परिवर्तनवेलायां युगस्यात्र नवाय च ।
सृजनाय गृहस्थस्य योगदानं समस्य तु॥७७॥
अंशदानमपीहस्यान्नियमितं सुनियोजितम् ।
नरैर्ज्ञानघट स्थाप्य: स्त्रीभिर्धर्मंघट: पृथक्॥७८॥
सत्प्रयोजनहेतोञ्च कर्तंव्यस्य धिया तु यत् ।
नित्यं नियमरूपेण विहितं महदेव तु ॥७९॥
अल्पमप्युच्यते पुण्यदायकं मंहदेव तु ।
सुखशान्तिप्रदा चास्य परिणति: सोभयत्न तु॥८०॥
भावार्थ-युग परिवर्तन की इस पुनीत वेला में नव सृजन के लिए हर सद्गृहस्थ का योगदान, अंशदान नियमित रूप से नियोजित होते रहना चाहिए । इसके लिए पुरुष ज्ञान घट की और नारियाँ धर्मघट की स्थापना करें । कर्तव्य भाव से सत्प्रयोजनों के लिए नित्य-नियमपूर्वक दिया गया थोड़ा सा अगुदान भी महान पुण्यफलदायक
होता है और उसके परिणाम इस लोक और परलोक में सुख-शांति प्रदान करने वाले होते हैं॥७७-८०॥
व्याख्या-साधना, स्वाध्याय और सत्संग हेतु प्रेरणा उभारने के बाद महर्षि हर सद्गृहरथ को निर्देश देते हैं किं उन्हें अपनी उदार परमार्थ-परायणता को विकसित कर योगदान-श्रम, समय, प्रभाव, ज्ञान एवं उपार्जन का एक अंश समाज के उत्थान के लिए सेवा रूप में नियोजित करना चाहिए, क्योंकि समाज के अनुदानों से ही मनुष्य आगे बढ़ पाता है। सुख-सुविधाएँ पाता है। यदि लोग समाज के कोष से लेते ही रहे, कुछ दें नहीं, ऋण चुकाएँ नहीं, तो भंडार खाली हो जायगा। सभ्य-सुसंस्कृत लोग पिछड़ों को सुशिक्षित करने, सभ्य बनाने, ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने का प्रयत्न न करें, तो वह परिवार समाज और राष्ट्र रसातल की ओर खिसकने लगेगा। अत: आत्म कल्याण एवं लोक मंगल के लिए सेवा साधना का क्रम अपनाना नितांत आवश्यक है ।
पुण्य-परमार्थ, लोक मंगल, जन कल्याण समाजहित आदि सेवा-साधना के ही पर्यायवाची नाम हैं और इसी में मनुष्य जीवन की सार्थकता है। जिन व्यक्तियों ने भी इस पद्धति से जीवन सार्थकता की साधना की, मनुष्य और समाज का स्तर ऊँचा उठाने के लिए योगदान दिया, सामाजिक सुख-शांति में बाधक तत्वों का उन्मूलन करने के लिए प्रयत्न किए, समाज जे उन्हें सर-आँखों पर उठा लिया। महापुरुषों के रूप में आज हम उन्हीं नर-रत्नों का स्मरण और वंदन करते है।
महर्षि व्यास ने महाभारत में कहा है-" जीवन: सफलं तस्य यः पराथोद्यत: सदा" अर्थात उसी का जीवन सफल है, जो सेवा में, परोपकार में सदैव प्रवृत्त रहता है । "परोपकार: पुयाण्य"-परोपकार ही पुण्य
का जनक है ।
इतना ही नहीं गोस्वामी तुलसीदास जी ने तो यहाँ तक कह दिया है-
परहित बस जिनके मन माँही । तिन कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥
सेवा के अनेकों मार्ग हैं । इनमें श्रमदान, अंशदान, समयदान और ज्ञानदान प्रमुख हैं। श्रेष्ठ सत्कर्मी के लिए सामान्यजनों का श्रमदान, नवनिर्माण के प्रयोजनों-पीड़ा निवारण के सत्प्रयोजनों के लिए वरिष्ठों और
समर्थो का अंशदान-साधनदान और समयदान तथा मनुष्यों की पतनोत्मुखी-अधोगामी प्रवृत्तियों को परिष्कृत
करके उन्हें उत्कृष्टतावादी बनाने के लिए विभूतिवानों, प्रतिभावानों का ज्ञानदान, जिनके पास जो विभूति हो, वह उसे ही उसके लिए नियोजित करते रहने का नियमित क्रम बना लें, अले ही वह न्यूनतम एवं आंशिक ही क्यों न हो, तो इतना बड़ा कार्य हो सकता है कि इतिहास में उसे स्वार्णाक्षरों में लिखा जा सके ।
सार्थक श्रमदान
जो जिस स्थिति में है, अपने लिए ऐसा क्षेत्र चुन सकता है कि कुछ करने का अवसर मिले । गौड़ देश में एक भावनाशील श्रमिक रहता था। जितना कमाता, उतना गुजारे में ही खर्च हो जाता। दान-पुण्य के लिए कुछ न बचता । इससे वह दुखी रहने लगा । बिना परमार्थ किए परलोक में कैसे सद्गति मिलेगी? अपनी व्यथा उसने उस क्षेत्र के निवासी मद्रक संत को सुनाई। उनने कहा-"इस क्षेत्र में बहुत से तालाब हैं, पर वे अब समतल हो गए है । उनमें गहराई न रहने से पानी भी नहीं टिकता और ष्यासे पशु-पक्षी अपनी प्यास बुझाने के लिए दूर-दूर तक जाते हैं । मनुष्यों को भी कम कष्ट नहीं होता । तुम इन तालाबों को जहाँ भी पाओ वहीं अपना परिवार लेकर रहो और श्रमदान कर तालाबों का जीर्णोद्धार करते रहो । जिस प्रकार नए मंदिर बनवाने की अपेक्षा पुरानों
का जीर्णोद्धार श्रेष्ठ माना जाता है, बच्चे उत्पन्न करने की अपेक्षा रोगियों की सेवा प्रदान करना श्रेयस्कर है, उसी प्रकार तुम श्रमदान के आधार पर तालाबों का जीर्णोद्धार करो और उन्हीं के समीप वृक्ष भी लगाओ। किसान श्रमिक के पास अपनी श्रम संपदा प्रचुर थी, उसी से वह निर्वाह के अतिरिक्त परमार्थ भी अर्जित करने लग गया और संत के परामर्शानुसार परम श्रेय का अधिकारी बना।
महापुरुषों के अंशदान-योगदान
प्राचीनकाल में लोकसेवी परंपरा के अंतर्गत जितने भी संत, ऋषि, विचारक, मनीषी और महापुरुष हुए हैं, उन्होंने अपने लिए कम से कम आवश्यकताएँ रखने, ब्राह्मणोचित औसत नागरिक स्तर का जीवन जीने तथा शेष बचे हुए श्रम, समय, मनोयोग एवं संपदा को लोकमंगल के लिए नियोजित करते रहने का दृष्टिकोण अपनाया था। ऋषियों के रहन-सहन की सादगी और उनके योगदान इतने सुविख्यात हैं कि उस संबंध में कुछ भी कहना पुनरुक्ति ही कहलाएगा ।
चाणक्य ने भारत को एक राष्ट्र के रूप में संगठित करने के लिए चंद्रगुप्त का मार्गदर्शन किया, हमेशा एक कुटिया में रहे। यदि वे चाहते, तो अपने लिए प्रचुर साधन-सुविधाएँ जुटा सकते थे और सुविधा-संपन्न जीवन व्यतीत कर सकते थे, लेकिन उन्होंने न्यूनतम आवश्यकता की मर्यादा का हीं पालन किया और शेष लोकमंगल के लिए समर्पित कर दिया ।
इस युग में भी न्यूनतम आवश्यकताओं को रखते हुए जीवन व्यतीत करने वाले अनेक महापुरुष हुए हैं और उन्हें भरपूर जन श्रद्धा भी मिलीं है । गोपाल कृष्ण गोखले, महर्षि अरविंद, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, गांधी आदि मनीषी-महामानवों का जीवन तो तीस-चालीस वर्ष पूर्व की ही बात है। उन्होंने अच्छी संपन्न स्थिति में रहते हुए भी
न्यूनतम साधनों का उपयोग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किया। शेष संपदा को लोकमंगल के कार्यो में लगा दिया ।
गोपाल कृष्ण गोखले अच्छी संपन्न स्थिति के थे और आमदनी भी उन्हें पर्याप्त होती थी, पर उन्होंने अपने लिए यह मर्यादा बना ली थी कि परिवार के लिए तीस रुपये से अधिक खर्च नहीं करेंगे। उन्होंने आजीवन इस मर्यादा का पालन किया।
महर्षि अरविंद जब इंग्लैंड से शिक्षा प्राप्त कर लौटे, तो उनकी नियुक्ति बड़ौदा के एक कॉलेज में ५०० रुपये माहवार पर हुई। चाहते तो अच्छा ठाट-बाट का जीवन व्यतीत कैर सकते थे, लेकिन उन्होंने निश्चय किया कि पचहत्तर रुपये में ही अपना गुजारा चलाएंगे और वास्तव में उन्होंने अपने निश्चय के अनुसार ही जीवन स्तर रखा । ईश्वरचंद्र विद्यासागर को पाँच सौ रुपये प्रतिमास मिलते थे, लेकिन उन्होंने अपने लिए पचास रुपये की ही व्यय सीमा रखी और आजीवन उसी स्तर को कायम रखते हुए सेवा धर्म का पालन करते रहे ।
महात्मा गाँधी एक सस्ता सा कपड़ा-धोती ही पहनते थे और सादे से सादा भोजन करते थे । इसी में उन्हें संतोष की अनुभूति होती थी और जन साधारण से निकट की आत्मीयता की अनुभूति भी प्राप्त होती रहती थी। अपने बीच का, अपनी स्थिति का व्यक्ति मानकर लोगों ने उन्हें जो सम्मान दिया, वह बीसवीं शताब्दी में शायद ही किसी व्यक्ति को मिला हो।
सुकरात के संबंध में कहते हैं कि जब वे कोई वस्तु खरीदते या कोई नया साधन जुटाते, तो उसके पहले अपने आप से यह प्रश्न करते थे कि क्या इस वस्तु के बिना मेरा काम नहीं चल सकता है? यदि उत्तर हाँ में मिलता, तो वे खरीदते अन्यथा उस विचार को छोड़ देते थे ।
सही परामर्श
वैशाली की एक संपन्न महिला थी-मंडप दारिका । सूना घर, पास में पैसा । सभी हित-संबधी उसे किसी न किसी रूप में नोंचतें घात लगाते रहते । से उसनें अपनी व्यथा कही । उनके परामर्श से धन को एक बुद्ध विहार बनवा देने में लगा दिया और स्वयं गौतमी के साथ देश-देशांतरों में धर्मोपदेश देती हुई भ्रमण बारने लगी।
बासी-बुसी खाते हैं
एक भिक्षुक किसी सद्गृहस्थ के दरवाजे पर भिक्षा की याचना कर रहा था। पुत्रवधू ने उसे यत्किंचित् देते हुए कहा-"हमारे पास कुछ कमाई नहीं है, दें कहाँ से?" भिक्षुक ने कहा-"फिर आप लोग खाते क्या हैं?" "बासी-बुसा जो पुराना पड़ा है । उसी को खा-पीकर काम चलाते हैं ।" भिक्षुक ने कहा-"जब वह बासी-बुसा समाप्त हो जाएगा, तो क्या करोगे?" पुत्रवधू बोली-" तब हम लोग आप ही की तरह माँगेंगे-खाँएंगें ।" भीतर बैठा ससुर यह सब सुन रहा था । वधू पर बहुत क्रोध किया और कहा-"भिक्षुकों के सम्मुख हमारी बदनामी कराती है ।"
पुत्रवधू बड़ी शीलवान थी । उसने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया-"घर में जो-जो संपदा है, वह आपके पूर्व संचित
पुण्यों के फलस्वरूप है । उसी को पूरा परिवार खा रहा है । यह बासी-बुसा नहीं है तो क्या है? नया पुण्य न करने से बाद में हमें भिक्षुक की तरह माँगना-खाना पड़ेगा ।" ससुर की आँखें खुल गई । उसने दान-पुण्य करके भविष्य उज्ज्वल बनाने की नीति अपनाई । उदारता अपनाने की शिक्षा छोटों से भी मिले, तो खुले हृदय से स्वीकार करना चाहिए ।"
सोने के पात्र समाज के लिए
लोकसेवियों का स्वार्थ भी परमार्थ के लिए होता है । वे जहाँ धन संचय देखते हैं, वहाँ प्रेरणा फूँकते है, ताकि वह धन सत्प्रवृत्ति में नियोजित हो ।
इंदौर में हिंदी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन महात्मा गांधी के सभापतित्व में हुआ । नगर सेठ हुकुमचंद ने महात्मा गांधी और उनके सहयोगियों को भोजन के लिए आमंत्रित किया । आगंतुकों के लिए शानदार आसन, चाँदी के बर्तन बहुत ही सुंदर साज-सज्जा की गई। महात्मा गांधी के लिए सोने के बर्तन थे। बापू मुस्कराए। वे अपने बर्तन उन दिनों एलम्यूनियम के रखते थे । कस्तूरबा से बर्तनों का थैला माँगकर उन्हीं को रख लिया और सोने के बर्तन वापस कर दिए । सेठ जी ने सोने के बर्तनों में खाने की जिद की तो गाँधी जी ने यही कहा-"जो वस्तु गरीबों को मिल सकती है, उसी का मैं उपयोग करता हूँ ।" सेठ हुकुमचंद ने सोने के बर्तन देश के काम में प्रयुक्त करने के लिए गांधी जी को दे दिए, तभी उनने उनमें भोजन करना स्वीकार किया ।
अपारग्रह एवं साधुता
कितना स्वयं के लिए हो, कितना समाज के लिए, इसका उदाहरण अग्रदूत स्वयं प्रस्तुत करते है । भावावेश में कितने ही पारिव्राजकों ने भिक्षु दीक्षा ली थी और उन्होंने अपरिग्रह का व्रत लिया था, पर समय गुजरते, पुराने प्रलोभन फिर लौट आए । उनने चीवर संग्रह करने आरंभ कर दिए । सभी के पास परिधानों के गट्ठर थे । तथागत इस शील शैथिल्य पर बहुत दुखी हुए । इतनी जल्दी व्रत भूल जाने पर ये लक्ष्य तक कैसे पहुँचेंगे? उस दिन तथागत खुले में सोये । ठंड के दिन थे, सो एक
चादर ओढ़ ली, अर्द्धरात्रि को ठंड पड़ी, तो दूसरी चादर ओढी अंतिम प्रहर में शीत का प्रकोप अधिक हुआ, तो उनने तीसरी चीवर ओढ़ कर नींद का आनंद लिया। समाचार सारे संघाराम में फैल गया। भिक्षुओं ने तीन चीवर गुजारे के लिए पर्याप्त समझा और शेष सभी आश्रम के भंडार में जमा कर दिए। उनने अनुभव किया कि साधुता का अपरिहार्य अंग अपरिग्रह भी है ।
जो सामाजिक दायित्वों के प्रति जागरूक होते हैं, उन्हें चिंता रहती है कि एक-एक घटक कौ उसके हिस्से का मिले।
चंद्रमा ने डाँटकर कहा-"सिंधुराज! तुम्हें सारा जल अपने उदर में समेटते लाज नहीं आई । सारी नदियों का जल पीकर भी तुम्हें संतोष नहीं ।" समुद्र ने गंभीर होकर कहा-"ऐसा न कहें देव! यदि अनावश्यकों से लेकर संसार में जल वृष्टि का उत्तरदायित्व पूरा न करें, तो सृष्टि कैसे चले। शशि को अपने कथन पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ ।
उसने सिर झुका लिया ।
उपदेशं तु धौम्यस्म श्रुत्वाऽद्यतनमद्भुतम्।
अन्वभूवन् समे तत्र महत्तां पुरूषा: स्वयम्॥८१॥
क्रीणन्तीह श्रमेणाऽथ लग्नभावतयाऽपि च।
निर्मूल्यं नैव चायाति सोपहार इव स्वयम्॥८२॥
सुसंस्कृत विधातुं च कुटुम्बं क्रियते यदि।
धनांशकालयोर्दानं मनोयोगस्य संस्थिति:॥८३॥
पण्यताहानि दानेयं चिन्त्यमेतन्मुहुर्महु: ।
स्वीकर्तव्यमिदं सर्वं स्वर्गमानेतुमत्र हि॥८४॥
स्वाध्यायस्यांशदानस्य साधनाया अथापि च।
सत्संगस्यानुदानं च सन्ततं कर्तुमेव तै:॥८५॥
निश्चितं परिवारस्य कर्तुं चाऽपि परम्पराम् ।
संकल्पपूर्वकम् श्रद्धापूर्वकं भावनामयै:॥८६॥
समापन च कुर्वन्तः सर्वें कार्यक्रम तत: ।
प्रसन्ना: प्रययुर्वासानभिनन्दनपूर्वकम्॥८७॥
भावार्थ-आज का उपदेश सुनकर सभी ने अनुभव किया कि महनता श्रम व लगन से खरीदी जाती है। किसी को भी बिना मूल्य उपहार की तरह नहीं मिलती । परिवार को सुसंस्कृत बनाने के लिए यदि थोड़ा
समयदान, मनोयोग और अंशदान लगाना पड़ता है; तो यह किसी भी प्रकार घाटे का सौदा नहीं है । यह बार-बार सोचना चाहिए तभी स्वर्ग पृथ्वी पर लाया जा सकता है । साधना, स्वाध्याय, सत्संग और अंशदान के नियमित अनुदान प्रस्तुत करने और उसे परिवार की परंपरा बनाने के लिए सभी ने संकल्पपूर्वक, श्रद्धापूर्वक,
भावनामय होकर निश्चय किया । समापन कार्यक्रम पूरा करते हुए अभिनंदन पूर्वक सभी लोग प्रसन्नचित्त से बिदा
हो गए ॥८१-८७॥
इति श्रीमत्प्रज्ञापुराणे ब्रह्मविद्याऽऽत्मविद्ययो:, युगर्द्शनयुगसाधनाप्रकटीकरणयो:,
श्री धौम्य ऋषि प्रतिपादिते "
सुसंस्कारिता सम्वर्धनमि," लि
प्रकरणो नाम षष्ठोऽध्याय: ॥६॥