प्रज्ञा पुराण भाग-3

॥ अथ प्रथमोऽध्याय:॥ परिवार-व्यवस्था प्रकरणम्-5

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शिशवोऽपि भवन्त्यस्मात्स्नेहसौख्यप्रशिक्षणै:।
वञ्चिता: फलतस्तेषां विकासस्त्वरुद्धयते॥६५॥ 
अन्धकाग्मयं चैव भविष्यज्जायते ध्रुवम् ।
यत्र राष्ट्रे समाजे वा जनसंख्या विवर्द्धते॥६६॥
अभावसंकटग्रस्ता जायन्ते तत्र पूरुशा:।
बहुप्रजननं तस्मात्त्यक्तव्यं भूतिमिच्छता॥६७॥ 
प्रसंगेऽस्मिंञ्च यः कश्चिद् यावतीं न्यूनतां भजेत् ।
बुद्धिमान् स तथैवात्र महान् वक्तुं भविष्यति ॥६८॥

भावार्थ-ऐसी स्थिति में बच्चे भी समुचित दुलार, प्रशिक्षण एवं सुविधा-साधनों से वंचित रहते हैं। फलत: उनका विकास रुकता है और भविष्य अंधकारमय बनता है । जिस समुदाय अधवा राष्ट्र में जनसंख्या बढ़ती है, वे अभावग्रस्त होते, और संकटों से घिरे रहते हैं । अत: सुख वाहने वालों को बहु प्रजनन से बचना ही चाहिए जो इस संदर्भ में जितना अधिक कटौती कर सके, उसे उतना ही बुद्धिमान कहा जायेगा॥६५-६८॥

व्याख्या-बच्चे अधिक पैदा करने से माता-पिता तथा परिजनों को, समाज को होने वाली हानि पर पिछले प्रतिपादन में ध्यान दिलाया गया था । यहाँ स्वयं बच्चों पर, नई पीढ़ी पर होने वाले कुप्रभावों की ओर ध्यान आकर्षित किया जा रहा है ।

संतति  को जन्म देने का उद्देश्य है परिवार को, समाज को श्रेष्ठ उत्तराधिकारी प्रदान करना । स्पष्ट है कि जीं हाँ, वे श्रेष्ठ समर्थ: और योग्य हों । इसीलिए देव संस्कृति ने संतान की संख्या की अपेक्षा उनके स्तर
को बढ़ाने का समर्थन किया है । कहा गया है-

यरमेको गुणी पुत्रो, न च मूर्खशतान्यपि । 
एकश्चन्द्र: तमो हन्ति, न च तारा गणरपि॥

अर्थात एक मुणी पुत्र पाना उचित है न कि सैकड़ों मूर्ख । एक चंद्रमा रात्रि का अंधकार दूर कर देता है । ढेरों तारे मिलकर भी वैसा नहीं कर पाते । 

यह केवल उक्ति नहीं है । उदाहरणों से भी यह सिद्ध होता है कि जिन्होंने सीमित संतानें रखी, वे ही उस्तें श्रेष्ठ सुसंस्कारी बना सके । संख्या वृद्धि करने वाले संस्कार देने में असफल ही हुए।

राजा सगर की भ्रांति

पिछले उदाहरणों में रघुवंशियों की परंपरा दिखलाई गई थी । उनके पूर्वज राजा सगर ने बडी संख्या में पुत्र पैदा किए थे । उनका विचार था कि इनके बल से वे अश्वमेध यज्ञ करके चक्रवर्ती सम्राट् बन सकेंगे । परंतु वैसा न हो सका । शक्ति संपन्न राजपुत्रों कें संस्कारों पर ध्यान न दिया जा सका और उनके कुसंस्कारों ने ऋषि शाप को आमंत्रित किया तथा नष्ट हुए । जब उसी वंश में एक श्रेष्ठ पुत्र भगीरथ पैदा हुए, तब उस विडंबना से मुक्ति मिली ।

इसके विपरीत रघु और अज जैसे श्रेष्ठ पुत्रों ने अपने पिताओं के अश्वमेध संपन्न कराने में सफलता पायी थी ।

कौरव-पांडवों का अंतर  

वंश परंपरा बनाए रखने के लिए व्यास जी ने गांधारी तथा कुंती दोनों को वर माँगने के लिए कहा । गौधारी ने १०० पराक्रमी पुत्र माँगे, किन्तु कुंती ने ५ वीर और सुसंस्कारी पुत्र माँगे । इतिहास साक्षी है कि १०० पुत्रों का पालन करने में समर्थ गाँधारी उनकी सुसंस्कारिता का क्रम न बिठा सकीं । निर्वाह के लिए पोशान रहकर भी कुंती ५ पुत्रों को सुसंस्कार देंने में सफल रहीं । गांधारी के १०० पुत्र नष्ट हुए, किन्तु कुंती के ५ पुत्रों का इतिहास स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया ।

कद्रू के हजार विनिता के दो 

महर्षि कश्यप की दो पत्नियाँ थीं, कद्रू और विनिता । उन्होंने अपने-अपने उत्तराधिकारियों के निमित्त वर माँगने को कहा । कद्रू ने १००० शक्तिशाली पुत्र मागें। उसका विचार था कि बडी संख्या में शक्तिशाली पुत्र उसे विनिता से अधिक सम्मान और यश दिला सकेंगे । विनिता ने तेजस्वी, सुसंस्कारी मात्र दो पुत्र माँगे ।

कद्रू के नाग हुए एक हजार । थोड़े समय के लिए उसका दबदबा बन भी गया । पर जब विनिता के अरुण और गरुड़ का पराक्रम प्रकट हुआ, तो संख्या के ऊपर श्रेष्ठता का महत्व स्पष्ट हो गया । अरुण बने सूर्य भगवान के सारथी और गरुड़ बने भगवान विष्णु के वाहन । उन्होंने चंद्रलोक से अमृत कलश लाकर कद्रू के बंधनों से माँ विनिता को मुक्त कराया । नाग उनके भय से थर-थर काँपते रहे ।

प्राचीन उदाहरण

दुष्यंत के भरत अकेले पुत्र थे, जिनके प्रभाव से इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा।

महर्षि लोमशने अपने इकलौते पुत्र शृंगी को इतना तेजस्वी बनाया था कि वशिष्ठ जी राजा दशरथ के पुत्रेष्ठि-यज्ञ के लिए उन्हें ससम्मान बुलाने आये । व्यास जी के एकमात्र पुत्र शुकदेव संस्कारों और ज्ञान की दृष्टि से अपने पिता से भी श्रेष्ठ माने गए । ऋषि जरत्कारु ने एक ही संतान आस्तीक मुनि को ऐसा प्रखर बनाया कि जनमेजय के नाग यज्ञ को वे ही जाकर रोक सके थे।

उत्तरदायित्व को सीमित रखते हुए शक्ति-सामर्थ्य से उत्कृष्टता पैदा करने का यह क्रम ही अपनाने योग्य है ।

इस सदी के महामानव 

समाज को समर्पित सेवाभावी महामानवों ने हमेशा इसी सिद्धांत को अपनाया है कि परिवार का बोझ बढाया न जाय। वंश पुत्र के कारण चलने की एक मूढ़ मान्यता लोगों के दिमागों में समाई हुई है । इस मान्यता के कारण ही अनेक कन्याओं का बोझ लादते असंख्यों गृहस्थ देखे जा सकते हैं। जो पुत्र की कामना में प्रजनन में निरत रहते है । ऐसे कई व्यक्ति इस शताब्दी में भी हुए हैं । जिन्होंने संतान से अधिक समाज में सत्प्रवृत्ति विस्तार को अधिक महत्व दिया है ।

अपंग बच्चों को समर्थ बनाया 

जान एट्रिन के घर एक बच्ची आयी । दो वर्ष की हुई तब मालूम हुआ कि वह दिमागी पक्षाघात से पीडित है। न वह ठीक तरह से चल सकती थी, न बोल सकती थी, न दैनिक जीवन का कोई काम सही तरीके से चला सकती थी । माँ-बाप ने निश्चय किया कि वे माँ-बाप का कर्तव्य निबाहने और उसे शिक्षित करने के लिए पूरा-पूरा परिश्रम करेंगे । नए बच्चे पैदा करने की अपेक्षा इस इकलौती बच्ची को ही काम की बनाने का निश्चय किया । जबकि डाक्टर लोग कहते थे कि दिमागी पक्षाघात पीड़ित बच्चों में से कदाचित् ही कोई अच्छा हो पाता है ।

रोटी कमाने के बाद माँ-बाप बच्ची को सिखाने में ही लगे रहे । फलत: उसकी स्थिति में सुधार होता गया और वह एम०ए० तक पढ़ सकी तथा दैनिक जीवन के काम भी बिना किसी की सहायता के करने लगी । उसका जीवन-धन्य हो गया।

इसमें माता-पिता के श्रम को श्रेय तो था ही, किन्तु यदि वे इस बच्ची की देख-रेख के साथ और बच्चों की संख्या बढ़ाते तो चाहकर भी जी तोड़ परिश्रम करके वे बच्चों के साथ न्याय नहीं कर सकते थे । जितना कि उनने किया ।

मितव्ययत्वमेवाऽथ प्रत्येकस्मिंस्तु कर्मणि ।
वर्तिव्यं महत्वं च द्रव्यस्याऽन्ये समेऽपि ले ॥६९॥
सदस्या अधिगच्छन्तु तथा बोध्या पुन: पुन:।
नाश्यं नैव धनं व्यर्थ विलासस्य प्रदर्शने॥७०॥ 
अहं त्वस्याऽपि वा माता लक्ष्मीरित्युपयुब्धताम् ।
हेयमित्यवमत्याऽसत् कार्येषु नोपयुज्यताम्॥७१॥
शृंगारे नैव कर्तव्यो व्ययोउलंकरणेउथंवा ।
सौजन्यं निहितं नूनं तत्र संस्कारिताऽपि च ॥७२॥
स्वाभाविके तथा सौम्ये सरले जीवने द्वयम् ।
नियुज्यन्तां हि वित्तानि सत्कर्मष्येव सर्वदा॥७३॥

भावार्थ-हर कार्य में मितव्ययिता बरती जाय। हर सदस्य को पैसे का महत्व समझाया जाय । विलास, अहंता प्रदर्शित करने वाले कामों में धन कों बर्बाद न होने दिया जाय । लक्ष्मी को माता मानकर उसका उपयोग किया जाय हेय मानकर उसका पुरुपयौग न होंने दें । शृंगार-अलंकरण पर कुछ भी खर्च न किया जाय। सादगी में ही सज्जनता और सुसंस्कारिता सन्निहित है । सत्क्रर्मो में ही विवेकपूर्वक धन को नियोजित किया जाय॥६९-७३॥

व्याख्या-परिवार के सदस्यों की संख्या बढ़ाकर अनावश्यक बोझ अपने कंधे पर लादना, जहाँ परिवार के मुखिया के लिए अनीति से अथवा किसी भी उपाय से साधन जुटाने को विवश करता है, वहीं दूसरी ओर मितव्ययिता की वृत्ति का अभावु प्रदर्शन ठाठ-बाट में ही अपना बड़प्पन मानने की प्रवृत्ति व्यक्ति को आदर्शो से विमुख कर देती है । मितव्ययिता एवं कृपणता दोनों नितांत भिन्न बातें हैं । हर साधन का सोच-समझकर सदुपयोग, परमार्थ कार्यों में उसका सुनियोजन मितव्ययिता कहलाता है, जबकि अनावश्यक संचय से जुड़ी संकीर्ण स्वार्थपरता, कृपणता का पर्याय है।

परिवार व्यवरथा भली-भाँति चल सके, किसी भी सदस्य को अभाव न अनुभव हो, सभी उपलब्ध साधनों ले ही विकास करते रूह सकें, इसके लिए अपव्यय के छिद्रों को रोका जाना अत्यंत आवश्यक है । किसी भी परिवार जन को स्वस्थ मनोरंजन, स्वाध्याय, सत्संग, साधना जैसे पुण्य प्रयोजनों के लिए पर्याप्त समय मिलना चाहिए । हर समय उन्हें उपार्जन, प्रयोजन के निमित्त बैल की तरह व जुतना पड़े । इसके लिए अनिवार्य है कि हर सदस्य धन का महत्व समझे । बहुधा कमाते समय, धन पाने के समय तो उसे सर्वस्व मान लिया जाता है तथा ईमान, मनुष्यता की कीमत पर भी उसे प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है । ऐसे अवसर पर धन की सीमा का ध्यान रखा जाना उचित है ।

इसके विपरीत खर्च करते समय पागलपन जैसी हरकतें की जाती हैं । समय, श्रम, योग्यता की इतनी कीमत चुकाकर प्राप्त धन को बेदर्दी से बेकार के कामों में खर्च कर दिया जाता है । धन का महत्व समझकर उसे महत्वपूर्ण कार्यों में ही खर्च करने का संस्कार डालैं ।

लक्ष्मी को माता मानने का अर्थ है उसकी पवित्रता का ध्यान रखा जाय । उपयोग तक उसकी पवित्रता है, उपभोग में वह समाप्त हो जाती है । माँ के उपयोग की बात सोची जाती है, उसे उपभोग का विषय नहीं बनाया जाय । विलास और अहंता के प्रदर्शन में, फैशन-शृंगार में धन खर्च करना लदमी माँ का उपभोग करना है । इस प्रवृत्ति को परिजनों में न होने देना आवश्यक है ।

धन कितना भी एकत्रित हो, उसका कोई लाभ नहीं, वह तो एक भार और हो जाता है । उसके उपयोग से उसका लाभ मिलता है । जैसा उपयोग होगा, वैसा लाभ मिलेगा। असत् कार्यो में लगने से असत् परिणाम और सत् कार्यों में लगने से सत्परिणाम सामने आते हैं । यदि उपार्जन के बाद, आवश्यक प्रयोजनों में नियोजित होने के बाद धन शेष रह जाता है तो उसे परमार्थ कार्यो में व्यय करना चाहिए । समाज एक बृहत् परिवार है, हम भी उसके एक अंग सरीखे हैं । इस जाते सत्प्रवृत्तियाँ फैलाने तथा वातावरण को उत्कृष्टता का पक्षधर बनाने के निमित्त जितने धन का, सदुपयोग हो सकेगा, उतना ही लाभकारी होगा ।

अपने पैर सिकोडियों

अकबर ने दरबारियों की बुद्धि परखने के लिए एक चादर मँगायी, जो उनकी लंबाई से छोटी थी । सभी से ऐसा प्रश्न पूछा जा रहा था कि बिना चादर को घटाए-बढाए उनका शरीर कैसे ढंक जाय? औरों से उत्तर न बन पड़ा तो बीरबल ने कहा-" हुजूर! अपने पैर सिकोडें, मजे में उसी चादर में तन ढँक कर सोये ।"

बुद्धिमानी की बात सभी को पसंद आई । साधनों को बढ़ाए बिना भी आवश्यकताएँ कम करके भी गुजर हो सकती है ।

वह तो देख रहा है 

मंगोलिया वासी चांगशेन नामक न्यायाधीश अफसर के पास उनका एक मित्र पहुँचा और अशर्फियों की थैली भेंट करते हुए बोला-"आप मेरा काम कर दें । इस लेन-देन की बात आपके और मेरे अतिरिक्त और कोई नहीं जानेगा ।" 

चांगशेन कभी किसी से रिश्वत नहीं लेते थे। भले ही अपनी इस आदर्शवादिता के कारण उन्हें अभावग्रस्त जीवन जीना पड़ता था । उन्होंने अपने धनी मित्र को इस बात का उत्तर दिया-"मित्र! ऐसा न कहो कि कोई नहीं देखता । कोई मनुष्य नहीं देखता तो क्या? सर्वव्यापी परमेश्वर तो सब कुछ देखता है, उसकी नजरों से मेरा यह अनैतिक कर्म कहाँ छिपा रहेगा?"

अनीति का उपार्जन महामानवों को कभी स्वीकार्य नहीं होता । यही परंपरा वे अपने परिवारों में भी डालते हैं।

किसका धन सार्थक?

एक संत प्रजा को धार्मिक उपदेश देते तथा टोपियाँ सीकर जीवन निर्वाह करते थे । नित्य उन्हें एक पैसे की बचत हो जाती, उसे भी दान कर दिया करते । एक सेठ को उनके क्रियाकलापों का पता चल गया। उसे प्रेरणा मिली तथा संत के पास जाकर बोला-"मेरे पास धर्म खाते में पाँच सौ रुपये है, उनका क्या करूँ?" संत ने सहज स्वभाव से कहा-"जिसे तुम दीन-हीन समझते हो उसे दान कर दो ।"

सेठ जी ने देखा एक दुबला-पतला अंधा भूखा मनुष्य जा रहा है । उन्होंने उसे सौ रुपये देकर कहा-"सूरदास जी आप इन रुपयों से भोजन, वस्त्र तथा आवश्यक वस्तुएँ ले लें । अंधा आशीर्वाद देता हुआ चला गया । सेठ जी को न जाने क्या सूझा उसके पीछे चले, आगे चलकर उन्होंने देखा कि उस अंधे ने उन पैसों से खूब मांस खाया, शराब पी तथा जुए के अड्डे पर जाकर वे रुपये दाँव पर लगा दिए । वह सब रुपये हार गया । सेठ जी को ग्लानि हुई । एक क्षण के लिए दान, धर्म से विश्वास हट गया । परंतु वे साधु के पास गए । उन्होंने सारी घटना सुनाई ।

संत जी मन ही मन मुस्कराये तथा उसे अपना बचाया हुआ पैसा देते हुए कहा-" आज इसे किसी आवश्यकता वाले को दे देना । सेठ जी ने आगे जाकर एक दीन, दरिद्र, भिखारी को वह पैसा दिया । छिपकर सेठ उसके पीछे हो लिया । कुछ आगे चलकर उसने अपनी झोली में से निकाल कर मरी हुई एक चिड़िया फेंक दी, जिसे वह भूनकर खाता । एक पैसे के चने खरीद कर खाये ।" सेठ जी ने यह घटना संत जी को सुनाई । संत बोले- "वत्स । तुम्हारा अनीतिपूर्वक कमाया बिना श्रम का धन था एवं मेरा परिश्रम से कमाया धन । नीति और अनीतिपूर्वक कमाए हुए धन में यही अंतर होता है । अब आया न समझ में कमाई का अंतर?"

राजेन्द्र बाबू ने जूते लौटाए

स्वर्गीय राष्ट्रपति डॉ ० राजेन्द्र प्रसाद एक बार कई राज्यों का दौरा करने के बाद राँची पहुँचे । वहाँ उनके पैर में दर्द होने लगा । पता चला कि उनके जूतों के तल्ले घिस गए तथा कीलें ऊपर उभर आयी हैं । राजेन्द्र बाबू अहिंसक जूतों का ही प्रयोग करते थे । उनके शिविर में १० मील दूर ही अहिंसक चर्मालय केन्द्र था । वहाँ सचिव को भेजकर नया जोड़ा मँगवाया । जूते पाँव में डालकर उन्होंने कीमत पूछी, तो उत्तर मिला-"उन्नीस रुपये ।"

"गत वर्ष तो ऐसे जूते ग्यारह रुपये में लिए थे ।"

"ग्यारह रुपये वाले जूते इनसे कमजोर तथा कठोर है ।"-सचिव ने उत्तर दिया ।

राजेन्द्र बाबू को संतोष नहीं हुआ । उन्होंने कहा कि जब ग्यारह रुपये के जूते से काम चल सकता है, तब उन्नीस रुपये क्यों खर्च किये जाँय? अत: इसे लौटाकर ग्यारह रुपये वाला जोड़ा मँगवाओ ।

राष्ट्रपति जी वहाँ तीन दिन ठहरे । उन्होंने किसी आने-जाने वाले से जूता बदलवाया । सचिव को मोटर द्वारा जूता बदलने नहीं भेजा । उन्होंने कहा-"जितने रुपये जूते में बचाएँगें, उतने पेट्रोल में लग जायेंगे ।"

यद्यपि बात छोटी सी थी । परंतु राष्ट्र की संपत्ति की एक-एक पाई का ध्यान रखने वाले राजेन्द्र बाबू के लिए तो छोटी सी बात भी बहुत गंभीर थी । ये छोटी-छोटी बातें ही तो व्यक्ति को बड़ा बनाती हैं ।

उद्योगपति श्रीराम का विवेक  

दिल्ली के प्रख्यात उद्योगपति लाला श्रीराम का जीवन २५ रुपये मासिक की नौकरी से आरंभ हुआ । उपार्जनशीलता और प्रामाणिकता के सहारे वे उन्नति करते गए और कई मिलों के स्वामी बन गए ।
करोड़पति होते हुए भी उन्होंने अपनी आवश्यकताएँ सीमित रखी तथा कमाया हुआ धन सार्वजनिक संस्थाएँ चलाने में खर्च किया । इतने कुशल और उदार व्यक्ति कदाचित् ही कहीं देखने को मिलते हैं।

द्विवेदी जी की सुनियोजित मितव्ययिता 

सरस्वती के संपादक पं० महावीर प्रसाद द्विवेदी ने उस पद पर २५ रुपये मासिक से काम आरंभ किया था। बढ़ते-बढ़ते अंतिम समय उन्हें १५० रुपये तक वेतन मिलने लगा था । इस रकम को उनने इतनी मितव्ययिता से खर्च किया कि बचत के रुपयों को कितने ही जरूरतमंदों की सहायता में लगाते रहे । उनका निजी खर्च बहुत सीमित था । एक पैसा भी निरर्थक कामों में खर्च न करते थे ।

नोबेल की कमाई कई गुनी फली

अलफ्रेड नोबेल ने डाइनामाइट जैसे कितने ही आविष्कार करके अपार धनराशि कमाई। बचपन की गरीबी उनके पीछे बहुत दिन न रही । अपनी संपत्ति में से दो भतीजों को पाँच-पाँच हजार पौंड देकर शेष सारी संपदा ८५ लाख डालर का एक ट्रस्ट बना दिया जो बढ़कर करोडों की हो गई है और जिसके ब्याज से हर वर्ष छ: विषयों में-मानवता की सेवा करने वालें मूर्धन्य व्यक्तियों को प्राय: एक-एक लाख रुपयों का पुरस्कार दिया जाता है । कायिकी या चिकित्साशास्त्र, भौतिक, रसायन शाम, साहित्य, विश्व शांति और अर्थशास्त्र इन छ: विषयों पर हर वर्ष पुरस्कार दिए जाते हैं । नोबेल से जब पूछा गया कि डाइनामाइट तो हानिकर वस्तु है, उससे आपने पैसा क्यों कमाया? तब उनने उत्तर दिया-किसी वस्तु का सदुपयोग करने पर वह लाभदायक होती है, दुरुपयोग होने पर हानिकारक । डाइनामाइट से चट्टान तोड़ने जैसे काम लाभदायक होंगे ।

विपत्कालस्य हेतो: स उन्नतेश्च प्रयोजनात् ।
वित्तस्य संग्रह: कार्यों दक्ष आये व्यये भवेत ॥७४॥
प्रदर्शनेषु चाऽयोग्यजनानां परितोषणे।
व्यसनेषु कुरीतीनां पालने वित्तनाशनम्॥७५॥ 
नैव क्वाऽपि विधातव्यं बुद्धिमत्वमिदं स्मृतम्।
एतत्तथ्यविद: सन्ति सुखिनः संस्कृता अपि ॥७६॥

भावार्थ-कुसमय के लिए तथा उत्थान प्रयोजनों के लिए धन की बचत की जाय । आय-व्यय में सावधानी रखें । दुर्व्यसनों में उद्धत प्रदर्शनों में अनुपयुक्त लोगों की आवभगत में, कुरीतियों के परिपालन में,
पैसों का दुरुपयोग न होने देना ही बुद्धिमत्ता है । जो इस तथ्य को समझते और अपनाते हैं, वे परिवार सुखी
रहते, सुसंस्कृत कहलाते हैं ॥७४-७६॥

व्याख्या-परिवार की सुख-शांति के मूल में एक ही बीज मंत्र काम करता है-सुव्यवस्था आर्थिक सुनियोजन एवं उपलब्ध साधवों का बुद्धिमानीपूर्वक सदुपयोग, । आड़े समय में आने वाली विवशताओं से बचने के लिए जहाँ अपव्यय रोक कर धन संग्रह जरूरी है, कहाँ उसका उचित कार्यो में उपयोग भी । अहंता प्रदर्शन वृत्ति पर रोकथाम लगा कर जहाँ पैसे का दुरुपयोग रोकना जरूरी है, वहाँ उसे श्रम-नीति की कमाई से एकत्र करना भी अनिवार्य है । यह सब सुनियोजित विधि-व्यवस्था के बलबूते संभव है, जो हर गृहपति को अपनाना अभीष्ट है।

भगतसिंह की विवेकशीलता

क्रांतिकारी सरदार भगतसिंह को उन दिनों निर्वाह में कठिनाई अनुभव हो रही थी । भाई शार्दूलसिंह अमृतसर कांग्रेस के प्रमुख थे। उन्होंने कांग्रेस दफ्तर में ही १५० रुपये मासिक की नौकरी दिला दी ।

भगतसिंह ने मात्र ३० रुपये मासिक ही स्वीकार किए और कहा-"पैसा न बटोरना है, न उड़ाना । औसत भारतीय निर्वाह की दृष्टि से हमें इतने में ही काम चलाना चाहिए।"

सारी विश्व वसुधा को एक परिवार मानने वाले महापुरुषों का दृष्टिकोण ऐसा ही उच्चस्तरीय होता है।

सौभाग्य लक्ष्मी क्यों गईं?

धन लक्ष्मी वहीं विराजती है, जहाँ दुरुपयोग न होता हो, जहाँ सदैव पुरुषार्थ में निरत रहने वाले व्यक्ति बसते हों। बलि समय के धर्मात्मा राजा थे । उनके राज्य में सतयुग विराजता था ।

सौभाग्य लक्ष्मी बहुत समय तो उस क्षेत्र में रहीं, पर पीछे अनमनी होकर किसी अन्य लोक को चली गईं । इन्द्र को असमंजस हुआ और इस स्थान-परिवर्तन का कारण पूछ ही बैठे ।

सौभाग्य लक्ष्मी ने कहा-"मैं उद्योग लक्ष्मी से भिन्न हूँ । मात्र पराक्रमियों के यहाँ ही उसकी तरह नहीं रहती।
मेरे निवास में चार आधार अपेक्षित होते हैं-(१) परिश्रम में रस, (२) दूरदर्शी निर्धारण, (३) धैर्य और साहस, (४) उदार सहकार ।"

बलि के राज्य में जब तक यह चारों आधार बने रहे, तब तक वहाँ रहने में मुझे प्रसन्नता थी । पर अब जब
सुसंपन्नों द्वारा उन गुणों की उपेक्षा होने लगी, तो मेरे लिए अन्यत्र चले जाने के अतिरिक्त और कोई चारा न था ।

कमाई का दर्द

एक सद्गृहस्थ लुहार था । श्रम और कुशलता से परिवार का पालन-पोषण भली प्रकार कर लेता था। उसके लड़के को अधिक खर्च करने की आदत पड़ने लगी। पिता ने पुत्र पर प्रतिबंध लगाया, कहा-"तुम अपने श्रम से चार चवन्नियाँ भी कमा कर ले आओ, तो तुम्हें खर्च दूँगा अन्यथा नहीं।"

लड़के ने प्रयास किया, असफल रहा तो अपनी बचत की चार चवन्नियाँ लेकर पहुँचा । पिता ने भट्टी के पास बैठा था। उसन हाथ में लेकर चवन्नियाँ देखी तथा कहा-"यह तेरी कमाई हुई नहीं है।" यह कहकर उन्हें भट्टी में फेंक दिया । लड़का शर्मिंदा होकर चला गया ।

दूसरे दिन फिर कमाई की हिम्मत न पड़ी? तो माँ से चुपके से माँग कर ले गया । उस दिन भी वही हुआ । तीसरे दिन कहीं से चुरा लाया । परंतु पिता को धोखा न दिया जा सका । वह हर बार  'मेहनत कीं कमाई नहीं' कहकर उन्हें भट्टी में फेंकता रहा ।

लड़के ने समझ लिया बिना कमाए बात नहीं बनेगी । दो दिन मेहनत करके वह किसी प्रकार चार चवन्नियाँ कमा लाया । पिता ने उन्हें देखकर भी वही बात दोहरायी तथा भट्टी में फेंकने लगा । लड़के ने चीखकर पिता का हाथ पकड़ लिया। बोला-"क्या करते हैं पिताजी, मेरी मेहनत की कमाई इस बेदर्दी से भट्टी में मत फेंकिए।"

पिता मुस्कराया बोला-"बेटा! अब समझे मेहनत की कमाई का दर्द । जब तुम निरर्थक कामों में मेरी कमाई खर्च कर देते हो, तब मुझे भी ऐसी ही छटपटाहट होती है ।

पुत्र की समझ में बात आ गयी, उसने दुरुपयोग न करने की कसम खायी और पिता का सहयोग करने लगा।

कुसमय का ध्यान क्यों न रखा?

मधुमक्सी और तितली एक ही पेड़ पर रहती थी । अक्सर वाटिका में फूलों के पास ही मिल जातीं। एक दूसरे की कुशल पूछती और अपने काम पर लग जातीं ।

बरसात आ गयी । लगातार झडी लगी थी । तितली उदास बैठी थी । मधुमक्खी ने पूछा-बहन । क्या बात है? ऐसे सुंदर मौसम में उदासी कैसी?"

तितली बोली-"मौसम की सुंदरता से पेट की भूख अधिक प्रभावित कर रही है । कहीं भोजन लेने जा नहीं सकती, इसीलिए परेशान हूँ।"

मधुमक्खी बोली-"बहन! ऐसे समय के लिए कुछ बचत क्यों नहीं की? कल की बात न सोचने वाले यूँ
ही परेशान होते हैं ।" ऐसा समझाकर मधुमक्खी ने संचित कोश में से तितली की भी भूख शांत की ।

सुव्यवस्थाविधौ ध्यानं स्वच्छतायां च।
प्रत्येकस्य सदस्यस्य भवेदेव निरन्तरम् ॥७७॥
अस्तव्यस्तत्वभावोऽयं मालिन्यमपि नो क्वचित् ।
उद्भवेदव्यवस्थायां मालिन्यं च कुरूपता ॥७८॥
तिष्ठतो येन व्यक्तित्व हीयते कथितं त्विदम्।
कुसंस्कारयुतो भावस्तस्मादेंन परित्यजेत् ॥७९॥
कलाकारितया ख्याते स्वच्छता च सुसज्जता ।
सुरुचेर्दर्शनं तत्र शरीरं पुरूषा यथा ॥८०॥
स्वच्छसुन्दरमेवाऽपि कुर्वन्त्येव निरन्तरम् ।
तथोपकरणान्यत्र बस्त्रपात्रगृहानपि ॥८१॥

भावार्थ-स्वच्छता और सुव्यवस्था की ओर घर के हर सदस्य का ध्यान रहे । सादगी अस्त-व्यस्तता
कहीं भी पनपने न पाये। अव्यवस्था में ही गंदगी और कुरूपता है। इसी को कुसंस्कारिता कहा गया है इससे व्यक्तित्व घटिया बनता है । स्वच्छता और सुसज्जा को ही कलाकारिता कहते हैं इसमें सुरुचि का दर्शन होता है । शरीर को स्वच्छ सुंदर रखने की तरह ही वस्त्र, उपकरण, पात्र, मकान आदि सभी परिवार प्रयोग की वस्तुओं की सफाई पर् पूरा ध्यान दिया जाय॥७७-८१॥ 

व्याख्या-गृह की स्वच्छता और आंतरिक व्यवस्था एक कला है । अपनी स्वयं की स्वच्छता, अपने
जीवन में सादगी तथा घर की सफाई, मरम्मत, सादगीपूर्ण सज्जा और सुव्यवस्था पर ध्यान रखना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है । इस कर्तव्य की उपेशा से क्लेश ही भोगना पड़ता है और इसे पूरा करवे वाले को प्रसन्नता, प्रफुल्लता एवं प्रगति का पुरस्कार प्राप्त होता रहता है । स्वच्छता से भगवान् की समीपता बतलाई गई है । जो शुचि और रूचच्छ है वह एक प्रकार से ईश्वर के सन्निकट ही रहता है । भगवान् को शुचिता, स्वच्छता एवं पवित्रता परम प्रिय है । रोम के प्रसिद्ध महात्मा एपिक्टेरस युवकों को सदा, यही उपदेश दिया करते थें किं स्वच्छतापूर्वक रहो और सुंदर बनो। वे बाह्य वस्तुओं की सुंदरता और स्वच्छता पर विशेष ध्यान देते थे और कहा करते थे कि जो युवक स्वच्छ रहता है, साफ-सुधरे कपड़े पहनता है, अपने व्यवहार की वस्तुओं को शुद्ध, स्वच्छ और सुव्यवस्थित रखता है, वह अस्वच्छ एवं अस्त-व्यस्त अव्यवस्थित रहने वाले युवकों की अपेक्षा तत्वज्ञान शीघ्र ही प्राप्त कर लेगा और दीर्घजीवी होगा।

सज्जनता की पहली निशानी है स्वच्छता तथा योग्यता एवं प्रतिभा की प्रथम शर्त है-सुव्यवस्था। परिवार को सज्जन और प्रतिभावान बनाना चाहें, तो उनमें स्वच्छता और व्यवस्था की वृद्धि और क्षमता पैदा की जानी चाहिए।

सफाई एक ललित कला

महात्मा गाँधी भंगी के काम को शानदार काम कहते । स्वच्छता का उससे सीधा संबंध होता है । स्वच्छ वस्तु में ही कलात्मकता दिखती है । वे कहते थे-कीमती मकान, कीमती कपडा और सुंदर पुरुष यदि गंदा है, तो उससे सभी को अरुचि होती है । इसके विपरीत कच्चा मकान, सादा कपड़ा और सामान्य व्यक्ति भी साफ-सुथरा हो, तो आकर्षक लगता है उससे कलात्मकता दिखने लगती है।

पांडवों की परीक्षा

अर्जुन ने लक्ष्यवेध करके द्रौपदी का स्वयंवर जीत लिया। सभी भाई वेश बदले हुए थे। द्रुपद तथा उनके मंत्रियों ने सोचा, लक्ष्य वेध कर लेने से शर्त तो पूरी हुई, पर ये सुसंस्कारी-कुलीन व्यक्ति हैं या नहीं, यह कैसे पता लगे।

उन्होंने उनके निवास की व्यवस्था की । उसमें सभी आवश्यक वस्तुएँ थीं, किन्तु उन्हें बेतरतीब रख दिया गया । पांडव उस निवास में ठहर गए । दूसरे दिन देखा गया कि सारी वस्तुएँ यथास्थान है, उनकी स्वच्छता बढ़ गई है। यह देखकर मंत्रियों ने निर्णय कर लिया कि निश्चित ही किसी सम्भ्रांत-सुसंस्कृत परिवार के व्यक्ति हैं ।

पहले सफाई सीखी

एक अस्त-व्यस्त युवक सुकरात के पास पहुँचा, बोला-"मुझे अध्यात्म के विषय में शिक्षा दीजिए ।" सुकरात ने कहा-" पहला पाठ है-सफाई सीखो । नहा- धोकर आओ । बाल या तो कटवाऔ और यदि रखे हो तो साफ करके तेल डालकर कंघी से संभालकर आओ । अध्यात्म सुसंस्कारिता को कहते हैं। पहले अस्वच्छता का प्रत्यक्ष कुसंस्कार हटाओ, तब अन्य कुसंस्कार हटने की बात सोची जा सकेगी ।"

सुसज्जितानि स्वच्छानि कर्तुमन्यान्यपि स्वयम् ।
वस्तूनि पततां नित्यं व्यक्तित्वोदयहेतवे॥८२॥ 
कृमिकीटादयो नैव तिष्ठेयुरिति यत्यताम्।
पवनस्यातपस्याऽपि प्रवेशो भवने भवेत्॥८३॥
वस्त्राणां स्वच्छताऽऽवासगृहस्याऽपि च स्वच्छता।
सुव्यवस्था विधिर्नूनं परिवारगतान् नरान्॥८४॥
सत्प्रत्तिपरान् पक्वप्रकृतींश्च समानपि।
विधत्त: सद्गुणश्चाय महत्वमहितो भुवि॥८५॥
लाभ: सर्वैनरैरेष कर्त्तुं स्वर्गं गृहान स्वकान्।
सदस्याश्च गृहस्थास्ते देवत्वं यान्तु सत्वरम्॥८६॥

भावार्थ-अन्य वस्तुओं को स्वच्छ और सुसज्जित रखने से व्यक्तित्व में वृद्धि होती है। कृमि-कीटकों को जमने न दिया जाय । धूप और हवा का हर जगह प्रवेश हो । वस्त्रों की सफाई, निवास गृह की स्वच्छता, सुव्यवस्था करते रहने से परिवार के सदस्यों के स्वभाव में सत्प्रवृत्ति की परिपक्वता बनती-बढ़ती है। यह एक महत्वपूर्ण सद्गुण है । अपने घर को स्वर्ग बनाने के लिए यह गुण सभी को प्राप्त करना चाहिए, ताकि उस घर में रहने वाले सदस्य शीघ्र देवत्व को प्राप्त हो जाँय ॥८२-८६॥

व्याख्या-स्वच्छता परमात्मा का सान्निध्य है तथा निर्मलता आत्मा का प्रकाश है । आंतरिक स्वच्छता का आधार भी शारीरिक और बाह्य स्वच्छता ही है। आंतरिक शुचिता एवं स्वच्छता का अभ्यास बाह्य पवित्रता, सुसज्जा और स्वच्छता अपनाकर ही सिद्ध किया जा सकता है, क्योकि बाह्य स्वच्छता ही आंतरिक स्वच्छता का हेतु है । यदि परिवार के हर सदस्य अपनी तथा अपने पास-पड़ोस की गंदगी दूर करके उसके स्थान पर स्वच्छता एवं पवित्रता को पूरी तरह स्थापित कर लें, तो काल्पनिक स्वर्ग के स्थान पर जीवन के यथार्थ स्वर्ग को-धरती पर और अपने घर पर ही देख सकते हैं । सुसज्जा, स्वच्छता एवं पवित्रता की पराकाष्ठा ही वह मनुष्यता है, जिसकी परिणति देवत्व में होना असंदिग्ध है ।

देवत्व का प्रधान गुण हैं-स्वच्छता । मंदिर तथा पूजन सामग्री स्वच्छ न हो, तो देवता स्वीकार नहीं करते । स्पष्ट है कि देवत्व के विकास के लिए स्वच्छता और सुव्यवस्था कितनी आवश्यक है । व्यक्तित्व के विकास का यह अमोघ साधन है ।

महात्मा बनने का सूत्र

गाँधी जी के आश्रम में सफाई और व्यवस्था के कार्य हर व्यक्ति को अनिवार्य रूप से करने पड़ते थे । एक समाज को समर्पित श्रद्धावान् बालक उनके आश्रम में आकर रहा । स्वच्छता-व्यवस्था के काम उसे भी दिए गए । उन्हें वह निष्ठापूर्वक पूरा करता भी रहा। जो बतलाया गया, उसे जीवन का अंग
बना लिया ।

जब आश्रम निवास की अवधि पूरी हुई तो गाँधी जी से भेंट की और कहा-"बापू!  मैं महात्मा बनने के गुण सीखने आया था, पर यहाँ तो सफाई व्यवस्था के सामान्य कार्य ही करने को मिले । महात्मा बनने के सूत्र न तो बतलाये गए, न उनका अभ्यास कराया गया ।"

बापू ने सिर पर हाथ फेरा, समझाया, कहा-"बेटे । तुम्हें यहाँ जो संस्कार मिले है, वे सब महात्मा बनने के सोपान हैं । जिस तन्मयता से सफाई तथा छोटी-छोटी बातों में व्यवस्था बुद्धि का विकास कराया गया, यही वृद्धि मनुष्य को महामानव बनाती है ।"

गाँधी जी ने इसी प्रकार छोटे-छोटे सद्गुणों के माहात्म्य समझाते हुए अनेक लोकसेवियो के जीवन-क्रम को ढाला, उन्हें सच्चे निरहंकारी स्वयंसेवक के रूप में विकसित किया ।

वैज्ञानिक की परीक्षा

एडीसन महान् वज्ञानिक हुए है । गरीब माँ के बेटे थे, पर बचपन से ही वैज्ञानिक बनने की बात किया करते थे । माँ ने सोचा इसे किसी वैज्ञानिक के पास रख दूँ तो शायद इसका समाधान हो जाय । विज्ञान पड़ाने की क्षमता तो उसमें थी नहीं ।

एक वैज्ञानिक के पास वे एडीसन को ले गयीं । वैज्ञानिक ने एडीसन को एक झाड देकर अपनी प्रयोगशाला की सफाई करने को कहा । एडीसन ने हर काम बड़े करीने से किया । कहीं किसी भी कोने में भी गंदगी न छोड़ी और हर सामान सफाई के बाद यथास्थान जमा दिया ।

वैज्ञानिक ने यह सब देखकर कहा-" इस बालक में वैज्ञानिक बनने के गुण हैं । आप इसे मेरे पास छोड़ दें । यह वैज्ञानिक जरूर बन जायेगा । सफाई और व्यवस्था से मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास की क्षमता बढ़ती है और उसी से उसके स्तर का पता भी लग जाता है ।"

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