संयुक्तस्य कुटुम्बस्य रीतिर्योग्यैव सर्वथा।
कर्त्तव्यानि विभक्तानि दायित्वानि नृणां सदा॥८२॥
भवेयु: स्वस्वदायित्यं मर्यादाञ्चापि वै स्वत:।
निर्वहेयु: समे नो चेन्मनोमालिन्यमत्र तत्॥८३॥
पृथगभावोऽपि सद्यस्तु समुदेति भवेत्तत:।
कलहापेक्षया चाल्पकुटुम्बस्थिति बाध्यता॥८४॥
भावार्थ-संयुक्त परिवार प्रथा हर दृष्टि से उपयोगी है पर उसमें कर्तव्य और उत्तरदायित्व बँटे रहना चाहिए और हर सदस्य को अपनी-अपनी जिम्मेदारियों तथा मर्यादाओं का पालन करना चाहिए । इसके बिना मनोमालिन्य और बिखराव पैदा होता हैं। ऐसी स्थिति में निरंतर के कलह की अपेक्षा छोटे-छोटे अलग परिवार बसाने की विवशता अपनानी पड़ती है ॥८२-८४॥
संयुक्तस्य कुटुम्बस्य लाभश्चात्र तदैव तु ।
प्राप्यते यदि कर्त्तव्यमर्यादानां विनिर्मिता॥८५॥
आचारसंहिता सा स्यात्पाल्येऽमिप जनै: स्वयम् ।
वयोऽधिकाश्च मान्या: स्यु: परिवारे सदैव ते॥८६॥
सौविध्यस्य सहायस्य चिन्ता तेषां विशेषत:।
कर्तव्या लाभ आप्तव्यसतेषामनुभवै: सदा ॥८७॥
परामर्श निदेशं तमौचित्यनिकषे स्वयम् ।
पालयेत्संपरीक्ष्यैव यतो वृद्धजनेष्यपि॥८८॥
बहूनां मान्यता इच्छा स्वभावश्च समान्यपि ।
विवेकनिकषोत्तीर्णान्यत्र नैव भवन्ति तु॥८९॥
ईंदृश्यां च दशायां तु निदेशान् कलहं बिना।
शक्यते चाऽञ्जसा कर्तुमश्रुतान् वाप्युपेक्षितानम्॥९०॥
सम्मानं च सुरक्षा च सेवा भावोऽन्यदेब तु।
विद्यते चाऽविचार्यैव निदेशपरिपालनम् ॥९१॥
भिन्न एव महत्त्वं च विवेकौचित्ययोस्तु तत् ।
श्रेष्ठमेव परामर्शाद् वृद्धानामतिरिच्यते॥९२॥
भावार्थ-संयुक्त परिवारों का लाभ तभी मिलता है जैब कर्तव्यों एव मर्यादाओं की आचार संहिता बने और उसका विधिवत् पालन हो । परिवार संस्था में वृद्धजनों को समुचित सम्मान मिलना चाहिए । उनकी व
और सहायता का भी ध्यान रखना चाहिए। उनके अनुभवों से लाभ उठाना चाहिए किशु परामर्श या निर्देश को औचित्य की कसौटी पर कसने के उपरांत ही पालन करना चाहिए वृद्धों में से कितनों की ही मान्यताएँ आदतें इच्छाएँ ऐसी होती हैं जिन्हें विवेक की कसौटी पर कसने पर खरा नहीं पाया जाता। ऐसी दशा में निर्देशों को बिना विग्रह खड़ा किए हुए उन्हें अनसुना या उपेक्षित भी किया जा सकता हैं। सम्मान रक्षा सुरक्षा सेवा एक बात है और आखें मूँद कर निर्देश मानने के लिए बाधित होना सर्वथा दूसरी। विवेक एच औचित्य का महत्व सर्वोपरि है उसका स्थान वृद्धजनों के परामर्श से भी अधिक है ॥८५-९२॥
व्याख्या-आज परिरिथतियाँ बदली हुई हैं। पुरातन विश्व की तुलना में आज परिवार संस्था का रूप बदला हुआ सा है। पहले बड़े परिवारों में स भी एक साथ रहते थे, एक साथ उपार्जन कर उसका मिल-बाँटकर उपभोग करते थे। तब समाज छोटे-छोटे हिरसों में बँटा था, शहर अधिक नहीं थे एवं कृषि तथा ग्राम्य प्रधान संस्कृति होने के कारण संयुक्त परिवार का प्रचलन अधिक था। उसके अपने लाभ भी थे । सहकारिता, औदार्य, एक दूसरे के प्रति सौजन्य, बड़ों को सम्मान-ये सभी उस परंपरा की ही देन हैं।
आज स्थिति अलग है । उपार्जन के स्थान सुदूर क्षेत्रों में होने के कारण परिवार बँटते चले जा रहे हैं। यदि यह संरचनात्मक विघटन ही होता, तो एक बात थी, किन्तु जब उत्तरदायित्वों को भुलाकर भावनात्मक विघटन भी हो जाता है, तो आधुनिकता की इस देन को बुद्धिमान लोग हेय ही ठहराते हैं । दुसरा पक्ष यह भी है कि पीढ़ियों के अंतर व मानसिकता में भिन्नता होने के कारण परस्पर कलह बना रस्ता है एवं यही संयुक्त परिवार के विघटन का कारण बनता हो, तो ऐसे में बड़ों के प्रति दायित्व निभाते हुए यदि अलग छोटे परिवार बनाने पड़ें, तो इसे आज की आवश्यकता मानकर चलना चाहिए।
यदि सौभाग्यवश संयुक्त परिवार में रहने का अवसर मिल सके, तो निर्वाह तभी हो पाता है, जब सभी परिवारी जन अपने उत्तरदायित्वों को निबाहें । बड़ों ने कष्ट उठाकर परिवार संस्था को समुन्नत किया
है। वे सम्मान के योग्य हैं । किन्तु यदि उनके परामर्श सामयिक न हों एवं तर्क, तथ्य की कसौटी पर अनुचित ठहरें, तो ऐसे में उन्हें अनसुना करना अकर्त्तव्य नहीं है । ऋषि कहते हैं कि आँख बंद करके, बड़े कह रहे हैं, मात्र इसलिए मान लेना समझदारी की बात नहीं है। जो तथ्य कुरीतियों, मूढ़ मान्यताओं पर लागू होते हैं, वे ही उन सुझावों-परामर्शों पर भी समान रूप से लागू होते हैं, जो समय के प्रवाह से विपरीत हैं उाथवा अनुचित हैं।
आधा महाभारत तो जीत लिया
महाभारत युद्ध के पहले दिन दोनों सेनाएँ संग्राम के लिए आमने-सामने आ डटीं। युद्ध शुरू होने को ही था कि युधिष्ठिर रथ से उतर कर कौरवों की सेना में घुस गए और जाकर गुरु द्रोणाचार्य, पितामह भीष्म आदि को प्रणाम किया और उनका आशीर्वाद लिया। इधर चिंतित अर्जुन ने पूछा-"भगवन्! महाराज यह क्या कर रहे हैं?" इस पर कृष्ण भगवान बोले-"अर्जुन! महाराज युधिष्ठिर ने गुरुजनों के प्रति हार्दिक सम्मान व्यक्त करके आधा महाभारत जीत लिया, इससे विपक्ष के श्रेष्ठजनों की हार्दिक सद्भावना हमारे पक्ष में आ गई, उस ओर केवल उनका शारीरिक पुरुषार्थ रह गया है। आधा शेष रहा, उसे जीतने के लिए अब तुम सब युद्ध प्रारंभ करो ।"
परस्पर विग्रह के बावजूद बडों का सम्मान
युद्ध कौरव और पांडवों के मध्य हुआ। वे लड़े और नियति के अनुसार उनमें से जिन्हें मरना था, वे उस गति को प्राप्त कर गए ।
धृतराष्ट्र और गांधारी थे तो कौरवों के माता-पिता, पर उनने सदा नीति, औचित्य को ही सराहा। अपनों के औचित्य का कभी पक्ष लिया नहीं।
कुंती की मन स्थिति भी वैसी ही थी। वह युद्ध को रोक तो न सकीं, पर अपने-पराए जैसा पक्षपात उनके मन में भी नहीं था । फलत: वह सदा धृतराष्ट-गांधारी को जेठ-जेठानी के रूप में श्रद्धास्पद ही मानती रहीं।
महाभारत समाप्ति के बाद कुंती आग्रहपूर्वक उन्हें घर ले आई और वैसा ही मान देती रहीं जैसा कि बड़ों को दिया जाता है । अंत में जब वे वनवास-वानप्रस्थ का आग्रह करने लगे, तो कुंती भी उनकी सेवा करने के लिए साथ ही वनवास चली गई ।
पुत्र को सत्परामर्श
अमेरिका के राष्ट्रपति एण्डरु जैक्सन की माता को पर नर्स के रूप में विदेश जाना पड़ा ।
तब जैक्सन चौदह वर्ष के थे। माता ने अपने पुत्र को एक बहुमूल्य संदेश भेजा, जिसमें लिखा था-एण्डरु, यदि में जीवित वापस न लौ, तो जिंदगी भर मेरी एक बात याद रखना-"इस संसार में हर मनुष्य को अपना रास्ता आप बनाना पड़ता है । आगे बढ़ने के लिए सच्चे दोस्तों की जरूरत पड़ती है और वे उन्हें ही मिल सकते हैं, जो स्वयं ईमानदार हैं।"
उन्होंने जीवन भर अपनी माता के इस अंतिम उपदेश को याद रखा एवं यही उनकी सफलता का मूल मंत्र बन गया ।
प्रतिभा का निखार संयुक्त रहने में
संयुक्त रहने की फलश्रुतियाँ अनेक हैं। एकाकी तो प्रखर-प्रतिभा को भी जंग लग जाती है । ऋषि अंगिरा के शिष्य उदयन बड़े प्रतिभाशाली थे, पर अपनी प्रतिभा के स्वतंत्र प्रदर्शन की उमंग रहने में उनमें रहती थी । साथी-सहयोगियों से अलग अपना प्रभाव दिखाने का प्रयास यदा-कदा किया करते थे । ऋषि ने सोचा, यह वृत्ति इसे ले डूबेगी । समय रहते समझाना होगा ।
सर्दी का दिन था । बीच में रखी अँगीठी में कोयले दहक रहे थे । सत्संग चल रहा था। ऋषि बोले-"कैसी सुंदर अँगीठी दहक रही है । इसका श्रेय इसमें दहक रहे कोयलों को है न?" सभी ने स्वीकार किया ।
ऋषि पुन: बोले-"देखो, अमुक कोयला सबसे बड़ा, सबसे तेजस्वी है। इसे निकालकर मेरे पास रख दो। ऐसे तेजस्वी का लाभ अधिक निकट से लूँगा ।"
चिमटे से पकड़कर वह बड़ा तेजस्वी अंगार ऋषि के समीप रख दिया। पर यह क्या अंगार मुरझा सा गया। उस पर राख की पर्त आ गई और वह तेजस्वी अंगार काला कोयला भर रह गया ।
ऋषि बोले-"बच्चो! देखो, तुम चाहे जितने तेजस्वी हो, पर इस कोयले जैसी भूल मत कर बैठना । अँगीठी में सबके साथ रहता, तो अंत तक तेजस्वी रहता और सबके बाद तक गर्मी देता। पर अब न इसका श्रेय रहा और न इसकी प्रतिभा का लाभ हम उठा सके ।"
शिष्यों को समझाया गया-"परिवार वह अँगीठी है, जिसमें प्रतिभाएँ संयुक्त रूप से तपती हैं । व्यक्तिगत प्रतिभा का अहंकार न टिकता है, न फलित होता है। परिवार के सहकार-सहयोग में वास्तविक बल है ।"
मानें तभी जब उचित हो
बड़ों का कहना मानना वहीं तक उचित है, जहाँ तक वह न्यायानुकूल और दूरदर्शितायुक्त हो ।
मोहग्रस्त मन:स्थिति में वे जो भी कहें, उसे शिरोधार्य करना आवश्यक नहीं। औचित्य की गरिमा बडों के निर्देश से भी अधिक है ।
प्रह्लाद ने पिता का आदेश मानने से इन्कार कर दिया। भरत जी ने माता का कहना नहीं माना । बलि ने गुरु
शुक्राचार्य के परामर्श की स्पष्ट अवहेलना की । विभीषण का बड़ा भाई रावण जो कराना चाहता था, वह उसने स्वीकार न किया ।
मीरा का परिवार, उन्हें घर में ही कैद रखना चाहता था, पर वे धर्मसेवा के निमत्त परिभ्रमण पर चली गई।
कुटुंब का प्रतिबंध उनने नहीं माना।
वसुधा की पुलकन का कारण
प्रचंड अंतर्दाह से एक विराट् पिंड खंड-खंड होकर आकाश से टूट पडा और क्षितिज में घूमने लगा । एक खंड विधाता के सम्मुख भी जा गिरा।
उन्होंने सोचा, इससे क्रीडा की जाए। किन्तु ओह! यह तो अंगार की तरह गरम था । विधाता ने जल में विहार करने के लिए छोड़ दिया । जब निकाला तो पता चला कि उसमें स्पंदन है।
विधाता ने पूछा-"क्या तुममें स्पंदन है?" "हाँ" का उत्तर पाकर विधाता ने फिर पूछा-"तुम्हारा नाम क्या है?" अनाम पिंड ने कहा-"मेरा नाम कुछ भी नहीं है ।" विनोदी विधाता ने उसका नाम 'वसुधा' रख कर कहा-"लो, तुम्हारा नाम रख दिया । अब प्रसन्न होकर हँसो, खेलो और मंगल मनाओ ।"
वसुधा ने एक गर्म उच्छवास छोड़कर कहा-"निर्माता! मेरे अंतर में अनंत दाह भरा है, मैं किस प्रकार हँस सकती हूँ ।"
विधाता ने उसे हरी-भरी वनस्पति से भर दिया और कहा-"अब तो हँसोगी?" वसुधा ने फिर उच्छवास छोड़ा, वह भी गर्म था । अब विधाता ने उसे एक शिशु प्राणी प्रदान करके कहा-"ले, यह मानव शरीर तेरी प्रसन्नता का हेतु बनेगा ।"
मनुष्य वसुधा की गोद में बड़ा हुआ, उसने अपने परिश्रम से माँ वसुधा को सजा दिया । वसुधा का शृंगार देखकर विधाता ने एक दिन पूछा-"वसुधे, अब तो तुम्हारी प्रसन्नता का पारावार न होगा । वसुधा ने पुन: उच्छवास छोड़ा । वह भी गर्म था । विधाता ने झुँझलाकर कहा-" तू कभी सुखी नहीं हो सकती और वे नाराज होकरे चले गए।"
एक दिन मधुर संगीत से विधाता की नींद टूटी । उन्होंने उठकर देखा, वसुंधरा गा रही थी । विधाता ने उसकी प्रसन्नता का हेतु पूछा । प्रसन्न मन से वसुधा बोल उठी-"स्रष्टा! जब मेरे पुत्र नि:स्वार्थ भाव से एक-दूसरे से प्रेम करते हैं, मिल-जुलकर मेरे वैभव का आनंद उठाते हैं, तो उनके इस सहकार को देखकर मेरा रोम-रोम पुलकित हो उठता है ।"
गृहस्थजीवनस्यातो महिमा स मत: स्वत:।
आश्रमाणामिव श्लाघ्य: शोभन: सुप्रशंसित"॥९३॥
उच्चादर्शं तु गृह्णन्ति लोकसेवा विधेस्तु ये।
जनास्तेषां कृते नैवानिवार्यं विद्यते परम्॥९४॥
सर्वसाधारणानां सु कृतेऽस्त्येव जनुर्यत:।
विकासञ्च कुटुम्बस्थ: सर्वेषामेव जायते॥९५॥
गृहस्थेन तत: सर्वे सम्बद्धा: सन्ति निश्चितम्।
अतस्तत्सूत्रसम्बद्धकर्तव्यपरिपालनम्॥९६॥
भावार्थ- गृहस्थ जीवन की महिमा भी अन्य आश्रमों की तरह ही सुंदर प्रशंसनीय एवं श्लाध्य मानी गई है । लोकसेवा का उच्च आदर्श अपनाने वालों के लिए वह अनिवार्य नहीं तो भी सर्वसाधारण के लिए वही उपपुक्त है । हर किसी का जन्म और विकास तो परिवार के अंतर्गत ही होता है, इसलिए उसके साथ हर कोई जुड़ता है । अतएव उस संबंध सूत्र के साथ जुडे़ हुए कर्तव्यों का परिपालन ही श्रेष्ठ माना जाता है॥९३-९६॥
व्याख्या-गृहरथ जीवन प्रकरण का समापन करते हुए ऋषिश्रेष्ठ सर्वसाधारण के लिए परिवार-बंधन में जुड़ने का माहात्म्य बताते हुए कहते हैं कि चूँकि मनुष्य परिवार की, समाज की एक इकाई है, उसे अपवादों को छोड़कर यथा संभव अपने दायित्व परिवार संस्था से जुड़कर ही निभाने चाहिए । माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी-पुत्री, मित्रगण इन सभी के प्रति उनके कर्तव्य हैं । उन्हें गृहरथ धर्म में रहकर ही पूरा किया जा सकता है। मनुष्य के लिए सर्वश्रेष्ठ मार्ग यही है कि वह स्वयं को इस बंधन से जोड़कर सबको साथ लेकर चले एवं अपने धरती पर अवतरण को सफल बनाए ।
उदबोधन प्रियं जात श्रोतृणामद्य यच्छुतम् ।
शान्तिपाठनमस्कारजयशब्दैरथाऽपि च॥९७॥
नीराजनेन सार्धं च समाप्तं सत्रमुत्तमम्।
यथाकालं परं गन्तुमुत्थातुं चाऽपि नो मन:॥९८॥
कस्याऽपि कुरुते तत्र साहसं नित्यकर्मण:।
व्यवस्था च व्यधात् सर्वन्विवशान् गन्तुमत्र च॥९९॥
भावार्थ-आज का उद्बोधन उपस्थित जनों को और भी प्रिय लगा । शांतिपाठ, आरती, जयकार, अभिवंदन के उपरांत नियत समय पर सत्र समाप्त हुआ पर उठने व जाने के लिए किसी का मन नहीं कर रहा था । नित्य नियम की व्यवस्था ने ही उन्हें बिदा होने के लिए विवश किया॥९७-९९॥
इति श्रीमत्प्रज्ञापुराणे ब्रह्मविद्याऽऽत्मविद्ययो: युगदर्शनयुगसाधनाप्रकटीकरणयो:,
श्रीधौम्यऋषिप्रतिपादिते "गृहस्थजीवने," ति
प्रकरणो नाम द्वितीयोऽध्याय:॥२॥