प्रज्ञा पुराण भाग-3

॥अथ द्वितीयोऽध्याय:॥ गृहस्थ-जीवन प्रकरणम्-3

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

कामेच्छाऽपि नरान् सर्वान् विह्वलान् विदधाति सा ।
प्रकृतिप्रेरणा चैवं भावना वेगवत्यलम्॥२९॥
पुंसोरत्रोभयोरेव समुदेति यथा वय:।
शक्तिप्रवाहमेनं च नियम्यैव विवेकिन:॥३०॥ 
प्रयोजनेषु दिव्येषु योजयन्ते परं नहि ।
आत्मनिग्रहहीनैस्तु सामान्यै: शक्यते नृभि:॥३१॥
अस्मिन्नायुषि लोकास्तदद्यत्वेऽनुभवन्त्यलम्। 
विवाहस्याऽनिवार्यत्वं प्रवर्तन्ते च तत्र ते ॥३२॥
परं विवाह: कर्त्तव्य: शरीरे पक्वतां गते।
उपार्जने समारब्धे दायित्वं गृह्यतामिदम्॥३३॥
अवयस्कैर्वृत्तिहीनैर्विवाहस्याऽस्य बन्धनम्।
न स्वीकार्य तथा नैव दम्पत्योर्द्वन्द्वनिश्चये॥३४॥
रूपमात्रं न द्रष्टव्यं गुण: कर्म तथैव च।
स्वभाव: प्रमुखत्वेन विवेच्या: सुखमिच्छता ॥३५॥

भावार्थ-कामेच्छा भी प्रचलन प्रवाह के कारण मनुष्य को बेचैन करती रहती है । प्रकृति-प्रेरणा से इस प्रकार की उत्तेजना नर-मादा दोनों में ही अवस्थानुसार उत्पन्न होती है । विचारशील तो इस शक्ति प्रवाह को रोककर महान् प्रयोजनों में भी लगा देते है, पर साधारण जनों से, आत्म निग्रह के अभाव में ऐसा कुछ बन नहीं पड़ता। इसलिए आम लोग इस आयु में विवाह की आवश्यकता अनुभव करते और उसमें प्रवृत्त भी होते हैं। विवाह शरीर के परिपक्व होने पर ही करना चाहिए । उपार्जन आरंभ होने पर ही यह जिम्मेदारी उठानी चाहिए न कमाने वाले और कम आयु वाले विवाह न करें । जोड़ी निश्चित करने में रूप-सौंदर्य को नहीं, गुण, कर्म, स्वभाव को महत्व देना चाहिए ॥२९-३५॥

व्याख्या-यौन उल्लास एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, जो गृहरथाश्रम के प्रारंभ में प्रकृति की सहज अभिव्यक्ति के रूप में, उमंगों के रूप में उठने लगती है। इसका सुनियोजन महत्वपूर्ण है, अस्वाभाविक रूप से नियंत्रण लगाने से तो अनेक विकृतियाँ जन्म ले सकती हैं । कुछ बिरले व्यक्ति ऐसे होते हैं, जो इस
उल्लास च सृजनात्मक प्रयोजनों से जोड़कर आजीवन अविवाहित बने रहते हैं । सारा समाज उनका कार्यक्षेत्र होता है परिवार होता है अतः उन्हें कोई अभाव भी अनुभव नहीं होता।

बहुसंख्य व्यक्ति उपरोक्त श्रेणी में नहीं उमते । कामेच्छा एक सहज प्रवृत्ति के रूप में उन्हें व्यग्र बनाती एवं विवाह -बंधन में बंधन की दिशा देती है। कामोल्लास के सुनियोजन हेतु जरूरी है कि व्यक्ति मर्यादा से बँधकर रहे । खेत में मेड़ न बाँधी जाय, तो सारा पानी बहकर निकल जाता है, फसल को कोई लाभ नहीं मिल पाता । आत्म संयम का एक रूप यह भी है कि व्यक्ति अपने को एक जीवन साथी के साथ जोड़कर अपना कर्तव्यपालन करता रहे । मानसिक चिंतन काम-वासना से भरा हो एवं व्यक्ति अविवाहित हो, तो इसे किसी प्रकार का त्याग या अध्यात्म मार्ग का सोपान नहीं कहा जा सकता । इसी कारण ऋषियों ने विवाह-बंधन का प्रावधान किया है ताकि व्यक्ति वर्जनाओं में बँधा रहे ।

विवाह कच्ची आयु में न हो, न ही आयु बीत जाने पर । शरीर एवं मन की दृष्टि से जब व्यक्ति परिपक्व है, अपने पैरों पर खडा है एवं अपने परिवार की जिम्मेदारियाँ उठा सकने में समर्थ है, तो वही विवाह की सही उम्र है । परावलंबी-कच्ची मन:स्थिति के, असंयमी व्यक्ति तो ऐसा करके अपने पैरों कुल्हाड़ी मारते हैं, जीवन साथी के साथ भी विश्वासघात करते हैं ।

विवाह करते समय दोनों ही पशों के चिंतन एवं चरित्र को महत्ता मिलनी चाहिए । वही मूल संपदा है, जो जीवन रूपी नैया पार लगाती है । रूप को महत्व देने वाले ऐसे अनेक मूर्ख समाज में देखे जा सकते हैं जो इसी कारण अनेक संबंध ठुकरा देते व फिर स्वयं दर-दर की ठोकरें खाते फिरते हैं । जहाँ स्वभाव मिले, दोनों के आदर्श मिलें, वही सजा गठबंधन है, पाणिग्रहण है ।

नर और नारी की एकता

कवी अरिस्टोफेन्स ने मनुष्य की उत्पत्ति पर एक प्रख्यात काव्य लिखा है । उसमें वे कहते हैं-मनुष्य पहले एक गोले जैसा था । विधाता ने इस रचना में बेतुकापन देखा, तो गोले को बीच से चीर कर दो कर दिया । एक् का नाम रखा नर, दूसरे का नारी ।

वे पहले की तरह एक बनने के लिए निरंतर छटपटाते रहते हैं । दोनों को अपना बिछुड़ा भाग अधिक आकर्षक लगता है । दोनों के बीच जितनी दूरी रहती है, उतने ही वे दु:खी रहते हैं ।

इस काव्य को वे जगह-जगह सुनाते थे और उन दिनों नारी के प्रति अवमानना की प्रथा को पूरी तरह समाप्त करना चाहते थे ।

वासना का विष

कामेच्छा का सुनियोजन न होने के कारण वासना ही मन-मस्तिष्क पर हावी हो जाती है एवं व्यक्ति को अंतत: पतन के गर्त में ले जाती है ।

महाराज ययाति वैसे तो बड़े ही विद्वान् और ज्ञानवान् राजा थे, किन्तु दुर्भाग्यवश उन्हें वासनाओं का रोग लग गया और वे उसकी तृप्ति में निमग्र हो गए। स्वाभाविक था कि ज्यों-ज्यों वे इस अग्नि में आहुति देते गए, त्यों-त्यों वह और भी प्रचंड होती गई और शीघ्र ही वह समय आ गया, जब उनका शरीर खोखला और शक्तियाँ की हो गई । सारे सुकृत खोए, बेटे के प्रति अत्याचारी प्रसिद्ध हुए, परमार्थ का अवसर खोया और मृत्यु के बाद युग-युग के लिए गिरगिट की योनि पाई, किन्तु वासना की पूर्ति न हो सकी। पांडु जैसे बुद्धिमान् राजा पीलिया रोग के साथ वासना के कारण अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए । शांतनु जैसे राजो ने बुढ़ापे में वासना के वशीभात होकर अपने देवव्रत- भीष्म जैसे महान् पुत्र को-गृहस्थ सुख से वंचित कर दिया । विश्वामित्र जैसे तपस्वी और इंद्र जैसे देवता वासना के कारण ही व्यभिचारी और तप-भ्रष्ट होने के पातकी बने । वासना का विष नि:संदेह बड़ा भयंकर होता है, जिनके शरीर का पोषण पाता है, उसका लोक-परलोक पराकाष्ठा तक बिगाढ़ देता है । इस विष से बचे रहने में ही मनुष्य का मंगल है ।

दीनबंधु और उनकी विराट् की साधना

बात सन् १९१४ की है । एक दिन गुरुदेव टैगोर ने सी०एफ० एण्ड्रूज से कहा-" विवाह जीवन की पूर्णता है, प्रगति के मार्ग में पत्नी से पूरी-पूरी सहायता मिलती है और दोनों के सहयोग से विपत्तियाँ दूर हो जाती है। सच्चा जीवन जीने के लिए मनुष्य को विवाह अवश्य करना चाहिए और आपने विवाह न करके बड़ी भारी भूल कीं ।"

दीनबंधु एण्ड्रूज ने सहज भाव से उत्तर दिया-"हाँ! आपकी बात बिलकुल सत्य है। मैं भी अनुभव करता हूँ कि विवाह के बिना पवित्र प्रेम तथा पिता और पति के मोहक कर्तव्यों से मै वंचित रहूँगा और मेरे जीवन का विकास भी अवरुद्ध हो जायेगा । पर दाम्पत्य जीवन के सुख की जब मैं कल्पना करता हूँ, तो मेरा मन मुझे एक अन्य दिशा की ओर ही ले जाना चाहता है ।"

वह कहता है-"तुम अपनी सेवाएँ राष्ट्रीय आंदोलन को समर्पित कर चुके हो। जब तक देश स्वतंत्र नहीं हो जाता, तब तक तुम्हारा कुछ नहीं, सब कुछ राष्ट्र का ही होगा । तुम मिशन में सर्विस करते हो, उसका क्या भरोसा? फिर नौकरी छूट जाने पर घर-गहस्थी के बोझ को सम्हालने के लिए नौकरी की तलाश करोगे या राष्ट्रीय आदोलनों में भाग लोगे और मेरे मन में उठने वाले यही विचार दाम्पत्य जीवन के रेशमी सूत्र में नहीं बँधने देते ।" दीनबंधु एण्ड्रूज आजीवन अविवाहित रहकर भारतवासियों को देश भक्ति का संदेश देते रहे ।

पशु-पक्षियों की साथी चयन में बुद्धिमत्ता

डा० जै० बी० हक्सले चिड़ियों के जीवन के अध्ययन में बड़ी रुचि रखते थे । एक विलायती पक्षी क्रमटी का विवरण देते हुए उन्होंने लिखा-"यह चिडिया वसंत आगमन पर विवाह की तैयारी करती है । नर एक स्थान पर बैठकर गाना गाता है। वह पेड़ों की टहनियाँ आदि एकत्रित करके रखता है और यह दिखाने का प्रयत्न करता है, मानों उसे उपार्जन, संरक्षण एवं गृहस्थ निर्माण की कला की समुचित सामर्थ्य उपलब्ध है। मनुष्य को भी तो विवाह से पूर्व अपनी क्षमता की ऐसी ही परीक्षा कर लेनी चाहिए, यदि उसमें उतनी योग्यता न हो, तो विवाह की जिम्मेदारी वहन करने का दुस्साहस नहीं ही करना चाहिए ।

मादा क्रमटी नर के पास से गुजरती है और उसकी योग्यता परख लेती है, तभी उसका प्रणय स्वीकार करती है । कई दिन मादा परखती रहती है, कहीं उसे झूठे प्रलोभन तो नहीं दिए जा रहे है । जब पूरा विश्वास हो जाता है, तभी नर-मादा दोनों मिलकर घोंसला बनाने की तैयारी करते हैं । अंडे सेने का काम भी दोनों मिल-जुलकर-बारी-बारी से करते हैं ।

मनुष्य इन उदाहरणों से भली-भाँति प्रेरणा ग्रहण कर सकता है ।

कुशल वर एवं पराक्रमी संतान

अंजना में बाल सुलभ चंचलता देखकर उनके पिता उसे वानरी कहते थे । विवाह योग्य हुई तो उसने पिता से एक ही बात कही-"मैं साधारण गृहणियों की तरह चौके-चूल्हे तक सीमित नहीं रहना चाहती । मैं महापराक्रमियों की सहचरी बनकर रहूँगी । पिता उपयुक्त वर तलाशने लगे । एक बार जंगली हाथियों का झुंड ऋषियों की झोपड़ियाँ तोड़ने लगा । उनको भगाने का काम युवक केशरी ने अपने जिम्मे लिया और सभी को मार कर भगा दिया । पिता ने उसे अंजना के उपयुक्त वर समझा और विवाह कर दिया ।

संतान के संबंध में भी अंजना की ऐसी ही महत्वाकांक्षा थी । उसने वायु देवता की आराधना की और उससे पवनपुत्र हनुमान का जन्म लिया । वे बजरंगी थे । बचपन में ही वे बड़ी से बड़ी शिलाओं को कूदकर तोड़ देते थे । बडे़ होकर उन्होंने राम काज में जीवन लगाया। लंका दहन और राम राज्य स्थापना में अग्रणी रहकर भाग लिया ।

रेवती एवं बलराम

रेवती राजा रेवतनय की पुत्री थी । उनने प्रण कर रखा था कि उच्च व्यक्तित्व वाले के साथ ही विवाह करेंगी । उपयुक्त वर न मिलने तक वे कुमारी ही बनी रहीं । अंत में अपने से कद और उम्र में छोटे बलराम से चिवाह किया । देखने में यह जोड़ा समान नहीं था, फिर भी भावना और संस्कारों की समानता के कारण वह विवाह पूर्ण सफल रहा ।

गैरी बाल्डी को सहयोगिनी मिली

इटली में स्वतंत्रता संग्राम के सूत्रधार गैरी वाल्डी जेल में से किसी प्रकार छिपकर निकले और नाव द्वारा एक देहात में पहुँचकर स्वतंत्रता संग्राम का संचालन करने लगे ।

उनकी अद्भुत देश भक्ति और बहादुरी में साथ देने के लिए एबीटा ने, उनका हाथ सहधर्मिणी के रूप में बटाने का निश्चय किया । उपयुक्त साथी को पाकर गैरी बाल्डी भी धन्य हो गये ।

बहुत दिन यह साथ चला । एक दिन शत्रुओं की गोली से एबीटा घायल हुई और मारी गई । गैरी बाल्डी ने अवसर पाकर उसकी कब्र वहाँ जंगल में ही बना दी । आज वह कब्र संसार भर की देश भक्त महिलाओं की प्रेरणा कास्रोत बनी हुई है ।

विवाह-बंधन का सात्विक प्रयोजन

गोद वलेकर महाराज का परिवार उन पर विवाह करने के लिए बहुत जोर डाल रहा था । इन्कारी से पीछा न छूटा । तो उनने कहा-"लड़की अपने मन की चुनूँगा । घर वाले सहमत हो गए ।

महाराज ने पड़ौस के गाँव से एक अंधी और अपाहिज लड़की चुनी । उससे स्वेच्छापूर्वक विवाह करके ले आए और आजीवन उसकी भाव-भरी सेवा करते रहे ।

मसाई कबीले की विवाह परम्परा

अफ्रीका की मसाई जाति में वे ही युवक विवाह करने के अधिकारी माने जाते हैं, जो मात्र भाला और ढाल लेकर शेर का शिकार कर सकें । यह प्रथा इसलिए है कि उस समुदाय में बहादुर पीढ़ियाँ ही जन्में और जो दुर्बल हैं, उन्हें अपने जैसी असमर्थ संतानें जनने की छूट न मिले ।

दाम्पत्य जीवन का सुख-संतोष

वनवास काल में पांडव काम्यक वन में थे। श्रीकृष्ण सत्यभामा समेत उनसे मिलने गए । सत्यभामा ने द्रौपदी के प्रति पांडवों की अत्यधिक संतुष्टि और प्रसन्नता देखकर उन्हें एकांत में ले जाकर कारण पूछा और कहा-"हम इतनी पत्नियाँ होते हुए भी कृष्ण का मन जीत नहीं पातीं?"

द्रौपदी ने कहा-"तुम लोग हास-विलासिता को प्रसन्नता का माध्यम मानती हो, जबकि मैं व्यवस्था और परामर्श देकर उनके अनेक समाधान करती रहती हूँ । उनसे कम नहीं अधिक परिश्रम करती हूँ। इसीलिए काले वर्ण की होने पर भी एक नहीं पाँचों पत्नियों और छठी सास की प्राण-प्रिय हूँ । तुम लोग आलस्य विलास अपनाकर उपयोगिता की दृष्टि से घटिया हो गई हो ।"

सत्यभामा ने बात गाँठ बाँध ली और वापस लौटने पर यह रहस्य अपनी अन्य सहेलियों को भी बता दिया। असंतोष दूर हो गया ।

कुरुपता एवं सौदर्यं

आँख और कान की विशेषता और गरिमा बताने के लिए किसी जिज्ञासु ने विचारक से पूछा ।

मनीषी ने उत्तर दिया-"आँख केवल सामने का देखती है, जबकि कान विगत-आगत और वर्तमान को सुनने-समझने में सहायता करते है ।"

सुंदर दीखने वाली आँखों की तुलना में कुरूप कानों की महिमा अधिक है। जो लोग सौंदर्य को, बहिरंग की सजा को ही महत्व देते हैं, उनके लिए यह जानना जरूरी है कि महत्ता कर्तृत्व की है । विवाह संबंधों पर भी यही बात लागू होती।

देयानां वस्तुजातानां चाकचक्यस्य वा पुन:।
आभूषणदिकानां च सम्मर्द्दस्य प्रदर्शनम्॥३६॥
पाणिग्रहणसंस्कारे यदि सम्मिलितं भवेत्।
कालुष्यं भजते दिव्यमात्मबन्धनमादित:॥३७॥
अपव्ययानुगनाश्चैते धनमुख्या भवन्ति ये।
पाणिग्रहणसंस्कारा आसुरास्ते ह्यवाञ्छिता:॥३८॥
कारणैरेभिरेवात्र पक्षयोरुभयोरपि।
अयथाबलमारम्भैविवेकतया भृशम्॥३९॥
आजीवनं भवेन्नूनं मनोमालिन्यमन्तत:।
जीवनं स्वर्गतुल्यं गार्हस्थ्यं नरकायते॥४०॥


भावार्थ-दहेज, आभूषण, प्रदर्शन, भीड़- भाड़ धूम-धाम जैसे अपव्यय विवाह-संस्कार के साथ सम्मिलित करने पर वह परम पवित्र आत्मबंधन प्रारंभ में ही कलुषित हो जाता है । ऐसे धन-प्रधान विवाहों को असुर-विवाह कहते है, ये अवांछनीय है। इन कारणों से दोनों पक्षों के बीच आजीवन मन-मुटाव बना रहता
है। चूँकि दोनों अपनी शक्ति से अधिक व्यय करते हैं विवेक से काम नहीं लेते। इससे स्वर्गतुल्य गृहस्थ जीवन नरक तुल्य बन जाता है ॥३६-४०॥

व्याख्या-विवाह एक पवित्र बंधन है, जिसमें दो आत्माओं का उच्च्स्तरीय प्रयोजनों हेतु मिलन-संयोग होता है । इस परंपरा में विकृतियों का समावेश मनुष्य की कुटिल बुद्धि की उपज है । कन्यादान के साथ धन-संपदा, विलास के साधनों का आदान-प्रदान एक शर्त के रूप में जोड़ देना, स्वार्थ बुद्धि की पराकाष्ठा तो है ही, मनुष्य की शोषक, क्रूर प्रवृत्ति का परिचायक भी है ।

दुर्भाग्यवश इश पवित्र मिलन के साथ मध्यकाल के अंधकारयुग में ऐसे कुप्रचलनों का समावेश हो गया, जिन्होंने न केवल विवाह संस्था को कलुषित किया, अपितु अनेक निरपराध मासूम कन्याओं को दहेज कीं बलिवेदी पर चढ़ने को विवश कर दिया । जहाँ गुण, कर्म, स्वभाव का परस्पर मिलकर परिष्कार होना चाहिए था, वहाँ इसके विपरीत व्यावसायिक वणिक वृत्ति ने पारस्परिक संबंधों के मध्य एक गहरी दरार पैदा कर दी है। इससे आपस में दो व्यक्तियों के मिलकर एक होने की बात तो दूर, संदेह-धृणा-अपमान एवं अशिष्ट कृत्यों ने नारकीय परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दी हैं ।

अपव्यय से युक्त विवाहों के लिए दोनों ही पक्ष दोषी हैं । धूमधाम का प्रदर्शन जिस अहंता की वृत्ति के कारण किया जाता है, उसे त्यागा जाना चाहिए । खर्चीले विवाह निहित ही व्यक्ति को दरिद्र एवं बेईमान बनाते हैं । गरीबों या सामान्य व्यक्तियों द्वारा अमीरों का स्वाँग बनाया जाना, एक बुरी किस्म का फूहड़पन है । दहेज को रिवाज जब भी कभी था, तब वह विशुद्ध सी धन के रूप में स्वेच्छा से दिया जाता था । पिता, भाई, कुटुंबी, संबंधी अपनी सामर्थ्यानुसार कुछ धन लड़की को देते थे, ताकि वह संकट के समय काम आ सके । अब जब वर पक्ष कन्या के साथ जबर्दस्ती दहेज की रकम भी दिए जाने की शर्त ठहराता हैं, तो वह विवाह पुण्य कृत्य व होकर आसुरी कृत्य हो जाता है। दहेज कम मिलने पर वधू को जलाकर मार देने या गला घोंट देने जैसे पैशाचिक कृत्य, नित्य इन दिनों प्रकाश में आ रहे हैं । राज्य दंड तो इन्हें मिलना ही चाहिए, ऐसे कृत्य करने वालों को सामाजिक दंड भी मिलना चाहिए, ताकि उन्हें व अन्यों को सीख मिले।

पति: पत्नी च प्राणैस्तु गच्छेतामेकतां सदा।
शरीरेण द्वयं स्यातां स्नेहसम्मानमेव च॥४१॥
सहयोग सदापूर्णं विश्वासं च परस्परम् ।
अर्पयेतामुभौ नैव गूहेतां किमपि क्वचित् ॥४२॥
त्रुटयश्च सदा शोध्या हेया प्रतिशोधभावना ।
न ग्राह्या मतभेदाश्च विचौरस्ते परस्परम्॥४३॥ 
समाधेया: स्वपक्षे च हठं नैव समाश्रयेत् ।
कोऽपि तत्र विपक्षं च भावयन् स्वं, विचारयेत् ॥४४॥
काठिन्यं विवशं भावमन्यपक्षगतं सदा ।
आक्रोशं नाधिगच्छेच्च भग्ने स्वीये मनोरथे ॥४५॥

भावार्थ-पति-पत्नी एक प्राण दो देह बनकर रहें एक-दूसरे को परिपूर्ण स्नेह-सम्मान-सहयोग एवं विश्वास प्रदान करें। परस्पर दुराव न रखें भूलों को सुधारते और भुलाते रहे प्रतिशोध की भावना न रखें । मतभेदों कों विचार-विनिमय से सुलझा लिया करें । कोई पक्ष आग्रहशील-हठवादी न बने । दूसरे की कठनाई
और लाचारी पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करे । अपनी मर्जी पूरी न होने पर आक्रोश से न भरे॥४१-४५॥

व्याख्या-सुखी, सफल दाम्पत्य जीवन तभी संभव है, जब नर व नारी दोनों एक-दूसरे के पूरक होकर जिएँ। पति-पत्नी में आपस में कोई दुराव-छिपाव न हो । गल्तियाँ दोनों में से किन्हीं की भी हो सकती हैं । उन्हें विनम्रता से इंगित कर उनका समाधान निकाला जा सकता है । सौजन्य एवं सहकार पर ही परिवार रूपी रथ की धुरी टिकी हुई है । इसमें दुराग्रह, पूर्वाग्रह या प्रतिशोध की भावना पनपने का अर्थ है, विग्रह का जन्म लेना, ऐसे संदेहों का जन्म होना, जो पुन की तरह धीरे-धीरे उस शहतीर को नष्ट कर डालते हैं, जिस पर भवन टिका हुआ है।

आदर्श गृहस्थ मेरी व टामस

जब पति व पत्नी आपस में घुल-मिलकर रहते हैं, तो घर स्वर्ग नजर आता हैं, चारों ओर आनंद ही आनंद संव्यापत होता है, परिस्थितियाँ चाहे कितनी ही विषम क्यों न हों।

मेरी और टामस का दाम्पत्य जीवन अनंत प्रेम से भरा-पूरा था। हर वर्ष विवाहोत्सव मनाते और छोटा-मोटा उपहार उस दिन एक दूसरे को भेंट करते, गरीबी में जो दिन काटते थे ।

उस वर्ष का विवाह का दिन फिर आया। दोनों एक दूसरे के लिए उपहार देने की योजना बनाने लगे पर जेबें बिल्कुल खाली थीं।

टॉमस ने पत्नी के सुनहरे बालों में लगाने के लिए एक सुनहरी क्लिप खरीदने की बात सोची । मेरी सोचने लगी, पति की हाथ घड़ी के लिए सुनहरी चेन खरीदी जाय । दोनों के मनोरथ मन में थे। साधन जुट नहीं रहा था । दिन निकट आ गया।

टॉमस पुरानी घड़ी खरीदने वाले की दुकान पर गया और घड़ी बेचकर बदले में सुनहरी क्लिप खरीद लाया। मन में बहुत प्रसन्नता थी ।

मेरी क्या करती; वह सुनहरे बाल खरीदने वाले की दुकान पर गयी और अपने घुँघराले बाल कटाकर मिले
पैसे से घड़ी की चेन खरीद लायी। सिर पर टोपा लगा लिया ।

दिन आया, उपहार देने के लिए। एक ने दूसरे की ओर हाथ बढ़ाया । क्लिप कहाँ लगे बाल नदारद । चेन कहाँ बँधे, घड़ी गायब । पूछने पर तथ्य खुला । शोभित न हो सकने पर भी, इन उपहारों ने एक-दूसरे का दिल सदा-सदा के लिए जीत लिया । दोनों की आँखों में प्रेम के आँसू भरे थे । इस तरह मना वह विवाह दिवसोत्सव ।

मुरली का समर्पण

राधा ने मुरली से ईर्ष्या करते हुए पूछा-' तुम्हें भगवान के होठों से लगे रहने का सौभाग्य क्यों कर मिला?"


मुरली ने कहा-"मेरी साधना तो कुछ नहीं; पर अपने को खोखली पूरी तरह कर दिया है और वादक को इच्छानुरूप उपयोग करने का अधिकार दिया है।

इसी समर्पण भावना से ईंधन आग बनता है, नाला नदी और पानी दूध । यही समर्पण भाव दाम्पत्य जीवन में हो, तो गृहस्थ जीवन सार्थक बनाया एवं कर्तव्यों को भली-भाँति निभाया जा सकता है।

धनिष्ठता हो तो ऐसी

दाम्पत्य जीवन की पवित्रता एवं घनिष्ठता सारस आदि पक्षियों में देखी जाती है; पर चकवा-चकवी का उदाहरण अनुपम है । दोनों साथ-साथ रहते हैं । दोनों में से किसी की मृत्यु हो जाय, तो दूसरा विलख-विलख कर प्राण छोड़ देता है । दूसरा साथी फिर नहीं ढूंढ़ता ।

जीव जगत् के दाम्पत्य धर्म के उदाहरण

ह्वेल मछली अपने बच्चों को साथ लिए फिरती है और संकट आने पर पहले बच्चों को सुरक्षित स्थान पर छोड़ती है, पीछे उलटकर आक्रमणकारी का मुकाबला करती है । ऐसे अवसर पर नर ह्वेल भी पूरी तरह मादा का साथ देता है। संकट के समय भाग खड़ा होने की अपेक्षा उसे अपनी प्रियतमा के साथ मरना पसंद होता है।

कबूतर, पंडुक, सारस आदि पक्षी पतिव्रत और पत्नीव्रत पालन करते हैं, वे एक बार संबंध स्थापित कर लेने के बाद उसे वफादारी के साथ आजीवन निबाहते हैं ।

घोंसला बनाने, अंडे सेने से लेकर बच्चों के पालन-पोषण तक का सारा काम नर-मादा पेंगुइन मिल-जुलकर पूरा करते हैं, प्रणयक्ती परिणति दाम्पत्य सहयोग और शिशु पालन में भागीदार रहने तक के उत्तरदायित्व को नर भली प्रकार समझता है और उसे भली प्रकार निबाहता भी है । बच्चे पानी में तैरने से डरते हैं-इस भय से छुटकारा दिलाने के लिए पेंगुइन उन्हें बलपूर्वक पानी में धकेलती है और तैरने की कला सिखाती है, प्राय: दो-तीन महीने में बच्चे तैरने की ट्रेनिंग पूरी कर पाते है ।

विवाह से पूर्व नर और मादा रैवेन एक वर्ष तक लगातार साथ-साथ रहते हैं। मादा अपने लिए ऐसे नर का चुनाव करती है, जिसमें नेतृत्व के गुण हों, जो साहसी हो, निर्भय हो । आलसी, दुर्बल, मूर्ख आदमियों की कौन पूछ करे, वह प्रकृति से उद्योगी, साहसी और हिम्मतवालों का वरण करती है, मादा रैवेन इस मामले में पूरी छानबीन करके अपना फैसला देती है । यदि वह देखती है कि नर में नरोचित गुणों का अभाव है, तो उसे छोड़कर किसी अन्य का वरण करती है ।

घुल-मिल कर रहो

एक गृहस्थ एक बार परेशान होकर गुरुदेव के पास आया और बोला-"मैंने कई प्रयास कर लिए, पर मेरी पत्नी से मेरी पटरी नहीं बैठ पाई । वह तो अपनी ओर से कुछ कहती नहीं, पर जैसा मैं चाहता हूँ, वैसा वह अपनी क्रियाओं में नहीं ला पाती । बताइए, मैं क्या करूँ?"

गुरुदेव ने बिना कुछ कहे, दो बाल्टी जल मँगवाया । एक बाल्टी में एक बूँद तेल डाल दिया एवं एक बाल्टी में एक अंजलि दूध । तेल की परत पानी पर फैल गयी, जबकि दूध पानी के साथ एकाकार हो गया। अपना परीक्षण समझाते हुए उन्होंने कहा-"तुम्हें पारिवारिक जीवन में दूध की तरह घुल-मिल जाना चाहिए, तेल की तरह हावी होने का प्रयास नहीं करना चाहिए ।"

गृहस्थ जीवन का मर्म उसकी समझ में आ गया एवं वह उत्साह से भर कर घुल-मिलकर जीवन निभाने पुन: घर लौट आया ।

आदर्श दाम्पत्य प्रेम

व्रेनरे एक बुनाई की मशीन पर काम करने वाला मजदूर था । दोपहर की छुट्टी में उसकी स्त्री गरम खाना बनाकर नियमित रूप से फैक्ट्री में पहुँचाती। पच्चीस वर्षो में एक ही अवसर ऐसा हुआ कि वह नहीं पहुँची। व्रेनरे ने समझा, कोई जरूर विशेष बात है। भागकर वह घर पहुँचा, देखा तो पत्नी बीमार थी। दवा-दारू का इंतजाम करके वह वापस फैक्ट्री पहुँचा। इस बीच वह मशीन बंद करना भूल गया । इन्सपैक्टर ने आकर उसे बंद किया । वापस आने पर मालिक ने उसकी गल्ती पर तीन महीने की तनख्वाह काट ली; किन्तु आदर्श दाम्पत्य प्रेम के लिए एक हजार रुपये का पुरस्कार भी दिया । यह चर्चा बहुत दिन तक सारी फैक्ट्री में चलती रही ।

आयु का नहीं, गुण का महत्व

इंग्लैंड के इतिहास में प्रख्यात प्रधानमंत्री डिजरायली जीवन के आरंभिक दिनों में गरीबी में दिन गुजारते थे और पत्रिकाओं में छुट-पुट लेख लिखकर काम चलाते थे। उनने अपने से १२ वर्ष बडी महिला से विवाह किया । वह रूपसी नहीं, गुणावती थी । आयु के साथ उनकी बुद्धि में भी दूरदर्शिता और परिपक्वता की मात्रा बढ़ गयी थी ।

प्रचलन न होने से मित्र हँसी उड़ाते थे; पर वे यही उत्तर देते-कम उम्र की नादान छोकरियाँ अपनी लुभावनी
चंचलता के अतिरिक्त और कुछ नहीं दे सकतीं । बुद्धिमान साथी की सलाह से मुझे प्रगति के पथ पर तेजी के साथ बढ़ने और प्रधानमंत्री पद तक पहुँचने में सफलता मिली ।

इस जोड़े की घनिष्ठ मित्रता और तुष्टि उस जमाने में आदर्श मानी जाती थी। उनका अनुसरण करते हुए, उन दिनों युवक बड़ी आयु की पत्नियाँ खोजने लगे थे ।

सावित्री-सत्यवान्

राजकुमारी सावित्री विद्वान्, गुणवान्, रूपवान्, धनवान् थी । विवाह का वय आने पर उसने किसी आर्दशवादी को साथी बनाने का निश्चय किया, जो स्वयं भी आगे बढे़ और उसे भी ऊँचा उठाये ।

राजकुमारी ने सभी आए हुए प्रस्ताव अस्वीकार कर दिए । मंत्रियों और रक्षकों के साथ उपयुक्त साथी की तलाश में स्वयं निकल पड़ी ।

खोजते-खोजते उसे रास्ते में एक युवा लकड़हारा मिला । चाल-ढाल से किसी सभ्य परिवार का दीखता था । रथ रोककर, राजकुमारी ने पूछा, तो उसने बताया-"पिता-माता वानप्रस्थ लेकर इसी वन में साधना कर रहे है । घर में राजपाट है, उसे भाइयों को सौंप कर मैं माता-पिता की सेवा के लिए साथ आ गया हूँ । गुजारे के लिए लकड़ी काटने-बेचने का भी काम करता हूँ। शिक्षा मेरी पूरी हो चुकी है ।

राजकुमारी ने उसे अपने उपयुक्त माना, रथ रोका, विवाह का प्रस्ताव रखा । इसके लिए युवक के माता-पिता को सहमत किया । साथी के साथ ऐसा कष्ट साध्य जीवन अपनाने का निश्चय सुनाया । निदान विवाह हो गया । राजकुमारी सावित्री लकड़हारे सत्यवान् की पत्नी बनकर वनवास में रहने लगी। लंबी अवधि इसी प्रकार बीत गयी ।

राजकुमार का मरण काल आ पहुँचा। यम लेने आये; पर ऐसे आदर्शवादी जोड़े पर हाथ डालने का उनका भी मन न हुआ । निकाले हुए प्राण उन्होंने वापस लौटा दिये । सावित्री की आदर्शवादिता ने यम जैसे कठोर को पिघला दिया और इतिहास को धन्य कर दिया ।

एक दूसरे के पूरक 

इटावा जिले के एक देहात में लालताप्रसाद नामक एक ब्राह्मण रहता था । बिजली के तारों से खेलते समय वह नीचे गिरा, फलत: कंधे पर से उसके दोनों हाथ काटने पड़े ।

विवाह थोड़े दिन पहले ही हुआ था । पिता अपनी लड़की का दूसरा विवाह करना चाहते थे; पर स्त्री ने उस बिना हाथ वाले पति की सेवा करने को ही ठीक माना ।

लालताप्रसाद कंधों पर दूध के डिब्बे लादकर बेचने जाता । पत्नी ने दो भैंस, दो गाय पाल रखी हैं । दोनों
मिलकर दूध का व्यवसाय चलाते हैं और पंद्रह-बीस रुपया रोज कमा लेते हैं। इनके तीन बच्चे भी है । हाथ की जरूरत के सारे काम पत्नी के हाथों से निकल जाते हैं । लोग इन पति-पत्नी के पुरुषार्थ को देखकर आश्चर्यचकित रह जाते है ।

पारस्परिक सहयोग की फलश्रुतियाँ

अवंतिका बाई के पति बंबंई में मशीनों की दुकान करते थे । गुजारा ठीक चलता था, पर उनके हाथ की एक उँगली मर्शान में कट गयी थी । उनने प्रेरणा देकर पत्नी को नर्स की ट्रेनिंग करायी और स्वावलंबी तथा सुसंस्कारी बनाने में कोई कमी न रखी । नर्स की नौकरी करने के उपरांत भी अवंतिका बाई ने देश सेवा के कार्यो में भाग लेना शुरू किया और वे बंबई में अनेक महिला कार्यकर्त्री उत्पन्न करने में सफल रहीं।

वे गाँधी जी के स्वतंत्रता आंदोलन में सम्मिलित हुई और नौ महीने की जेल काटी । गाँधी जी ने चम्पारन सत्याग्रह में महिला सम्पर्क के लिए उन्हें विशेष रूप से बुलाया था।

बंबई जाकर उन्होंने 'भारतीय महिला समाज' की स्थापना की और प्रौढ़ महिला शिक्षा तथा कुरीति उन्मूलन के लिए विशेष प्रयत्न किया एवं बंबई कारपोरेशन की सदस्या चुनी गई । उनकी सार्वजनिक सेवाओं से बंबंई का बच्चा-बच्चा परिचित और प्रभावित था।

यह सब काम उन्होंने गृहस्थ के उत्तरदायित्व निभाते हुए पूरे किए और उदाहरण प्रस्तुत किया कि गृहस्थ में
रहते हुए भी नारी बहुत कुछ कर सकती है । यह उनके पति के सहयोग से ही संभव हुआ ।

नारी उत्कर्ष के लिए समर्पित पति-पत्नी

कुमारी धनवती हुगली में जन्मीं, मद्रास विश्वविद्यालय से एम०ए० किया और क्वीन मेरी कालेज में आध्यात्मिक हो गई।

उनका विवाह एक उच्च पदाधिकारी से हुआ । विवाह होते ही दोनों के बीच विचार-विमर्श हुआ कि एक आजीविका चलाये, दूसरा समाज सेवा करे। परामर्श का निष्कर्ष यह निकला कि पति नौकरी करे और पत्नी समाजसेवा । धनवती देवी ने दूसरे दिन ही इस्तीफा दे दिया और नारी उत्थान के योजनाबद्ध कार्यक्रम में जुट गईं ।

उनने नारी समाज को ऊँचा उठाने के लिए अनेक उपयोगी संस्थाएँ बनाई और चलाई । 'इंडियन वीमन एसोसियेशन', 'बाल-विवाह और पर्दा विरोधी समिति', परिवार नियोजन संस्था' आदि अनेक संस्थाओं के माध्यम से उन्होंने बड़े महत्वपूर्ण कार्य किए। बंगाल दुर्भिक्ष के लिए उनने धन संग्रह किया ।"

उन्हें भारत सरकार ने पद्यभूषण अलंकार दिया । 'केसरे हिन्द' कहलाई और अंतर्राष्ट्रीय अल्वर्ट एवार्ड उनने जीता । भारत के नारी उत्कर्ष अभियान में उनका नाम सदा अमर रहेगा ।

क्रांतिकारियों दुर्गावती

भगवतीचरण बोहरा की बम बनाते समय लाहौर में ही मृत्यु हो गयी। उनने जीवित रहते पत्नी को पड़ा कर अध्यापिका बना दिया था और दोनों ने प्रण किया था कि जो भी पीछे रहेगा, क्रांतिकारी दल का काम करेगा ।

बोहरा जी की धर्मपत्नी दुर्गादेवी ने अपने कर्तव्य को भली प्रकार निबाहा । भूमिगत क्रांतिकारी इनके यहाँ आश्रय पाते थे और सूचनाओं तथा अस्त्रों के आवागमन का उनके दर को केन्द्र मानते थे। नारी होते हुए भी उनने नर से अधिक साहस और सूझबूझ का परिचय दिया ।

पुत्री गुलाम नहीं, सहचर है मंदोदरी

आवश्यकता पढ़ने पर नारी को पति के लिए एक शिक्षक की भूमिका भी निभानी पड़ती है। अनीति से समझौता न करना, पति को सही रास्ते पर लाने का प्रयास करना, उसका एक ऐसा गुण है, जो कहीं और भी देखा जाना दुर्लभ है ।

मंदोदरी रावण की पत्नी तो थी; पर उसकी गुलाम बनकर नहीं रही और न अपनी स्वतंत्र विवेक-बुद्धि से हाथ धोया। सीताहरण के वह अंत तक विरुद्ध रही।

रावण के मरने पर उसने प्रजाहित को प्रधानता दी और विभीषण की पत्नी बनकर लंका के पुनर्निर्माण में जुट गई ।

सच्ची क्षत्राणी-येशुबाजी 

शिवाजी का बडा लड़का शंभाजी अपने पिता से सर्वथा लम्पट, धूर्त और दुश्चरित्र था । शिवाजी ने उसे कैद में बंद करवा दिया था न् पर उसकी पत्नी येशुबाई को शिवाजी ने ऐसा प्रशिक्षित किया कि शंभाजी को ठोंक-पीट कर रास्ते पर ला सके । शिवाजी की मृत्यु के याद शंभाजी ने पिता का स्थान ग्रहण किया; पर उन पर पूरी तरह नियंत्रण येशुबाई का था। इस नियंत्रण ने उसमें आश्चर्यजनक परिवर्तन किया। वह मराठा गौरव के अनुसार औरंगजेब से टक्कर लेता रहा ।

इस बीच येशुबाई ने मराठाओं की उस जागृति और वीरता को घटने नहीं दिया, जो उनके ससुर शिवाजी ने उत्पन्न की थी।

शंभाजी घायल हुए और येशुबाई बंदी बनाई गई । इस पर भी वे गुप्त सूत्रों से, अपने समूचे क्षेत्र का गुप्त मार्गदर्शन करती रहीं । जब वे बंदी थीं, तो उन्होंने औरंगजेब की पत्नी जहाँआरा और पुत्री रोशनआरा को अपने पक्ष में कर लिया था। ऐसी थी आकर्षण व्यक्तित्ववाली प्रतिभा संपन्न येशुबाई । सत्रह वर्ष बंदी रहने के उपरांत ७० वर्ष की आयु में जब वे छूटीं, तो मराठों में उनने नया जीवन भर दिया ।

विद्योत्तमा ने पति को विद्वान् बनाया

पत्नी के सहयोग से विद्वान् बने साहित्यकारों में कालिदास का नाम चिरस्थायी रहेगा । वे आरंभ में अशिक्षित थे । विदुषी विद्योत्तमा शास्त्रार्थ करके अपने समतुल्य विद्वान् वरण करना चाहती थी । धूर्त पंडितों ने षड्यंत्र करके उनका विवाह कालिदास से करा दिया।

वास्तविकता प्रतीत हुई, तो उन्हें दु:ख तो हुआ, पर स्वयं उन्हें पढ़ाने में लग गई। कहा, असली पति तुम्हें तब मानूँगी, जब विद्वान् बन सकोगे । कालिदास पूरी लगन से पढ़ने में लग गए और वे देश के माने हुए विद्वान् और राजकवि बने । उनकी संस्कृत रचनाएँ अत्यंत भावपूर्ण हैं। पत्नियाँ भी पति को सुयोग्य बना सकती हैं। इसका कालिदास चरित्र जीता-जागता उदाहरण है ।

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118