प्रज्ञा पुराण भाग-3

॥अथ द्वितीयोऽध्याय:॥ गृहस्थ-जीवन प्रकरणम्-6

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विवाहेषूपजातीनां सीमाबन्धनमद्य तु ।
समाप्यं यत आसंस्ते वर्णाश्वत्वार एव तु॥६६॥ 
उपजातिवितानं तु मध्यकालस्य विद्यते ।
अरन्धकारयुगस्येयमुत्यत्तिर्भेदवाहिंनी॥६७॥
प्रदर्शनपराणां सु विवाहप्रीतिभोजयो: ।
अद्यत्येऽपव्ययानां हि नैवोचित्यं वर्तते॥६८॥
त्यक्तव्याः सर्व एवैते श्रद्धाहीनास्तथैव च।
प्रदर्शनपरा भोजथ्यवस्था मृतकोद्भवा॥६९॥
भिक्षाया व्यवसाय स जातिमान्या च मान्यता ।
अवगुण्ठनादिकाः सर्वा रीतयो हानिदा अलम् ॥७०॥

भावार्थ-विवाहों में उपजातियों का सीमा-बंधन समाप्त होना चाहिए । पुरातनकाल में चार वर्ण ही थे,
उपजातियों का जंजाल तो मध्यकाल के अंधकारयुग की भेद-प्रभेदमय देन है। अपव्यय, धूमधाम भरे प्रीतिभोजों विवाहों का वर्तमान परिस्थितियों में तुक नहीं। इन्हें बंद किया ही जाना चाहिए । इसी प्रकार श्रद्धाविहीन बड़े मृतक भोज भिक्षा-व्यवसाय जाति-पाँति के आधार पर बरती जाने वाली ऊँच-नीच की मान्यता पर्दा प्रथा जैसी कुरीतियों में असीम हानि ही हैं 
॥६६-७०॥

व्थाख्या-गृहरथाश्रम के जहाँ अनेक लाभ हैं, वहाँ एक हानि यह भी है कि प्रगतिशीलता के अभाव में, चिरपुरातन समय से चली आ रही परंपराएँ-प्रचलन, पारिवारिक सदस्यों के दैनिक जीवन का एक नियमित अंग बन जाती हैं । बड़े-बूढ़े कह गए हैं, इसलिए कुछ करना एवं उसे तर्क की कसौटी पर न कसना, सौजन्य एवं मर्यादापालन नहीं कहलाता । आने वाली पीढ़ियाँ व अन्य पारिवारिक सदस्य भी इन मूढ़-मान्यताओं को, जो समय के प्रवाह के साथ-साथ अब उपयुक्त वहीं रहीं, शाश्वत मानकर चलते एवं उनका परिपालन करते हैं । इससे अंततः समाज की प्रगति में अवरोध ही आते हैं ।

विवाहों से जुड़ी कुरीतियों में-उपजातियों का बंधन, अहंता के प्रदर्शन से भरे खर्चीले विवाह आदि आते हैं। अब समय आ गया है कि देव-संस्कृति के पुरातन स्वरूप को उसके शाश्वत प्रखर रूप में प्रस्तुत किया जाय एवं हर वर्ण में बने उपजाति के बंधन तोड़े जाँय । वर्णो का विभाजन कर्मो के आधार पर माना
जाय, न कि जन्म के आधार पर। ऐसे में श्रेष्ठ आचरण वाले उपयुक्त वर-वधू समाज में से चयन कर श्रेष्ठ नागरिक समाज को दिए जा सकते हैं । धूम-धड़ाके से भरी शादियाँ व्यक्तियों को अनीति क्री कमाई की ओर तों प्रवृत्त करती ही हैं, अन्य अनेक के मन में ईर्ष्या-डाह भर देती हैं । ऐसे अवसर पर आयोजित प्रीतिभोज संक्षिप्त, सादगी से भरें एवं वारतविक अर्थो में सौजन्य बढ़ाने वाले सम्मेलन के रूप में होने चाहिए।

बड़ों की मृत्यु के बाद भोज देने की परंपरा अभी भी समाज में विद्यमान है । इसके स्थान पर आज रूप में परमार्थ कार्य को लेना चाहिए। इससे पितरों के प्रति सही अर्थो में श्रद्धा व्यक्त होती है । ऊँच-नीच, भिक्षा-व्यवसाय, जारी को पर्दे में बाँध रखने की प्रवृत्तियों भी ऐसी ही हैं, जो गृहस्थाश्रम में रहकर कार्य करने वालों के मार्ग में बाधक बनती हैं । इनसे जूझने, इनके विरुद्ध माहौलु बनाने का सही समय यही है । आज की परिस्थितियों में वह अभीष्ट है, वही किया भी जाना चाहिए ।

बिल्ली को खूँटे से बाँधा

साधु की कुटिया में एक बिल्ली रहने लगी और पल गई । थी बड़े चंचल स्वभाव की। इधर-उधर खट-पट करती और भजन से ध्यान उचटाती ।

साधु ने दयावश बिल्ली को भगाया तो नहीं, पर एक मध्यवर्ती उपाय निकाल लिया । जब तक भजन-ध्यान करते, बिल्ली को खूँटे से बाँध देते । इस प्रकार अड़चन दूर हो गई । भजन-भाव ठीक प्रकार चलने लगा ।

शिष्यगणों ने यह देखा, तो अनुमान लगाया, पास में बिल्ली बाँध रखने से साधना की सिद्धि होती है । बूढ़े साधु के मरते ही उनके समस्त शिष्यों ने बिल्ली पकड़ कर खूटे से बाँधने की प्रथा भजन के साथ जोड़ ली।

अंध परंपराएँ ऐसे ही अविवेकियो द्वारा अपनायी और चलाई गयी है।

पितरों का श्राद्ध

संत एकनाथ उन दिनों गृहस्थ थे । परंपरा के अनुसार पितरों का श्राद्ध करना आवश्यक था । पितृ पक्ष में उन्हें भी वह व्यवस्था करनी थी । परिवार का दबाव भी था ।

ब्राह्मण दरिद्र के घर घटिया भोजन करने के लिए जाने में आनाकानी करने लगे। उन्हें दक्षिणा मिलने की भी आशा न थी।

एकनाथ के अनुनय-विनय पर भी जब ब्राह्मण न पसीजे, तो उन्होंने अछूत बालकों को बुलाकर ब्रह्मभोज करा दिया। 

इस पर सब ओर चर्चा होने लगी। पितरों ने स्वप्न दिया-"हम अछूत बालकों के द्वारा भोजन मिलने पर बहुत संतुष्ट है ।" विरोधियों का समाधान हो गया ।

विधवा विवाह-वीर हम्मीर द्वारा

हठी हमीर का राजस्थान के इतिहास में अपना स्थान है । वे जिसे उचित समझते, बिना दूसरों की निंदा-प्रंशसा की परवाह किए पूरा करके दिखाते थे।

उन दिनों उनके विवाह की चर्चा चल रही थी । हमीर विधवा-विवाह के पक्ष में थे। उनने किसी बाल-विधवा को जीवन-संगिनी बनाने का निश्चय किया।

चर्चा फैली तो परिवार के लोग कुद्ध होने लगे । उससे उन्हें राजवंश की हेठी दीख रही थी। पंडितों से कहलवाया:। विधवा अमंगल सूचक होती है । उससे जो विवाह करेगा, उसका अमंगल होगा।

हमीर ने किसी की परवाह न की । अपने निश्चय पर अटल रहे । पंडितों और कुटुंबियों की उपेक्षा करके कुछ साथी-सैनिकों कै साथ बरात ले पहुँचे और विवाह कर लाये। विरोध-असहयोग तब भी बोलता ही रहा ।

हमीर सब मेवाड़ के शासक बने, तो विरोधी सहयोगी और निंदक प्रशंसक बन गए। तब पंडितों ने भी घोषणा की-"विधवा नास्ति अमंगलम्" अर्थात विधवा विवाह में कोई दोष नहीं है। इस अग्रगामी उत्साह का अन्य अनेक ने भी अनुसरण किया ।

महर्षि कर्वे ने स्वयं कदम बढाया

महर्षि कर्वे नारी उत्थान की अनेक योजनाएँ बनाया करते थे, पर बात कुछ बन नहीं पाती। कर्वे विधुर थे। उनने सोचा, विधवा के साथ विवाह कर लेने पर हलचल मचेगी, विरोध उभरेगा और जहाँ से सहयोग की आशा है, वहाँ से वह मिलेगा । वैसा ही हुआ भी । विधवा विवाह कर लेने पर उन्हें जाति बहिष्कृत होना पडा। बुरी-भली कहने वालों के साथ उन्हें अपना पक्ष प्रस्तुत करना पडा। इस प्रकार लोक चर्चा का अवसर मिला। रुढिवादियों के मुँह बंद हुए और प्रगतिशील लोग बढ़ कर आगे आए ।

महर्षि कर्वे ने नारी शिक्षा विद्यालय चलाया, उसमें सुधार-समर्थकों ने अपने घरों की लड़कियाँ भेजी।

समाज सुधार की मोहल्ले-मोहल्ले में सभाएँ बनी और वह आरंभ हुआ चर्चा का विषय नीति और न्याय की कसौटी पर कसे जाने से खरे सोने की तरह विचारशील क्षेत्रों में ग्राह्य हुआ।

यदि विचार मंथन का ऐसा प्रसंग खड़ा न किया जाता, तो सुधार कार्य मनों में ही घूमता रहता । प्रत्यक्ष प्रकट न हो पाता।

कुरीतियों से जूझीं, स्वावलंबी बनीं

कमलादेवी चट्टोपाध्याय जिस बंगाली परिवार में जन्मीं थीं, उसमें बाल-विवाह का प्रचलन था। कमला जी का विवाह हुआ और उसके कुछ महीने बाद ही उनके पति का स्वर्गवास हो गया। परिवार वाले बहुत शोक करते थे और सहानुभूति दिखाते थे । उनने कहा-"यदि आप लोगों की सहानुभूति सच्ची है, तो मुझे पढ़ने दीजिए और स्वावलंबी बनने दीजिए ।" आनाकानी की प्रवाह न करके वे पढ़ने जाने लगीं । ग्रेजुएट बनीं और अध्यापिका की नौकरी करके स्वावलंबी हो गयीं।

इसी बीच उनका परिचय प्रख्यात नेता सरोजिनी नायडू से हुआ । वे भी उनके प्रभाव में कांग्रेस का कार्य करने लगी । महिला जागृति में जुटीं और जेल गई । सरोजिनी के भाई हरीन्द्र चट्टोपाध्याय भी राष्ट्र-कर्मी थे। सरोजिनी ने दोनों का विवाह पका कर दिया । कमला जी के परिवार ने विरोध किया, तो भी उनने स्वेच्छापूर्वक विवाह कर लिया । कमाने की जिम्मेदारी से निश्चिंत होकर कमला जी देश सेवा के कार्यो में जुट गई और वे देश प्रख्यात महिला नेताओं में गिनी गई।

रणचण्डी दुर्गावती

दुर्गावती का विवाह गढ़ा मंडला के राजा दलपति सिंह से हुआ । विवाह हुए दो वर्ष भी न बीतने पाए थे कि वे विधवा हो गई। खानदान वाले रियासत पर कब्जा करना चाहते थे और रानी को सती होने की प्रेरणा दे रहे थे। रानी ने इस प्रकार आत्महत्या करने से स्पष्ट इन्कार कर दिया और राज-काज को बुद्धिमत्तापूर्वक सँभाला । पड़ोसी उस छोटे-से राज्य को हड़पना चाहते थे, इसलिए आए दिन हमले करते थे । रानी ने उन सभी को ऐसे कठोर उत्तर दिए कि उल्टे पैर वापस लौटना पड़ा ।

एक विश्वासघाती सरदार दिल्ली बादशाह से जा मिला । उसने बहुत बड़ी सेना के साथ चढ़ाई की । रानी स्वयं मोर्चे पर पहुँची और दस गुनी सेना के पैर उखाड़ दिए । इसी बीच शत्रु का एक तीर रानी की आँख में, दूसरा गर्दन में लगा । बचने की आशा न रही, तो रानी ने दुश्मनों के हाथ पड़ने की अपेक्षा पेट में कटारी भोंक कर अपना अंत कर लिया। उनके सती होने का यही तरीका सही माना गया।

रुढ़वादिता का विरोध

शंकर देव आसाम के नौगाँव जिले में जनमे। जन्म से वे कायस्थ थे, फिर भी उनकी विचारधारा संत और ब्राह्मण जैसी थी। उन्होंने संस्कृत का अभ्यास किया और मनोयोगपूर्वक भागवत पढी। धर्म प्रचार के लिए वे युवावस्था में ही पदयात्रा पर निकल पडे़। भागवत-कथा सुनाते और लोगों में धर्मधारणा बढा, सेवा-भावना उभारते।

उन दिनों धर्म के नाम पर आडंबरों की भरमार थी और कुरीतियों से समाज जर्जर हो रहा था । शंकरदेव की भागवत कथा में इन विकृतियों पर करारा प्रहार होता। फलत: उन्हें रूढिवादियों का विरोध भी बहुत सहना पड़ा । अन्यों की भागवत कथा जहाँ दक्षिणा बटोरने के लिए होती थी, वहाँ शंकरदेव उसे नि:स्वार्थ भावना से गाँव-गाँव जाकर सुनाते। आरंभ में कायस्थ का भागवत पढ़ना विरोध का विषय रहा, पर उनकी नि:स्वार्थ संत-वृत्ति के आगे वह टिका नहीं । भक्ति को कोठरी और गोमुखी की थैली तक सीमित न रखकर जन-जन तक पहुँचाने वाले संतों में उन्हें आदरपूर्वक याद किया जाता रहेगा ।

जिन्होंने स्त्री-शुद्रों की डट कर वकालत की

मलयालम के क्रातिंदूत कुमारन आशान ने अनेक ग्रंथ नहीं, केवल दो ही भाव ग्रंथ लिखे हैं। एक 'विचारमग्न सीता' 'चांडाल भिक्षुणी'। इन दोनों ग्रंथों में भारत की दोनों प्रमुख समस्याओं पर तर्क, न्याय, व्यवहार, परिणाम, निराकरण आदि सभी पक्ष लिए गए हैं।  आधी जनसंख्या नारी जाति और चौथाई अछूतों का नागरिक न्यायोचित अधिकारों से वंचित करके देश किस प्रकार पक्षाघात पीड़ित की तरह निष्प्रभ होता जा रहा है । इन तथ्यों पर बड़ा ही मार्मिक प्रकाश डाला है और सिद्ध किया है कि इनके रहते न भारत धार्मिक कहला सकता है, न आध्यात्मिक, न न्यायनिष्ठ और न प्रगतिशील ।

कुमारन आशान की इन पुस्तकों ने अपने समय में मलयालम समाज में एक प्रकार की उथल-पुथल पैदा कर दी थी और अनेकों विचारशील इनका संशोधन करने के लिए आगे आए थे।

अछूतों के उद्धारक: भीमराव अंबेडकर

डॉ० भीमराव अम्बेडकर इन्दौर डिवीजन के मरुस्थान में जन्मे । विदेश जाकर उनने डॉक्टरेट की। वैरिस्टर बनकर भारत लौटे । उनकी अध्ययनशीलता गजब की थी। उनकी निजी स्वाध्याय लाइब्रेरी की विशालता देखकर लोग दंग रह जाते थे ।

वे जाति के महार (अछूत) थे । सवर्णो का अछूतों के प्रति जो दुर्व्यवहार था, वह उन्हें बहुत अखरता था । मंदिर प्रवेश और जलाशय से पानी भरने के प्रसंग पर उनने सत्याग्रह भी किए। एक बार रोष में अपने को बौद्ध भी घोषित किया । पर उनकी पृथकतावादी मनोवृत्ति न थी। प्रचलित कुरीति का उन्मूलन भर वे चाहते थे ।

भारतीय संविधान का उन्हें सृजेता कहा जाता है । अर्थशास्त्र के वे महान् पंडित थे। पौण्ड, डालर और रुपये के विनिमय से भारत जो मार खा रहा था, उसका रहस्योद्घाटन उनने किया और देश को उस गोरखधंधे से निकालकर सही अर्थनीति अपनाने का मार्गदर्शन किया। अम्बेडर की देशभक्ति में कभी किसी ने संदेह नहीं किया ।

जन्म से चांडाल, कर्म से ब्राह्मण

जैन धर्म उत्तरार्ध्यन ग्रंथ में हरिकेशी मुनि की कथा आती है । वे जन्म से चांडाल थे, पर उन्होंने तप-साधन और आचार -व्यवहार का उच्चस्तरीय पालन करने से महामुनि की पदवी प्राप्त की । आरंभिक परिवर्तन के समय सवर्णों और असवर्णों से उन्हें तिरस्कार ही मिला, पर निरंतर अपने प्रयास में संलग्न रहने और किसी की भी परवाह न करने के कारण वे सबके लिए सम्मान योग्य बने । इसी प्रकार वाल्मीकि की कथा भी प्रसिद्ध है।

कुत्ते की सीख 

संत वायजीद कहीं नहाने जा रहे थे। उनने कुत्ते को पास आते देखकर अपना पायजामा घुटनों से ऊपर कर लिया, ताकि उसके छू जाने से अपवित्र न हो।

कुत्ते ने कहा-"संत, मेरे छू जाने पर तुम कपडे़ को पानी से धो सकते थे, पर जो नफरत तुम्हारे मन में उपजी है, वह तो सात नदियों में नहाने पर भी न धुल सकेगी।"

वायजीद पछताये कि मैं इस कुत्ते तक को मोहब्बत न कर सका, तो अल्लाह की इनायत किस तरह पा सकूँगा।

भेदबुद्धि के कारण अमृत से वंचित

अमृतपान की अभिलाषा में उत्तंग मुनि कठोर तप करने लगे । समयानुसार इंद्र प्रकट हुए और वर माँगने के लिए कहने लगे । उत्तंग ने अपना मनोरथ कह सुनाया ।

इंद्र यह कहकर अंतर्धान हो गए कि-" जल्द ही आपका मनोरथ पूर्ण होगा। जो कमी है, उसे तब तक और पूरा कर लें।

बहुत दिन बीत गए। उत्तंग तीर्थ प्रव्रज्या पर निकले। मरुभूमि का लंबा क्षेत्र मार्ग में आ गया । पानी का

कोई प्रबंध ही नहीं था । गला सूखने लगा। उद्विग्न होकर उत्तंग एक पेड़ की छाया में लेट गए ।

इतने में एक चांडाल सामने से आया। साथ में जल पात्र था, बोला-"लीजिए, अपनी प्यास बुझा लीजिए।"

उत्तंग चांडाल का जल पीने को सहमत न हुए। अनुरोध स्वीकृत होते न देखकर वह वापस चला गया ।

किसी प्रकार उत्तंग उस क्षेत्र से प्राण बचाकर निकले और त्रिवेणी तट पर पहुँच कर प्यास बुझा सके।

रात्रि को उन्होंने स्वप्न में इंद्र को देखा। वे बोले-"उस दिन मैं चांडाल वेश में अमृत लाया था । आपने वापस कर दिया। अब यदि उसे पुन: प्राप्त करने की इच्छा हो, तो मनुष्य मनुष्य के बीच भेदबुद्धि दूर करने के लिए दूसरा तप करें।

सती प्रथा के कट्टर विरोधी राजा राममोहन राय 

राजा राममोहन राय ने अपनी भाभी को सती होते देखा था। उन्हें पता था कि विधवा के भरण-पोषण की जिम्मेदारी से बचने तथा उसकी सम्पत्ति हड़पने के लिए परिवारों ने उस दुखिया को किस प्रकार सती होने के लिए उकसाया और चिता पर चढ़ने की भयभीत स्थिति में उसे धकेल कर जलाया था ।

बालक राममोहन राय ने प्रतिज्ञा की थी कि वे इस कुप्रथा को मिटाकर रहेंगे । बड़े होने पर उन्होंने इस प्रतिज्ञा को पूरी करने में अथक प्रयास किया। इस कुप्रथा के विरुद्ध वातावरण बनाने और कानून पास कराने में उनने अपनी सारी चतुरता झोंक दी और अंतत: सफल होकर रहे।

सही अर्थों में सन्यासी बने

शेखवाटी (राजस्थान) में जन्मे एक युवक को भरी जवानी में संन्यास लेने की उमंग उठी । परिवार मे वह निंतात एकाकी था, इसलिए कुछ कठिनाई भी नहीं हुई। तीर्थो में भ्रमण करते रहे और पंडों तथा बाबाओं की करतूतों को ध्यानपूर्वक देखते रहे । उन्हें यह समुदाय तनिक भी न सुहाया और लौटकर अपनी मातृभूमि चले आये ।

उनने हर घर में एक अन्न घट रखा, जिसमें एक मुट्ठी अन्न डालने का नियम था। इतने भर से गाँव में प्राथमिक पाठशाला चल पड़ी । यह प्रयास उनने अन्य गाँवों में भी आरंभ किया और प्राय: १०० स्कूल खुल गए। अब हाईस्कूलों और कॉलेजों के लिए भी उनने चंदा इकट्ठा किया और साथ ही उनका सुसंचालन भी। वे सभी दिनों-दिन प्रगति करते गए। सँगरिया को केन्द्र बनाकर उनने विभिन्न विषयों के सात कॉलेजों की स्थापना भी की ।

स्वामी जी लगातार तीन बार लोक सभा के सदस्य चुने गए। अपने प्रभाव का उपयोग वे शिक्षण विस्तार तथा कुरीति निवारण में करते रहे। यह सक्रिय संन्यास सब प्रकार सार्थक बना और सहकर्मियों के लिए आदर्श बना। मरण पर्यत उनका उत्साह युवकों जैसा रहा ।

मालवीयजी की ब्राह्मण परमार्थ वृत्ति

परमार्थ कार्यो में दान देने की वृत्ति भारतवर्ष में सदा से जीवित रही है। इसी आधार पर वानप्रस्थ परिव्राजकों की ब्राह्मणोचित आजीविका भी चलती थी। कालांतर में दान के नाम पर वेशधारी बाबाओं ने इस परंपरा को कलंकित कर दिया ।

पंडित मदनमोहन मालवीय जी ने इसमें छाई विकृतियों को मिटने का प्रयास किया एवं इस सदी के प्रारंभ में कई धनाध्यक्षों के मन में सत्प्रवृत्तियों के लिए उदारता जगाई ।

रक्षाबंधन का पुनीत पर्व था। बीकानेर नरेश का दरबार लगा हुआ था। राजद्वार पर ब्राह्मणों के मध्य मालवीय जी भी नारियल लिए खड़े थे। शनै: शनै: कतार छोटी होती जा रही थी । प्रत्येक ब्राह्मण नरेश के पास जाकर राखी बाँधता और दक्षिणा के रूप में एक रुपया प्राप्त कर खुशी-खुशी घर लौटता जा रहा था।

मालवीय जी का नंबर आया, तो वे भी नरेश के समक्ष पहुँचे, राखी बाँधी, नारियल भेंट किया और संस्कृत में स्वरचित आशीर्वाद दिया । नरेश के मन में इस विद्वान् ब्राह्मण का परिचय जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुंई । जब उन्हें मालूम हुआ कि यह तो मालवीय जी हैं, तो वह बहुत प्रसन्न हुए और अपने भाग्य की मन ही मन सराहना करने लगे। मालवीय जी ने विश्वविद्यालय की रसीद बही उनके सामने रख दी । उन्होंने भी तत्काल एक सहस्र मुद्रा लिखकर हस्ताक्षर कर दिए । नरेश अच्छी तरह जानते थे कि मालवीय जी द्वारा संचित किया हुआ सारा द्रव्य विश्वविद्यालय के निर्माण कार्यो में ही व्यय होने वाला है।

मालवीय जी ने विश्वविद्यालय की समूची रूपरेखा नरेश के सम्मुख रखी। उस पर सम्भावित व्यय तथा समाज को होने वाला लाभ भी बताया, तो नरेश मुग्ध हो गए और सोचने लगे, इतने बड़े कार्य में एक सहस्र मुद्राओं से क्या होने वाला है, उन्होंने पूर्व लिखित राशि पर दो शून्य और बढ़ा दिए, साथ ही अपने कोषध्यक्ष को एक लाख मुद्राएँ देने का आदेश प्रदान किया ।

हितं नैव तु कस्यापि सिद्ध्येदेभि: क्वचिन्मनाक् ।
असंख्या हानयो मात्र भवन्त्येव निरन्तरम्॥७१॥ 
अन्धविश्वासबाहुल्यं दिवसेष्येषु विद्यते ।
यदाश्रित्य च धूर्तास्तु जनान् लुण्ठन्ति नित्यश:॥७२॥
आत्मानं हि भ्रमादस्माद्रक्षेदन्यानपि स्वकान् ।
भाग्यवादे किंवदन्ती श्रितेष्येतेषु वा पुन:॥७३॥ 
देवेषु पुरुषेष्येवं भविष्यद्वक्तृषु क्वचित् ।
मूहूर्तस्यातिवादे न भ्रान्तैर्भाव्यं विवेकिभि: ॥७४॥

भावार्थ-अंधविश्वासों की इन दिनों भरमार है । उनकी आड़ में धूर्त लोग भोले- भावुको को ठगते रहते हैं। इस भ्रम-जंजाल से स्वयं बचना और दूसरों को बचाना चाहिए । भाग्यवाद चित्र-विचित्र किंवदन्ती, आश्रित देवी-देवताओं का प्रचलन, भविष्य कथन मुहूर्तवाद जैसी भ्रांतियों में विज्ञजनों को नहीं ही फँसना चाहिए ॥७१-७४॥

व्याख्या-परिवार में रहते हुए मूढ़ माज्यताओं, अंधविश्वासों के कुचक्र से बचना हर गृहरथ के लिए अनिवार्य है। जनमानस इतना लचीला होता है कि वह जिधर मोड़ा जाय, उधर ही मुड़ जाता है। विवेक से काम लेने वाले कम ही देखे जाते हैं । धर्म के नाम पर अनेक विकृतियाँ समाज में फैली हैं। धर्म का वस्तुत: सही रवरूप ही जन साधारण को नहीं मालूम है ।

धर्म का सही स्वरुप

श्रावस्ती सम्राट् चन्द्रचूड़ को विभिन्न धर्मों और उनके प्रवक्ताओं से बड़ा लगाव था । राज-काज से बचा हुआ समय वे उन्हें ही पढ़ने और सुनने में लगाते थे। यह क्रम चलते बहुत दिन बीते थे कि राजा असमंजस में पड़ गए, जब धर्म शाश्वत है, तो उनके बीच मतभेद और विग्रह क्यों?

समाधान के लिए वे भगवान् बुद्ध के पास गए और जनसे अपना असमंजस कह सुनाया । बुद्ध हँसे । उन्हें सत्कारपूर्वक ठहराया और दूसरे दिन प्रात काल उनके समाधान का वचन दिया ।

दिन भर के प्रयास से एक हाथी और पाँच जन्मांध जुटा लिए गए । प्रात:काल तथागत सम्राट् को लेकर उस स्थान पर पहुँचे । किसी जन्मांध का इससे पूर्व कभी हाथी से संपर्क नहीं हुआ था । उनसे कहा गया कि वह सामने-खडा है, उसे छुओ और उसका स्वरूप बतलाओ। अंधों नें उसे टटोला और जितना जिसने स्पर्श किया, उसी के अनुरूप उसे खम्भे जैसा, रस्सी जैसा, सूप जैसा, टीले जैसा आदि बताया ।

तथागत ने कहा-"राजन्! सम्प्रदाय अपनी सीमित क्षमता के अनुरूप ही धर्म की एकांगी व्याख्या करते हैं और अपनी मान्यता के प्रति हठी होकर झगड़ने लगते है ।"

जिस प्रकार हाथी एक है और उसका अंध विवेचन भिन्नतायुक्त। धर्म तो समता, सहिष्णुता, एकता, उदारता और सज्जनता में है । यही हाथी का समग्र रूप है । व्याख्या कोई कुछ भी करता रहे ।

राजा का समाधान हो गया और वे प्रसन्नतापूर्वक कृतज्ञता व्यक्त करते हुए घर लोट गए ।

नाइजीरिया का पादरी

अंधविश्वाओं की मृगमरीचिका में लोग कैसे फँसते हैं, इसकी भी विचित्र विडंबना है। एक बार नाइजीरिया के एक पादरी जंगली लोग के बची फँस गए । वे उसे मार डालना चाहते थे ।

पादरी ने इन लोगों से कहा-"वह जादूगर है । उसके पास बहुत भूत हैं । वह चाहे जिससे उसकी मुलाकात करा सकते हैं।"

पादरी के पास एक बड़ा सा दर्पण था । उन्हें उसमें भूत देखने के लिए बुलाया गया । जो आता, अपना चेहरा उसमें देखता और भूत के साक्षात् दर्शन करके डर जाता।

अबकी बार पादरी ने अंतिम चमत्कार दिखाया । उसके मुँह में नकली दाँत थे। उसने वे निकालकर दिखाए और दुबारा मुँह में डाल लिये ।

दर्पण में भूत देखना और मुँह से दाँत निकाल कर फिर मुँह में डाल लेना-ये दो चमत्कार इन जंगली लोगों को डराने के लिए काफी थे । वे डर गए और पादरी को अपना गुरु मान लिया । धीरे-धीरे पादरी ने उन्हें ईसाई धर्म में दीक्षित कर लिया ।

अंध परंपराएँ वस्तुत: भेड़चाल की तरह होती है । लोग बिना विवेक का उपयोग किए उनमें उलझते चले जाते है।

युक्ति से पशु बलि रोकी

देवी-देवताओं के नाम पर प्रचलित अंधविश्वासों में प्रमुख है-पशु बलि। इस जंजाल में अनेक फँसते देखे जा सकते हैं।

राजा कुमारपाल प्रजाप्रिय राजा थे । उनके गुरु हेमचन्द्राचार्य सदा उच्चकोटि के परापर्श दिया करते थे । उस राज्य में विजयीदशमी के दिन देवी पर पशु बलि बडे़ धूमधाम से मनाई जाती थी। उस दिन सैकडों पशु काटे जाते थे।


गुरु ने राजा को इस कुप्रथा को बंद करने के लिए कहा । राजा ने कहा-"प्रजा इसके लिए तैयार न होगी । उसे मै कैसे रुष्ट करूँ?" गुरु ने प्रजा को समझाने का काम अपने ऊपर लिया ।

सजधज कर बलि के निमित्त प्रजाजन पशुओं को लाए । गुरुदेव ने उन सब को एकत्रित करके पूछा-"देवी तो सबकी माता है । पशुओं की बलि लेकर तो वह रुष्ट होगी ।"

प्रजाजन ने एक स्वर में कहा-"देवी बलि चाहती है और बलि से प्रसन्न भी होती है। यदि ऐसा न होता, तो हम लोग इस प्रथा को क्यों चलाते?"

गुरुदेव ने कहा-"आप लोगों के कथन की सच्चाई की वास्तविकता अभी परखे लेते हैं ।" देवी के मंदिर में सभी बलि चढ़ने वाले पशु बंद कर दिए गए। सबेरा होते ही दरवाजा खोला गया और देखा गया कि कितने पशु देवी ने भक्षण किए है ।

दरवाजा खुलने पर सभी पशु गिने गए। एक भी कम न हुआ । गुरुदेव ने उपस्थित लोगों को संबोधित करते
हुए कहा-"देखा आप लोगों ने । देवी ने एक भी पशु नहीं खाया । उन्हें प्यारा पुत्र समझकर छोड़ दिया । फिर आप लोग ही प्राणि-हत्या का पाप क्यों ओढ़ते हैं?"

गुरुजी की उक्ति से सभी प्रजाजन संतुष्ट हुए । पशु बलि रुक गई और प्रजाजन रुष्ट भी न होने पाए ।

ज्योतिषी का भविष्य

भाग्यवाद, शकुन, फलित ज्योतिष जैसे अनेक प्रकरण हैं जो जनसमुदाय को जंजाल में समेटकर शोषण का मार्ग धूर्तों के लिए खोल देते हैं ।

एक ज्योतिषी आए दिन भविष्यवाणियाँ करता और जन्म-मरण की बातें बताता। एक राजा को उसने बता दिया कि एक वर्ष में आपकी मृत्यु हो जायेगी ।

राजा ने विश्वास कर लिया और चिंता से सूख कर काँटा होने लगा । शत्रुओं को पता चला तो वे आक्रमण की तैयारी करने लगे । मंत्री को बहुत चिंता हुई । राजा को समझाने-बुझाने की तरकीब कामयाब न हुई, तो उन्होंने एक नई तरकीब निकाली।

ज्योतिषी जी को फिर दरबार में बुलाया गया । जन्म-मरण की बात शुरू हुई। कई दरबारियों के भविष्य भी उनने बताए। इस पर मंत्री ने पंडित जी का मरण काल पूछा । उन्होंने विश्वासपूर्वक तीस वर्ष बाद बताया ।

इस पर मंत्री जी ने तलवार निकाली और ज्योतिषी कां सिर काटकर अलग कर दिया और राजा से कहा जब इस ज्योतिषी को अपने निज का मरण काल मालूम नहीं, तो यह आपकी बात भी कैसे जान और बता सकता है ।

राजा ने मिथ्याभ्रम छोड़ दिया और सामान्य रीति से राज-काज चलाने लगा।

राजा की समझ वापस लौटी

राज ज्योतिषी ने सम्राट् वसुसेन की श्रद्धा ज्योतिष पर बहुत ज्यादा जमा दी थी। वे बिना मुहूर्त पूछे कोई काम न करते । शत्रुओं को पता चला, तो वे ऐसी घात लगाने लगे कि किसी ऐसे मुहूर्त में हमला केर, जिसमें प्रतिकार का मुहूर्त न बने और उसे सहज ही परास्त किया जा सके । प्रजाजन और सभासद सभी को राजा के इस कुचक्र में फँस जाने पर बडी चिंता होने लगी ।

संयोगवश राजा एक बार देश पर्यवेक्षण के लिए दौरे पर निकले । साथ में राज ज्योतिषी भी थे । रास्ते में एक किसान मिला । जो हल-बैल लेकर समीप के गाँव में खेत जोतने जा रहा था ।

राज ज्योतिषी ने उसे रोककर कहा-" मूर्ख! जानता नहीं,' आज जिस दिशा में दिक्शूल है, उसी में चला जा रहा है । ऐसा करने से भयंकर हानि उठानी पड़ेगी।"

किसान दिशा शूल के बारे में कुछ भी जानता न था । उसने नम्रतापूर्वक कहा-"मैं तो तीसों दिन इसी दिशा
में जाता हूँ । उसमें दिशा शूल वाले दिन भी होते होंगे । यदि आपकी बात सच होती, तो मेरा कब का सर्वनाश हो गया होता ।"

ज्योतिषी सिटपिटा गए । झेंप मिटाने के लिए बोले-"लगता है तेरी हस्तरेखा बहुत प्रबल है । दिखा तो अपना हाथ?"

किसान ने हाथ तो बढ़ा दिया किन्तु हथेली नीचे की ओर रखी । ज्योतिषी इस पर और भी अधिक चिढ़े । बोले-"इतना भी नहीं जानता कि हस्तरेखा दिखाने के लिए हथेली ऊपर की और रखनी होती है ।"

किसान मुस्कराया, बोला-"हथेली वह फैलाए जिसे किसी से कुछ माँगना हो । जिन हाथों की कमाई से अपना गुजारा करता हूँ उन्हें क्यों किसी के आगे फैलाऊँ?"

प्रसंग समाप्त हो गया, राजा ने नए सिरे से विचार किया और ज्योतिषी के भ्रम-जंजाल से पीछा छुड़ा लिया।

गृहस्थजीवने चाउत्र सम्बद्धातिथिसत्कृति:।
वर्तितव्यो नातिवादस्तथाप्यत्र कदाचन्॥७५॥
सख्यव्याजेन येष्यत्र गृहेषु मित्रमण्डली।
संतिष्ठते सदा सत्वहीनता तेषु जृम्भते॥७६॥
समयो नश्यति द्रव्यं नश्यत्येतेन सन्ततम्।
विकृतीनां प्रवेशश्च कुटुम्बे जायतेऽञ्जसा॥७७॥ 
आवश्यकेन कार्येण बिना नैव कदाचन।
आतिथ्यमाचरेदत्र निष्क्रियाणा नृणां बुध: ॥७८॥
गृहेषु नैव चाऽन्येषां गच्छेद व्यर्थं निरन्तरम्।
समयस्य विनाशस्तु मित्रै: सह न युज्यते॥७९॥
हानयो विपुला: सन्ति दिनेष्वेतेशु सर्वथा।
जीविका कष्टयुक्तेषु विधिनाऽनेन निश्चितम् ॥८०॥
सन्मित्राणामभावस्तु प्रायोऽद्यत्वे विलोक्यते।
भावुकाश्च दिशाहीना वर्धन्ते चाऽन्यसंगता: ॥८१॥

भावार्थ- गृहस्थ जीवन के साथ अतिथि सत्कार जुड़ा हुआ है पर उसमें अतिवाद नहीं बरता जाना चाहिए। जिन घरों में दोस्ती के नाम पर निरर्थक व्यक्तियों की मंडली जमा रहती है उनका दिवाला निकल जाता है समय नष्ट होता है पैसों की बर्बादी होती है । इस अवांछनीय घुसपैठ से परिवार में अनेक विकृतियाँ अनायास घुस पड़ती हैं । इसलिए बिना आवश्यक काम के निठल्ले लोगों का आतिथ्य नहीं करना चाहिए, न ही दूसरों के घरों में बिना कारण बार-बार जाना चाहिए। मित्रों के साथ अनावश्यक समय बर्बाद करना किसी भी प्रकार उचित नहीं । दिशाहीन भावुक पुरुषों की संख्या बढ़ रही है जो औरों को भी बहा ले जाते हैं ॥७५-८१॥

व्याख्या-अतिथि धर्म का निर्वाह हर व्यक्ति के लिए अनिवार्य माना जाता है । पर यहाँ ऋषि इस दिशा में अतिवाद बरते जाने रो संभावित परिणामों का संकेत करते हुए कहते हैं कि जहाँ मित्रता के नाम पर अनावश्यक लोगों का जमघट रहता है, वहाँ सत्प्रवृत्तियाँ पनपने, परस्पर मैत्री बढ़ने के रथान पर विकृतियाँ
जन्म लेने लगती हैं । मित्रता जरूरी है, उसके बिना जीवन व्यापार में प्रगति संभव नहीं, पर उस दिशा में विवेक बरता जाना जरूरी है । सच्चे मित्र बड़ी कठिनाई से मिलते हैं । लोक प्रचलन के प्रवाह में तो धूर्तों अथवा अतिभावुकों की ही भीड़ है, जो किसी काम में सहायक तो बनते नहीं, हानिकारक और सिद्ध होते हैं ।

आतिथ्य की मर्यादाएँ

एक सज्जन कुछ महत्वपूर्ण कार्यों में लगे रहते थे । पर ख्याति सुनकर उनके मित्रों-आगंतुकों की संख्या बढने लगी । वे इनसे पीछा छुड़ाना चाहते थे । पर कोई उपाय सूझता न था ।

एक व्यवहार कुशल से इसका उपाय पूछा तो कहा-"मित्रों में से जो सम्पन्न हों, उनसे माँगना शुरु क्रो और गरीब हैं, उन्हें थोडा-थोडा दे दो। फिर अंतत: स्वत: बंद हो जायेगा । ऐसा ही किया गया और आगतुकों की संख्या सीमित रह गई जो वस्तुत: मित्र थे ।

मित्र की आवश्यकता

एक बहुत बड़ा सरोवर था । उसके उत्तर तट पर मोर रहता था, दक्षिण सिरे पर मोरनी । एक दिन मोर ने प्रस्ताव रखा कि हम-तुम विवाह कर लें, तो कैसा अच्छा रहे? मोरनी ने पूछा-"तुम्हारे मित्र कितने है?" उसने 'नहीं' में उत्तर दिया तो मोरनी ने विवाह से इन्कार कर दिया ।

मोर सोचने लगा । सुखपूर्वक रहने के लिए मित्र बनाना भी आवश्यक है। उसने पूर्व तट पर रहने वाले सिंह से, पक्षिम तट पर रहने वाले कछुए से और बगल में रहने वाली सिंहनी के लिए शिकार का पता लगाने वाली टिटहरी से दोस्ती कर ली । समाचार मोरनी को सुनाया, तो वह तुरंत विवाह के लिए तैयार हो गई। पेड़ पर घोंसला बनाया और उसमें अंडे दिए । और भी कितने ही पक्षी उस पेड़ पर रहते थे ।

एक दिन शिकारी आए। दिन भर कहीं शिकार न मिला तो, वे उसी पेड़ की छाया में ठहर गए और सोचने लगे, पेड़ पर चढ़कर अंडे-बच्चों से भूख मिटाई जाय । मोर दम्पत्ति को भारी चिंता हुई, मोर मित्रों के पास सहायता के लिए दौड़ा। टिटहरी ने जोर-जोर से चिल्लना शुरू किया । सिंह समझ गया, कोई शिकार है । वह उसी पेड़ के नीचे चला जहाँ शिकारी बैठे थे। इतने में कछुआ भी पानी से निकल कर बाहर आ गया । सिंह से डरकर भागते हुए शिकारियों ने कछुए को ले चलने की बात सोची । जैसे ही हाथ बढ़ाया कछुआ पानी में खिसक गया । शिकारियों के पैर दलदल में फँस गए। इतने में सिंह आ पहुँचा और उन्हें ठिकाने लगा दिया।

मोरनी ने कहा-"मैने विवाह से पूर्व मित्रों की संख्या पूछी थी, सो बात काम की निकली न, यदि मित्र न होते तो आज हम सबकी खैर न थी ।

मित्र किसी काम न आए

एक खरगोश बहुत भला था। उसने बहुत से जानवरों से मित्रता की और आशा की कि वक्त पड़ने पर मेरे काम आवेंगे। एक दिन शिकारी कुत्तों ने उसका पीछा किया। वह दौड़ा हुआ गय के पास पहुँचा और कहा-"आप हमारी मित्र हैं, कृपा कर अपने पैने सींगों से इन कुत्तों को मार दीजिए ।" गाय ने उपेक्षा से कहा-"मेरा घर जाने का समय हो गया। बच्चे इंतजार कर रहे होंगे, अब मैं ठहर नहीं सकती ।" तब वह घोडे के पास पहुँचा और कहा-"मित्र घोड़े! मुझे अपनी पीठ पर बिठाकर इन कुत्तों से बचा लो ।" घोडे ने कहा-"मैं बैठना भूल गया हूँ, तुम मेरी ऊँची पीठ पर चढ़ कैसे पाओगे?" अब वह गधे के पास पहुँचा और कहा-" भाई! मैं मुसीबत में हूँ, तुम दुलत्ती झाड़ने में प्रसिद्ध हो, इन कुत्तों को लातें मारकर भगा दो ।" गधे ने कहा-"घर पहुँचने में देरी हो जाने से मेरा मालिक मुझे मारेगा । अब तो घर जा रहा हूँ । यह काम किसी फुरसत के वक्त करा लेना ।" अब वह बकरी के पास पहुँचा और उससे भी प्रार्थना की । बकरी ने कहा-"जल्दी भाग यहाँ से, मैं भी मुसीबत में फँस जाऊँगी ।" तब खरगोश ने समझा कि दूसरों का आसरा तकने से नहीं, अपने बलबूते से ही अपनी मुसीबत पार होती है, तब वह पूरी तेजी से दौड़ा और एक घनी झाड़ी में छिपकर अपने प्राण बचाए ।

अक्सर झूठे मित्र कुसमय आने पर साथ छोड़ बैठते हैं । दूसरों पर निर्भर रहने में खतरा है । अपने बलबूते ही अपनी समस्याओं का सामना किया जाना चाहिए।

कौए और लोमडी की मैत्री

कौआ किसी दावत में से एक बड़ा सा पुआ उठा लाया । लोमड़ी अक्ल दौड़ाने लगी कि किसी प्रकार पुआ हाथ लगे।

उसने कोए के गाने की बडी प्रंशसा की और कहा-" एक गीत इस समय सुना दें, तो बडी कृपा हो"

मूर्ख कौए ने गाने के लिए जैसे ही मुँहा खोला, पुआ नीचे गिरा और लोमडी उसे लेकर चंपत हो गई।


पहले स्तर परख लो

लोमडी ने बैल से दोस्ती जमाई कि साथ-साथ खेत चरने चला करेंगे।

लोमडी छोटी थी जल्दी-जल्दी पेट भर लेती । बैल ने कहा-"मैं भी पेट भर लूँ तुम खेत की मेड़ पर बैठकर चौकीदारी करो ।"

लोमड़ी आना-कानी करने लगी । किसान आ गया और बैल की बुरी तरह पिटाई हुई ।

स्वार्थ से युक्त सम्मतियाँ

एक बाल्क की मृत्यु हो गई। अभिभावक उसे नदी तट वाले श्मशान में ले पहुँचे । वर्षा हो रही थी । विचार चल रहा था कि इस स्थिति में संस्कार कैसे किया जाय।

उनकी पारस्परिक वार्ता में निकट उपस्थित प्राणियों ने हस्तक्षेप किया और बिना पूछे ही अपनी-अपनी सम्मति भी बता दी ।

सियार ने कहा-"भूमि में दबा देने का बहुत माहात्म्य है । धरती माता की गोद में समर्पित करना श्रेष्ठ है ।" कछुए ने कहा-"गंगा से बढ़कर और कोई तरण-तारणी नहीं । आप लोग शव को प्रवाहित क्यों नहीं कर देते?" गिद्ध की सम्मति थी-"सूर्य और पवन के सम्मुख उसे खुला छोड़ देना उत्तम है। पानी और मिट्टी में अपने स्नेही की काया को क्यों सडाया-गलाया जाय?"

अभिभावकों को समझने में देर न लगी कि तीनों के परामर्श सद्भाव जैसे दीखते हुए भी कितनी स्वार्थपरता से सने हुए है । उनने तीनों परामर्शदाताओं को धन्यवाद देकर बिदा कर दिया । बादल खुलते ही चिता में अग्नि संस्कार किया ।

सही अर्थों में स्वाभिक्त कौन?

एक राजा के चार मंत्री थे । उनमें सें तीन तो थे चापलूस । चौथा था दूरदर्शी और स्पष्टवक्ता ।

राजा मरा तो पहले मंत्री ने बहुमूल्य पत्थरों का स्मारक बनवाया । दूसरे ने उसमें मणि-मुक्ता जुड़वाए। तीसरे ने सोने के दीपक जलवाये । सभी ने उनकी स्वामिभक्ति को सराहा ।

चौथे मंत्री ने के बगीचा उस स्मारक आस-पास घना बगीचा लगवा दिया ।

तीनों की राशि बेकार चली गई । चोर चुरा ले गए, पर चौथे का बगीचा फल देता रहा, मालियों के कुटुंब पलते रहे और राहगीरों को विश्राम करने तथा बनाने वाले का इतिहास पूछने का अवसर मिलता रहा ।

सिकंदर का मित्र पर विश्वास

सिकंदर को एक असाध्य बीमारी हुई । उसका मरण निश्चित मानकर कोई चिकित्सक बदनामी के भय से दवा देने का साहस नहीं कर रहा था।

इस असमंजस भरी परिस्थिति में सिकंदर के एक स्वामिभक्त नौकर 'फिलिप' ने दवा बनाई और विश्वास उसे अच्छा हो जाने का आश्वासन दिया ।

चुगलखोरों ने सिकंदर को पत्र लिखकर सूचना दी कि फारस के राजा ने फिलिप को विष देकर मार डालने का षड्यंत्र किया है और बदले में विशाल सम्पदा देने का लालच भी ।

सिकंदर ने पत्र तकिए के सिरहाने रख लिया और फिलिप की दवा लेता रहा। उससे वह अच्छा भी हो गया। बाद में गुप्त सूचना से विष दिए जाने की बात प्रकट हुई, तो सिकंदर ने कहा-"विश्वास का सर्वथा त्याग करके भी मनुष्य नहीं जी सकता ।"

मैत्री: परस्पर विश्वास निर्भर

दूध ने पानी से कहा-"बंधु। किसी मित्र के अभाव में मुझे सूना-सूना अनुभव होता है। आओ, तुम्हीं को हृदय से लगाकर मित्र बनाऊँ ।"

पानी ने उत्तर दिया-"भाई! तुम्हारी बात तो मुझे बहुत अच्छी लगी, पर यह विश्वास कैसे हो कि अग्नि परीक्षा के समय भी तुम मेरे साथ रहोगे।"

दूध ने कहा-"विश्वास रखो । ऐसा ही होगा।"

दोनों की मित्रता हो गई । ऐसी मित्रता कि दोनों के स्वरूप को अलग करना कठिन हो गया ।

अग्नि नित्य परीक्षा लेकर पानी को जला देती है, पर दूध है कि हर बार मित्र की रक्षा के लिए अपने अस्तित्व की भी चिंता न करते हुए जलने को प्रस्तुत हो जाता है।
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