प्रज्ञा पुराण भाग-3

अथ चतुर्थोऽध्याय: शिशु-निर्माण प्रकरणम्-5

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पाणिग्रहणसंस्कारस्तदैवैषां च युज्यते।
यदेमे संस्कृता बाला सन्त्वपि स्वावलम्बिन:॥६७॥
तथा योग्याश्च सन्त्वेता बालिका भारमञ्जसा।
क्षमा वोढुं गृहस्थस्य येन स्यु: समयेऽपि च॥६८॥
स्वावलम्बनदृष्ट्या ता प्रतीयेरन्नपि क्षमा:।
नो पाणिग्रहणं युक्तमविपक्वायुषां क्वचित्॥६९॥ 
विकासेऽनेन तेषां हि बाधाऽभ्येति समन्तत:।
सुविधा साधनानां हि ज्ञानवृद्धेरपीह च॥७०॥
व्यवस्थेव सदा ध्येयं बाला: संस्कारिणो यथा।
भवन्त्वपि सदा सर्वे गुणकर्मस्वभावत:॥७१॥
चरित्रे चिन्तने तेषां व्यवहारोऽपि सन्ततम् ।
शालीनता समावेशो यथायोग्यं भवत्वपि॥७२॥

भावार्थ-विवाह तब करें, जब बच्चे स्वयं सुसंस्कृत व स्वावलंबी बनने की स्थिति तक पहुँचें । लड़कियों को इस योग्य होना चाहिए कि वे नए गृहस्थ का भार उठा सकें और समय पड़ने पर आर्धिक स्वावलंबन की दृष्टि से भी समर्थ सिद्ध हो सकें। परिपक्व आयु होने से पूर्व बालकों या किशोरों का विवाह नहीं करना चाहिए। इससे उनके विकास क्रम में भारी बाधा पड़ती है ज्ञान वृद्धि तथा सुविधा-साधनों की व्यवस्था करने की तरह 
ही इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि बच्चे गुण-कर्म-स्वभाव की दृष्टि से सुसंस्कारी बनें। उनके चिंतन, चरित्र और व्यवहार में शालीनता का समुचित समावेश होता रहे॥६७-७२॥

व्याख्या-न केवल शारीरिक संरचना की दृष्टि से स्वस्थ, अपितु, मानसिक परिपक्वता, भावनात्मक विकास की स्थिति में पहुँचने पर ही युवकों को विवाह-बंधन में बाँधा जाय । आयु का बंधन तो हो ही, गुण-कर्म-स्वभाव की दृष्टि से परिष्कार हो पाया है अथवा नहीं, इसे भी विवाह का आधार बनाया जाय। बाल्यकाल से किशोर्यावस्था की अवधि अनुभवों के अर्जन, ज्ञान-संपदा के संचय एवं व्यावहारिक शिक्षण की हैं। जीवन जीने की कला से जो अनभिज्ञ हैं, उन्हें समय से पूर्व विवाह-बंधन में बाँधना उनके साथ अत्याचार करना है ।

जहाँ भी बाल-विवाह का प्रचलन हो, वहाँ इसके विरुद्ध आवाज उठाई जाय एवं स्वयं किशोरों में यह वृत्ति जगाई जाय कि स्वावलंबी होने से पूर्व, सुसंस्कारों की संपदा कमा लेने के पूर्व वे विवाह नहीं करेंगे। किशोरियों को भी यह अनुभव कराया जाना चाहिए कि वे सक्षम, स्वावलंबी होने के बाद ही गृहस्थी का दायित्व अच्छी तरह सँभाल सकती हैं ।

कच और देवयानी

देवपुत्र कच शुक्राचार्य के पास संजीवनी विद्या पढ़ने गए। लंबे समय तक उनके आश्रम में रहकर अपने विषय में प्रवीणता प्राप्त कर ली। शुक्राचार्य की कन्या देवयानी कच से विवाह करना चाहती थी । कच ने इस प्रस्ताव को मर्यादा उल्लंघन की बात कहकर इन्कार कर दिया । गुरु कन्याएँ वहाँ पढ़ने वाले छात्रों की धर्म बहिन होती थीं। यदि उस परंपरा को तोड़ा जाय, तो आश्रमों का अनुशासन ही टूट जाएगा और वहाँ धर्म बंधन की उपेक्षा चल पड़ेगी । इससे भ्रष्टाचार फैलेगा ओर आश्रमों की गरिमा पर कुठाराघात होगा । देवयानी ने अपनी इच्छा की पूर्ति न होते देखकर कच को विद्या निष्फल होने का शाप दिया। जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया पर मर्यादा उल्लंघन का दोष सिर पर नहीं लिया ।

गुण को नहीं, संपदा को महत्व दिया

एक देहाती लड़का घर से नौकरी के लिए निकला । उसें लकड़ी काटने, पशु पालने जैसा घरेलू काम मिल गया । लड़के की मेहनत और ईमानदारी पर मालिक खुश था । इसी श्रेणी का एक और नौकर साथ में काम करता था । उसकी लड़की विवाह योग्य थी । दोनों की आयु विवाह योग्य थी । वह लड़के के गुणों पर मुग्ध थी, उसके साथ विवाह करना चाहती थी। प्रस्ताव उसके पिता के सामने रखा गया, तो उसने स्पष्ट इन्कार कर दिया। गरीब लड़के के हाथ अपनी बेटी का हाथ सौंपकर वह उसे दरिद्रता में डालना नहीं चाहता था। लड़के ने उन्नति करना आरंभ कर दिया और २५ वर्ष बाद अमेरिका का राष्ट्रपति बन गया। नाम था उसका गारफील्ड । लड़की के पिता को तब बहुत पश्चात्ताप हुआ और तब पैसों की तुलना में गुणों का महत्व समझा ।

राजकुमारी से सत्याग्रही

कपूरथला रके राजा साहब की इकलौती बेटी थी राजकुमारी अमृतकौर । शिक्षा तो भारत में भी कम नहीं थी, पर वे विदेशों की प्रगति में वहाँ के नागरिकों की लगन का प्रत्यक्ष स्वरूप देखना चाहती थी। इसलिए इंग्लैड गई। ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी में पढी, किन्तु परीक्षा एक भी नहीं दी । वहाँ उन्हें वैसा कुछ नहीं लगा, जो सीखने योग्य हो । भारत लौटने पर वे अपने पिता के चरण चिह्नों पर चलीं । सर हरनाम सिंह, गोपाल कृष्ण गोखले उनके निजी मित्र थे और स्वतंत्रता आंदोलन को सफल बनाने के लिए अपने ढंग से प्रयत्न करते थे । उनकी पुत्री में भी पिता की विचारधारा कूट-कूट कर भरी थी ।

गांधी जी के संपर्क में आते ही उनने पूरा जीवन राष्ट्र को समर्पित कर दिया। आजीवन कुमारी रहीं और अनेक बार सत्याग्रह आंदोलन में जेल जाती रहीं । स्वराज्य मिलने पर वे दो बार केंद्रीय सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रहीं । दस वर्ष गांधी जी की सेक्रेटरी के रूप में काम करती रहीं । नारी कत्थान परिषद् का कार्य तो पूरी तरह वही सँभालती थीं ।

साहसी जा काकरेल

जान काकरेल का पूरा परिवार राजनीतिक क्षेत्र के सुधार आंदोलन में लगा था। उनकी लड़की ग्रीजेल भी उसी रंग में रंगी हुई थी। पिता को फाँसी का हुक्म हो गया था, पर उसने उन्हें बचाने में अद्भुत चतुरता का काम किया। उसने पुरुष वेष बनाया । पिता को छुड़ाने की अर्जी लेकर भाई को इंग्लैंड भेजा । उधर फाँसी का हुक्म ले जाने वाले हरकारे के थैले में से बड़ी होशियारी से हुक्म का कागज चुरा लिया । साथ ही उसकी गोली भरी पिस्तौल के स्थान पर खाली कारतूस वाली पिस्तौल रख दी । हरकारा कुछ न कर सका। फांसी की तारीख टली और उसका भाई क्षमा पत्र ले आया । इस प्रकार अपने पिता को चतुरतापूर्वक फाँसी के तख्ते से उतार कर फिर शेष जीवन देश-सेवा में लगाया ।

वीर नारी इस तरह बढ़ती है

उन दिनों नारी शिक्षा का विरोध भी होता था और उपहास भी। रोड़े अटकाने में कोई कमी न रहने दी जाती थी। इन परिस्थितियों में त्रावनकोर की एक बहादुर नारी प्रगति के क्षेत्र में अपने साहस के बल पर आगे आई। नाम था उनिता चेड्डी । ग्रेजुएट होने के बाद उसने वकालत पास की और पुराने वकीलों को पीछे छोड़ दिया। सरकार उसकी प्रतिभा से प्रभावित हुई और डिस्ट्रिक जज से तरक्की देकर हाईकोर्ट का जज बना दिया। वे विधानसभा की विधायक भी बनीं । चेड्डी ने 'श्रीमती' नामक एक पत्रिका का भी प्रकाशन किया। उसमें देश में नारी प्रगति के अतिरिक्त अंतर्राष्ट्रीय नारी आंदोलन की भी चर्चा रहती थी। जो लोग
आरंभ में उनका उपहास उड़ाते थे, वे ही प्रतिभा के सामने सिर झुकाने लगे। उनके पति पुलिस अफसर थे, पर अनुदार नहीं । उनने पत्नी की प्रगति में कुढन अनुभव नहीं की, वरन् प्रसन्नता व्यक्त की और सहायता पहुँचाई। चेड्डी का गृहस्थ जीवन भी निष्ठा और मधुरता से भरा-पूरा था।

आदर्श प्रशासिका-अहिल्याबाई

एक छोटे देहात में जन्मी कृषक कन्या अहिल्याबाई अपने स्वभाव, चरित्र और साहस के कारण अपने गाँव में प्रसिद्ध थी। इंदौर के महाराज मल्हार राव उस गाँव में होकर निकले, तो उस कन्या का परिचय और साक्षात्कार करके अत्यंत प्रभावित हुए। उसे अपने पुत्र खांडेराव के साथ विवाह करने का निवेदन उसके पिता से किया । वे तुरंत सहमत हो गए और लड़की को इंदौर लाकर धूमधाम के साथ विवाह कर दिया। मल्हार राव को उस अशिक्षित लड़की से बडी आशाएँ थीं । उनने उसे पड़ाने और राजकाज में सुयोग्य बनाने में भरपूर प्रयत्न किया। दुर्देव से कुछ ही समय में उनके ससुर और पति का स्वर्गवास हो गया। राजकाज उन्हें सें भालना पड़ा । शत्रुओं के आक्रमण को उनने निरस्त किया। डाकुओं के आतंक का सफाया किया। भ्रष्ट कर्मचारियों को हटाया और प्रजा की सुख-शांति एवं प्रगति के लिए जो भी संभव था, सो सब कुछ किया। अहिल्याबाई के जीवन का सबसे बड़ा काम था, भारत के प्रमुख तीर्थों का जीर्णोद्धार करना तथा नए बनवाना । भारतीय संस्कृति की दर्शनीय विशिष्टता जो देश भर में दीख पड़ती है, उसमें बड़ा योगदान रानी अहिल्याबाई का रहा।

स्वावलंबी बालक

फ्रांसीसी गायिका मेलिथॉन के पास एक बार कोई फटे हाल व गरीब लड़का आ गया । मेलिथॉअन उसे र्दखकर द्रवित हो गईं और बोलीं-"बेटे! तुम्हारा क्या नाम है और क्या काम है ।" "जी, मेरा नाम पियरे है और एक निवेदन करने आया हूँ । मेरी माँ रुग्ण है, न तो उसका इलाज कराने के लिए मेरे पास पैसे हैं और न ही दवा तथा पथ्य खरीद सकता हूँ।" "अच्छा, तुम्हें आर्थिक सहायता चाहिए । बताओ कितने पैसे दूँ"-मेलिथॉन ने पियरे की बात को बीच से ही काटकर कहा।" जी नहीं" -पियरे बोला-" मैं मुफ्त में ही पैसे नहीं लिया करता । मैं तो यह निवेदन करने आया था कि मैंने एक कविता लिखी है । आप उसे संगीत सभा में गाने की कृपा करें । इसके बाद जो उचित समझें दे दें ।"

मेलिथॉन बड़ी प्रभावित हुईं । अगले दिन जलसे में उसने वह कविता गाई । करुण स्वरों में गाई गई वह कविता सुनकर श्रोताओं की आँखें भीग गईं । उस कविता पर कई लोगों ने अच्छा पुरस्कार दिया । मेलिथॉन सारी एकत्रित धनराशि लेकर पियरे की रुग्ण माता के पास पहुँची और उसका हकदार पियरे को ही बताते हुए उन्होंने सब की सब राशि पियरे को ही दे दी ।

श्रेष्ठ लड़का

एक कुएँ पर चार पनिहारिनें पानी भरने गईं। बारी-बारी रस्सी में घड़ा बाँधकर कुएँ में उतारतीं और पानी खींचतीं। एक व्यस्त होती, तो तीन खाली रहतीं। इस बीच उनमें कुछ वार्ता छिड़ गई । सभी अपने-अपने लड़कों के गुणों की प्रशंसा करने लगीं। एक ने कहा-" मेरे लड़के का गला ऐसा मीठा हैं किं किसी राज दरबार में उसे मान मिलेगा ।" दूसरे ने कहा-"मेरे लड़के ने अपना शरीर ऐसा गठीला बना लिया है कि बड़ा होने पर दंगल में पहलवानों को पछाडेगा ।" तीसरे ने कहा-" मेरा बेटा ऐसा बुद्धिमान है कि सदा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होता है ।" चौथी सिर नीचे किए खड़ी थी । उसने इतना ही कहा-"मेरा लड़का गाँव के और बच्चों की तरह साधारण ही है।" इतने में चारों बच्चे स्कूल की छुट्टी होते ही घर चल पड़े । रास्ता कुएँ के पास होकर ही था । एक गाता आ रहा था । दूसरा उछलता । तीसरे के हाथ में खुली पुस्तक थी। सबूत भी उनकी विशेषता का हाथों-हाथ मिल गया । चौथी का लड़का आया, तो उसने चारों के चरण छूकर प्रणाम किया और अपनी माता का पानी से भरा घड़ा सिर पर लेकर घर की ओर चल पड़ा । कुएँ के पास एक वयोवृद्ध बैठा था। उसने चारों बहुओं को रोक कर कहा । यह चौथा लडका सबसे अच्छा है । इसका शिष्टाचार देखा न। किसी का भविष्य उसका शिष्टाचार बनाता है ।

कोयल सबको प्यारी क्यों?

एक लड़की ने पूछा-"पिताजी! कौवा और कोयल दोनों काले हैं, पर लोग कौवे को मारते और कोयल को प्यार करते हैं यह क्यों?" बालिका पर एक सकरुण दृष्टि डालकर पिता ने उत्तर दिया-"कोयल सबको प्यार करती है, इसलिए मीठा बोलती है । वाणी और भावनाओं की मधुरता के कारण ही वह सर्वप्रिय बन गई। कौवा तो अपने स्वार्थ और धूर्तता के कारण ही उस आदर से वंचित रह जाता है ।"

पुरुषार्थ से टामसन, लार्ड बना

सन् १८१४ में टोरेंटो (कनाडा) के नाई परिवार में एक लड़का जन्मा । नाम रखा गया टामसन । वह जैसे-तैसे कुछ पढा और कोई चारा भी न था । लड़के ने गरीबी से हार नहीं मानी। योग्यता बढ़ाने, ऊँचा हौसला रखने और नया रास्ता खोजने में उसने अपनी सारी प्रतिभा लगा दी । एकाग्रता, तत्परता और जिम्मेदारी यह तीन उसके ऐसे आधार थे, जिन्हें उसने आदि से अंत तक कभी भी छोड़ा नहीं। अपनी विशेषताओं के कारण वह हर कहीं अपने लिए जगह बनाता और प्रोत्साहन पाता गया । उसे फेरी वाले, क्लर्क, मुनीम, माली जैसे कितने ही छोटे-बड़े काम करने पड़े। उसकी तत्परता और सज्जनता एक के बाद दूसरे अनदेखे काम बताती और सफल बनाती चली गई। मितव्ययिता और नियमितता के दो सद्गुणों के सहारे उसने लंबी जीवन यात्रा संपन्न की। जीवन के अंतिम चरण में पहुँचते-पहुँचते वह लार्ड टामसन के नाम से जाना जाता था। वह १२८ समाचार पत्रों का स्वामी था, १५ रेडियो और टेलीविजन स्टेशन चलाता था और वायुयान चलाने वाली कंपनी का मालिक था। अरबपतियों में उनकी गणना होती थी। अपनी आत्मकथा में उसने लिखा है कि मेरी प्रगति में न भाग्य का खेल है और न किसी के अनुग्रह का, उपलब्ध सफलताओं का सारा रहस्य एक ही बात में भरा हुआ है कि मैने प्रतिभा-तत्परता निखारने में भरपूर प्रयास किया और किसी भी स्थिति में संतुलन नहीं खोया ।

वातावृतौ च योग्यायां वसितुं समयं च ते ।
लभन्तां तान् सुयोग्यांश्च नागरान् संस्कृतानपि॥७३॥
निर्मातुं यत्नशीलैश्च भाव्यमेवाऽभिभावकै: ।
उन्नतस्तरव्यक्तित्वे भविष्यत्संश्रितं शिशो:॥७४॥ 
सत्प्रयोजनभाजस्ते सेवाभाजो भवन्त्वपि ।
अवसरा ईदृशा देयास्तेभ्य: प्रोत्साहनं तथा॥७५॥

भावार्थ-यह भी आवश्यक है कि उन्हें (बच्चो को) उपयुक्त वातावरण में रहने का अवसर मिले। सुयोग्य-सुसंस्कारी नागरिक बनाने के लिए भी अभिभावक प्रयत्नशील रहे, क्योकि व्यक्तित्व के समुन्नत स्तर पर ही बच्चों का उज्जवल भविष्य निर्भर रहता है । उन्हें सेवाभावी सत्प्रयोजनों में भाग लेते रहने का अवसर भी देना चाहिए और प्रोत्साहन भी॥७३-७५॥

व्याख्या-बालकों को सुसंस्कारी बनाना जितना अनिवार्य है, उतना ही यह भी कि उन्हें सेवा-धर्म के माध्यम से इन गुणों को व्यवहार में उतारने का अभ्यास करने का अवसर भी मिले । परिवार, विद्यालय, मित्र, परिकर एवं समस्त समाज एक कार्यशाला है, जिसमें सत्प्रवृत्तियों का अभ्यास किया जा सकता है। कोरे सिद्धांत तो चिंतन तक ही सीमित होकर रह जाते हैं । उनका व्यवहार में उतरना अत्यंत अनिवार्य है । इस दिशा में सभी अग्रजों द्वारा समुचित प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।

सूझ-बूझ ने जगाई दान-वृत्ति

वाणिज्य संस्थान में अर्थशास्त्र का शिक्षण चल रहा था । प्राध्यापक द्रव्य, बैंक तथा साख पत्रों की जानकारी दे रहे थे । तब तक जान डी० राकफेलर वहाँ पहुँच गए । प्राध्यापक ने एक छात्र से पूछा-"अच्छा बताइए 'प्रामिसरी नोट' कैसे लिखा जाता है?" छात्र ने मेज पर से चाक उठाई और श्यामपट्ट पर लिखने लगा-"मैं वाणिज्य संस्थान को दस हजार डालर देने का वायदा करता हूँ । हस्ताक्षर-जान डी ० राकफेलर"। छात्र के बुद्धि-कौशल से रोकफेलर इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उस संस्थान को तत्काल अनुदान स्वरूप दस हजार डालर का एक चैक काट दिया ।

बालक की सूझबूझ ने एक धनवान की सत्प्रवृत्ति को जगाया ही नहीं-क्रियान्वित भी कराया।

मुमुक्ष का चिंतन

एक धार्मिक मुमुक्षु ने अपनी सारी धन-दौलत लोकोपयोगी कार्यों में लगाकर संयम का जीवन व्यतीत करना शुरू कर दिया। अब तो उनके सत्कार्यों की सर्वत्र चर्चा होने लगी। जनता के कुछ प्रतिनिधियों ने उस मुमुक्षु के पास उपस्थित होकर निवेदन किया-"आपका त्याग प्रशंसनीय है । आपकी सेवाओं से समाज ऋणी है, हम सब सार्वजनिक रूप से आपका अभिनंदन कर दानवीर तथा मानव-रत्न के अलंकरणों से विभूषित करना चाहते है। कृप्या हम सबकी इस प्रार्थना को स्वीकार कीजिए । "मुमुक्षु ने मुस्कराते हुए कहा-"मैने कोई त्याग नहीं किया है, वरन् लाभ लिया है। बैंक में रुपए जमा करना त्याग नहीं, वरन् ब्याज का लाभ है । ग्राहक की वस्तु देकर दुकानदार किसी प्रकार के त्याग का परिचय नहीं देता, वह तो बदले में उसकी कीमत लेकर लाभ कमाता है । समुद्र के किनारे खड़े हुए व्यक्ति को जब मोती दिखाई दे, तो उन्हें समेट कर कौन झोली न भरना चाहेगा? इस समय यदि उसकी झोली में शंख और सीपियाँ होगी, तो उन्हें खाली कर मूल्यवान वस्तुएँ भरना क्या त्याग की वृत्ति का परिचायक है? उसी प्रकार क्रोध, लोभ, मोह आदि को छोड़कर अपने स्वभाव में अहिंसा, परोपकार और क्षमता जैसे सद्गुणों को स्थान देना, त्याग नहीं, वरन् एक प्रकार का लाभ है। मैंने तो कोई त्याग नहीं किया है, वासनाओं से छुटकारा पाकर त्याग का लाभ ही प्राप्त किया है " इतना सुनकर जनता के प्रतिनिधिओं को और कुछ कहने का साहस नहीं हुआ और नतमस्तक होकर चले गए ।

यही वे लक्षण है, जो व्यक्ति को देवमानव-ऋषि पद से सुशोभित करते हैं । ऐसों के पद चिह्नों पर चलकर ही अन्य व्यक्ति श्रेष्ठता को प्राप्त होते हैं ।

शिक्षा हृदय के कपाट खोलने के लिए 

महात्मा हंसराज अपने विद्यार्थी जीवन को पूर्ण करके अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण हुए, तो उनके सामने कई अच्छी नौकरियों के प्रस्ताव थे। उनका परिवार किसी ऊँचे पद पर अपने बुद्धिमान लड़के को प्रतिष्ठित देखना चाहता था। हंसराज ने स्पष्ट कह दिया कि उनने जो विद्या पढी है, वह लोगों के हृदय कपाट खोलने के लिए पढी है, धन कमाने के लिए नहीं । उसी दिन से हंसराज जी को महात्मा कहा जाने लगा और उनने पंजाब भर में दौर करके डी०ए०वी० स्कूलों की स्थापना की। हरिद्वार के ज्वालापुर के ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम की स्थापना उन्हीं के द्वारा हुई, जो आज तक सैकड़ों धर्म प्रचारक निकाल सका है।

सबसे बडा काम

स्वराज्य आंदोलन के दिनों की बात है। राजकोट में काठियावाड़ राज्य प्रजा परिषद् का अधिवेशन हो रहा था। बापू अन्य नेताओं के साथ मंच पर बैठे थे । तभी उनकी दृष्टि दूरी पर बैठे एक वृद्ध पर पड़ी । वे गांधी जी को कुछ जाने-पहचाने से लगे। स्मरण शक्ति पर जरा जोर देने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि ये तो मेरे बचपन के अध्यापक है। बापू शीघ्र ही मंच से उतर कर उनके पास गए और प्रणाम करके उनके चरणों के समीप बैठ गए । गुरुजी से उनने परिवार की कुशल क्षेम पूछी । जब काफी समय हो गया, तो गुरुजी ने बापू से
कहा-"अब आप मंच पर पधारिए । नेतागण आपकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे ।" बापू बोले-" नहीं, नहीं मैं यहीं पर ठीक हूँ । अब मैं मंच पर नहीं जाना चाहता । यहीं बैठकर सारा कार्य देखूँगा । आप चिंता न कीजिए ।" सभा समाप्त होने पर वे चलने लगे, तो अध्यापक ने गद्गद् होकर आशीर्वाद दिया-"जो व्यक्ति तुम जैसा अहंकार रहित हो, महान कहलाने का अधिकारी वही हो सकता है ।"

मोहनदास करमचंद गांधी इन्हीं गुणों के कारण बापू, महात्मा, युग पुरुष कहलाए ।

उपवन नहीं, समाज कार्य क्षेत्र 

सुभाषचंद्र बोस बचपन में घर छोड़कर हिमालय चले गए। बहुत दिन कंदराओं में और साधु- बाबओं के पास भटकते रहे। इससे उन्हें तनिक भी संतोष न मिला। लौटकर घर वापस आए, तो उनने अपना अभिमत व्यक्त किया कि अब मैं स्वयं ही हिमालय बनूँगा। समाज को अपना कार्य क्षेत्र बनाऊँगा । उनने ऐसा जीवन जिया, जिसकी तुलना हिमालय से की जा सके।

संख्यावृद्धौरता ये तु सन्ततेरुचितं नहि ।
दायित्वं च विकासस्य तेषां ज्ञातुं क्षमा नरा: ॥७६॥
श्रुत्वा तेऽद्यतनं सारगर्भितं मङ्गलोदयम् ।
परामर्शं गता लज्जां पश्यन्तो दोषमात्मन:॥७७॥
मर्यादितां महत्तां तेऽविदु: प्रजनस्य ते ।
बालकान् प्रोन्नतान् कर्तुं निरचिन्वंश्च यत्नत:॥७८॥
वयस्केषु च बालेषु श्रुत्वा प्रवचन त्विदम् ।
शुभमद्यतनं तत्र शुभाशासोदगान्न वा ॥७९॥
महिलाश्चाऽपि बालानामुज्ज्वलस्य भविष्यत:। 
सुयोगमिव चाऽऽयातमन्वभूवन् समा अपि॥८०॥ 
भाराधिक्याश्च जीर्णत्वविपदो रक्षणादपि ।
सन्तोष: सुमहांस्तासामभूदानन्दितात्मनाम्॥८१॥
धौम्यप्रवचनं ताश्च वरदानमिव स्त्रिय: ।
दैवमेवाऽन्वभूवंश्च दिव्यं प्रज्ञायुगोद्भवम्॥८२॥
समापनस्य काले च विसर्जनरता: समे ।
प्रसन्ना बहुसन्तुष्टा निधिं प्राप्येव चाक्षयम्॥८३॥

भावार्थ- बालकों की संख्या बढ़ाने में उत्साही किंतु उनके समुचित विकास का उत्तरदायित्व न समझने वाले आज के सारगर्भित-मंगलमय परामर्श को सुनकर ललित हो रहे थे और अपनी मूल मान रहे थे। उनने मर्यादित प्रजनन की महत्ता समझी एवं घर के बालकों को समुन्नत बनाने में अधिक ध्यान देने और प्रयास करने का निश्चय किया। आज के प्रवचन से समझदार बच्चो में आशा की किरणें जगीं महिलाओं ने भी अपने बालकों का भविष्य उज्ज्वल बनाने के सुयोग का आगमन अनुभव किया । अधिक भार लदने से जीर्ण-शीर्ण होने की विपत्ति से बचने का भी उन्हें बड़ा सुख एवं संतोष मिल रहा था उन्हें धौम्य का प्रवचन देव-वरदान जैसा लगा । इसे उन्होंने प्रज्ञायुग की दिव्य देन समझा । आज के समापन समय पर विसर्जन कृत्य करते हुए विदा लेते हुए सभी लोग और भी अधिक प्रसन्न-संतुष्ट दृष्टिगोचर हो रहे थे मानो कोई अक्षयनिधि हाथ लग गई हो॥७६-८३॥

इति श्रीमत्प्रज्ञापुराणे ब्रह्मविद्याऽऽत्मविद्ययो:, युददर्शनसाधनाप्रकटीकरणयो:,
श्री धौम्य ऋषि प्रतिपादिते "शिशुनिर्माणमि", 
ति प्रकरणो नाम चतुर्थोऽध्याय:॥४॥
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