प्रज्ञा पुराण भाग-3

॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-3

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स्नेहसौजन्ययोर्नार्यां बाहुल्य प्राकृतं स्वत:।
व्यक्तिनिर्माणसामर्थ्यं द्वयमेतत्रिगद्यते॥२६॥
यन्त्ररेखाश्रिता नूनं भूषणादिविनिर्मिति:।
कुम्भकारो यथा चक्रं स्वाङ्गलीकौशलेन स:॥२७॥
अर्हति पात्रतां नेक्रं मृदं क्लिन्नां शनै: शनै:।
तथा कुटुम्बगान् नारी सर्वान् संस्कर्तुमर्हति॥२८॥
देव्या सोपमिता नारी प्राधान्याद् यत एव ते।
देवा अनुचरास्तस्या देव्या अत्राऽपि सा स्थिति:॥२९॥
महत्वपूर्णकमैंतत् यो नार्या प्रतिभोदय:।
कल्याणं निहितं सृष्टे समाया: कर्मणीह तु॥३०॥
अभ्यर्थना च देवीनामाख्याता या मतं बहु।
तस्या माहात्म्यमत्रैषु शास्त्रेषु वस्तुबोधकम्॥३१॥
तुष्यन्ति शीघ्रं ता: सर्वा वरदानं ददत्यलम्।
प्रत्यक्षं देवता नार्यो द्रष्टुमेतच्च सम्भवम्॥३२॥

भावार्थ-नारी में स्नेह-सौजन्य की प्रकृति प्रदत्त बहुलता है । इसे व्यक्तियों के निर्माण की प्रमुख क्षमता कहा गया है । जैसा सांचा होता है, वैसे ही उपकरण आभूषण ढलते हैं । कुम्हार अपने चाक पर उंगलियों के कौशल से गीली मिट्टी को किसी भी प्रकार के बर्तन में बदल सकता है उसी प्रकार नारी अपने पिता और परिवार के छोटे-बड़े सभी सदस्यों को इच्छानुरूप ढालने-बदलने में समर्थ है। उसे देवी की उपमा और प्रधानता दी गई है देवता उनके अनुचर होते हैं वही स्थिति यहाँ भी समझनी चाहिए। नारी की प्रतिभा को निखारना बहुत बड़ा काम है इसमें समस्त सृष्टि का कल्याण सन्निहित है। देवियों की अभ्यर्थना का शास्त्र में बहुत माहात्म्य बताया गया है,जो वस्तुत: यथार्थ है। वे शीघ्र संतुष्ट होतीं और अधिक वरदान देती हैं। प्रत्यक्ष देवियों के रूप में नारी समुदाय को देखा जा सकता है॥२६-३२॥ 

व्याख्या-नारी को शक्ति कहा गया है। शक्ति अर्थात देवताओं को जन्म देने वाली, देवत्व को संस्कार प्रदान करने वाली, स्रष्टा की विशेष कृति है । वह अपनी कतिपय सहज ही विद्यमान विशेषताओं के कारण जहाँ भी रहती है, वहाँ के वातावरण को देवत्व से अभिपूरित कर देती है । नारी चाहे माँ के रूप में हो, भगिनी अथवा भार्या के रूप में, देवत्व की दृष्टि से संपन्न है। सहनशीलता, शिष्टाचार, करुणा एवं सौजन्य उसकी अमूल्य विधियाँ हैं । इन्हीं विशेषताओं के कारण वह स्वयं अपने आचरण में भी सुसंस्कारिता का समावेश करती व परिवार के अन्य सदस्यों को भी उन विभूतियों से कृतार्थ करती है ।

न केवल बच्चो को, नारी कुम्हार की तरह, मूर्तिकार की तरह अपने अभिभावक, सहचर, पति अन्य
पारिवारिक सदस्यों को भी श्रेष्ठता के साँचे में ढालने-गढ़ने, आमूलचूल बदलने में समर्थ है । संभवत यही कारण है कि नारी को देवी की उपमा देकर अध्यात्म दर्शन में उसकी उपासना का प्रावधान किया गया है, ताकि उसके अनुदानों से सभी का कल्याण हो सके । ऐसी देवी-स्वरूपा नारी को पददलित करना, परावलंबी बनाना निकृष्टतम कार्य है । संतान के निर्माण में ही नहीं, परिवार के समूचे निर्माण में भी पुरुष की अपेक्षा नारी की भूमिका हजार गुनी उाधिक महत्वपूर्ण और अधिक प्रभावशाली है। अतः समाज को ऊँचा उठाना है, तो नारी को देवी का दर्जा देते हुए, उसके प्रति सम्मान की भावना सबके मन में जगाई जानी चाहिए ।

घृणा को कोई स्थान नहीं

एक संत महिला थी । नाम था राबिया और काम था ईश्वर भक्ति। भ्रमण करते हुए, कितने ही संत, सत्संग प्राप्ति की इच्छा से उसके पास आकर ठहरा करते थे । एक साधु ने राबिया के धर्मग्रंथ को उठाया और पढ़ने लगा। उसमें एक पंक्ति कटी हुई थी। उसने पाठ वहीं छोड़ दिया और कहा-"तुम्हारा यह धर्मग्रंथ तो अपवित्र हो गया, किसी ने इसे नष्ट कर दिया है, अब दूसरा लेना होगा। आखिर यह तो बताइए कि यह शैतानी का कार्य किसने किया ।"

"मैने'-छोटा सा उत्तर था राबिया का।

अब तो साधु की हैरानी और भी बढ़ गई, वह समझ ही नहीं पाया कि ईश्वर भक्त महिला अपने धर्मग्रंथ को नष्ट करने का कार्य कैसे कर सकती है । राबिया ने कहा-"पंक्ति को पढ़ा भी है ।"

"हाँ, हाँ!! उसमें लिखा है-शैतान से घृणा करो ।" -साधु का कहना था ।

"मैंने जब से ईश्वर से प्रेम किया है, तब से मेरे हृदय में घृणा बची ही नहीं है । ईश्वर प्रेम ने मेरे संकुचित दृष्टिकोण को विशाल सहृदयता में बदल दिया है। यदि शैतान भी आकर खड़ा हो जाय, तो उसे भी मैं प्रेम ही करूँगी।

सामान्य नारी भी प्रेम की साकार मूर्ति है । उसके अंदर न किसी के प्रति द्वेष रहता है, न ही बदले की भावना अथवा घृणा । उसका हृदय इतना उदार है कि वह पापी को भी क्षमा कर नया जीवन जीने का अवसर देती है । यह बात भिन्न है कि मनुष्य का स्वयं का व्यवहार उसके प्रति प्रतिकूल होते देखा जाता है।

चिड़िया के अंडे लौटाएं

दीनबंधु एंड्रूज में विश्व मानवता के प्रति प्रेमभावना, माँ की प्राणिमात्र के प्रति करुणा के कारण विकसित हुई थी। "माँ देखना मैं कितनी अच्छी चीज लाया हूँ ।"
"अरे, यह क्या ले आया । यह तो किसी चिड़िया के अंडे हैं। मुझे ऐसा लगता है कि तू चिड़िया के तीनों अंडे उठा लाया है। जब वह अपने घर लौटेगी, तो बहुत रोएगी बेटा!" "अच्छा माँ । यह चिड़िया के अंडे है । मुझे क्या मालूम था?" वह बालक लँगड़ाते-लँगड़ाते उस पेड़ तक
गया, क्योंकि चोट के कारण उसके पैर में दर्द हो रहा था । वह पेड़ पर चढ़ा और उसने सब अंडे उसी घोंसले में रख दिए और पेड़ के नीचे बैठा तब तक रोता रहा, जब तक कि वह चिड़िया पेड़ पर न आ गई । चिड़िया को देखकर उसका सारा दर्द जाने कहाँ चला गया और हँसता-कूदता अपनी माँ के पास लौट आया । यह बालक और कोई नहीं, वरन दीनबंधु एंड्रूज थे, जो जीवन भर दीनों को अपना भाई समझकर प्यार करते रहे । माँ के दिए यह संस्कार जीवन भर उनकी अमूल्य थाती बनकर रहे ।

बच्चे अधिक प्रिय

सिग्रिड अनसेट प्रख्यात नार्वेजियन लेखिका को जब १९२८ में नोबुल पुरस्कार मिला, तो कई पत्र
संवाददाता उन्हें बधाई देने के लिए उनके निवास स्थान पर पहुँचे । उस समय वे अपने बच्चों कोसुला रही थीं । उन्होंने पत्र-प्रतिनिधियों से कुछ देर रुकने के लिए कहा।

बच्चे जब सो गए, तो वे प्रतिनिधियों के पास आईं । प्रतिनिधियों ने उन्हें बधाई दी, साथ ही उनके व्यवहार पर आश्चर्य भी व्यक्त किया कि ऐसे सौभाग्यशाली अवसर पर भी वे बच्चों को भुला न सकीं। तो सिग्रिड अनसेट ने कहा-"मुझे इस वर्ष नोबुल पुरस्कार मिला, यह मेरे लिए सौभाग्य व प्रसन्नता की बात है । आप इतना कष्ट उठाकर बधाई देने के लिए आए, मैं आपकी आभारी हूँ । साथ ही क्षमा माँगती हूँ, क्योंकि नोबुल पुरस्कार से भी अधिक प्रसन्नता मुझे अपने बच्चों के साथ रहने और उनका काम करने से मिलती है।

पांचाली का विशाल हृदय

द्रौपदी के पाँच पुत्रों को सोते समय द्रोण पुत्र अश्वत्थामा ने मार डाला। पांडवों के क्रोध का ठिकाना न रहा, वे उसे पकड़ कर लाए और द्रौपदी के सामने ही उसका शिर काटना चाहते थे ।

द्रौपदी का विवेक तब तक जागृत हो गया। बोलीं-"पुत्र के मरने का माता को कितना दुख होता है । यह मैं जानती हूँ । उतना ही दुख तुम्हारे गुरु द्रोणाचार्य की पत्नी को होगा । गुरु ऋण को, गुरु माता के ऋण को समझो और उसे छोड़ दो ।" अश्वत्थामा छोड़ दिया गया । करुणा को बदले की भावना पर विजय हुई । द्रौपदी की विशालता का परिचय यह मार्मिक प्रसंग महाभारत के कुछ महत्वपूर्ण सूत्रों में से एक है ।

पड़ोस का बच्चा, भगवान का बच्चा

विनोबा की माता को एक पड़ोसिन अपना बच्चा सुपुर्द करके, तीर्थयात्रा पर चली गयी ।

विनोबा की माँ पड़ोसिन के बच्चे को घी से चुपड़कर रोटी देती थीं और विनोबा को बिना चुपड़ी रोटी देती थीं।

विनोबा ने माता से इस भेदभाव का कारण पूछा, तो उनने कहा-"पड़ोसिन का बेटा भगवान का बेटा है और तू मेरा। तेरी अपेक्षा उसका दर्जा बड़ा है ।"

वैभव नहीं सुसंस्कार

बालक ध्रुव को विमाता सुरुचि ने अपने पिता की गोद में नहीं बैठने दिया । कहा-"पिता की गोद में बैठने का मन है, तो भगवान से प्रार्थना करके मेरे गर्भ में जन्म लेने की बात सोच ।"

अपमानित बालक माता पास गया। बालक के मन में द्वेष का संस्कार न पड़े। इसलिए मन का दुख दबाकर माँ बोली-" बेटे! माँ ने कुछ भी गलत नहीं कहा। उन्होंने तुझे सलाह तो उचित ही दी है । असली पिता तो भगवान ही है । वे चाहती हैं कि तू तप करके भगवान को प्रसन्न करे और इच्छित वर प्राप्त करे ।"

माँ की प्रेरणा पाकर बालक ने तप करने का निश्चय किया । सुनीति ने पुन: सोचा कि बालक के मन में यदि विमाता के प्रति थोड़ा भी द्वेष शेष रह गया, तो ईश्वर ध्यान में मन नहीं लगेगा । इसलिए कहा-"बेटा, जाने से पहले बड़ों को प्रणाम करके उनका आशीर्वाद ले लेना चाहिए। भगवान से वरदान पाने की बात जिस माँ ने सुझाई है, उसे तो अवश्य प्रणाम करना, मेरा तो आशीर्वाद है ही, उनका भी आशीर्वाद होगा, तो दोहरा लाभ तुझे मिलेगा ।"

ध्रुव ने सुरुचि को साष्टांग प्रणाम किया, कहा-"माँ! तप के लिए आपका आशीर्वाद चाहिए ।" हृदय काँप गया, अपमानित बालक भी प्रणाम करके आशीर्वाद माँग रहा है? स्वार्थ बुद्धि ने उसे गले लगाने की स्वीकृति तो नहीं दी, पर मुख से निकल गया-"मेरा आशीर्वाद ।"

सद्भावों से भरा ध्रुव तप करने को चला । माँ के आशीर्वाद से नारद जी मार्ग में मिल गए । उन्होंने मंत्र दीक्षा दी, विधि समझाई और अशीर्वाद दिया । माँ सुनीति का प्रयास "बालक को वैभव चाहे न मिले, सुसंस्कार अवश्य मिलें" सफल हुआ। ध्रुव पद पाकर ध्रुव सपरिवार कृतकृत्य हुआ।

शिक्षक, सुधारक, नारी

जब भी परिवार के वातावरण में वांछित वातावरण की आवश्यकता पड़ती है, नारी एक माँ के रुप में प्रशिक्षक की भूमिका निभाती है । उसके स्वयं के अर्जित संस्कार उसे, इतना प्रखर- प्रतिभावान बना देते है कि उसकी वाणी एवं व्यवहार अमोघ अस्र का काम करते हैं ।

मातृभूमि के लिए बलि होने की प्रेरणा 

बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला से उनकी माँ पूछ रही थीं-"बेटा! यदि तुम्हारा कोई शत्रु तलवार लेकर मेरी ही गर्दन काटने को आ जाए, तो तुम क्या करोगे?" "माँ आज ऐसी अनहोनी बात क्यों पूछ रही हो? भले ही मेरा अंग्रेजों से युद्ध चल रहा हो, पर आपने तो किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा है"-सिराज ने उत्तर दिया ।

"पर यह भी तो संभव है कि वह कुछ न बिगाड़ने पर मेरा जीना हराम करने लगे।" 
"नहीं ऐसी बात नहीं । मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि आज आपको मेरी शक्ति पर अविश्वास क्यों हो रहा है?
मुझे आपत्तिग्रस्त देखकर, जाफर ने अवश्य मेरे विरुद्ध षड्यंत्र कर दिया है और मुझे परास्त करना चाहता है, पर मैं पारिवारिक जीवन में कर्तव्यों से उदासीन नहीं हूँ । विश्वास रखो माँ! मुझसे कितना ही शक्तिशाली शत्रु क्यों न हो; पर मैं अंतिम समय तक मौत के घाट उतारने में लगा रहूँगा। यह मेरा दृढ़ संकल्प है ।"

सिराज की बात सुनकर माँ को संतोष हुआ । उसे अपना काम बनता दिखाई दिया । उसने कहा-"बेटा सिराज! मैं तुममें कई दिन से निराशा की भावना देखती आ रही हूँ । मीर जाफर के षड्यंत्र से तुम्हारे हौसले पस्त हो गए हैं और आत्म समर्पण की बात सोच रहे हो । तुम्हारी मातृभूमि पर शत्रु हथियार उठाए खड़ा है। वह मातृभूमि अकेले तुम्हारी ही नहीं, मुझ जैसी अनेक माताओं की भी है ।"

माँ की बात बेटे को चुभ गई । वह माँ का आशय समझ चुका था । शत्रुओं को पछाड़ने के लिए आतुर हो उठा ।

अब एक क्षण की भी वह देर न करना चाहता था । वह उठा और तुरंत बाहर चला गया, एक दिन उसका कवच ही उसके शव का आवरण बना।

विजेता भारवि को नम्रता की शिक्षा

देश-विदेश के पंडितों का एक शास्त्रार्थ हुआ । राजा ज्ञानसेन इसी बहाने विद्वानों का सत्कार करते थे । धन और मान सभी को मिलता था । पर शास्त्रार्थ में जो विजयी होता था, उसके मार्गदर्शन में अन्यान्यों को चलना पड़ता था। उन दिनों अपनी-अपनी हाँकने और मत-मतांतर खड़े करने की एक प्रकार से प्रथा भी चल पड़ी थी ।

उस शास्त्रार्थ समारोह में विद्वान भारवि विजेता घोषित किए गए । उपस्थित विद्वानों ने उनका नेतृत्व स्वीकार किया ।

विजेता का सम्मान प्रदर्शित करने के लिए, राजा ने उन्हें हाथी पर बिठाया और स्वयं चँवर डुलाते हुए उनके घर तक ले गए । भारवि जब इस सम्मान के साथ घर पहुँचे, तो उनके माता-पिता की खुशी का ठिकाना न रहा । घर लौटकर सर्वप्रथम उनने अपनी माता को प्रणाम किया। पिता की ओर उपेक्षा भरा अभिवादन भर कर दिया ।

माता को यह अखरा । झिड़क कर साष्टांग दंडवत् के लिए संकेत किया, सो उनने उसका भी निर्वाह कर दिया । पिता ने सूखे मुँह से 'चिरंजीव' भर कह दिया ।

बात समाप्त हो गई, पर माता और पिता दोनों ही खिन्न थे । उन्हें वैसी प्रसन्नता न थी, जैसी कि होनी चाहिए थी। गुरुकुल से लौटे हुए छात्र जिस शिष्टाचार से गुरु का अभिवादन करते थे और गुरु जिस प्रकार छाती से लगाकर शिष्य के प्रति आत्मीयता भरा आशीर्वाद प्रदान करते थे, उसका सर्वथा अभाव था । राजा द्वारा हाथी पर बिठाकर चँवर डुलाते हुए घर तक लाने का अहंकार जो था भारवि को। इसमें उसने शिष्टाचार को, विनम्रता को भुला दिया था । मात्र चिह्न पूजा भर की।

पिता की मुख मुद्रा पर खिन्नता देखकर भारवि माता के पास कारण पूछने गए।

माता ने बताया । विजयी होने पर लौटने के पीछे, तुम्हारे पिता की कितनी साधना थी, यह तो तुम भूल ही गए । शास्त्रार्थ के दिन उन्होंने जल लेकर सफलता के लिए उपवास किया और इससे पूर्व पड़ाने में कितना श्रम किया । इसका तो तुम्हें स्मरण ही नहीं रहा । विजय की अहंता तुम्हारे चेहरे पर झलकती है और अभिवादन में चिह्न पूजा भर का शिष्टाचार था ।

भारवि को अपनी भूल प्रतीत हुई। विद्वता का अहंकार गल गया और एक शिष्य एवं पुत्र का जो विनय होना चाहिए वह उदय हुआ ।

माता की आँखों में आँसू आ गए । उनने कहा-"वत्स! तुम्हारी विजय के पीछे पिता की साधना है । उसे विस्मरण मत करो । विद्वता की विजय के पीछे शिष्य की विनयशीलता का विस्मरण नहीं होना चाहिए ।

गोपीचंद का जीवन परिवर्तन

बंगाल के राजा गोपीचंद युवावस्था में अनेक व्यसनों में फँस गए थे। उनने अनेक विवाह किए और मद्यपान जैसी आदतों से अपने को अभ्यस्त कर लिया।

उनकी माता निरंतर एक ही बात सोचती रहतीं कि लड़के को किसी प्रकार कुमार्ग से हटा कर सन्मार्ग पर लगाया जाय । उसकी क्षमता को इस प्रकार बर्बाद न होने दिया जाय । उसके व्यक्तित्व को परमार्थ प्रयोजनों के लिए नियोजित किया जाय । वे चाहती थीं कि वह तपस्वी बने और जन कल्याण के लिए कोई महत्वपूर्ण कार्य संपन्न करे । इसके लिए उनने स्वयं शिक्षा देना और जीवन का महान उद्देश्य समझाना प्रारंभ किया । इस कार्य में उनके मामा ने भी महत्वपूर्ण परामर्श दिए । मामा भर्तृहरि थे और वे पहले ही तपस्वी बन चुके थे। माता और मामा की शिक्षा का प्रभाव पड़ा । साथ ही योगी जालंधर नाथ के संपर्क में आकर वे उनके शिष्य भी हो गए ।

गोपीचंद के जीवन में आमूल परिवर्तन हो गया । वें संयम-साधना से पिछले दुर्गुणों से मुक्ति पा गए । राज प्रबंध उनकी माता और साथियों ने सँभाला । गोपीचंद, भर्तृहरि और जालंधर नाथ का-त्रिगुट सुदूर क्षेत्रों में परिभ्रमण करता रहा और धर्म-धारणा का प्रशंसनीय वातावरण निर्मित किया ।

नौकर का स्वभाव बदला

एक सैठ जी का नौकर लापरवाह और कामचोर था । घर के लोगों ने कहा-" इसे निकाल दिया जाय ।" सेठ जी की पत्नी ने कहा-"इसे निकालेंगे नहीं, सुधारेंगे ।" दूसरे दिन गरम पानी और तौलिया लेकर ठीक समय पर उपस्थित हुईं और जगाते हुए नौकर से बोलीं-"स्नान कीजिए, जब तक मैं चाय बनाकर लाती हूँ ।" नौकर पानी-पानी हो गया । माल्किन की इस सज्जनता को देखकर वह दूसरे दिन से सब काम समय पर करने लगा । उसे निकालना नहीं पड़ा, बाद में वह घर के अपने सदस्य के समान हो गया।

ब्रह्मावर्त की संत, विशाखा

नगर सेठ अनंगपाल जितने मृदुल स्वभाव के थे, उनकी पली बिंदुमती उतनी ही कर्कशा । इस कर्कशता का परिणाम यह होता कि नौकरानी उनके पास टिकती नहीं थी । इतने बड़े घर की साज-सँभाल उनसे अकेले होती नहीं थी। तब उनका क्रोध पति पर बरसता ।

संयोगवश एक सेविका ऐसी मिली, जिसने कर्कशता के बीच जीवन गुजारा, घबराई नहीं, वरन् सुधार के बाद तक भी दृढतापूर्वक रुकी ही रही । सब कुछ ठीक होने पर ही वह अन्य ऐसे ही घर को सुधारने के लिए नया आश्रय ढूँढ़ने निकली, नाम था-विशाखा ।

विशाखा आश्रय ढूँढ़ते-ढूँढ़ते नगर सेठ के यहाँ पहुँची । आवश्यकता थी ही, सो तुरंत नियुक्ति मिल गयी। सेविका की श्रमशीलता और मृदुलता ने गृहस्वामिनी का मन जीत लिया और न केवल व्यवस्था ही बनाई, वरन् स्वभाव भी बदल दिया ।

काम पूरा हुआ, तो विशाखा अन्यत्र किसी कर्कशा गृहिणी के परिवार में आश्रय पाने के लिए निकली । गृहस्वामी और सेठ उसे सभी सुविधा और साधन देते थे । फिर भी विशाखा मानी नहीं, उसने दूसरा वैसा ही घर तलाशा, जहाँ कलह और दारिद्र्य का बोलवाला हो ।

इस अद्भुत प्रकृति के बारे में पूछने वालों को विशाखा एक ही उत्तर देती-"प्रवचन द्वारा धर्मोपदेश करने की अपेक्षा विपन्न लोगों के साथ रहकर उन्हें अपनी सदाशयता के सहारे सुधार लेना अधिक उपयुक्त है ।

विशाखा के गुणों और उपदेशों की सर्वत्र चर्चा हुई । अंतत: वह ब्रह्मावर्त क्षेत्र में प्रसिद्ध संत के रूप में प्रख्यात और सम्मानित हुई ।

पत्नी का उलाहना भरा प्रोत्साहन

जोधपुर के महाराजा यशवंत सिंह की रानी उनसे भी अधिक वीर थीं। राजा किसी युद्ध में गए थे, पर पराजित होकर लौट आए । रानी ने किले के फाटक बंद करवा दिए और कहा-"मेरा पति भगोड़ा नहीं हो सकता । भगोड़े के लिए इस किले में कोई स्थान नहीं ।" यशवंत सिंह रानी की इस भर्त्सना पर उलटे पैरों रण क्षेत्र में गए । दूने साहस से लडे़ और विजयी हुए ।

विल्वमंगल से सूरदास 

विल्वमंगल वेश्या चिंतामणि पर अत्यंत मुग्ध थे । वे पिता की अंत्येष्टि के बीच में से ही लोगों से आँखें चुराकर वेश्या के यहाँ चल दिए। रास्ते में नदी पड़ती थी। पार कैसे जायँ । पानी में बहते एक मुर्दे पर सवारी गाँठी और पार हो गए।

गई रात्रि वेश्या के घर पहुँचे। वेश्या ने उन्हें भरपेट धिक्कारा। सारे धर्म-कर्म छोड़ बैठने के कुकृत्य पर लताड़ा और कहा-"जैसी सड़ी लाश पर बैठकर अभी आए हो, वैसी यह सड़ी लाश ही सामने पड़ी है । इस मल-मूत्र की गठरी से मोह छोड़ो और सही मार्ग अपनाओ ।"

वेश्या के सदुपदेशों से प्रभावित होकर ही निंदनीय बिल्वमंगल महात्मा सूरदास बने थे ।

एक मैं, शेष आप ढूँढ़ लें

स्वामी विवेकानंद जब इंग्लैंड प्रवास पर थे तब उनने अपने एक प्रवचन में कहा-"
मुझे १०० समर्पित व्यक्तियों की आवश्यकता है । जिनके साँचे से मैं कई प्रतिभाएँ ढाल सकूँ ।"

११ वर्षीय नोबुल ने विवेकानंद साहित्य पहले भी पढ़ा था, भारत की सेवा करने की कल्पनाएँ उनने अनेक बार की थीं । यह भाषण उन्हें ऐसा लगा, मानो सीधा उन्हीं के लिए कहा गया हो।

कु० नोबुल ने कहा-"एक मैं अपने को समर्पित करती हूँ । ११ और आप ढूँढ लें। वे भारत चली आईं । स्वामी जी ने उन्हें संन्यास दिया और निवेदिता नामकरण कर दिया । वे आजीवन स्वामी जी के मार्गदर्शन में भारत की सेवा करती रहीं।

मूर्तिमान देवी जेन एडम्स

जेन एडम्स के पिता सिनेटर और मिल मालिक थे। एक मात्र पुत्री के लिए उनने यह अपार संपदा सँजोकर रखी थी; पर उनने वह समय श्रेष्ठ पुस्तकों के अध्ययन में लगाया और पिता के मरते ही सारी संपत्ति बेचकर अमेरिका में एक डल हाउस मानव सेवा संस्थान बनाया। यों सस्ता भोजन, सस्ता निवास उसका प्रत्यक्ष कार्यक्रम था। पर इस बहाने जो हजारों व्यक्ति वहाँ आते, उन्हें लोकोपयोगी जीवन जीने की प्रेरणा देती। कार्य की महत्ता देखते हुए उनके लाखों सहयोगी बन गए।

उन्होंने महिलाओं, बच्चों, विकलांगों, रोगियों की सेवा-सहायता के लिए अनेक संस्थाएँ चलाईं । 'अंतर्राष्ट्रीय महिला लीग' भी उन्हीं की स्थापना है । नोबुल पुरस्कार उन्हें मिला । वह राशि उन्होंने लीग को ही दान कर दी । एडम्स आजीवन ब्रह्मचारिणी रहीं । उन्हें करुणा की मूर्ति, देहधारी देवी माना जाता था ।

सेवाभावी नर्स कुमारियाँ

युद्ध के दिनों प्रशिक्षित नर्सों की जरूरत पड़ी । कुमारिकाओं को इस क्षेत्र में प्रवेश के लिए प्रोत्साहित किया गया । इंग्लैंड के पास पर्याप्त संख्या में प्रशिक्षित नर्सें हो गईं । युद्ध बंद हो गया, तो डॉक्टरों की सहायिका मात्र बनकर रहना पड़ रहा था। प्रतिभा का विकास नहीं कर पा रही थीं।

दुस्साहसी बेनिट ने कुशल नर्सों की एक टीम बनाई और इंग्लैंड के आसपास के छोटे टापुओं में रहने वाले आदिवासियों की सेवा करने की प्रतिज्ञा ली । वे उन क्षेत्रों में जाकर जहाँ प्रसूति संकट से अनेक अशिक्षित महिलाओं के प्राण बचाती थीं, वहीं बच्चों के रोगों और पुरुषों की सेवा भी करती थीं । इस प्रकार ३० टापुओं की प्रतिकूल परिस्थिति में रहकर वहाँ के पिछडे लोगों की सेवा में 'बेनिट यूनिट' की संख्या तीस थी। वह उस पुण्य कार्य का निरीक्षण करने के उपरांत कुछ ही दिनों में ३०० हो गई। उनने अनुभव किया कि विलासी जीवन बिताने की तुलना में उनका यह कदम कितना करुणायुक्त है। बेनिट ८० वर्षों तक जीवित रही। वे इन पिछड़े क्षेत्रों में दौरे करने में आजीवन संलग्न रहीं ।

अरविंद आश्रम की माताजी

पेरिस के एक समृद्धतम परिवार में जन्मी 'मीरा' के कुछ पूर्व संचित संस्कार ऐसे थे, जिनके कारण उनका मन विलास की ओर तनिक भी न लगा । उनके अध्ययन का विषय प्रारंभ से ही अध्यात्म था। वयस्क होने पर उनका विवाह फ्रांस के प्रख्यात दार्शनिक रिचर्ड के साथ हुआ। वे भी तत्वज्ञान संबंधी गुत्थियों को सुलझाने में निमग्न रहते थे। सन् १९१४ ई० में दोनों भारत आए । पांडिचेरी ठहरे । वे लोग निकट से अरविंद के जीवन का अध्ययन करने और उनके सत्संग का लाभ उठाने जाया करते थे । इसके बाद वे लोग वापस लौट गए ।

रिचर्ड अपनी पत्नी मीरा के मनोभावों को समझते थे। वे उन्हें अरविंद आश्रम स्वत: छोड़ने आए, ताकि अपनी प्रगति के साथ अध्यात्म क्षेत्र की कारगर सेवा कर सकें।

मीरा पांडिचेरी सदा के लिए रह गईं । अरविंद एकांत साधना में तल्लीन थे । मीरा उनका संदेश साधकों तक पहुँचातीं और साथ ही आश्रम व्यवस्था भी चलातीं । उनके संरक्षण में असाधारण प्रगति हुई । मीरा माता जी के नाम से प्रख्यात हुईं। वे सच्चे अर्थों में अरविंद का प्रतिनिधित्व करती थीं ।

प्रभु कहाँ हैं?

एक भक्त भाव विभोर होकर प्रार्थना कर रहे थे-"मेरे प्रभु! द्वार खोलो, ताकि मैं तुम तक पहुँच सकूँ।"

उधर से निकलने वाले दूसरे संत ने कहा-"जरा गहरे उतर कर देखो तो, ईश्वर का द्वार क्या कभी किसी के लिए बंद रहा है । अपनी माँ की, परिवार जनों की सेवा करके देखो। भगवान तुम्हें माँ के आँचल में बैठा मिलेगा।"

भक्त को सही दिशा मिली। उपवन छोड़कर वह परिवार के तपोवन में चला गया ।

वस्तुत: स्रष्टा की कलाकारिता और सौंदर्य-सच्चा का अद्भुत सम्मिश्रण नारी की काया में ही हुआ है । उसकी चरणरज से लेकर भृकुटि भंगिमा तक से, ऐसी दिव्य लहरें उठती हैं, जिनमें उच्चस्तरीय अनुदानों के भंडार झाँकते देखे जा सकते है । उसकी पवित्र कोमलता में पारिजात पुष्पों का सार तत्व भरा है । श्रद्धा, करुणा, ममता, क्षमा, तुष्टि, तृप्ति, शांति की सप्त मातृकाएँ यों पृथक-पृथक देवियों गिनी जाती हैं। पर उन सातों का समन्वय देखना हो तो भाव नेत्रों के खुलते ही प्रत्येक नारी में इनका प्रत्यक्ष प्रकटीकरण दृष्टिगोचर हो सकता है ।

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