प्रज्ञा पुराण भाग-3

अथ षष्ठोऽध्याय: सुसंस्कारिता-संवर्धन प्रकरणम्-2

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वातावृतिस्तथाऽऽस्तिक्यभावनाया भवेदपि ।
परिवारेषु सर्वेषु तथैवाऽऽराधना प्रभो:॥१८॥
उपासना च संयुक्ता भवेच्च नित्यकर्मणि।
निश्चेतव्योऽपि कालश्च कथाकीर्तनयो: कृते॥१९॥
वाधा वक्तुंनिजा: सर्वा अन्येषां च परिस्थिती:।
ज्ञातुं च समय: सवै: लभ्येतेति विचिन्त्यताम्॥।२०॥
आदानं च प्रदानं च विचाराणां हि दैनिकम् ।
यत्र स्वान्न भवेत्तत्र मनोमालिन्यमण्वपि॥२१॥ 
प्रायस्ते कलहा भ्रान्ते: कारणादुद्भवन्त्यत:।
अनिष्टमेतदुत्पन्नमात्रं सवैंर्निवार्यताम्॥२२॥
न वर्द्धन्ते ततस्ते च गोष्ठ्यस्तस्मान्तरै: समै:।
प्रतिसप्ताहमेवात्र कर्त्तव्या हितकारिणी ॥२३॥
स्वाध्यायार्थं गृहस्यैव पुस्तकालय एव तु।
भवेद् येन सुसाहित्यं जीवनस्योपयोगि तत्॥२४॥
प्रत्येकेन सदस्येन लब्धुं शक्येत वाऽञ्जसा ।
उपासनागृहास्तत्र पुस्तकालय एव च॥२५॥
प्रत्येकस्य गृहस्थस्य कृते त्वावश्यकं मतम् ।
गृहेषु येषु नैतानि दुर्भाग्येन युतास्तु ते॥२६॥

भावार्थ-हर परिवार में आस्तिकता का वातावरण रहे। उपासना-आराधना को नित्यकर्म में सम्मिलित, रखा जाय । कथा-कीर्तन पारिवारिक गोष्ठियों के लिए कोई नियत समय रहे। सभी को अपनी अड़चनें कहने और दूसरों की परिस्थितियों को समझने का अवसर मिले। जहाँ विचार-विनिमय चलता रहता है वहाँ मनोमालिन्य नहीं पनपता। भ्रांतियों के कारण ही अधिकांश कलह-विग्रह खड़े होते हैं ऐसी अवाछनीयताओं को पनपते ही रोका-टोका जाय तो वे बढ़ने नहीं पातीं। इस प्रयोजन के लिए सप्ताह में एक बार विचार गोष्ठियों का क्रम चलता रहे। स्वाध्याय के लिए घरेलू पुस्तकालय रहे जिससे जीवनोपयोगी साहित्य हर सदस्य को पढ़ने या सुनने के लिए उपलब्ध हो सके। उपासना गृह और पुस्तक मंदिर प्रत्येक सद्गृहस्थ की महती आवश्यकताएँ हैं। जिस घर में ये न हो उसे दुर्भाग्यग्रस्त ही कहा जाएगा॥१८-२६॥

व्याख्या-सत्प्रवृत्तियों को स्थान मिले, इसके लिए अनिवार्य है कि ऐसा वातावरण पारिवारिक परिसर में बनाया जाय कि अधोगामी प्रवृत्तियाँ अपने पैर ही न जमा सकें। देव संस्कृति की कुछ अभूतपूर्व देन उपने देश भारत वर्ष को मिली हैं, जिन्हें अमूल्य थाती समझा जा सकता है। कथा-प्रसंग, उपासना एवं जीवन साधना, स्वाध्याय शीलता एवं पारिवारिक विचार विनिमय द्वारा अपनी गुत्थियों एवं भ्रांतियों का निवारण-ये कुछ ऐसे अवलंबन हैं, जिनकी आवश्यकता किसी न किसी रूप में हर परिवार को, परिवार के हर सदस्य को है । सुसंस्कारिता उपार्जन हेतु इन्हें वरीयता दी जानी चाहिए । आज के आधुनिकता प्रधान युग में तो इनकी महत्ता और भी अधिक बढ़ गई है।

परिवार संस्था में विभिन्न आयु एवं चिंतन के सदस्य होते हैं। उनके सोचने की शैली अलग-अलग हो सकती है, किन्तु इससे अनावश्यक वाद-विवाद अथवा विग्रह न खड़ा हो, इसके लिए पारिवारिक गोष्ठियों का, सप्ताह में किसी दिन, किसी समय, सुविधानुसार आयोजन होता रहे, ताकि सबको खुलकर कहने का अवसर मिल सके। इसरो एक-दूसरे के प्रति किसी प्रकार की दुर्भावना विकसित होने जैसा विषवृदा पनपने नहीं पाएगा ।

स्वाध्याय में प्रमाद न बरता जाय, यह शास्त्र वचन है। नित्य प्रति के कुसंस्कार, जो प्रभाव हमारे चिंतन पर डालते हैं उन्हें श्रेष्ठ पुस्तकों, विचारों के साहचर्य से मिटाकर सोचने की शैली परिमार्जित की जा सकती है। साथ ही इसमें ज्ञानवृद्धि का सुयोग तो है ही। कषाय-कल्मषों के परिशोधन हेतु ऐसी ही उपयोगिता उपासना रुह की भी है। चाहे व्यक्ति किसी भी धर्म-संप्रदाय का हो, साकार अथवा निराकार उपासना को मानने वाला हो, वह पारिवारिक जनों में आस्तिकता के बीजांकुर रोपने हेतु उपासना स्थलों की सहायता लेता रह सकता है।

सुसंस्कारों की जननी-आस्तिकता

आस्तिकता शुभ संस्कारों कीं जननी है। घर के हर सदस्य को आस्तिक बनाने के लिए परिवार का वातावरण धार्मिक बनाए रखा जाए। इसके लिए नित्य ही प्रात: अथवा सायंकाल सामूहिक प्रार्थना का कार्यक्रम चलाया जाये । चटसार के समय ही नित्यप्रति गीता, रामायण, भागवत अथवा किसी अन्य धर्मग्रंथ का वाचन-श्रवण होना चाहिए और पर्वोत्सवों के अतिरिक्त साप्ताहिक अथवा भजन, कीर्तन की व्यवस्था की जानी चाहिए। इस प्रकार घर का वातावरण धार्मिक बनाए रहने से सदस्यों के चरित्र में दुर्गुणों के समावेश की संभावनाएँ बड़ी सीमा तक निकल ही जाएगी।

इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हमें सद्गुणों की जननी आस्तिकता को धैर्य और विवेकपूर्ण अपनाने का
प्रयत करना चाहिए । ईश्वर का भय मनुष्य को नेक रास्ते पर चलाते रहने में सबसे बड़ा नियंत्रण है । राजकीय कानून या सामाजिक दंड की दुस्साहसी लोग उपेक्षा करते रहते हैं। अपराधों और अपराधियों का बाहुल्य पुलिस और जेल का भय भी इन्हें कम नहीं कर पाता । पर यदि किसी को ईश्वर पर पक्का विश्वास हो, अपने चारों ओर प्रत्येक प्राणी में, कण-कण में ईश्वर को समाया हुआ देखे, तो उसके लिए किसी के साथ अनुचित व्यवहार कर सकना संभव नहीं हो सकता । कर्मफल की ईश्वरीय अविचल व्यवस्था पर जिसे आस्था होगी, वह अपना भविष्य अंधकारमय बनाने के लिए कुमार्ग पर बढने का साहस कैसे कर सकेगा? दूसरों को ठगने या परेशान करने का अर्थ है, ईश्वर को ठगना या परेशान करना। ऐसी भूल उससे नहीं हो सकती, जिसके मन में ईश्वर का विश्वास, भय और कर्मफल की अनिवार्यता का निश्चय गहराई तक जमा हुआ है ।

अतं: प्रत्येक विचारशील व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अपने जीवन को सार्थक एवं भविष्य को उज्ज्वल
बनाने की आधारशिला-आस्तिकता को जीवन में प्रमुख स्थान देने का प्रयत्न करें । ईश्वर को अपना साथी, सहचर मानकर हर घड़ी निर्भय रहे और सन्मार्ग से ईश्वर की कृपा एवं कुमार्ग से ईश्वर की सजा प्राप्त होने के अविचल सिद्धांत को हृदयंगम करता हुआ अपने विचारों और आचरणों को सज्जनोचित बनाने का प्रयत्न करता रहे। इसी प्रकार जिसे अपने परिवार में, स्त्री-बच्चों से सच्चा प्रेम हो, उसे भी यही प्रयत्न करना चाहिए कि घर के प्रत्येक सदस्य के जीवन में किसी न किसी प्रकार आस्तिकता का प्रवेश हो। परिवार का बच्चा-बच्चा ईश्वर विश्वासी- आत्मविश्वासी बने ।

पाप व पुण्य की व्याख्या

उपासना का अर्थ मात्र देवालय बना देना नहीं है । वैसा जीवन भी जीना होता है, तभी वह सफल है

चित्रगुप्त अपनी पोथी के पृष्ठों को उलट रहे थे । यमदूतों द्वारा आज दो व्यक्तियों को उनके सम्मुख पेश किया गया था । यमदूतों ने प्रथम व्यक्ति का परिचय कराते हुए कहा-"यह नगर सेठ हैं । धन की कोई कमी इनके यहाँ नहीं । खूब पैसा कमाया है और समाज हित के लिए धर्मशाला, मंदिर, कुँआ और विद्यालय जैसे अनेक निर्माण कार्यों में उसका व्यय किया है।" अब दूसरे व्यक्ति की बारी थी । उसे यमदूत ने आगे बढ़ाते हुए कहा-"यह व्यक्ति बहुत गरीब है । दो समय का भोजन जुटाना भी इसके लिए मुश्किल है । एक दिन जब ये भोजन कर रहे थे, एक भूखा कुत्ता इनके पास आया । इन्होंने स्वयं भोजन न कर सारी रोटियाँ कुत्ते को दे दीं । स्वयं भूखे रहकर दूसरे की क्षुधा शांत की । अब आप ही बतलाइए कि इन दोनों के लिए क्या आज्ञा है?" चित्रगुप्त काफी देर तक पोथी के पृष्ठों पर आँखें गड़ाए रहे। उन्होंने बड़ी गंभीरता के साथ कहा-"धनी व्यक्ति को नरक में और निर्धन व्यक्ति को स्वर्ग में भेजा जाय ।"

चित्रगुप्त के इस निर्णय को सुनकर यमराज और दोनों आगंतुक भी आश्चर्य में पड़ गए । चित्रगुप्त ने स्पष्टीकरण देते हुए कहा-"धनी व्यक्ति ने निर्धनों और असहायों का बुरी तरह शोषण किया है । उनकी विवशताओं का दुरुपयोग किया है और उस पैसे से ऐश और आराम का जीवन व्यतीत किया । यदि बचे हुए धन का एक अंश लोकेषणा की पूर्ति हेतु व्यय कर भी दिया, तो उसमें लोकहित का कौन सा कार्य हुआ? निर्माण कार्यों के पीछे यह भावना कार्य कर रही थी कि लोग मेरी प्रशंसा करें, मेरा यश गाएँ । गरीब ने पसीना बहाकर जो कमाई की, उस रोटी को भी समय आने पर भूखे कुत्ते के लिए छोड़ दिया । यह साधन-संपन्न होता, तो न जाने अभावग्रस्त लोगों की कितनी सहायता करता? पाप और पुण्य का संबंध मानवीय भावनाओं से है, क्रियाओं से नहीं । अत: मेरे द्वारा पूर्व में दिया गया निर्णय ही अंतिम है ।" सबके मन का समाधान हो चुका था ।

सबसे बडा दान

अज्ञान का निवारण ही सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ है । वह स्वाध्याय से, ज्ञानार्जन से ही संभव है। उत्तराखंड के एक प्राचीन नगर में सुबोध नामक राजा राज्य करते थे। महाराज का नियम था-राजकीय कार्य प्रारंभ होने से पूर्व वे आए हुए याचकों को दान दिया करते थे । इस नियम में उन्होंने कभी भूल नहीं की । एक दिन जब सब लोग दान पा चुके, तो एक विचित्र स्थिति आ खड़ी हुई । एक व्यक्ति ऐसा आया जो दान के लिए हाथ तो फैलाए था, पर मुँह से कुछ न कहता था। सब हैरान हुए इसे क्या दिया जाय? एतदर्थ बुद्धिमान व्यक्तियों का सलाहकारी बोर्ड बैठाया गया । किसी ने कहा वस्त्र देना चाहिए, किसी ने अन्न की सिफारिश की । कोई स्वर्ण देने को कहता, तो कोई आभूषण । समस्या का यथार्थ हल न निकला । सुबोध की कन्या उपवर्गा भी वहाँ उपस्थित थी, उसने कहा-"राजन्, जो व्यक्ति न बोल सकता है, न व्यक्त कर सकता है, उसके लिए द्रव्याभूषण सब व्यर्थ है। ऐसे लोगों के लिए सर्वश्रेष्ठ दान तो ज्ञानदान ही है । ज्ञान से मनुष्य अपनी संपूर्ण इच्छाएँ, आकांक्षाएँ आप पूर्ण कर सकता है और दूसरों को भी सहारा दे सकता है । इसलिए इन्हें ज्ञान दान दीजिए ।" उपवर्गा की बात सबने पसंद की । व्यक्ति के लिए शिक्षा की व्यवस्था की गई । राजा ने उस दिन अपने दान की सार्थकता समझी । यही व्यक्ति आगे चलकर उसी नगरी का विद्वान मंत्री नियुक्त हुआ ।

स्वाध्याय किसलिए?

"मृत्यु निश्चित ही है, तब आप दिन-रात स्वाध्याय में सिर क्यों खपाते हैं?"-एक व्यक्ति ने संत इमर्सन से प्रश्न किया।

"इसलिए कि ज्ञान में घुल जाना ही अमरत्व है ।"-संत इमर्सन ने संक्षिप्त उत्तर दिया और विचारों के सागर में लीन हो गए ।

प्रतिकूलताओं की परिस्थितियों को चीरते हुए मनुष्य अपने आत्मविश्वास और पराक्रम के बलबूते किस प्रकार समुन्नत बन सकता है, इसका जीवंत उदाहरण अमृतलाल जी का है । न केवल वे स्वयं बने, वरन् इसी आधार पर अपने परिवार को भी विकसित किया । घर में वे बहुत थोड़ा पढ़ पाए थे । कलकत्ता में कुछ व्यवसाय ढूँढने की दृष्टि से गए, तो वहाँ कोई और धंधा न मिलने पर शाक-भाजी बेचने लगे । जोड़-तोड़ मिलते रहे, तो एक वकील के यहाँ घरेलू काम मिला । वहाँ पढ़ने का अवकाश मिल जाता था । इंटर पास किया । उनकी रुचि साहित्य सृजन की ओर लौट गई । लेखनी परिमार्जित हुई, तो संपादक स्तर के काम मिलने लगे ।

उनने अनेक पत्र-पत्रिकाओं में काम किया और अनेक को जमाया-चलाया। हिन्दुस्तान, भारत मित्र, हिन्दी
बंगवासी, वेंकटेश्वर समाचार, कलकत्ता समाचार, निगमागम चंद्रिका, फारवर्ड, सनातन धर्म आदि पत्रों के वे प्राण बनकर रहे । हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति भी रहे। जन जागरण उनका लक्ष्य था । पत्रों के माध्यम से आजीवन वे उसी प्रयास में निरत रहे। उन्होंने छोटी-छोटी पुस्तकें, परिवारों में सुरुचिपूर्ण साहित्य के प्रति अभिरुचि जगाने के लिए लिखी थीं, जो काफी लोकप्रिय हुईं ।

इब्नेसिना, जिनकी जिज्ञासा सदा प्रदीप्त रही 

अब से एक हजार वर्ष पूर्व बुखारा के सुलतान अब्दुल मंजूर किसी ऐसी बीमारी से ग्रसित हो गए, जिसे चिकित्सकों ने असाध्य घोषित कर दिया था । सुयोग्य चिकित्सक के पुत्र इब्नेसिना ने उनका इलाज किया और अच्छा कर दिया। सुलतान ने मुँह माँगा इनाम माँगने के लिए कहा, तो उनने उनके पुस्तकालय में खुला प्रवेश पाने और नोट करने भर की इजाजत माँग ली । उनका ज्ञान भंडार अथाह होता चला गया । पिता के मरने पर उन्हें परिवार निर्वाह के लिए वापस लौटना पड़ा । सुलतान ने उन्हें स्कूलों का इंस्पेक्टर बना दिया। उन्होंने जुरआन के राजकुमार का भी इलाज किया और परिवार के गुजारे के लायक पेंशन पाई । वे निश्चित होकर दूर-दूर तक के पुस्तकालयों में प्रवेश पाकर अध्ययन करते रहे । इब्नेसिना ने तिब्बी चिकित्सा और दर्शन शास्त्र पर अनेक ग्रंथ लिखे हैं, जिन्हें विद्वानों में मान्यता प्राप्त है । उनकी कुछ दिन पूर्व ही हजारवीं जयंती मनाई गई ।

सदुपयोग हो दुरुपयोग नहीं

परस्पर विचार-विनिमय भी सोद्देश्य होना चाहिए । यदि उसमें दुराग्रह आ जाए, तो समयक्षेप तो होता ही है, मनमुटाव भी होता है ।  एक तार्किक रामकृष्ण परमहंस से तर्कों की झड़ी लगा रहे थे जब वे थक गए, तो परमहंस कहने लगे-"इतने समय का उपयोग कुछ उपयोगी काम करने में करो ।" झाडू कम जानकार होती है, पर उपयोग में लाए जाने पर दूसरों के कचरे बुहार देती है । परिवारों में भी आपस में चर्चा प्रसंग गोष्ठियों के रूप में चले, पर प्रसंगों की सीमा हो, वे उद्देश्य से जुड़े हों एवं अनावश्यक तर्कों द्वारा उसे शास्त्रार्थ का रूप न दिया जाय । सभी खुलकर विचार करे।

घर का मामला

स्व० श्री रफी अहमद किदवई के एक मित्र की पुत्री का विवाह था। उनसे श्री किदवई का राजनैतिक विरोध था । बोल-चाल तक न थी। यहाँ तक कि उन्होंने किदवई साहब को विवाह में आमंत्रित तक न किया। किन्तु वे स्वयं ही वहाँ पहुँचे और कन्या को आशीर्वाद दे दिया। उन सज्जन ने जब रफी साहब को वहाँ देखा, तो पश्चात्ताप, आत्मग्लानि तथा स्नेह का ऐसा स्त्रोत्र उमड़ा, कि वे रफी साहब के गले से लिपट गए और क्षमा याचना की । रफी साहब विनम्र स्वर में इतना ही बोले-"हमारा राजनैतिक मतभेद हो सकता है। किन्तु यह तो घर का मामला है। आपकी बेटी मेरी बेटी है।" इस घटना से आपस का वह मनमुटाव भी समाप्त हो गया ।

प्रस्तुतीकरण की शैली

परस्पर चर्चा में क्या कहा जा रही है, यह नहीं अपितु विषय किस तरह प्रस्तुत किया जा रहा है, इस पर उसकी सफलता निर्भर है ।

अमेरिका में वैज्ञानिकों की एक परामर्श सभा (कान्फ्रैंस) हुई । कृषि वैज्ञानिक जार्ज कार्वर भी उसमें सम्मिलित हुए। सामान्य समय निर्धारण में उन्हें १० मिनट में बात कहने का निर्देश दिया गया था । जार्ज कार्वर ने अपनी उपलब्धियों का विवरण देना शुरू किया । विषय की प्रामाणिकता तथा प्रस्तुत करने की पद्धति दोनों इतने सशक्त थे कि आयोजक समय का बंधन लगाना भूल गए और लोग अवाक् होकर सुनते रह गए । लगातार तीन घंटे अपने विषय का प्रतिपादन करने के बाद जब जार्ज कार्वर रुके, तब लोगों को समय का भान हुआ।

जब विषय सरस हो, लोकोपयोगी हो, तो वार्ता सार्थक होती है, उसमें भाग लेने वालों को आनंद भी आता है ।

यथा शरीरवस्त्रोपकरणानामथाऽपि च।
पात्राणां भवनादेश्च स्वच्छता दैनिकी मता॥२७॥
सदस्यानां कुटुम्बस्य हृदयेषु चराण्यपि।
मालिन्यादीनि नित्यं हि विनाश्यानि शुभे क्षणे॥२८॥
तेषां स्थाने सुसंस्कारान स्थापयेदीदृशांस्तु ये।
व्यवहारेषु प्रत्यक्षं दृश्यन्ते क्वचिदेव तु॥२९॥
कर्हिचित्तु परं पृष्ठेष्वितिहासस्य वा पुन:।
पुराणस्य च विद्यन्ते गाथा: स्वर्णाक्षराङ्किता:॥३०॥

भावार्थ- जिस प्रकार शरीर, वस्त्र, बर्तन, उपकरण, मकान, फर्श आदि की नित्य सफाई की जाती है। उसी प्रकार परिवार के सदस्यों के मनों पर जमने वाले नित्य के छाए गुबार की दैनिक सफाई ठीक समय पर
होनी चाहिए। उसके स्थान पर ऐसे सुसंस्कार बोए जाने चाहिए जो प्रचलन में प्रत्यक्ष तो कभी-कभी कहीं-कहीं ही दीखते हैं कित इतिहास-पुराणों के पृष्ठ उनकी कथा-गाथाओं के स्वुर्णाक्षरों से भरे पड़े हैं॥२७-३०॥

व्याख्या-अंतःकरण की निर्मलता ही व्यक्ति को ऊँचा उठाती है। बाहर से कोई कैसा भी दीखे इससे क्या, मन साफ होना चाहिए। वातावरण के प्रभाव से कुसंरकार अपनी प्रतिक्रिया निश्चित ही दिखाते हैं । इनकी नित्य प्रतिदिन सफाई होनी चाहिए एवं पवित्र-श्रेष्ठ संस्कारों का बीजारोपण हो, इसके लिए परोक्ष रूप से प्रेरणाप्रद उदाहरणों को सामने रख उनसे शिक्षा ली जानी चाहिए। इसके लिए स्वयं को परिष्कृत करना पड़ता है। गलने के लिए सतत तत्पर रहना होता है।

पहले गलो, फिर ढलोगे

मिट्टी ने कुम्हार से कहा-"मुझे ऐसा पात्र बना दीजिए, जो अपने में शीतल जल भर कर प्रियतम के होठों से लग सके ।" कुम्हार ने कहा-"यह तभी संभव है जब तुम फावड़े से खुदने, गधे पर चढ़ने, डंडे से पिटने, पैरों से रौंदी जाने, आग में तंपने का साहस जुटा सको । इससे कम में किसी की महान आकांक्षाएँ पूरी हुई नहीं है।"

बहिरंग मत देखो

किसी का मूल्यांकन बहिरंग रूप से नहीं, उसकी संस्कार निधि द्वारा किया जाना चाहिए । किसी ने पूछा-"कौए का रंग कैसा है?" सीधा उत्तर था काला । पर विचारशील ने कहा-" नहीं, वह लाल और सफेद भी है। बाहर से न दीख पड़ने वाला उसका खून लाल और अस्थि पंजर सफेद होता है ।" बाहर से जो दीखता है वही सब कुछ नहीं है ।

प्रतिभा का सही मूल्यांकन

उद्यान में भ्रमण करते-करते सहसा राजा विक्रमादित्य महाकवि कालिदास से बोले-"आप कितने प्रतिभाशाली है, मेधावी हैं, पर भगवान ने आपका शरीर भी बुद्धि के अनुसार सुंदर क्यों नहीं बनाया?" कुशल कालिदास राजा की रूप गर्वोक्ति समझ गए । उस समय तो वे कुछ भी न बोले । राजमहल में आकर उन्होंने दो पात्र मँगाए-एक मिट्टी का और एक सोने का । दोनों में जल भर दिया गया । कुछ देर बाद कालिदास ने विक्रमादित्य से पूछा-"राजन किस पात्र का जल अधिक शीतल है?" "मिट्टी के पात्र का"-विक्रमादित्य ने उत्तर दिया । तब मुस्कराते हुए कालिदास बोलें-"जिस प्रकार शीतलता पात्र के बाहरी आधार पर निर्भर नहीं है, उसी प्रकार प्रतिभा भी शरीर की आकृति पर निर्भर नहीं है। विद्वत्ता और महानता का संबंध शरीर से नहीं आत्मा से है ।"

योजनाबद्ध तैयारी

जन सामान्य की दृष्टि तो स्थूल परिकर पर ही जाती है । साज-सज्जा, बनावट, शृंगार के स्थान पर परिवार के सदस्यों को यदि सुसंस्कारों की शिक्षा दी जाए, उन्हें जीवन के आरंभ से ही ऐसे ढाँचे में ढालने हेतु वातावरण बनाया जाय, तो व्यक्ति को सही अर्थों में महामानव के रूप में किसी भी समुदाय, राष्ट्र के सभ्य नागरिक के रूप में विकसित किया जा सकता है।

महत्वाकांक्षी जोशुआ लेवमेन की भावी रूपरेखा के संदर्भ में अनेक योजनाएँ बनाकर विद्वान युकाची के पास ले गया और उनसे पूछा-"वह उन्हें पूरा करने के लिए क्या तैयारी करे ।" युकाची ने वह सूची ध्यानपूर्वक देखी और मुस्कराते हुए उसे वापस लौटा दिया । उनने कहा-"बच्चे! इन सब योजनाओं से पहली योजना का तो कहीं नाम भी नहीं है और उसके बिना तुम्हारा बढ़-चढ़ कर सोचना व्यर्थ है। जोशुआ ने चकित होकर पूछा-"भला, वह क्या योजना होनी चाहिए?" उन्होंने कहा-"अपने स्वभाव और चरित्र का निर्माण, जिसके बिना काई व्यक्ति न बड़ा बन सकता है और न बड़ा काम कर सकता है ।"

स्वयंसेवक की कर्तव्य परायणता

जब बच्चे को बाल्यकाल से ही अच्छे संस्कार मिलते है, तो वह कर्तव्य निष्ठा उसमें विकसित होती है, जो उसके व्यवहार में तभी से परिलक्षित होने लगती है ।

सन् १८८५ । पूना के न्यू इंगलिश हाईस्कूल में समारोह के प्रमुख द्वार पर एक स्वयंसेवक को इसलिए नियुक्त किया गया कि वह आने वाले अतिथियों के निमंत्रण पत्र देखकर सभा-स्थल पर यथास्थान बिठा सके। उस समारोह के मुख्य अतिथि थे चीफ जस्टिस महादेव गोविंद रानाडे । जैसे ही विद्यालय के फाटक पर पहुँचे वैसे ही स्वयंसेवक ने अंदर जाने से रोक दिया और निमंत्रण पत्र की माँग की । "बेटे! मेरे पास तो कोई निमंत्रण पत्र है नहीं ।"-रानाडे ने कहा । तब आप अंदर प्रवेश न कर सकेंगे । स्वयंसेवक का नम्रतापूर्ण उत्तर था । द्वार पर रानाडे को रुका देख स्वागत समिति के कई सदस्य आ गए और उन्हें अंदर मंच की ओर ले जाने का प्रयास करने लगे । पर स्वयंसेवक ने आगे बढ़कर कहा-"श्रीमान्! मेरे कार्य में यदि स्वागत समिति के सदस्य ही रोडा अटाकायेंगे, तो फिर मैं अपना कर्तव्य कैसें निभा सकूँगा? कोई भी अतिथि हो उसके पास निमंत्रण पत्र होना ही चाहिए । भेदभाव की नीति मुझ से नहीं बरती जाएगी ।" यही स्वयंसेवक आगे चलकर गोपाल कृष्ण गोखले के नाम से प्रसिद्ध हुआ और देश की बड़ी सेवा की ।

आदर्शानां प्रतिष्ठा तु गृहेष्यावश्यकी मता ।
उपाय: सरलश्चात्रादर्शवादिनृणां समे॥३१॥
श्रावयन्तु जनान् स्वांस्तु चरितानि महान्ति हि ।
यान्नराननुकर्तुं च नीतिरस्माभिरिष्यते॥३२॥
एतदर्थं च सर्वेषु पूजास्थाणं गृहेषु तु ।
भवेदेवाप्यलंकारमञ्जूषेव गृहस्य सः ॥३३॥
पुस्तकालय एकस्तु यमाश्रित्य च शिक्षिता:।
आप्तवाक्यानि जानन्तु श्रावयन्त्वप्यशिक्षितान्॥३४॥
वस्त्राणां खाद्यवस्तुनां दैनिकी साऽनिवार्यता ।
भवत्यपेक्षितैवं हि ज्ञानंस्याऽस्मिन् हि मन्दिरे॥३५॥
नित्यं सम्मिलितं तत्स्यात् साहित्यमुत्तमं मता ।
जीवनस्य विकासाय स्वाध्यायस्यानिवार्यता॥३६॥
अस्या: पूत्यैं स्थापना स्वाद् गृहेष्वत्र समेष्वपि ।
ज्ञानमन्दिरसंज्ञानां पुस्तकालयरूपिणाम् ॥३७॥

भावार्थ-घर में आदर्शों की प्रतिष्ठापना आवश्यक समझी जानी चाहिए और इसके लिए सरल उपाय यही है कि उन आदर्शवादी महामानवों की चरित्र-गाथाएँ परिजनों के सामने प्रस् तुतकी जा सकें, जिनके अनुकरण करने की बात सोची और रीति-नीति अपनाई जा सके । इस हेतु हर घर में पूजा-स्थान आभूषण रखने की पिटारी की भाँति ही एक घरेलू पुस्तकालय होना चाहिए जिसके सहारे घर के शिक्षितों को आप्तजनों के परामर्श पढ़ने तक अशिक्षितों को सुनने के लिए मिलते रहें। जिस प्रकार बच्चों को खाद पदार्थों की आवश्यकता आए दिन पड़ती है इसी प्रकार के ज्ञान मंदिर कक्ष में नित्य सत्साहित्य सम्मिलित किया जाना चाहिए स्वाध्याय जीवन विकास की महती आवश्यकता है इसकी पूर्ति में घरेलू ज्ञान मंदिरों की स्थापना होनी चाहिए॥३१-३७॥

व्याख्या-यहाँ पुरुषों की जीवन गाथाएँ आदर्शों के व्यावहारिक शिक्षण के लिए सर्वोत्तम हैं । उन्होंने जीवन में किस तरह कठिनाइयों के बीच से निकलते हुए विभिन्न परिस्थितियों का साहस से मुकाबला किया, किस तरह से प्रखरता अर्जित करते हुए वे वर्तमान स्थिति तक पहुँच पाए, इतिहास में यश-कीर्ति पा सके? यह घटनाओं के माध्यम से भली-भांति हृदयंगम किया जा सकता है । हमारे दैनंदिन जीवन में जिस तरह शरीर को जीवित बनाए रखने के लिए खाद्य की आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार मानसिक आहार
के रूप में सत्साहित्य की व्यवस्था यदि होती चले, तो समग्र विकास संभव है। श्रेष्ठ विचारों की आवश्यकता को आत्मिक प्रगति के लिए भली-भांति समझते हुए हर घर-परिवार में ऐसे शिक्षण की व्यवस्था की जा सकती है, हर परिजन में सत्साहित्य के प्रति रुचि जगाई जा सकती है ।

उत्तम पुस्तकें जागृत देवता हैं

ज्ञान वृद्धि के लिए, ज्ञानोपासना के लिए पुस्तकों का अध्ययन एक महत्वपूर्ण आधार है। मानव जाति द्वारा संचित समस्त ज्ञान पुस्तकों में संचित है। इसलिए हर परिवार के प्रत्येक सदस्य को उत्तम पुस्तकों का अध्ययन करना आवश्यक होता है। इसीलिए तो मिल्टन ने कहा है-"अच्छी पुस्तक एक महान आत्मा का जीवन रक्त है।" क्योकि उसमें उसके जीवन का विचार-सार सन्निहित होता है । ग्रंथ सजीव होते हैं, उनमें आत्मा होती है। सद्ग्रंथों का कभी नाश नहीं होता । सिसरो ने कहा है-"ग्रंथ रहित कमरा आत्मा रहित देह के समान है।" तात्पर्य यह है कि उत्तम पुस्तकें नहीं होने से मनुष्य ज्ञान से वंचित रह जाता है और ज्ञान रहित मनुष्य जीवन मुर्दे के समान व्यर्थ है । जो व्यक्ति दिन-रात अच्छी पुस्तकों का संपर्क प्राप्त करते हैं, उनमें मानवीय चेतना ज्ञान प्रकाश से दीप्त होकर जगमगा उठती है । इसीलिए तो लोकमान्य तिलक ने कहा है-"मुझे नरक में भेज दो, मैं वहाँ भी स्वर्ग बना लूँगा, यदि मेरे पास अच्छी पुस्तकें हों ।"

मानवीय प्रगति के प्रमुख आधारों में उत्तम पुस्तकों के स्वाध्याय का विशिष्ट महत्व रहा है ।

जार्ज वाशिंगटन के मन में स्वतंत्रता की अमर आग पुस्तकों ने ही लगाई थी । रोम्याँ रोलाँ के उपन्यास 'जां
क्रिस्तोफ' ने हजारों लोगों में नई जीवन-दृष्टि जगाई । हैरियट स्टो की पुस्तक 'टाम काका की कुटिया' ने अमरीका एवं पाश्चात्य जगत में हलचल मचा दी थी । तो गोर्की की पुस्तक 'माँ' ने रूस को हिला दिया था।


हीगेल के दर्शन के अध्ययन ने मार्क्स को अपनी जीवन दृष्टि के निर्धारण के लिए प्रचुर सामग्री दी तथा एडमस्मिथ, डेविड रिकार्डो आदि अर्थशास्त्रियों की कृतियों ने अर्थशास्त्रीय दृष्टि दी । इस मेधावी सिद्धांतकार के जीवन में सदैव पुस्तकों का अत्यधिक महत्व रहा और जीवन के बहुमूल्य वर्ष उसने गंभीर अध्ययन में बिताए । लेनिन को रूसी समाजवादी क्रांति की प्रेरणा मार्क्स एंजेल्स की प्रभावी रचनाओं से ही मिली । इस प्रकार अमरीका और रूस दोनों के स्वतंत्रता-संग्राम में पुस्तकों की विशेष भूमिका रही । अफ्रीकी देशों में जो जागति दिखाई पड़ रही है, उसमें भी पुस्तकों की प्रेरणाएँ अंतर्निहित हैं । केनेथ काउंडा, जोमो, केन्याता, मकारियोस सभी ने किसी प्रत्यक्ष सत्संग से नहीं प्रेरक पुस्तकों से ही संघर्ष की प्रेरणा पाईं ।

माओत्सेतुङ्ग को मार्क्स की ही नहीं, सनयात सेन की भी पुस्तकों ने प्रभावित किया । होची मिन्ह और बेम्बेबारा मार्क्सवादी साहित्य के अध्येता भी थे, प्रणेता भी ।

भारतीय क्रांतिकारियों के जीवन में बंकिम के 'आनंद मठ' शरत् के 'पथेर दावी' और लोकमान्य तिलक के
'गीता रहस्य' की विशिष्ट भूमिका रही है । विवेकानंद और अरविंद की कृतियों ने अनेक अभिनव राष्ट्रीय, सांस्कृतिक एवं सामाजिक गतिविधियों को शक्ति दी । जबकि खुद विवेकानंद और अरविंद ने वेद-उपनिषद् एवं भारतीय शास्त्रो तथा पाश्चात्य दार्शनिक ग्रंथों का गंभीर अध्ययन किया था ।

महापुरुषों ने घरेलू ज्ञान-मंदिरों की, पुस्तकों से प्रेम की उपयोगिता की भूरि-भूति प्रशंसा की है ।

दार्शनिक एमर्सन कहा करते थे कि पुस्तकों से प्रेम ईश्वर के राज्य में पहुँचाने का विमान है। सिसरो के
अनुसार 'अच्छी पुस्तकों को घेर में संचित-संग्रहीत करना घर को देव मंदिर बनाना है ।'

कैम्पिस ने एक बार अपने साथियों से कहा था-"अपने कोट बेच कर उत्तम पुस्तक खरीदी । कोट के बिना
जाड़ों में शरीर को कष्ट होगा, किन्तु पुस्तकों के बिना तो आत्मा ही तड़पती रहेगी ।"

दक्षिण भारत के मुत्तस्वामी अय्यर

दक्षिण भारत के निर्धन बालक को अपनी स्वाध्याय की आकांक्षा को तृप्त करने के लिए सड़कों में जलने वाली बत्तियों के नीचे पढ़ना पड़ता था। किताबें खरीदने के लिए पैसे नहीं होते थे, इसलिए वह पुस्तकालय की शरण लेता था । इस तरह उसने ज्ञानवृद्धि की साधना सतत जारी रखी और एक दिन उसकी बौद्धिक प्रतिभा इस योग्य हुई कि ब्रिटिश सरकार ने उसे हाईकोर्ट का न्यायाधीश नियुक्त किया। वह बालक सर टी० एस० मुत्तस्वामी अय्यर पहले भारतीय थे, जिनको इस तरह का महत्वपूर्ण पद प्रदान किया गया ।

ज्ञानार्जन के इस लाभ को जिसने भी समझा, वह गई-गुजरी स्थिति से निकलकर कुछ से कुछ हो गया।
ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं, जिनसे पुस्तकालयों की उपयोगिता का पता चलता है ।

जीवन जीने की प्रेरणा

एक दिन, दो दिन और लगातार कई दिन तक भी रात-रात भर सितारों की गिनती करते देखकर आखिर एक दिन माँ ने अपने बच्चे से पूछ ही लिया-" बेटे । तुम रात भर आकाश की ओर मुँह किए क्या गिना करते हो?" "आकाश के सितारे माँ । बहुत प्रयत्न करता हूँ पर किन्तु आकाश इतना विराट् और नक्षत्र इतने अधिक है कि वे गिनने में नहीं आते ।" माँ ने थपकी दी और बोली-"बेटा । देर हुई सो जा, यह सितारे गिनने को नहीं वरन् इसलिए बनाए गए हैं कि लोग उन्हें देखकर स्वयं भी प्रकाशपूर्ण जीवन जीना सीखें ।"

पुस्तक ही खुराक

महापुरुषों के जीवन भी इसी तरह प्रेरणाप्रद बनते हैं । उनकी जीवनियाँ पढ़कर लोग इसी प्रकार प्रेरणा
ग्रहण करते है ।


महापुरुषों की यही विशेषता रही है कि वे स्वयं आजीवन स्वाध्यायशील रहे हैं। आचार्य अत्रे उन दिनों बीमार पड़े थे । फिर भी चारपाई पर सिरहाने, बगल में उनने ढेरों पुस्तकें जमा कर रखी थीं। उस कष्टकर मन:स्थिति में पढ़कर मन को हलका करते थे । एक मित्र मिलने आए और उन्होंने पूर्ण विश्राम की बात कहते हुए पढ़ने से बचने का परामर्श दिया । अत्रे जी ने मुस्कराते हुए कहा-मैं बीमारी की खुराक बना हुआ हूँ पर मैं भूखा कैसे रहूँ? अपनी खुराक पुस्तकों से हासिल करता हूँ ।"

इसी प्रकार सभी की अभिरुचि यदि ज्ञानार्जन-स्वाध्याय के प्रति जाग उठे, तो उनका व्यक्तित्व भी अपूर्ण न
रहे । जो इसमें पिछड़ जाते हैं, वे पछताते हैं ।

ज्ञान साधना के प्रतिफल

एक हृष्ट-पुष्ट और बलिष्ठ शरीर का स्वामी नवयुवक किसी काम से कचहरी में गया । पढ़ने-लिखने में वह कोरा था । इसलिए उसे मुंशी के पास जाना पड़ा । मुंशी के पास जाकर वह बोला-"भई! मेरी अर्जी लिख दो । जरा जल्दी है ।"

अर्जी लिखाने के लिए और भी लोग खड़े थे । सो मुंशी ने कहा-"लाइन से लग जाओ, नंबर आने पर अर्जी लिख देंगे ।

दोपहर बाद दो बजे कहीं उसका नंबर आया । इतनी देर में वह खड़ा-खड़ा थककर चूर हो गया । रह-रह कर उसे यह अनुभव हो रहा था कि शारीरिक कष्ट से समर्थ और बलवान होते हुए भी वह बौद्धिक दृष्टि से परावलंबी ही है।

उस दिन से उसने स्वाध्याय साधना के साथ-साथ ज्ञान साधना पर भी ध्यान देना आरंभ किया। दिन-रात एक करके उसने अपनी बौद्धिक क्षमता बढ़ाई । उसी का परिणाम था कि एक दिन वह बिहार प्रांत का स्वायत्त मंत्री बना । उन्हें आज भी लोग गणेश दत्त सिंह के नाम से जानते है ।

प्रतिभाशाली डा० लोहिया

डा० लोहिया जी को जिस प्रकार देशभक्ति और राष्ट्र प्रेम, पिता से विरासत में मिले थे, उसी प्रकार उन्हें मस्तमौलापन भी पिता से प्राप्त हुआ था । यही कारण था कि जब वे जहाज से मद्रास बंदरगाह पर उतरे, तो उनके पास कलकत्ता पहुँचने के लिए टिकट के पैसे तक नहीं थे। किराए का प्रबंध भी उन्होंने अजीब ढंग से किया, बंदरगाह से चलकर वे प्रख्यात अखबार हिंदू कार्यालय में पहुँचे और संपादक से मिले । संपादक से उन्होंने कहा-"मुझे आपके समाचार पत्र के लिए दो लेख देने है ।" "दीजिए, कहाँ है लेख"-संपादक ने पूछा । कागज, कलम दें, मैं अभी लिखकर देता हूँ । "लोहिया के मुँह से यह सुनकर संपादक उनकी ओर ताकने लगा । तब डॉ० लोहिया ने वास्तविक कारण बता दिया और 'हिंदू' के संपादक ने उन्हें लेख लिखने के लिए आवश्यक उपकरण उपलब्ध करा दिए । कुछ घंटों में डॉ० लोहिया ने दो लेख इतने जानदार लिखे कि संपादक भी उनकी प्रतिभा का लोहा मान गया । लेख देखकर संपादक ने उपयुक्त पारिश्रमिक दिया और उसी के द्वार वे कलकत्ता पहुँचे ।

ज्ञान की महत्ता सर्वोपरि है । यदि यह जाना व समझा जा सके, तो एक भी पल व्यर्थ न गँवाया जाय एवं सतत सत्साहित्य के स्वाध्याय में स्वयं को निरत रखा जाय ।

देश की गाडी खींचने वाले अग्रदूत

लोकमान्य तिलक इंग्लैंड से स्वदेश लौटे । उनके सम्मान में स्वागत समारोह किया गया । समारोह की समाप्ति पर वे अपनी बग्घी में बैठकर चलने लगे । उनको पहनाई गई मालाएँ भी बग्घी में रखी गईं । लोकमान्य ने मालाएँ कोचवान को देकर हँसते हुए कहा-"अपने घोड़ों को पहना दो। जैसे ये घोड़े इस बग्घी को खींचते है, वैसे ही हम देश की गाड़ी खींचते हैं । दोनों में अंतर कुछ नहीं है ।"

अपनी इसी निरहंकारिता, निस्पृहता के कारण वे लोकमान्य कहलाए, जन-जन के लिए प्रेरणा के स्रोत बने।

इसमें बुरा क्या किया

हजरत उमर जब सोने को हुए, तो एक नौकर उन पर पंखा झलने के लिए लगा दिया गया । हजरत को तो नींद नहीं आई, पर नौकर सो गया। हजरत उठ गए और नौकर पर पंखा झलते रहे । जब नींद खुली, तो वह माफी माँगने लगा । हजरत ने हँसते हुए कहा-"सोने वाले पर पंखा झला जाने वाला था, वह करके मैंने क्या बुरा किया?"

मुझे शीशे की क्या आवश्यकता 

महापुरुषों के जीवन प्रत्यक्ष प्रकाश स्तंभ होते हैं । उनके अंदर कोई भी व्यक्ति झाँक कर प्रकाश की किरण पा सकता है । उनकी सरलता जीवन जीने का सही शिक्षण देती है ।

एक बार एक पत्र प्रतिनिधि गांधी जी से मिलने गया । उसे मालूम था कि गांधी जी शीशे की मदद के बिना शेव बना सकते थे, गांधी जी से उसने पूछा-" बापू आप शीशे में मुँह क्यों नहीं देखते ।" "मुझसे मिलने वाला हर व्यक्ति मेरा मुँह देखता ही है" -गांधी जी ने जवाब दिया-"तो फिर मुझे खुद अपना मुँह देखने की क्या आवश्यकता है ।"

एक दिन का डिक्टेटर

एक बार पत्रकारों की गोष्ठी में बापू राजनैतिक प्रसंगों पर उत्तर दे रहे थें। उसी समय हास्य विनोद की मुद्रा में एक पत्रकार ने पूछा कि यदि आपको एक दिन के लिए भारत का डिक्टेटर बना दिया जाय, तो क्या करेंगे? बापू ने कहा-"मैं सभी विचारशील व्यक्तियों और सरकारी कर्मचारियों को सफाई में जुटा दूँगा। सफाई ही सुव्यवस्था। इसका जब तक महत्व न समझा जाएगा, तब तक किसी व्यक्ति या देश की वास्तविक उन्नति होना असंभव है।"

गंदगी की उपेक्षा नहीं

गांधी जी नोआखाली में शांति स्थापना के लिए भ्रमण कर रहे थे। पीड़ितों को सांत्वना भी देते । साथ ही छोटी पगडंडियों के इर्द-गिर्द हुए मल-मूत्र को भी पत्तों से समेट कर जमीन में गाड़ते चलते। वे कहते-"सफाई मानवी गुणों में सबसे प्रमुख है। उसके लिए कोई विशेष समय या कार्यक्रम निर्धारित नहीं किया जा सकता। वह किसी भी कार्य के साथ चलते-चलते भी होती रह सकती है। केवल उसकी महत्ता समझी जानी चाहिए ।"

फिर भी क्रोध न आया

पैठक के एक व्यक्ति को कुछ रुपयों की जरूरत थी । साहूकार ने कहा-" तुम संत एकनाथ को क्रुद्ध करके दिखा दो, तो माँगी हुई राशि उसे पुरस्कार रूप में मिल जाएगी। वह उद्दंड संत के पास जा पहुँचा । वे भोजन कर रहे थे । उनकी गोदी में जा चढ़ा । संत ने उसे बाल भगवान समझा और सिर पर हाथ फेरते हुए अपने साथ उसे भी भोजन कराने लगे। यहाँ वह बाजी हार गया, तो उसने दूसरी चाल चली । एकनाथ की पत्नी के पीठ पर उनका कंधा पकड़ कर लटक गया । धर्मपत्नी ने पीछे को हाथ करके, उसे सँभलकर पकड़ लिया और कहा-"मेरा बच्चा भी तो इसी तरह खेलता है । उससे हाथ का सहारा देकर पकड़े रहती हूँ, तो तुम्हें उसी तरह क्यों न सँभालूँगी, अपरिचित हो तो क्या?" दोनों चालें बेकार हो जाने पर वह वापस लौटा, तो कारण मालूम होने पर संत प्रेमवार्त्ता करते हुए साहूकार के घर तक चले गए और वहाँ पहुँचकर क्रोध का अभिनय करने लगे । शर्त जीतने पर जब उसे रुपये मिल गए, तो वे हँसते हुए घर वापस लौट गए । क्रोध उनके स्वभाव में न था । यदि इस प्रकार के व्यावहारिक शिक्षण की व्यवस्था घर के हर सदस्य के लिए संभव हों सके, तो सहिष्णुता, स्वावलंबन, लगन, सेवा-निष्ठा जैसे सद्गुणों का विकास उसके जीवन में स्वयमेव होता पाया जा सकता है ।

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