम्" "आत्मवत् सर्वभूतेषु" जैसे सूत्रों द्वारा प्रकट कर चुके थे और भारत के तथा संसार के अनेक भक्तों, संतों और विश्व-मानवता के त्राता महापुरुषों ने उनके अनुसार आचरण करके भी दिखा दिया था ।

व्यक्तिगत जीवन-जीवन यात्रा का प्रारंभ स्थान है और समष्टिगत जीवन-मनुष्य का ध्येय बिंदु गंतव्य । व्यक्तिगत जीवन अपूर्ण है, वह सामाजिक जीवन में आत्मसात् होकर ही पूर्ण बनता है। ठीक उसी तरह जैसे बूँद समुद्र में मिलकर पूर्णता प्राप्त करती है ।

आवश्यकता इस बात की है कि हमारा जीवन, हमारे प्रत्येक कार्यकलापों का आधार व्यक्तिगत न होकर समष्टिगत हो-सार्वभौमिक हो । रचनात्मक और दूसरों के लिए हितकारी हो । मनुष्य अपने लिए न जिए, वरन् समाज के लिए, संसार के लिए जिए । इसी सत्य पर व्यक्ति का कत्थान संभव है और साथ ही समाज में परस्पर सहयोग आत्मीयता, सौजन्य के संबंध कायम होते हैं । विश्व यज्ञ में मनुष्य का प्रत्येक प्रयास आहुति डालने के सदृश हो, तो धरती पर स्वर्ग की कल्पना साकार हो उठे ।

जन-हितैषी-सर टामस रो

सर टॉमस रो डॉक्टर ने बादशाह शाहजहाँ की लड़की का इलाज किया और इसके प्रत्युपकार में शाहजहाँ ने मन चाहा इनाम माँगने के लिए कहा। सर टॉमस रो ने अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए कुछ न माँगकर इंग्लैंड सें आने वाले माल पर से चुंगी हटाने की माँग की, जो स्वीकार कर ली गई । इससे इन माँगने वालों का व्यक्तिगत लाभ तो कुछ न हुआ, पर उनके देश से बिना चुंगी चुकाए जो माल भारत में सस्ता बिकने लगा, उससे उनके देश का व्यापार बढ़ा और वे इस देश पर अपना राजनैतिक वर्चस्व जमा सकने योग्य सामर्थ्यवान हो गए। इंग्लैंड मालामाल और शक्तिवान हो गया । सर टॉमस रो अपने देश का सच्चा और अच्छा नागरिक था । उसने अपने लाभ को पीछे रखकर पूरे समाज का हित चाहा और किया। अवश्य ही उसने सोचा होगा कि कोई जमीन-जायदाद अथवा धन संपदा माँग लेने पर केवल एक उसका ही जीवन सुखी हो सकता है, जिसको कुछ दिन भोगने के बाद उसे छोड़ना ही पड़ेगा और यदि वह किसी सार्वजनिक हित की माँग करता है, तो उससे उसके संपूर्ण समाज को लाभ होगा । मेरे एक अकेले के बजाय लाखों-हजारो का जीवन सुखी हो जाएगा और फिर सबके हित में उसका हित भी तो निहित है, अपने पूरे समाज के साथ वह भी तो सुखी होगा । कितना दिव्य और कितना दूरदर्शी विचार था उसका। उसके व्यक्तिगत सुख के उस त्याग ने उसके सारे देश को सुखी एवं संपन्न बना दिया। किसी अच्छे और सच्चे नागरिक का यही तो लक्षण होता है कि वह अपने संकीर्ण लाभ का त्याग कर जनहित की दृष्टि से सोचता और आचरण करता है। धन्य हैं ऐसे जन हितैषी मनुष्य ।

अनुदान दूसरों को बाँटा

कनाडा के एक अमीर श्री पियरे थॉमसन ने मरते समय अपने एक विश्वासपात्र नौकर के नाम वसीयत में हजार डालर छोड़े। जोसेफ नामक उस व्यक्ति को जब वह राशि मिली, तो उसने वह राशि अपने गाँव में बन रहे एकाकी स्कूल निर्माण हेतु दान कर दी ओर कहा कि-"मुझे जो  कुछ भी मजूरी में मिलता है, उसी में प्रसन्न हूँ । किसी कारणवश मैं तो नहीं पढ़ पाया, पर मेरे अन्य बंधु क्यों उससे वंचित रहें। अच्छा हो मेरे मालिक का यह अनुदान उसी श्रेष्ठकाम में लगे, ताकि कोई निरक्षर न रहे।

मानवता का फर्ज 

जिनका अंत:करण सदाशयता से लबालब भरा होता है, उनको विश्व के समस्त नागरिक अपने ही परिजन से प्रतीत होते हैं। जो सेवा-उपकार भाव वे अपने सगे-संबंधियों के प्रति रखते हैं, वहि उनका विश्व रुपी इस विराट् कुटुम्ब के प्रति भी होता है। इसे वे अपना कर्तव्य मानते हैं, अहसान नहीं।

एक अधेड़ दंपत्ति रात को आँधी-तूफान और मूसलाधार वर्षा के बीच फिलाडेल्फिया के एक होटल में पहुँचे
और ठहरने के लिए स्थान माँगा। होटल पूरा भरा हुआ था। कहीं तिल रखने को जगह नहीं थी। मालिक ने अपनी असमर्थता प्रकट करके छुट्टी ले ली । घोर शीत और वर्षा की इस भयानक रात में दंपत्ति एक कोने में सिकुड़े हुए खड़े थे । रात कहाँ कटे, कुछ सूझ नहीं पड़ रहा था । होटल के एक कर्मचारी ने बिस्तर में पड़े-पड़े यह दृश्य देखा । वह बाहर निकला और उस दंपत्ति को अपनी छोटी सी कोठरी में टिका दिया। स्वयं किसी प्रकार इधर-उधर खड़ा टहलता रात काटता रहा । सबेरा हुआ । दंपत्ति उस कर्मचारी की उदार सज्जनता के लिए धन्यवाद देते हुए चले गए । इस कृपा का पुरस्कार देने का उनने प्रयत्न किया, पर उस कर्मचारी ने इसे मनुष्यता का फर्ज बताया और उसका मूल्य लेने से इन्कार कर दिया । कुछ ही दिन बाद उस कर्मचारी को न्यूयार्क से बुलावा आया। चिट्ठी के साथ हवाई जहाज का टिकट भी था । कर्मचारी पहुँचा, हवाई अड्डे पर स्वागत के लिए वही दंपत्ति खड़े थे, जिन्हें उसने अपनी कोठरी में टिकाया था। वे थे न्यूयार्क के करोड़पति विलियम वालडोर्फ।

उन्होंने अपने उस रात के मेजबान का स्वागत करते हुए कहा कि-"हमने एक नया होटल बनाया है, उसके
मैनेजर के पद हेतु आपको सम्मानित करना चाहते हैं ।" उस व्यक्ति के संकोच को देखते हुए वे बोले-"इसे अन्यथा न लें । यह उस रात की मेजबानी का पुरस्कार नहीं। उसे तो हम राशि में कभी चुका ही नहीं सकते। यह कर्तव्यनिष्ठा एवं उदार आत्मीयता का, एक सम्मान भर है। आप जैसे सजन, जिनके लिए दूसरों का कष्ट भी अपना ही है, अतिथि-सेवा जैसे कार्य को सँभालने कें हकदार है, हमने तो अपने कर्तव्य की पूर्ति भर की है।"

समर्थ की जिम्मेदारी 

अदालत में रोते हुए व्यक्ति को देखकर एक सहृदय ने कारण जानना चाहा, तो पता चला कि उसने बहुत पहले अपनी पुत्री के विवाह के लिए कर्ज लिया था। कर्ज समय पर चुका नहीं पाया, तो ब्याज पर ब्याज बढ़ता गया और अब तीन सौ रुपए हो गए । ऐसे धनी जो दिया हुआ कर्ज माफ कर दें, बहुत कम होते हैं। वह तो दुगुने का कागज लिखवाकर हर ढंग से वसूल करने का प्रयास करते हैं। वह कर्जदार तो अवधि बढ़ाने की फरियाद करने आया था। पर अदालत में भी कोई सुनवाई न हुई, क्योंकि मामला बहुत पुराना था । वह रोते हुए घर चला गया । उसकी पत्नी ने बताया कि डिग्री करने वाले कई व्यक्ति आए थे और दरवाजा घेरे काफी देर खड़े रहे । अंत में किसी दयालु व्यक्ति ने कर्ज चुकाकर उन्हें विदा किया। अब समझते देर न लगी कि जो व्यक्ति अदालत में मुझसे बात कर रहा था, शायद यहाँ आकर उसने मेरा दुख हलका करने के लिए रुपए चुका दिए हों।

वह व्यक्ति उनका पता लगाते हुए घर पहुँचा और बड़े ही विनम्र शब्दों में कृतज्ञता व्यक्त करने लगा । उन्होंने
कहा-"भाई! रुपए चुकाए तो मैंने ही है, पर कहना किसी से मत । क्योंकि थोडा पैसा जेब में होने के कारण यह तो
मेरा कर्तव्य ही था, जिसे मैंने पूरा किया।" यह व्यक्ति थे ईश्वरचंद्र विद्यासागर, जो स्वयं गरीबी में पले थे, किन्तु अंत तक उसे भूले नहीं । माँ की सिखावन उन्हें हमेशा याद रही-"समर्थ होने के नाते अन्य गरीबों-पिछड़ों के दुख-कष्ट मिटाने की जिम्मेदारी पूरी लगन से निभाना ।"उन्होंने कोई भी ऐसा अवसर हाथ से जाने न दिया।

व्यर्थ का अहंकार

हम अपने एकाकी छोटे से संसार में कूपमंडूक की तरह मदमस्त बने फिरते है। पर यह भूल जाते है कि हमारा निज का कोई अधिकार किसी पर नहीं। यह सारा ब्रह्मांड एक विशाल परिवार है, जिसको
अहंकार क्य उठाना हमारा दायित्व है। अहंता, काम, मद कभी उभरे तो उसे मिटा देना ही ठीक है ।

एक राजा किसी संत के सामने अपनी शेखी बघार रहा था और कह रहा था, राज्य भर का पालन-पोषण करने की मैंनें सुंदर व्यवस्था बना रखी है। संत ने उलट कर पूछा-"अपने राज्य के पशु-पक्षी, मनुष्यों में सुखी-दुखी, स्वस्थ-रुग्णों की गणना करके बताओ ।" राजा सकपका गया । संत ने कहा-"जब तुम्हें राज्य क्षेत्र में रहने वाले वर्गों की गणना तक नहीं मालूम, तब उनके उपयुक्त प्रबंध कैसे करते होगे ।" राजा का गर्व गल गया और वह भगवान द्वारा विश्व व्यवस्था चलने की बात कहने लगा ।

विनम्रता बनाम अहंता

एक जंगल में पास ही बाँसों का झुरमुट था एवं पास ही आम का पेड़। बाँस ऊँचा था, आम छोटा । एक दिन बाँस ने कहा-" देखते नहीं, मैं कितना बड़ा हो चला, कितनी तेजी से बढा । एक तुम हो, जो इतनी आयु होने पर भी अभी छोटे ही बने हुए हो ।" आम ने बाँस के सौभाग्य का सराहा, पर अपनी स्थिति पर भी असंतोष व्यक्त नहीं किया । समय बीतता गया । बाँस पककर सूख चला, किन्तु आम की डालियाँ फलों से लदी और वह अधिक झुक गई । बाँस फिर इठलाया-" देखते नहीं, मैं सुनहरा हो चला और बिना पत्तियों के भी दूर-दूर से कितना सुंदर दीखता हूँ । एक तुम हो, जिसे फूलों से लदने पर भी नीचा देखना पड़ रहा है।" आम ने फिर भी अपने संबंध में कुछ नहीं कहा । बाँस की सराहना भर कर दी। एक आया यात्रियों का झुंड । ठहरने के लिए आश्रम की तलाश की, सो फलों से लदा छायादार आम्रवृक्ष सबको सुहाया । डेरा डालकर वे वहाँ रात्रि विश्राम करने लगे।

जरूरत आग की पड़ी, भोजन पकाने के लिए । नजर दौड़ाई, तो पास में ही सूखा बाँस पड़ा पाया, काटा जलाना आरंभ कर दिया । बाँस बड़बड़ाने लगा, पर आम के नीचे ठहरे यात्रियों को सुख पाते देखकर संतोष की सांस लेता रहा ।
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