प्रज्ञा पुराण भाग-3

अथ पञ्चमोऽध्याय: वृद्धजन-माहात्म्य प्रकरणम्-2

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पक्वं फलं सदा शाखां विहायान्यस्य प्राणिन: ।
उपयोगाय संयाति तथैवाऽत्रापि चायुषि॥१६॥
युक्तं परिणते एव वानप्रस्थग्रहो नृणाम् ।
विद्यते शाश्वतीयं च भारतीय परम्परा ॥१७॥
पुण्यार्जनस्य कालोऽयं परस्मै जन्मने तथा ।
ऋणं सामाजिकं दातुं ग्रहीतुं श्रेय आत्मन:॥१८॥
लोकमङ्गलजं नूनं महत्वानुगतो ध्रुवम् ।
धौम्य: सम्बोधयामास नरान् परिणतायुष:॥१९॥
निष्क्रियत्वात्तथा तान् स सक्रियत्वस्य चाप्तये।
बोधयामास भूयश्च कथयामास यत्समे ॥२०॥
निराशां परिणतां कुर्युरुत्साहे कर्म यन्कृतम् ।
नाद्यावधि प्रकुर्वन्तु सोत्साहं विश्वमङ्गलम्॥२१॥
आधारेण च तेऽनेन मुक्ता भत्योर्भयात् समे ।
जीवन्मुक्तं मुदं यान्तु दृष्टिकोणं च दिव्यकम्॥२२॥

भावार्थ-पका हुआ फूल डाली छोड़कर अन्यों के काम आने के लिए चला जाता है इसी प्रकार ढलती आयु में वानप्रस्थ धर्म अपनाना ही उचित है यही भारतीय शाश्वत परंपरा भी है । यह समय अगले जनम के लिए पुण्यफल संचय करने, वर्तमान में समाज का ऋण चुकाने एवं लोकमंगल का श्रेय लेने की दृष्टि से अत्यंत महत्व का है। महर्षि धौम्य ने आज अधेड़ आयु वालों को विशेष रूप से संबोधित किया। उन्हें निरर्थकता में सार्थकता उत्पन्न करने का परामर्श दिया और कहा कि वे निराशा को उमंगों में बदलें और विश्वमंगल के लिए वह काम करें, जो अब तक कर नहीं पाए। इस आधार पर वे मृत्यु भय से छूटेंगे और स्वर्गीय दृष्टिकोण तथा जीवन्मुक्त स्तर का आनंद हाथो-हाथ उपलब्ध करेंगे॥१६-२२॥

व्याख्या-देव संस्कृति की विशेषता है, जीवनावधि का चार आश्रमों-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रमों में विभाजन। इनमें से दो व्यक्तिगत उत्कृर्ष के लिए और दो सामाजिक विकास के लिए निर्धारित हैं। सारी उम्र मनुष्य अपने लिए, परिवार के लिए मरता-खपता है उपार्जन-उपभोग में ही उसका
अधिकांश समय निकल जाता है। समाज के जिन अवयव-घटकों के सहारे उसने यह सुविधा भरा जीवन जिया, उनके लिए भी उसके कुछ कर्तव्य हैं । ढलती आयु में वानप्रस्थ धारण किया जाय और घर परिवार को आवश्यक मार्गदर्शन सहयोग देते हुए अधिकांश समय समाज सेवा में लगाया जाय। यही प्रेरणा
सद्गृहस्थों-वृद्धजनों को महर्षि धौम्य देते हैं।

जीवन का आधा भाग-उत्तरार्द्ध विशुद्ध रूप से लोकमंगल में नियोजित रखे जाने की शास्त्रीय मर्यादा है । इरा परंपरा के निर्वाह से अनेक प्रयोजन पूरे होते हैं। मोह-बंधन का परिवार वाला घेरा टूटता है एवं व्यक्ति विराट ब्रह्म का एक अंग बनकर लोकोपयोगी कार्यो में स्वयं को नियोजित करता है । इससे शेष बचा जीवन तो धन्य होता ही है, अगले जन्मों के लिए पुण्य की संपदा एकत्र हो जाती है । लोक सेवा में
लगा व्यक्ति जीते जी मुक्ति का आनंद इसी जीवन में उठा लेता है। उसके हृदय में विस्तृत विराट के प्रति प्रेम, वाणी में माधुर्य, व्यवहार में सरलता, नारी मात्र में मातृत्व की भावना, कर्म में कला और सौंदर्य की अभिव्यक्ति, सभी के प्रति उदारता और सेवा भावना, गुरुजनों का सम्मान, स्वाध्याय-सत्संग-अराधना में रुचि, शुचिता-श्रमशीलता जैसे सद्गुण अभ्यास द्वारा स्वभाव के अंग बन जाते हैं ।

वानप्रस्थ की शास्त्रोक्त परंपरा

मनुष्य को जीवन के उत्तरार्द्ध में घर का उत्तरदायोत्व प्रसन्नचित्त से अपने योग्य उत्तराधिकारी के कंधों पर डाल देना चाहिए और ममता के बंधनों को अनासक्त कर्तव्य में परिणत कर स्वयं स्वाध्याय, सत्संग, सेवा और आत्म चिंतन में संलग्न हो जाना चाहिए।

जीवनस्य चतुर्थाशं परमार्थे नियोजयेत् । वैराग्यं विषया कृत्वा लोभमोहौ परित्यजेत् ।

अर्थात जीवन का चतुर्थांश परमार्थ में व्यतीत करे । विषय से वैराग्य की ओर अग्रसर होकर लोभ और मोह को त्याग दे। मन से वासना, तृष्णा, दुर्भाव, द्वेष दूर कर अपनी साधना-उपासना में संलग्न होता हुआ, इंद्रियों का
नियंत्रण करे ।

सदाध्यात्मिकसम्पति: सञ्चयेल्लोकसेवया । समयस्य विशिष्टांशं शुभकार्ये नियोजयेत् ॥
विश्वं मत्वाऽऽत्मरूपं यत् शिक्षकवद् गृहाद्वहि:। जीवनस्यास्य साफल्यं वैराग्यो परितिष्ठति ॥

सदैव आध्यात्मिक संपत्ति को लोक सेवा से संचित करे । विश्व को आत्मस्वरूप मान कर शिक्षक की भाँति घर से बाहर समय का विशिष्टांश शुभ कार्य में लगावे, क्योंकि इस जीवन की सफलता नि:स्वार्थ भाव पर ही निर्भर है ।

संबंधियों के प्रति मोह अंत तक न छूटा

इसके लिए सबसे बड़ी वैतरिणी जो पार करनी पड़ती है, वह है मोह-माया की ।

देवर्षि नारद को परिभ्रमण काल में एक वयोवृद्ध धनवान मिला। पूजा बहुत करता था, भक्तजन लगता था । उसकी ढलती आयु को देखकर नारद बोले-"परिवार समर्थ हो गया, अब घर से निकल कर वानप्रस्थ लेना चाहिए और लोकसेवा में लगना चाहिए ।" बात धनवान के गले न उतरी। उसने कहा-"अभी तो परिवार को संपन्न बनाना है । फिर कभी समय होगा, तो चलेंगे। "बहुत वर्ष बाद नारद उधर से फिर निकले । धनी भक्त की याद आ गई। उसके घर पहुँचे, तो मालूम हुआ, वे कुछ समय पूर्व मर गए। नारद ने दिव्य दृष्टि से देखा, तो प्रतीत हुआ, वह मर कर बैल बन गया है और हल में चलता है । समीप जाकर नारद ने पूर्व जन्म की बात स्मरण दिलाई और कहा-"अभी भी समय है, हमारे साथ चलो । बैल को पूर्व जन्म स्मरण हो आया । फिर भीं उसने सिर हिलाया, परिवार को कमाई करके खिलाता हूँ। मेरे चल पड़ने से इन लोगों को कठिनाई पड़ेगी ।" नारद चले गए।

कई वर्ष बाद फिर आना हुआ । बैल का समाचार पूछने गए, तो ज्ञात हुआ कि वह भी मर चुका । अब वह कुत्ता बना बैठा था। उसी घर में । नारद बोले-"कुत्ते की स्थिति में पड़े रहने से क्या लाभ? चलो विश्व कल्याण का कुछ काम करें ।" कुत्ता समहत न हुआ । उसने कहा-"विश्व कल्याण से क्या? परिवार कल्याण ही बहुत है । मैं चल पडूँ तो चोरों की रखवाली कौन करेगा?" नारद चले गए फिर तीसरी बार उसी प्रकार लौटना हुआ और नारद जी ने इस बार भी पहले की तरह पूछताछ की । मालूम पड़ा कुत्ता मर गया । देखा तो वह साँप बना वहीं एक बिल में सिर चमका रहा था। नारद उसके समीप पहुँचे ।" ऐसी दुर्गति से क्या लाभ? अब तो इन लोगों की कोई सहायता भी नहीं बन पड़ती होगी । चलो न ।" सर्प ने असहमति सूचक सिर हिलाया और कहा-"घर में चूहे बहुत हैं । इन्हें निगलने और डराने का काम क्या कम है? परिवार का मोह कैसे छोडूँ?" नारद इस बार भी चले गए । एक दिन साँप बिल से निकला ही था कि घर वालों ने उसकी डंडे से खबर ली और सिर कुचल दिया। ऐसी दुर्गति न हो, इसलिए आत्मीय जनों केप्रति अनावश्यक अतिशय मोह छोड़कर स्वयं को सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन हेतु समाज रूपी रणक्षेत्र में उतर जाना चाहिए।

मनुष्य का आयु विभाजन

भगवान ने सर्वप्रथम बैल बनाया और उसे पचास वर्ष की आयु दी। बैल ने कहा-"जब इतना कठोर जीवन जीना पड़ेगा, तो इतने दिन जीकर क्या करूँगा? आधी उम्र कम कर दीजिए ।" भगवान ने आधी काट कर अपनी झोली में रख ली । दूसरा कुत्ता बनाया । उसकी आयु भी इतनी ही थी । इन्कार करने पर उसकी भी आधी काट ली गई । तीसरा मनुष्य बना । उसे भी पचास वर्ष जीना था, पर वह इतने में सतुष्ट नहीं था । उसने अधिक जीना चाहा, तो भगवान ने पच्चीस वर्ष बैल और पच्चीस वर्ष कुत्ते के भी उसे दे दिए। पचास वर्ष तक मनुष्य का अपना वैभव काम देता है । यदि शेष भगवान के अनुदान को वह किसी के काम में न लगाए, तो फिर उसे बैल और कुत्ते की तरह पशु-जीवन जीना पड़ता है ।

अंतिम समय में हुआ बोध 

बहुसंख्य व्यक्तियों को अंत तक बोध नहीं हो पाता कि क्यों वे इस धरती पर जन्मे व क्या उन्हें करना है? मखौल में ही वे जिंदगी काट देते है। एक साधु तीर्थयात्रा पर निकले। मार्ग व्यय के लिए किसी सेठ से कुछ माँगा, तो उसने कुछ दिया तो नहीं, पर अपना एक काम भी सौंप दिया । एक बड़ा दर्पण हाथ में थमाते हुए कहा-"प्रवास काल में जो सबसे बड़ा मूर्ख आपको मिले उसे दे देना।" संत बिना रुष्ट हुए उसका काम कर देने का वचन देकर दर्पण साथ ले गए। बहुत दिन बाद वापस लौटे, तो सेठ को बीमार पड़े पाया। संग्रहीत धन से वे न अपना इलाज करा पाए और न किसी सत्कर्म में लगा पाए । मरणासन्न स्थिति में संबंधी, कुटुंबी उनका धन-माल उठा-उठा कर ले जा रहे थे। सेठ जी को मृत्यु और लूट का दुहरा कष्ट हो रहा था । साधु ने सारी स्थिति समझी और दर्पण उन्हीं को वापस लौटा दिया । कहा-"आप ही इस बीच सबसे बड़े मूर्ख मिले, जिसने कमाया तो बहुत, पर सदुपयोग करने का विचार तक नहीं उठा ।"

काहिलों के लिए दुष्ट की उपमा

जीवन में बने रहकर जीना ही सार्थक है। वानप्रस्थ ले भी लिया एवं मन:स्थिति वैसी
ही रही तो क्या लाभ?

संसार के कुशल समाचार जानने के लिए एक दिन भगवान ने नारद को पृथ्वी पर भेजा। उन्हें सबसे पहले एक दीन-दरिद्र वृद्ध पुरुष मिला, जो अन्न-वस्त्र के लिए तरस रहा था। नारद जी को उसने पहचाना तो अपनी कष्ट-कथा रो-रोकर सुनाने लगा और कहा-"जब आप भगवान से मिलें, तो मेरे गुजारे का प्रबंध उनसे करा दें ।" नारद उदास मन से आगे बढ़े, तो एक धनी से उनकी भेंट हो गई। उसने भी नारद जी को पहचाना, तो उसने खिन्न होकर कहा-"मुझे भगवान ने किस जंजाल में फँसा दिया । थोड़ा मिलता, तो मैं शांति से रहता और कुछ भजन-पूजन कर पाता, पर इतनी दौलत तो संभाले नहीं सँभलती, ईश्वर से मेरी प्रार्थना करें कि इस जंजाल को घटा दें ।" यह विषमता देवर्षि को अखरी। वे आगे चल ही रहे थे कि साधुओं की एक जमात से भेंट हो गई। जमात वाले उन्हें चारों ओर से घेर कर खड़े हो गए और बोले-"स्वर्ग में तुम अकेले ही मौज करते रहते हो । हम सबके लिए भी वैसे ही राजसी ठाठ जुटाओ, नहीं तो नारद बाबा। चिमटे मार-मार कर तुम्हारा भूसा बना देंगे। घबराए नारद ने उनकी माँगी वस्तुएं मँगा दी और जान छुड़ाकर भगवान के पास वापस लौट गए। जो कुछ देखा वही उनके लिए बहुत था और देखने की उन्हें इच्छा ही न रही ।

भगवान ने नारद से उस यात्रा का वृतांत पूछा, तो देवर्षि ने तीनों घटनाएँ कह सुनाई। नारायण' हँसे और बोले-"देवर्षि, मैं कर्म के अनुसार ही किसी को कुछ दे सकने में विवश हूँ। जिसकी कर्मठता समाप्त हो चुकी, उसे मैं कहा से दूँ। तुम अगली बार जाओ, तो उस दीन-हीन वृद्ध से कहना-दरिद्रता के विरुद्ध लड़े और सुविधा के साधन जुटाने का प्रयत्न करे, तभी उसे दैवी सहायता मिल सकेगी। इसी प्रकार उस धनी से कहना-यह दौलत उसे दूसरों की सहायता के लिए दी गई है। यदि वह संग्रही बना रहा, तो जंजाल ही नहीं, आगे चलकर वह विपत्ति भी बन जाएगी ।" नारद जी ने पूछा-"और उस साधु मंडली से क्या कहूँ?" भगवान के नेत्र चढ़ गए और बोले-"उन दुष्टों से कहना कि त्यागी और परमार्थी का वेष बनाकर आलस्य और स्वार्थपरता की प्रवंचना इतनी असह्य है कि उन्हें नरक के निकृष्टतम स्थान में अनंत काल तक सड़ना पड़ेगा ।"

लोकमंगल का कार्य वानप्रस्थ लेकर भीस को करना चाहिए ।

कब फलेगा, मुझे इससे क्या?

एक न्यायप्रिय राजा साधु वेश में अपनी प्रजा की खैर-खबर लेने निकला । जब कभी वह जनता के दु:ख-दर्द को सुनने निकलता, तो किसी अंगरक्षक या मंत्री को साथ में नहीं लेता था और न राज्य के अधिकारियों को किसी प्रकार की सूचना देता। कितने ही व्यक्तियों से संपर्क करते हुए वह एक बगीचे में पहुँचा । वहाँ एक वृद्ध माली नया पौधा लगा रहा था। उसे देखकर राजा ने पूछा-"यह तो अखरोट जैसा पौधा मालूम पड़ता है ।" "हाँ । हाँ । भैया, तुम्हारा अनुमान ठीक है ।" माली का उत्तर था ।" अखरोट तो बीस-बाईस वर्षो में फलता है, तब तक क्या इस पौधे के फल खाने के लिए बैठे रहोगे ।" "बात यह है कि हमारे बाप-दादा ने इस बगीचे को लगाया था। खून-पसीना एक करके इसको सींचा, देखभाल की और फल हम लोगों ने खाए । अब हमारा भी तो यह कर्तव्य है कि कुछ वृक्ष दूसरों के लिए लगा दें। अपने खाने के लिए पेड़ लगाना तो स्वार्थ की बात होगी । मैं यह नहीं सोच रहा हूँ कि आज इस पौधे की क्या उपयोगिता है? यह भविष्य में दूसरों को फल प्रदान करे, बस यही इच्छा है। "वृद्ध माली की बात सुनकर राजा मंत्री से बोला-"यह सभी वृद्धजन यही सोचें कि हमें बोने से मतलब है, भले ही उस फसल का लाभ आने वाली पीढ़ी ले, तो सारे समाज में सत्प्रवृत्तियों का विस्तार होने लगेगा ।"

रिटायर होकर क्या करुँ?

कुछ ऐसे भी होते हैं, जिनके लिए जीवन सतत जीवंत है । विश्राम करने या पड़ाव पर ठहरने का क्या काम? कांग्रेस नेता और न्यायाधीश म० गो० रानाडे के चाचा विट्ठल दास तब किसी दफ्तर में छोटी नैकरी करते थे । रिटायर होने का समय आया, तो उन्हें पेंशन के कागज मिले। गैर हाजिर रहने की उनकी आदत न थी। श्रम से जी चुराते न थे। शरीर भी स्वस्थ था । मुफ्त की पेंशन लेना उन्हें बुरा लगा। दफ्तर के बड़े साहब के पास गए और बोले-"जो पेंशन मिलेगी उसी में काम चला लूँगा, पर काम यहीं करता रहूँगा। नया काम ढूँढ़ना मेरे लिए कठिन पड़ेगा। आप जो भी काम लेना चाहें, लेते रहें, पर छुट्टी न करें ।" अफसर चकित रह गए और उन्हें आजीवन उसी दफ्तर में काम करने की छूट दे दी ।

वयोवृद्ध योद्धा-चर्चिल 

इंग्लैंड के प्रधानमंत्रियों में चर्चिल का नाम आत्मविश्वास और सूझबूझ के प्रतिनिधियों के रूप में लिया जाता है । उन दिनों जर्मनी इंग्लैंड को हर दृष्टि से बर्बाद करने पर तुला था। तत्कालीन प्रधानमंत्री चेंबर लेन हद दर्जे तक झुक जाने पर भी की दोस्ती प्राप्त न कर सके । तब साहसी और सूझबूझ वाले व्यक्ति को सत्ता सौंपने की बात सामने आई। इस दृष्टि में चर्चिल को उपयुक्त पाया गया और उन्हें आग्रेहपूर्वक सत्ता सँभालने के लिए बुलाया गया। वे शारीरिक दृष्टि से वयोवृद्ध हो चुके थे, पर मनोबल में रत्तीभर भी कमी न हुई थी। उन्हें राजनैतिक दाँव-पेंचों का अनुभव था ।

पहले युद्ध में भी उनका जौहर देखा जा चुका था । इस बार भी सत्ता हाथ में लेते ही उनने जनता का पूरी तरह साथ दिया और संभावित विपत्तियों में किसे क्या करना है, इसे योजनाबद्ध रूप से समझाया । छाई हुई घबराहट को हिम्मत और संघर्ष की मन स्थिति में बदल दिया। चर्चिल का भारत के प्रति रुख कठोर था, तो भी वे अपने साहस और व्यक्तित्व के बल पर अपने देश की आड़े समय में भारी सेवा कर सके ।

वृद्धावस्था का एकांतवास

श्री वासुदेव शरण अग्रवाल भारत के कुछ चुने हुए विद्वानों में से थे। युवावस्था में वे सामजिक और हँसमुख थे, पर जब उनका आयुष्य समाप्त होने को आया, तो उनने लोगों से मिलना बंद कर दिया और लेखन कार्य में जुट गए । उनका कहना था, जो कार्य करना है, वह बहुत है, उसे एकाग्रता और एकांत परायणता से ही पूरा कर सकता हूँ । उनके स्वभाव में विचित्र परिवर्तन आने का कारण उनका उच्चस्तरीय उद्देश्य ही था, सामर्थ्य की कमी नहीं ।

अंधे वृद्ध का कौशल

न्यूयार्क में एक अंधा व्यक्ति था, फ्रांसिस ए० वरडेट । किसी काम न आने और आए दिन चें-चें करने से तंग आकर घर वालों ने उसे धक्के मार कर निकाल दिया। ६३ वर्षीय बुड़्ढे की आँखें खुली । उसने घर वालों को दोष देने की अपेक्षा अपने स्वभाव और कौशल को निखारने का निंश्चय किया । इस प्रयास के लिए वह एक संबंधी के पास न्यूजीलैंड चला गया। संबंधी मकान बनाने की फिक्र में था । यह कार्य अंधे ने अपने जिम्मे ले लिया । सूझबूझ, अनुभव और पूछताछ का सहारा लेकर उसने पूरी कल्पना शक्ति और समझदारी से उस कार्य की जिम्मेदारी उठाई । स्वयं काम में जुटता और श्रमिकों को साथ लगाए रहता ।

संबंधी को उसने पूरी तरह निश्चिंत कर दिया । किसी इंजीनियर आदि की सहायता भी नहीं लेनी पड़ी । ढाई वर्ष बाद वह तिमंजिली इमारत बन कर तैयार हो गई। अंधे की तत्परता सर्वत्र प्रख्यात हो गई। सरकार ने पौरुष युक्त चमत्कार का सार्वजनिक प्रदर्शन करने की दृष्टि से वह इमारत खरीद ली और उसे शानदार पुस्तकालय बना दिया । न्यूजीलैंड जाने वाले 'पोस्टनटर्न पाइके वेने' के नाम से प्रख्यात इस छोटी इमारत को देखने अवश्य पहुँचते हैं और अंधे के कौशल से प्रेरणा लेकर वापस लौटते है।

स्कंददुप्त की विजय एवं कुमारगुप्त का वानप्रस्थ

हूण, शक, यवन, पल्लव आदि जातियों के भरत पर निरंतर आक्रमण हो रहे है और भारत छिन्न-भिन्न हुआ जाता था। भारतीय राजा सूझबूझ के अभाव में समुचित प्रतिरोध न कर पा रहें थे। पाटिलपुत्र के सम्राट् कुमारगुप्त थे । उनकी आयु उतार पर थी। उनने दायित्व अपने बेटे पर सौंपा, ताकि उसकी परीक्षा भी ली जा सके एवं उत्तराधिकारी का समाधान होने पर वे निवृत्ति ले सकें । उनका पुत्र स्कंदगुप्त आयु में कम होते हुए भी अतिशय साहसी था। उसने सेना लेकर आक्रमणकारियों को खदेड़ने का निश्चय किया। साहस और सूझबूझ से युद्ध कर भारत के सभी विजित क्षेत्रों को मुक्त करा लिया और आक्रमणकारियों को दुबारा सिर उठाने योग्य न रहने दिया। विजयी स्कंदगुप्त का सर्वत्र बहुत स्वागत हुआ । पिता ने राजकाज उसके जिम्मे सौंप दिया और स्वयं वानप्रस्थी बनकर परमार्थ प्रयोजनों में लग गए । आजीवन वे भ्रमण करते रहे एवं वृहत्तर भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता के विचारों को व्यापक बनाने में लगे रहे ।

गोखले की वसीयत

महात्मा गांधी ने गोखले की वसीयत के बारे में बताते हुए 'हरिजन' में लिखा था । जब वह मृत्यु शैया पर पड़े थे, तब उन्होंने अपने उद्देश्यों को साफ प्रकट कर दिया था। उन्होंने कहा था कि उनके मरने के बाद यदि किसी प्रकार उनकी जीवनी लिखने की चेष्टा की गई, यादगार में इमारत खड़ी की गई अथवा शोक सभाएँ मनाई गईं, तो उनकी आत्मा को शांति नहीं पहुँचेगी । उनकी इच्छा केवल इतनी ही थी कि जिस सच्चाई और ईमानदारी से उन्होंने अपना जीवन बिताया, देशवासी उसका ही अनुसरण करें और 'सर्वेंट आफ इंडिया सोसाइटी', जिसकी उन्होंने स्थापना की थी, अपने उद्देश्यों में सफलता प्राप्त करती रहे और निरंतर देश की
सेवा करती रहे ।
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