प्रज्ञा पुराण भाग-3

अथ चतुर्थोऽध्याय: शिशु-निर्माण प्रकरणम्-2

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क्लिन्नमृत्स्नेव बालास्तु भवन्त्येव च तान् समान्।
परिष्कृतान् कुटुम्बस्य वृतौ कर्तुमिहेष्यते॥२१॥
एतेषां स्नेहिनामत्र समाह्वाच्च नर: स्वयम् ।
पूर्वमेवोपयुक्ताञ्च, स्थितीरुत्पादयेच्छुभा:॥२२॥
पित्रो: शारीरिकं स्वास्थ्यं विकासो मानसस्तथा।
अर्थप्रबन्ध एतादृग् भवेद् येन नवागत:॥२३॥
उपयुक्तां स्थितिं नित्यं लभते यदि कश्चन।
पित्रो रोगी भवेत्तहि सन्तति: साऽपि जन्मन:॥२४॥
अनुन्नतोऽसंस्कृतश्च जन्मदासृस्तरो यदि।
बालास्तथैव मूढाश्च दुश्चरित्रा भवन्त्यपि॥२५॥
अर्थस्थितावयोग्यायामभावग्रस्ततां समे।
बालका यान्ति तिष्ठन्ति तेऽविकासस्थितौ समे॥२६॥

भावार्थ-बालक गीली मिट्टी के समान है। उन्हें परिवार के वातावरण में ढाला जाता है। इन सम्मानित अभ्यागतों को बुलाने से पूर्व उनके लिए उपपुक्त परिस्थितियाँ उत्पन्न कर लेनी चाहिए माता-पिता का शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक विकास अर्थ प्रबंध ऐसा होना चाहिए जिससे नवागत को आरंभ से ही उपयुक्तता उपलब्ध हो सके। माता-पिता में सें कोई भी रोगी होने पूर संतान जन्मजात रुप से रोगी उत्पत्र होती है जन्मदाताओं का बौद्धिक स्तर गया-गुजरा हो स्वभाव अनगढ़ हो तो बच्चे भी वैसे ही मूढ़मति उत्पन्न होने और आगे चलकर दुश्चरित्र बनेंगे अर्थ व्यवस्था ठीक न होने की स्थिति में बालकों को अभावग्रस्त रहना पड़ता है और वे अविकसित स्तर के रह जाते हैं॥२१-२६॥


व्याख्या-पारिवारिक वातावरण की शिशुओ के निर्माण में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है। जिस प्रकार कुम्हार चाक के समीप बैठकर मिट्टी को जैसी इच्छा हो वैसा रूप दे देता है, ठीक उसी प्रकार माता एवं पिता अभ्यागत संतान को गुण, कर्म, स्वभाव रूपी संपदा के माध्यम से संस्कार देने में सक्षम हैं। यह उन पर निर्भर करता है कि वे इस कार्य में कितने सजग एवं समर्थ हैं । शास्त्रो में इसीलिए विवाह एवं प्रजनन संबंधी आयु मर्यादा के साथ-साथ पति-पत्नी की मनःस्थिति, परिवार रूपी परिस्थिति को अनुकूल बनाने के प्रसंग सुप्रजनन के संदर्भ में आते हैं ।

पहले माता-पिता का स्तर ऊँचा होना, चिंतन परिष्कृत होना एवं शरीर का स्वस्थ होना जरूरी है । ऐसा न होने पर जैसे अनगढ़, चरित्रहीन अभिभावक होंगे, वैसी ही संतति जन्मेगी । स्वावलंबनं द्वारा आजीविका उपार्जन की जब तक व्यवस्था न हो, तब तक संतान को निमंत्रण न दिया जाय । निर्धनता कोई अभिशाप नहीं, पर अर्थव्यवस्था ऐसी तो हो कि आगंतुक अतिथि का भार वहन किया जा सके ।

जैसा चाहा, वैसा बनाया

जहाँ पति-पत्नी की प्रकृति मिल जाती है और दोनों में परस्पर सघन सहयोग होता है, वहाँ इच्छित वैसा बनाया संतान का होना सुनिश्चित है। कोर्ट फील्ड (इंग्लैंड) के कर्नल जान फ्रांसिवान की पत्नी लुइस एलिजावेथ अत्यंत धार्मिक प्रकृति की विदुषी महिला थीं। पति भी उनके ठीक उसी प्रकृति के थे । दोनों दूध-पानी की तरह एक थे । संतान के संबंध में दोनों की इच्छाएँ भी एक सी थीं । पति को जब अवसर मिलता गिरजा जाते, पर पत्नी तो बहुत ही भक्ति-भाव संपन्न थीं, वे घंटों उपासना करती थीं और यही प्रार्थना करती थीं कि उनकी सभी संतानें धर्म: की सेवा में ही अपने जीवन का उत्सर्ग करें । उनकी यह मनोकामना पूर्णत: सफलीभूत हुई । लुईस के लड़के और लड़कियाँ थीं । वे सभी धर्म सेवी बने, अविवाहित रहे और सारा जीवन ईसाई मिशन के लिए दान कर दिया। पादरी और ननों के रूप में पवित्र जीवन बिताने वाले पवित्र माता के इन बच्चों की चर्चा पाश्चात्य जगत में शताब्दियों तक चर्चा का विषय रही है ।

संसार में एक नहीं हजारों महापुरुषों के उदाहरण मिलते हैं, जो अपने माता-पिता अथवा अभिभावकों से प्रेरणा-प्रोत्साहन पाकर मंदबुद्धि से बुदपन से पीछा छुड़ाकर संसार के जाज्वल्यमान नक्षत्र बन गए। डार्विन, न्यूटन, नेपोलियन, महात्मा गाँधी-ये सभी बचपन में फिसड्डी कहे जाने वाले बालकों में गिने जाते थे, परंतु इनके पिछड़ेपन से इनके अभिभावक निराश नहीं हुए, वे बराबर उनको उपदेश करते और होनहार होने की शिक्षा दिया करते थे और वह समय भी आया, जब यही बालक विश्व के मूर्धन्यों में गिने जाने लगे ।

रामू भेड़िया 

किसी नवजात बालक को अपने परंपरागत वातावरण में भिन्न प्रकार की परिस्थितियों में रखा जाय, तो वह उस बदले हुए वातावरण से ही पला हुआ होगा । उसमें पूर्वजों की विशेषताओं का वंशानुक्रम जितना थोडा सा ही प्रभाव रह जाएगा । शेष सब कुछ बदला हुआ ही होगा । प्राचीनकाल में जाति परिवर्तन के अनेक उदाहरण इतिहास पुराणों में भरे पड़े हैं । इसका कारण जन्म क्षेत्र में भिन्नता हो जाना ही रहा है । परिस्थिति का प्रभाव बालपन में ही नहीं, बड़ी आयु में भी पड़ता है। लोग मानसिक कायाकल्प करते, कुछ से कुछ बनते देखे गए है। इस परिवर्तन में वातावरण का दबाव ही प्रधान रूप से काम करता है ।

उत्तरप्रदेश के आगरा जिले में एक तीन वर्ष का बालक शिकारियों ने भेड़िए की माँद से बरामद किया था। भेड़िए उसे कहीं से उठा लाए थे । संयोगवश मादा ने उसे अपना बच्चा मानकर दूध पिलाना आरंभ कर दिया और पाल लिया । शिकारियों ने भेड़ियों को मारकर जब इस मनुष्य बालक को पकड़ा, तो सारी आदतें भेड़ियों जैसी थीं । चार पैर से चलना, कच्चा मांस खाना, वैसा ही बोलना तथा अन्य आदतों में भेड़ियों को अनुकरण करना उसका स्वभाव बन चुका था । इस बालक को लखनऊ मेडीकल कालेज में सुधारने के लिए रखा गया । वातावरण के प्रभाव से मनुष्य कैसे भेड़ियों जैसी जीवनचर्या का आदी हो गया । यह देखने को भारी संख्या में देश-विदेश के व्यक्ति वहाँ पहुँचते रहे।

एक भ्रांतिपूर्ण मान्यता

कई बार व्यक्तियों को यह सनक सवार रही है कि चूँकि पुरुष पक्ष बहुत स्वस्थ, सुयोग्य एवं समर्थ है, इसीलिए उसे बहुत विवाह करने चाहिए और बहुत बच्चे पैदा करने चाहिए, ताकि वे उसी के जैसे गुण वाले हों, और उनका नाम या वंश अधिक ख्याति प्राप्त करे। यह प्रयोग अनेक जगह हुए हैं, पर उससे संख्या मात्र बढ़ी । पति-पत्नी में सघन विश्वास का वातावरण न बना, प्रेम-सौहार्द्र भी पैदा न हुआ, फलस्वरूप संतान संख्या वृद्धि की बात तो सहज थी, सो पूरी हो गई, पर पिता के गुण ही सब संतान में होंगे यह प्रयोजन पूरा न हुआ । घृणा और अविश्वास के वातावरण में चलने वालें दांपत्य जीवन किसी प्रकार गाडी धकेलते तो रहते हैं, पर उनको जो शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक एवं वंश परंपरागत लाभ मिलना चाहिए वह बिल्कुल ही नहीं मिलता ।

बच्चे को अनीति को प्रोत्साहन

सिंधुराज के राज्य में बकमुआर नामक एक भयंकर दस्यु हुआ है। उसने युवावस्था के २० वर्षों में हजारों का कल्ल किया और प्रचुर संपदा लूटी। पकड़े जाने पर उसे मृत्यु दंड मिला ।

उस समय उसके संबंधी मिलने आए, तो उसने अपनी माता से मिलने से इन्कार कर दिया । कारण पूछने पर कहा-"बचपन में मैं स्वर्ण मुद्रा चुराकर लाया था अरि वह माता को दी, तो उसने मेरी चतुरता को सराहा ही नहीं प्यार भरा पुरस्कार भी दिया । उस दिन के बाद से बदला जीवन आज इस परिणति रूप में है। उसी माँ के प्रोत्साहन का प्रतिफल है कि मैं इतना नीच बना और मृत्युदंड का भागी हुआ।"

धर्मनिष्ठ के संस्कार फलीभूत हुए 

आंध्र प्रांत बनी तो उसके मुख्यमंत्री टी० प्रकाशम् बनाए गए । तब वे ८४ वर्ष के थे। इनका जीवन इतिहास ऐसा था, जिसके लिए उन दिनों उनसे अच्छा प्रामाणिक व्यक्ति दूसरा था नहीं । कुछ दिन मुख्यमंत्री पद सँभाल कर अपना प्रिय विषय रचनात्मक कार्य हाथ में ले लिया और जब तक जीवित रहे, उसी काम में लगे रहे । टी० प्रकाशम् ने गरीबी के दिन देखे थे । पिता की मृत्यु पहले ही हो गई थी । घर में अकेली माँ थी । उनकी माता एक छोटा होटल चलाकर परिवार का पालन करतीं । टी० प्रकाशम् ने अपनी माँ के स्वावलंबन प्रधान जीवन से ही शिक्षा ली, पुरुषार्थ से वकालत पास की और इंग्लैंड जाकर बैरिस्टर बनकर आए । अपनी आजीविका का एक बड़ा भाग वे पिछड़े लोगों की सहायता में लगाते रहे। 

स्वतंत्रता आंदोलन में उनने अग्रिम पंक्ति में भाग लियौ । दैनिक 'स्वराज्य' सफलतापूर्वक चलाया । जेल जाते रहे और अनेक में इसके लिए प्राण फूँकते रहे । उनके महामानव बनने के मूल में थे-माँ के द्वारा बाल्यकाल में डाले गए संस्कार ।

झूठ नहीं बोला

बंगाल के भूतपूर्व मुख्यमंत्री डॉ० विधान चंद्र राय बाल्यकाल से ही मानवी सद्गुणों को अपनाने वालों में से रहें। उनके पिता से विरासत में मिले दो गुण थे-सत्य के प्रति दृढ़ निष्ठा एवं सत्साहस । एक बार उनके अध्यापक मोटर एक्सीडेंट के संबंध में निर्दोष सिद्ध होने के लिए घटना स्थल पर उपस्थित विद्यार्थी राय से झूठी गवाही दिलवाना चाहते थे। उन्होंने झूठ बोलने से इन्कार कर दिया। जो देखा, वह कहा । इस पर अध्यापक चिढ़ गए और उन्हें अनुत्तीर्ण कर दिया । चिकित्सा विज्ञान में एक वर्ष का समय खराब होना, उन्हें झूठ बोलने की तुलना में कम बुरा लगा। अपनी इस प्रामाणिकता के कारण वे और अधिक निखर कर एक सहृदय विश्ववंद्य चिकित्सक-राजनेता के रूप में विकसित हुए।

पहले जीवन में उतरे

पाँच पांडव, सौ कौरव द्रोणाचार्य की पाठशाला में पढ़ने गए। सभी शिष्य एक पाठ रोज याद कर लेते, पर युधिष्ठिर को कई दिन से एक ही पाठ को रटते हो गए । गुरुजी ने झल्लाकर इसका कारण पूछा । 'सत्यं वद' इस पहले पाठ को शब्दों से याद नहीं कर रहा हूँ। जीवन में उतारने का ताना-बाना बुन रहा हूँ। जब एक पाठ हृदयंगम हो जाएगा, तब दूसरा आरंभ करूँगा ।

यही कारण था कि युधिष्ठिर धर्मराज एवं पांडवों में श्रेष्ठ कहलाए ।

गृहस्थजीवनैर्मत्यैंरुपस्थाप्या निजा: शुभाः ।
आदर्शा अथ सौजन्ये संस्कार्य च कुटुम्बकम्॥२७॥ 
अभ्यास: सत्प्रवृत्तीनां कर्तव्य: सन्ततं तथा।
स्नेहो देयश्च कर्त्तव्या हार्दिकी ममताऽपि च॥२८॥
अवाञ्छनीयतोत्पत्ते: सतर्कै: स्थेयमप्यलम्।
भ्रष्टं चिन्तनमप्येतद्दुराचरणमप्यथ॥२९॥
उच्छृखंला व्यवहृति: सद्गुणानां तु तस्करा:।
विनार्यदं निरोद्ध्या: स्वक्षेत्रे प्रहरिणेव च॥३०॥
प्रांयगे विषवृक्षश्चाऽनौचित्यस्य कदाचन।
नैवोद्भवेदिदं सवैंगौंरवं चाऽभीमन्यताम्॥३१॥
सद्गृहस्थाश्च धन्यास्ते सर्वतो गौरवान्विता:।
परिवारं निजं ते तु सुखिनं च समुन्नतम्॥३२॥
सुसंस्कृतं विनिर्मान्ति श्रेयो लाभं प्रयान्ति च ।
भविष्यदुज्ज्वलं तेषां सन्ततेरपि स्वस्य च ॥३३॥

भावार्थ- गृहस्थ जीवन जीने वालों को अपना आदर्श उपस्थित करके समूचे परिकर को सज्जनता के ढाँचे में ढालना चाहिए और सत्प्रवृत्तियों का सतत् अभ्यास करना चाहिए। स्नेह दिया जाय और दुलार किया जाय किन्तु साध ही अवांछनीयताओं से सतर्क भी रहा जाय। भ्रष्ट-चिंतन दुष्ट-आचरण और उच्छृंखल व्यवहार को चोर-तस्कर मानकर सावधान प्रहरी की तरह उन्हें अपने क्षेत्र में प्रवेश करने से रोकना चाहिए। अनौचित्य का विष-वृक्ष अपने आगँन में न उगने देने में ही गौरव है। ऐसे गौरवशाली सद्गृहस्थ हर दृष्टि से धन्य बनते हैं । अपने परिवार को सुखी समुन्नत और सुसंकृत बनाकर श्रेय लाभ प्राप्त करते हैं उनकी संतति का भविष्य तथा अपना भविष्य भी उज्ज्वल बन जाता है॥२७-३३॥

व्याख्या-परिवार में जैसा वातावरण होता है, जैसी प्रवृत्तियाँ पनपती हैं, बच्चे सहज ही उनका अनुकरण करते हैं। यह मानवी स्वभाव की एक जन्मजात विशेषता है कि बड़े जैसा करते हैं, छोटे उनके अनुरूप ही बनते चले जाते हैं । समाज रूपी विराट परिवार में भी जैसा प्रचलन होता है जनमानस सहज ही उसके अनुरूप ढलता चला जाता है। जब परिवार में जो कुछ बड़े अपनाते, जीवन में उतारते हैं तो बालकों में वे विशेषताएँ सहज ही विकसित होने लगती हैं । मनुष्य से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी गरिमा के अनुकूल आचरण कर अपने आदर्शों से दूसरों को शिक्षण दे । अभिभावकों की अपनी निज की बडी जिम्मेदारियों से भरी भूमिका गृहस्थ जीवन में होती है । यह उन्हीं का कर्तव्य है कि वे छोटे बलों के मानस में दुष्प्रवृत्तियों के प्रवेश को रोकने हेतु सतत् सतर्क रहें, एक पहरेदार की भूमिका निबाहें । उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे बच्चो को प्यार भरा शिक्षण देंगे, उन्हें स्नेह का अभाव अनुभव नहीं होने देंगे, किन्तु साथ ही इतना अनुशासित भी रखेंगे कि वे इस दुलार का दुरुपयोग न करने लगें अथवा इसकी आड में अपना भविष्य वष्ट करने वाली निकृष्ट आदतें न अपनाने लगें। स्वयं अपना जीवन सुसंस्कृत, सुव्यवस्थित बना लेना ही काफी नहीं होता । अपनी संतानों, परिवारीजनों में संस्कारों का पोषण देने हेतु कितना पुरुषार्थ किया गया, इससे ही जीवन की सार्थकता आँकी जाती है । ऐसे गृहस्थों की ही गरिमा श्लाध्य है इन्हीं का जीवन धन्य है ।

शुभारंभ स्वयं से

आदर्शो का शिक्षण स्वयं से आरंभ होता है । यदि अपने जीवन में, अपने परिवार में सत्प्रवृत्तियाँ पनपेंगी, तो समाज में भी स्वस्थ परंपराएँ जन्म लेंगी । सेठ जमनालाल बजाज नें गाँधी जी के सिद्धांतों और आदर्शों को बड़ी निष्ठा के साथ अपनाया था। एक सभा में गाँधी जी ने, जब स्त्रियों के गहनों का परित्याग करने को कहा, तो यह बात जमनालाल जी के दिल में बैठ गई । उन्होंने तुरंत अपनी पत्नी जानकी देवी को पत्र लिखा कि बापू का आदेश है, गहने त्याग दो । जब पति का ऐसा आग्रह हो, तो पत्नी उसे कैसे टाल सकती थी । उन्होंने एक एक कर अपने गहने, सुहाग चिह्न तक निकाल दिए। इसका प्रभाव बच्चों पर भी पड़ा। उन्होंने भी अपनी सुविधा के सभी साधन राष्ट्र हेतु समर्पित कर दिए, जबकि उपयोग की उनको पूर्ण स्वतंत्रता थी।

गाँधी जी की आदर्शनिष्ठा

एक बार आचार्य जुगलकिशोर ने गाँधी जी से पूछा-"बापू! यह कैसे संभव हुआ कि जो व्यक्ति कभी सुविधाओं को छोड़कर कष्ट भरा जीवन जी भी नहीं सकते थे, उन्होंने आपके एक इशारे पर सब कुछ राष्ट्रहित हेतु समर्पित कर दिया । यह तो एक चमत्कार है ।" मंद मुस्कान से बापू बोले-"अरे भाई! सीधी सी बात है । यह भी तो देखो कि किसने कहा व करवाया । जिसने कहा, उसने अपने जीवन में भी तो उन आदर्शों को समाविष्ट किया । लोग अनुकरण उन्हीं का करते हैं, जिनकी कथनी व करनी एक सी पाते हैं । फिर भी हर व्यक्ति अपूर्ण है । मैं भी अभी प्रयोग की अवधि से ही गुजर रहा हूँ ।"

सात बार और पढे़

काशी में अध्ययन कर देवदत्त शास्त्री लौटे, तो अपने यहाँ के नरेश के पास गए । उनसे प्रस्ताव रखा-"मैं आपको गीता का भाष्य सुनाना चाहता हूँ।" नरेश ने नम्रतापूर्वक कहा-आप कृपया घर  जाएँ । सात बार गीता और पढ़ें, फिर आएँ । तब मैं आपका भाष्य सुनूँगा ।" शास्री जी पहले तो क्रुद्ध हुए । घर आकर पत्नी से परामर्श किया, तो उनने कहा- "क्या हर्ज है, राजा ने कहा है, तो पाठ कर लें, फिर जाएँ ।" अत: वे पढ़ने लगे। पढ़कर राजा के समीप पहुँचे । इस बार फिर नरेश ने सात बार पढ़कर आने को कहा । घर गए, तो
पत्नी ने समझाया-"राजा भी विद्वान हैं, उनके कथन में कोई गूढ़ अभिप्राय संभव है ।" शास्त्री जी नित्य एकांत में पुन: गीता पढ़ने लगे । तीसरे दिन सहसा उनका  ध्यानगीता के तत्वज्ञान की ओर गया । उसके बोध से प्रशिक्षण पाकर भीतर उमड़ने वाले आनंद-प्रवाह से वे विभोर हो उठे। पछताए कि गीता भी कोई व्याख्या की वस्तु है। यह तो समझने और जीने की प्रक्रिया है, दिशा है। भला इस कामधेनु को भी यों बेचना चाहिए दरबार में।

महीने बीत गए । शास्त्री जी को राजा के यहाँ जाना अनावश्यक लगा । तभी नरेश एक दिन उन्हें खोजते आ पहुँचे । चरणों में शीश झुकाकर बोले-"अब आप गीतामय हो गए हैं। मुझे कृतार्थ करें, गीता सुनाकर, क्योंकि अब आपके मुख से सचमुच गीता का तत्वज्ञान निकलेगा ।"

बच्चे को उड़ना सिखाया

गरुड़ ने अपने बच्चों को पीठ पर बैठाया और उसे अपने साथ दूसरे सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दिया । दिन भर दोनों दाना चुगते रहे, सायंकाल घर लौटे । गरुड़ अपने बच्चे को यातायात प्रयोजन में भी साथ लिया करता था। यह क्रम बहुत दिन चला। गरुड़ ने धाबहुतेरा कहा, पर बच्चे ने न सीखा। उसकी धारणा थी जब तक नि:शुल्क साधन उपलब्ध हों; तब तक स्वयं श्रम क्यों किया जाए? गरुड़ बच्चे की इस दुर्बलता को बड़ी सतर्कता से देखता रहा। एक दिन जब वह आकाश में उड़ रहा था, तब धीरे से अपने पंख खींच लिए। बच्चा गिरने लगा, तब चेत आया, पंख फड़फड़ाए । गिरते-गिरते बचा । पर अब उसने उड़ना सीखने की आवश्यकता अनुभव कर ली। सायंकाल बालक गरुड़ ने माँ से कहा-"माँ, आज पंख न फड़फड़ाए होते, तो पिताजी ने बीच में ही मार दिया होता ।" मादा गरुड़ हँसी और बोली-"बेटे! जो अपने आप नहीं सीखते, स्वावलंबी नहीं बनते, उन्हें सिखाने-समझाने का यही नियम है ।"

अभिभावकों की असावधानी

अर्जुन सुभद्रा को चक्रव्यूह का वेधन समझा रहे थे। छ: चक्रों का वेधन समझा चुके, तब उन्हें नींद आ गई । फलत: एक चक्र का वेधन गृहस्थ अभिमन्यू न सीख सका। इसी कारण अभिमन्यू को उस कुचक्र में प्राण गँवाना पड़ा। माता-पिता की असावधानी का दुख संतान को भुगतना पड़ता है ।

बदतमीजों से तमीज सिखी 

लुकमान से किसी ने पूछा-"आपने ऐसी तमीज किससे सीखी?" उनने जवाब दिया-"बदतमीजों से । वे जो करते और भोगते हैं, उसका मैंने ध्यान रखा और अपनी आदतों को उस कसौटी पर कस कर सही किया।"

भिखारी कलाकार 

एक मच्छर शहद की मक्खियों के छत्ते पर पहुँचा और बोला-"वह बड़ा संगीतज्ञ है । मक्खियों के बच्चों को संगात सिखाना चाहता है। बदले में थोड़ा सा शहद लिया करेगा ।" रानी मक्खी तक समाचार पहुँचा, तो उनने स्पष्ट इन्कार कर दिया, कहा-"जिस प्रकार संगीत का ज्ञाता बनकर मच्छर हमारे दरवाजे पर भीख माँगने आया है, उसी प्रकार हमारे बच्चे भी परिश्रम छोड़कर भीख माँगने लगेंगे। मैं नहीं चाहती कि संस्कारों के स्थान पर सस्ते में कुछ पाने का लालच भरा शिक्षण इन्हें मिले। इन्हें अपने आप ही सब कुछ सीखने दो, तभी ये जीवन साधना में खरे उतरेंगे ।"

लापरवाही सहन नहीं 

मद्रास में एक छोटा बच्चा गाँधी जी को आग्रहपूर्वक एक छोटी पेंसिल लिखने के लिए दे गया । उनने कई दिन उसी से लिखा । एक दिन वह गुम हो गई । गाँधी जी ने सारा सामान ढूँढ डाला और तब चैन से बैठे, जब पेंसिल खोज ली । वे कहते थे-"मै बच्चे की भावना के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकता और न लापरवाही को बढ़ने दूँगा, चाहे वह मेरी ही क्यों न हो । मेरी आज की तनिक सी लापरवाही कल विकराल रूप ले सकती है।"

व्रत नहीं छोडा

राजा प्रह्लाद ने जब राज-काज सँभाला, तो अपनी ओर से प्रजा की गतिविधियों में शील के समावेश का पूरा-पूरा ध्यान रखा । याचक कोई खाली हाथ नहीं जाता था । एक दिन इंद्र ब्राह्मण के वेश में आया और प्रह्लाद से शील माँगा । उनने दे दिया, पर अपने हिस्से का व्रत नहीं छोड़ा । शील के साथ वैभव चला गया, पर उनका निजी व्रत बना रहने से वह पुन: वापस लौट आया ।

व्रत अनुशासन ही वह संस्कारों की निधि है, जो जब तक किसी के पास है, सारा वैभव उसके समक्ष तुच्छ है ।

गुण खोजी बनो, छिद्रान्वेषी नहीं

कौन क्या ग्रहण करता है, यह उसके दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। सुकरात से किसी जिज्ञासु ने पूछा-"दीपक तले अँधेरा और चंद्रमा के मुख पर कलंक क्यों है?" संत नें उलटकर जिज्ञासु से पूछा-"तुम्हें यह प्रश्न पूछते क्यों नहीं बना कि दीपक में प्रकाश और चंद्रमा में ज्योति क्यों है?" उपस्थित लोगों ने उस प्रश्नोत्तर से निष्कर्ष निकाला कि हमारा दृष्टिकोण छिद्रान्वेषी नहीं, गुण नहीं खोजी होना चाहिए ।

परिवार में दृष्टिकोण के परिष्कार का समुचित अभ्यास बालकों को कराया जाना चाहिए, ताकि वे उचित-अनुचित में भेद कर तदनुसार उचित ही ग्रहण करें ।

कड़वे बोल न बोल

दुराग्रह यह भी नहीं होना चाहिए कि बच्चों के सामने हमारी हेठी करेगी । कभी-कभी संस्कारी जीवन की प्रेरणा नन्हें शिशु भी दे जाते हैं। पति-पत्नी में अनबन हो गई । एक-दूसरे को कटु शब्द बोल गए। मनों को चोट पहुँची और बोलचाल बंद हो गई । उनका एक सात वर्षीय बालक था । वह कहीं से गीत के बोल सुन आया, "मुख से कड़वे बोल न बोल ।"बालक को स्वर रुचा । वह उसे पिता के कमरे में बैठकर गुनगुनाने लगा । पिता का उस पर ध्यान गया, तो चौके, मन में खींझे, क्या मैं ही कडुवा बोलता हूँ?" बच्चे से बोले-"बेटा, जा अपनी मम्मी के कमरे में जाकर गा ।" भोला बालक वही गीत माँ के कमरे में जाकर गाने लगा । माँ ने सुना, तो खीझ भी आई और हँसी भी । वह भी बोलीं-"बेटा, जा अपने पिताजी के पास बैठकर गा ।" बालक फिर पिताजी के कमरे में जाकर गाने लगा, तो डाँट पड़ गई । बेचारा क्या करता । दोनों कमरों के बीच बरामदे में बैठकर गाने लगा-मुख से कड़वे बोल न बोल। आवाज सुनकर माता-पिता दोनों अपने कमरे से निकले, बच्चे को रोकने, पर एक-दूसरे को देखकर चुप रह गए । बालक ने दोनों को देखा, भाव पड़े और बोला-"आप दोनों को यह गाना अच्छा नहीं लगता, तो अलग बैठकर गा रहा हूँ। अब क्या शिकायत है?" पति-पत्नी ने एक दूसरे को देखा एवं अपनी भूल समझी । दोनों बालक के पास गए, बोले, "अच्छा भाई, हमें भी अच्छा लगता है । अब हमारे सामने गा लो । तुमने वस्तुत: हमें अपनी गलती का बोध करा दिया।" सद्विचार कहीं सें भी उभरे, ग्राह्य हैं।

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