प्रज्ञा पुराण भाग-3

अथ षष्ठोऽध्याय: सुसंस्कारिता-संवर्धन प्रकरणम्-4

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प्रज्ञापुराणमस्माच्च कथाग्रन्थानुरुपग:।
कालिकीनां स्थितीनां हि मार्गदर्शक उत्तम:॥४९॥
अस्य चाख्यायिकास्तस्मादैतिह्यादिकमप्यलम्।
गृहेषु वक्तुं युज्वन्ते यथा मातामहीकथा:॥५०॥
वयोवृद्धास्तु शृण्वन्ति श्रीमद्भागवतं तथा।
रामायणादिकं यच्च युवभ्योऽपि हि रोचते॥५१॥
व्यस्ता अपि च तच्छ्रोतुं पठितुं चित्सुकाश्च ते।
परिवारस्तरं कर्तुमुच्चगं तस्य तेषु च ॥५२॥
सदस्येषु विधातुं च शालीन्योदयमुत्तमम्।
क्रम: कथाप्रसंगानामत्र स नियमो भवेत्॥५३॥
प्रभवेद्दैनिकोऽभ्यासो जीवनं कर्तुमुन्नतम्।
दैनिकक्रममस्माच्च न कदाचित् परित्यजेत्॥५४॥

भावार्थ-प्रज्ञापुराण सामयिक परिस्थितियों के अनुरुप मर्गदर्शन करने के हेतु अत्यंत उपयोगी कथा-ग्रंथ हैं। इसकी कहानियाँ, इसमें दिया गया इतिहास आदि घरों में उसी प्रकार कहा जाना चाहिए, जैसा कि छोटे बच्चों को नानी की कहानियाँ सुनाई जाती हैं। वयोवृद्ध रामायण, भागवत आदि पुराण-कथायें पढ़ते-सुनते रहते
हैं। युवा वर्ग को भी वे कम पसंद हों-ऐसी बात नहीं, व्यस्त रहते हुए भी वे उन्हें पढ़ने-सुनने के लिए उत्सुक रहते है। परिवार का स्तर ऊँचा उठाने के लिए, उसके सदस्यों में अधिक शालीनता का समावेश करने के लिए नियमित कथा-प्रसंगों का प्रवचन होना चाहिए। दैनिक अभ्यास ही जीवन को उन्नत बना सकता है,
दैनिक कार्यक्रमों को कभी छोड़ना नहीं चाहिए॥४९-५४॥

व्याख्या-परिवार संस्था में अच्छे संस्कारों का समावेश हो, नैतिक स्त्तर बने, इसके लिए अनिवार्य है कि कथा-प्रसंगों को, जिनमें सामान्यतया सभी रुचि लेते हैं, नियमित रूप से परिवार में कहा जाता रहे। इससे बहिरंग जीवन की समस्याओं के हल निकालने एवं मन:स्थिति के परिमार्जन करने का पथ सतत प्रशस्त होता चलेगा।

दैवी अनुदान आत्मवलंबी को

विधाता ने सृष्टि की रचना के दिनों मनुष्य को अधिक उपयुक्त पाया और कृपापूर्वक उसे अतिरिक्त अनुदान के रूप में प्रतिभा बाँटी। प्रतिभा के बल पर मनुष्य ने अनेक दिशाओं में उन्नति की और सुख-सुविधाओं से भरा-पूरा जीवन बिताने लगा। समय ने पलटा खाया, प्रतिभा के पीछे स्वार्थांधता जुड़ गई। फलत: प्रतिभा का उपयोग एक-दूसरे को चूसने और गिराने में किया जाने लगा । सृजन का जब ध्वंस में प्रयोग किया गया, तो विपत्तियों का उतरना स्वाभाविक था । सर्वत्र शोक- संताप का वातावरण बन गया। सभी लोभ, पराभव, पतन के गर्त में गिरते चले गए ।

समाचार स्रष्टा तक पहुँचे, वे दुखी हुए । स्थिति सुधारने के लिए उन्होंने देवदूत भेजे। उन्होंने विपत्तियों का कारण समझाया और फिर स्थिति को सुधारने के लिए मन:स्थिति को बदलने का मार्गदर्शन करने में कुछ उठा न रखा । लोग आदतों के इतने अभ्यस्त हो चुके थे कि बदलना तो दूर, उल्टे देवदूतों का उपहास उड़ाने
और त्रास देने पर उतारू हो गए । विवश होकर वे वापस चले गए । दुर्गतिग्रस्त मनुष्य की दुर्गति दिन-दिन अधिक बढ़ती चली गई । अबकी बार मानवों ने स्वयं विधाता से प्रार्थना की और व्यथा का नया उपाय बताने का अनुरोध किया। विधाता ने इस बार और भी बलिष्ठ देवदूत भेजे, पर यह शर्त सुनाई कि जो उनका सहयोग करेंगे, उनकी सहायता की जाएगी, उन्हीं के दुख-दारिद्य दूर होंगे । वही क्रम अब तक चला आ रहा है, दैवी
सहायता उन्हीं को उपलब्ध होती है, जो अपनी सहायता आप करते हैं । प्रज्ञा पुराण जैसे ग्रंथ सन्मार्ग दिखाने का, पथ-प्रदर्शक का कार्य करते हैं । अत: इसके स्वाध्याय का क्रम निरंतर चलना चाहिए, ताकि आगे बढ़ने का मार्गदर्शन मिलता रहे ।

मार्गदर्शन किनसे? 

रामकृष्ण परमहंस से उनके एक शिष्य गिरीशचंद्र ने पूछा-"मुझे किस प्रकार जीवनयापन करना
चाहिए?" उत्तर में उन्हें बताया गया-"कभी इधर (संसार) और कभी उधर (भगवान) को देखते हुए चलो। यदि कोई स्थिति ऐसी आ जाए कि निर्णय करना कठिन हो तब?" परमहंस बोले- "यदि तुम्हें कभी अपने कर्तव्य-अकर्तव्य के अथवा सदाचार के विषय में संदेह उपस्थित हो, तो जो विचारशील, तपस्वी, कर्तव्य-परायण, मृदु स्वभाव, धर्मात्मा, विद्वान, गुरुजन हों, उनकी सेवा में उपस्थित होकर अपना समाधान करो और उनके आचरण और उपदेश का अनुसरण करो। यदि वे उपलब्ध न हों, तो सद्ग्रथों का, सत्साहित्य का पठन-पाठन, चिंतन-मनन कर मार्गदर्शन लो ।"

पैंरों में खदाऊँ पहनों 

शिष्य लंबा रास्ता पार करके आया था। उसके पैरों में अनेक काँटे चुभ रहे थे । शिष्य ने कहा-"दुनियाँ बड़ी खराब है। इसमें पग-पग पर काँटे बिछे हैं ।" गुरु ने कहा-"पैरों में पहनी खड़ाऊँ पहन लो ।" दुनियाँ के काँटे बीनना कठिन है। अपना स्वभाव सजनता और सहिष्णुता का बना लेना ही खड़ाऊँ पहनना है । यह शिक्षण ही वास्तविक सत्संग है। यदि गुरुजनों की वाणी को, सदुपदेशों को हृदयंगम किया जाय, तो प्रतिकूलताएँ निरस्त होती चलेंगी ।

मन की गाँठ

एक गृहस्थ सेठ था। बारह वर्ष तक रोज कथा सुनने का नियम बनाया। एक ब्राह्मण कथा सुनाने आते थे । ब्राह्मण सदाचारी, ईश्वरनिष्ठ थे। तन्मय होकर कथा कहते थे। बारह वर्ष पूरे होने को थे, तो सेठजी को कार्य से कहीं जाने की आवश्यकता पड़ी। उन्होंने ब्राह्मण से पूछा-" महाराज, कल मुझे बाहर जाना है, कथा के नियम का क्या होगा?" ब्राह्मण ने बतलाया कि पिता की जगह पुत्र कथा सुन ले, तो काम चल जाता है । सेठ ने कुछ सोचा फिर बोले-"महाराज, इसमें खतरा है, लड़का कथा सुनकर वीतराग हो गया तो?" ब्राह्मण बोले-"आपको लगभग बारह वर्ष पूरे होने को आए कथा सुनते-सुनते । आप वीतराग नहीं हुए, तो एक दिन में पुत्र कैसे वीतराग हो जाएगा ।" सेठ बोले-"मैं तो मन में गाँठ रखकर कथा सुनता हूँ, ताकि धार्मिकता का पुण्य यश मिले, पर
प्रभाव से वीतराग न हो जाऊँ ।" अधिकांश लोग धार्मिक प्रक्रिया ऐसे ही अपनाते हैं । अच्छे प्रभाव से बचकर मनमाने लाभ लूटना चाहते है।

भद्रं कर्णेभि:

कथा प्रारंभ होने लगी तो सूतजी ने श्रोताओं को सावधान किया । कहा"ध्यान रखो, मन में होता है, वही आँख-कान को सुहाता है । पर आँख-कान के संसर्ग में बार-बार आने वाले विषय मन में स्थान बना देते हैं। कथा भगवद्भाव से सुनी जाय, तो उसी रास्ते भगवद्भाव मन में स्थान बना लेता है । अन्यथा इसी आँख-कान के रास्ते पाप मन में प्रवेश कर जाते हैं। इसीलिए प्रभु से प्रार्थना की जाती है- 
भद्रं कर्णेभि:
शृगुयाम देवा: 
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्रा:।"

कथा, प्रसंग में आँख-कान को भगवद्भाव युक्त बनाना ही श्रोताओं का पुरुषार्थ है। 


बालकेभ्योऽभिरोचन्ते पशुपक्षिकथास्तथा ।
परलोकाप्सरश्रर्चा उत्सुकास्ते कुतूहलम्॥५५॥
श्रोतुं मनोविकासाय युवभ्य: प्राय एव च ।
ससाहसा: समाधात्र्य: कथारोचन्त उन्नता:॥५६॥ 
वृद्धेभ्य ऋषिसम्बद्धा देवताचरितानुगा: ।
धर्मप्रयोजना नूनं रोचन्ते च प्रसंगका:॥५७॥
कथाश्चेमा परोक्षेण रोचन्ते त्रिभ्य एव च ।
श्रवणेऽस्मिंश्च पुण्यं तन्मनोरञ्जनमप्यलम्॥५८॥
चिन्तनस्य चरित्रस्य व्यवहारस्याऽपि तत् ।
प्रशिक्षणं परिष्कारकारकं यदवाप्यते॥५९॥
अस्मिन्ननुभवेत्रैव कोऽपि स्वस्मिन् कदाचन ।
कटाक्षादिकमेतस्या बाधा नास्त्यपमानजा॥६०॥
बोधोऽप्ययं भवत्येव परिस्थितिषु च कासु च ।
किं कार्यं पुरुषैरत्र विपद्भ्यो रक्षितुं स्वयम्॥६९॥
कथं भाव्यं सतकैंश्चाऽवाञ्छितेभ्य: कथं तथा ।
दूरेर्भाव्यं तथात्मा च रक्षणीय: सदा नरै:॥६२॥

भावार्थ-बच्चों को पशु-पक्षियों की, परलोक की कथाएँ अधिक रुचिकर होती हैं। उनका मानसिक
विकास कौतूहल सुनने के लिए उत्सुक रहता है। युवकों और प्रौढ़ों को अनुभव-साहस प्रदान करने वाली समस्याएँ सुलझाने और ऊँचा उठाने वाली कथाएँ अधिक सुहाती हैं। वृद्धों को ऋषियों, देवताओं, धर्म प्रयोजनों से संबंधित प्रसंग रुचते हैं। ये कथा-प्रसंग परोक्ष रूप से उपरोक्त तीनों ही वर्गो को सुहाते हैं। इस श्रवण में पुण्य भी माना जाता है, मनोरंजन भी होता है और सबसे बड़ा लाभ परोक्ष रूप से चिंतन चरित्र और व्यवहार को परिकृत करने वाला प्रशिक्षण मिलते रहने के रूप में हस्तगत होता रहता है इसमें किसी को अपने ऊपर कटाक्ष-व्यंग्य होने तथा अपमान होने जैसी अड़चन भी नहीं पड़ती और यह भी बोध होता रहता है कि किन परिस्थितियों में क्या करना चाहिए, विपत्तियों से बचने के लिए किस प्रकार सतर्क रहना चाहिए किन
अवांछनीयताओं से किस प्रकार दूर रहना और कैसे पीछा छुड़ाना चाहिए॥५५-६२॥

व्याख्या-कथा साहित्य किस वय के लिए कैसा हो, यह बहुत कुछ मानवी मनोविज्ञान पर निर्भर
है। लक्ष्य सभी वर्गों की दृष्टि से एक ही रहता है, अप्रत्यक्ष रूप से उनके गुण, कर्म, स्वभाव को बदलने योग्य मनःस्थिति बनाना । व्यक्ति के अचेतन को स्पर्श कर वे उसे उद्वेलित कर हर परिस्थिति के लिए समाधान निकालने की समझ विकसित करते हैं। यह संसार विभिन्न प्रकार के प्रपंचों-प्रतिकूलताओं से भरा है। जीवन जीने की सही दिशा मिल सके, कथानकों में यही मूल उद्देश्य सन्निहित होता है। बालकों को उनकी जिज्ञासा का समाधान करने वाली, अंतर्बुद्धि को विकसित करने वाली, मध्य वर्ग की वय वालों को जोश दिलाने वाली, सत्साहस की प्रेरणा देने वाली, व्यावहारिक जीवन की दैनंदिन समस्याओं का समाधान बताने वाली तथा ढलती आयु वाले वृद्धजनों को धर्म-दर्शन, जीवन के मूल उद्देश्य, समाज, आराधना जैसे विषयों पर प्रकाश डालने वाली कथाएँ सुनाई जानी चाहिए। यह चयन न केवल आयु विभाजन की दृष्टि से, अपितु उनके मानसिक विकास एवं अभिरुचि को देखते हुए उपयुक्त है ।

बच्चों के लिए वे ही कथानक चुने जाँय, जो उनका मनोरंजन तो करें ही, उन्हें सद्गुण अपनाने हेतु प्रेरणा भी दें । यह घटनाक्रमों के माध्यम से भी समझाया जा राकता है एवं जीव-जंतुओं, प्रकृति के अन्यान्य घटकों को माध्यम बनाकर भी ।

प्रतिकूलता के अनुदान

"चाचा नेहरू! आपका सबसे अधिक वजन कब और कितना था?"-फूल सी कोमल बालिका ने  प्रधानमंत्री नेहरू के सम्मुख प्रश्न रखा। नेहरू उस अजीब प्रश्न को सुनकर आश्चर्य में पड़ गए । वह अपनी स्मृतियों पर जोर देते हुए प्रेमिल वाणी में बोले-"प्यारी मुन्नी! जब मैं अहमदनगर जेल में था, उस समय मेरा वजन १६२ पौंड था।" चाचा ने अपनी फूल सी वाणी बिखेरते हुए कहा-
"जेल के जीवन की कठोरताओं ने ही मेरे वजन को बढ़ाया है और स्वस्थ रखा है। मैं अपने को अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा सौभाग्यशाली मानता था कि अपने देश को स्वतंत्रता दिलाने के लिए जेल में कठिनाइयाँ सहन कर रहा हूँ और इस प्रसन्नता तथा निश्चितंता के जीवन ने ही मेरे वजन को बढ़ाया है ।"

पहले स्वयं को सुधरिए

कौआ अपना घोंसला छोड़कर पूरब की ओर जाने की तैयारी करने लगा। कारण पूछने पर बुलबुल से उसने कहा-"यहाँ के लोगों को आवाज की परख करने की तमीज नहीं है।" बुलबुल ने कहा-"ताऊजी! आपको आवाज सुधारनी पड़ेगी। नहीं तो पूरब वालों से भी
आपको यही शिकायत करनी पड़ेगी ।"

श्रम की उपलब्धियाँ

"क्यो माँ! बबूल का पौधा लगा देने के बाद ज्यादा देखरेख नहीं करनी पड़ती, वह अपने आप ही इतना बड़ा हो जाता है?"-बच्चे के इस प्रश्न का माँ ने-"हाँ बेटा!"-कहकर संक्षिप्त उत्तर दे दिया।" और क्यों माँ, गुलाब छोटे-छोटे होते हैं, एक वर्ष में ही तैयार हो जाते हैं, तो भी उनके
लिए पिताजी को दिन-रात परिश्रम करना पड़ता है । वह क्यों?"-बच्चे ने फिर प्रश्न किया। इस बार माँ ने बच्चे की जिज्ञासा का भरपूर समाधान करते हुए कहा-"बेटे! श्रेष्ठ वस्तुएँ सदैव परिश्रम से मिला करती है । ऐसा न होता तो अच्छे व बुरे में अंतर ही क्या रह जाता?"

स्वावलंबन एवं धर्मनिष्ठा के संस्कार बच्चों में ऐसे दृष्टांतों के माध्यम से सरलता से दिए जा सकते हैं।

चाँद समझदार या सूरज

दादी से छोटे पोते ने पूछा-"सूरज बड़ा है या चाँद?" दादी ने कहा-"दिन में रोशनी रहती है फिर भी सूरज, भले ही बड़ा हो, बेकार चमकता है । उससे छोटे चंदामामा कहीं अधिक सूरज समझदार है, जो अंधेरी रात में लोगों को राहत देने के लिए उगता और भलमनसाहत दिखता
है ।" यह समझने का एक तरीका है। तथ्य भले ही सही न हों, किन्तु इससे बच्चों में सद्गुण संवर्द्धन होता है, जो कि सामान्य जानकारी से अधिक जरूरी है ।

पेडों की अकड़ और बतों की नम्रता

नदियाँ समुद्र में पहुँचती और अपने साथ बड़े-बड़े पेड़ लिए जाती । समुद्र एक दिन पूछ बैठा-"तुम सबके किनारों पर बेंत और सरकंडे उपजे रहते हैं, पर उन्हें कभी नहीं लातीं?" नदियों ने कहा-"पेड़ अकड़े रहते हैं और जोर अजमाया करते हैं, सो बहाव का सामना न कर सकने के कारण उखड़ जाते हैं । बेंत है, तो सदा नम्र रहते हैं । बाढ़ आने पर सिर नीचा कर लेते हैं और पानी कम होते ही अपना सिर उठा लेते हैं । उन्हें उखाड़ा कैसे जाय?" बालकों को नम्रता का अभ्यास बचपन से ही कराया जाय, तभी वे सभ्य नागरिक बन सकते हैं।

अहिंसक के पास लाठी

कभी-कभी बड़ों को भी बालकों के ढंग से समझाया जा सकता है ।  एक दिन गाँधी जी की कुटिया में पंडित जवाहरलाल नेहरू घुसे कि अंधेरे में वे गांधी जी की लकुटी से टकरा गए। पंडित जी को बड़ी खीज हुई। बोले-"बापू! आप तो अहिंसा के पुजारी हैं, फिर यह लाठी यहाँ क्यों रख छोड़ी है?" 

गांधी जी बोले-"तुम्हारे जैसे शरारती लड़को को सीधा करने के लिए!" थोड़ा गंभीर होकर बापू पुन: बोले-"अहिंसा का मतलब यह नहीं कि हर किसी से पिटने के लिए तैयार हो। अनीति के विरुद्ध आत्मरक्षा के साधन जुटाना भी नीति के अंतर्गत ही आते है ।"

स्वाभिमानी देशभक्त

युवको, मध्य आयु के व्यक्तियों के लिए कथानकों के प्रसंग साहस की सत् शिक्षा देने वाले, व्यावहारिक अध्यात्म की प्रेरणा देने वाले होने चाहिए ।

कोर्ट मार्शल के सम्मुख तात्या टोपे को उपस्थित करने के बाद अंग्रेज न्यायाधीशों ने पूछा-"यदि तुम चाहो तो अपने बचाव में कुछ कह सकते हो।" तात्या टोपे का स्वाभिमान जाग उठा । उसने कहा-"ब्रिटिश शासन से टक्कर ली है। मैं जानता हूँ कि इसके बदले में मुझे मृत्यु दंड प्राप्त होगा । मैं केवल ईश्वरीय न्याय और
न्यायालय में ही विश्वास रखता हूँ, इसलिए अपने बचाव के लिए मैं कुछ नहीं कहना चाहता ।" तात्या को जब फाँसी स्थल पर ले जाया गया, तो उसने कहा-"तुम लोग मेरे हाथ पैर बाँधने का कष्ट क्यों करते हो? लाओ फाँसी का फंदा, मैं स्वयं ही अपने गले में डाल लूँ ।" इन अंतिम शब्दों के साथ सन् सत्तावन के स्वतंत्रता संग्राम का वह सेनानी अमर हो गया।

अनीति से समझौता नहीं

जर्मनी के महान वैज्ञानिक नील्स बोर अणु विज्ञान की शोध में आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त कर रहे
थे । हिटलर उनसे बहुत प्रसन्न था। नील्स के कान में हिटलर के इरादों की भनक पड़ी। दुरुपयोग से यह विज्ञान कितना विघातक हो सकता है, इस कल्पना से वे काँप उठे। कई रात तक उन्हें नींद नहीं आई। एक रात वे चुपके से उठे और गैलीलियो की समाधि पर मस्तक रख कर प्रतिज्ञा की कि वे ऐसा काम न करेंगे, जिससे मानवता का हनन होता हो। दूसरे दिन से उनने काम करना बंद कर दिया। नाजियों ने इस पर उन्हें त्रास और प्रलोभन देने में कोई कसर न रखी, पर वे टस-से-मस न हुए। अंतिम दिन उनके बडे कष्ट में बीते। मछुओं की सहायता से वे किसी प्रकार छिपकर कोपेन-हेगेन से स्वीडन पहुँचे । इतना मान और वेतन छोड़कर
आदर्श पर दृढ़ रहने वाले नील्स की गणना सदा शहीदों में होती रहेगी ।

दिवालिया होना स्वीकार

"मैं खुदा की कसम खा कर कहता हूँ कि मैं कत्ल होना पसंद करूँगा, पर इस कानून के सामने सिर न झुकाऊँगा ।" प्रिटोरिया की भरी सभा में हिंदुस्तानियों के बीच यह स्वाभिमान पूर्ण शपथ लेने वाले थे, सूरत के व्यापारी सेठ अहमद मुहम्मद काछलिया। दक्षिण अफ्रीका के गोरों ने जनरल स्मट्स के उत्पीड़क तंत्र में भारतीयों का स्वत्व हरण करने वाला एक खूनी विधेयक सदन में रखा था। सेठ काछलिया इस सभा में उसी विधेयक का विरोध कर रहे थे। वे दक्षिण अफ्रीका के प्रमुख भारतीय व्यापारियों में से थे। गोरे लोग जब सेठ काछलिया को झुकाने के सब उपाय आजमा कर थक गए, तो उन्होंने अंतिम शस्त्र चलाया । सेठ काछलिया व्यापारियों की कोठी पर अवलंबित था । उन्होंने धमकी दी-"आप या तो सत्याग्रह की लड़ाई से हट जाइए या हमारा पावना चुका दीजिए, क्योंकि आप जेल चले गए, तो हमारी रकम डूब जाएगी।" सेठ काछलिया ने उत्तर दिया-"मेरा व्यापार मेरी खुद की जिंदगी है। पर मैं अपने फायदे के लिए कौम को धोखा नहीं दूँगा । चाहे मुझे दिवालिया ही क्यों न बनना पड़े ।" और सेठ काछलिया को सचमुच लेनदारों के दबाव के कारण दिवाला निकालना पड़ा । वे चाहते तो लड़ाई से अलग होकर अपना व्यापार बचा सकते थे, पर हमवतनों और वतन को छोड़ देने के बजाय उन्होंने व्यापार छोड़ देने को ज्यादा अच्छा समझा ।

ऐसे आदर्शवादी महामानव ही जीवन के प्रेरणा स्रोत बन जाते है ।

एकाकी एवं दुर्दांत प्रतिशोध

सहिष्णुता का शिक्षण देना हो, तो प्रतीकात्मक दृष्टांतों का अवलंबन लिया जा सकता है। 

प्रतिशोध ने डाँटते हुए धैर्य से कहा-"बंधु! आप जैसे कायर व्यक्ति साथ रहने में मेरी शान घटती है, आप मेरे साथ न रहें तो ही अच्छा।" धैर्य ने साथ छोड़ दिया, तभी से एकाकी प्रतिशोध भयंकर कांड कराता हुआ संसार में विचरण कर रहा है।

लोकसेवी को भय किसका?

ढलती आयु वाले, समाज सेवा हेतु तत्पर व्यक्तियों को कथानक सुनाने की शैली भिन्न होगी । उन्हें ढर्रे को बदलने के लिए साहस तो जुटाना ही है, अध्यात्म के व्यावहारिक रूप को भी समझना होता है । अपनी गिरफ्तारी से कुछ दिन पूर्व ईसा येरुशलम में ही प्रचार कर रहे थे, जहाँ कि उनकी जान के ग्राहक सबसे ज्यादा थे, साथ ही जहाँ प्रचार की सबसे अधिक आवश्यकता थी । उनके शिष्यों ने उनसे येरुशलम छोड़ देने के लिए अनुरोध करते हुए कहा-"यहाँ के लोग आपको मार डालने की घात में है ।" किन्तु ईसा ने वहाँ जाना अस्वीकार करते हुए कहा-"जीवन को उत्सर्ग किए बिना न तो सत्य की प्रतिष्ठा होगी और न उसका
महत्व बढ़ेगा ।"

रानाडे़ की न्यायनिष्ठा

एक न्यायाधीश सरकारी काम पर पैदल ही सतारा जिले का दौरा कर रहे थे। उन्होंने अपनी पत्नी को संदेश दिया था कि पीछे घोड़ा गाड़ी से आ जाना । मार्ग में एक अमराई में बढ़िया आम दिखाई दिए । न्यायाधीश की पत्नी की इच्छानुसार गाड़ीवान ने कुछ आम पेड़ से तोड़े। संयोगवश एक बड़ा आम उनके हाथ पर आ गिरा और उनका सोने का कंगन टूट गया। टूटे हुए कंगन का एक टुकड़ा भी नहीं मिल पाया। जिनके कारण उन्हें बड़ा पछतावा रहा । पड़ाव पर आकर न्यायाधीश की पत्नी ने सारी कहानी पतिदेव को सुनाई। न्यायाधीश कहने लगे-"ठीक ही हुआ । बिना अधिकार के पराया माल प्राप्त करने का यही परिणाम होना चाहिए। भविष्य में इस प्रकार की मनोवृत्ति से दूर रखने के लिए प्रभु ने यह दंड दिया है। तुम्हारे अपराध की थोड़ी सी सजा मुझे भी मिल गई है। मेरा भी चाकू कहीं खो गया है । पाप की कौड़ी पुण्य का सोना भी खींच लेती है ।" ये न्यायाधीश थे श्री महादेव गोविंद रानाडे, जो केवल दूसरों के मुकदमों के फैसले ही नहीं करते थे, वरन् अपने और अपने स्वजनों के क्रिया-कलापों का भी विवेकपूर्ण तरीके से निरीक्षण करते हुए उस न्यायाधीश को नहीं बिसारते थे, जो इस संसार का स्वामी है । वह सब पर दया भी करता है और उन्हें उनके कर्मों के अनुसार दंड भी देता है ।

सच्चा अधिकारी

"महात्मन्! स्वर्ग का अधिकार किसे मिलता है।" एक वृद्ध ग्रामीण ने महाप्रभु ईसा से प्रश्न किया। पास ही एक बालक खेल रहा था, ईसा मसीह ने उसे उठाकर संकेत किया-"इसे ।" "आपका आशय नहीं समझा महात्मन्", ग्रामीण ने फिर कहा । ईसा हँसे और बोले-"जो बच्चे की तरह भोला और निरहंकारी है, वही स्वर्ग का अधिकारी है ।"

संत बनें, तब सत्संग हो


चौबीस अवतारों में से एक कपिल जी कर्दम ऋषि तथा देवहूति के पुत्र थे। कपिल जी तो ज्ञानावतार थे, सहज संत । पुत्रियों का विवाह करते ही ऋषि कदर्म तथा माता देवहूति ने संन्यास ले लिया । देवहूति ने ज्ञानी कपिल जी से पूछा-"इंद्रियाँ चोरों की तरह आचरण करती है, मैं ऊब गई हूँ । स्थिर आनंद की प्राप्ति के लिए क्या करूँ?" कपिल जी बोले-"माताजी, इंद्रियाँ और मन असत् का संग करने के आदी हो गए हैं । असत् के संयोग से दुख की उत्पत्ति होती है। संग अर्थात आसक्ति छूटती नहीं, इसे असत् से सत् की ओर मोड़ दिया जाता है। इसी मोड से सत्संग मिलता है । सत्संग से आनंद उपजता है ।" देवहूति बोलीं-"संत तो सागर में दिखते नहीं सत्संग कैसे करूँ, किससे करूँ?" कपिल जी ने कहा-"यदि ऐसा लगता है तो समझो अभी अपनी पाप दृष्टि का क्षय नहीं हुआ, जब तक पाप दृष्टि है, संत मिल भी जाएँ, तो उनके प्रति सद्भावना नहीं उपजती। उसके बिना उनके संग का लाभ उठाया ही नहीं जा सकता। जो स्वयं संत बनते हैं, उन्हें संत मिल जाते हैं । जब तक स्वयं सत् से जुड़ने की उमंग नहीं उठती, सत् दृष्टि पैदा नहीं होती और यह संसार दुष्टों से ही भरा दिखता है । स्वयं संत बने बिना न संत मिलते हैं, न सत् संग होता है ।"

कहानीकार गुलेरी एवं एच० जी० वेल्स

ऐसे भी व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने अपने समय में मात्र कथा साहित्य द्वारा विभिन्न वर्गो के लिए साहित्य सृजन कर समय के प्रवाह को बदला, लोगों में जिज्ञासा वृत्ति को बढाया एवं व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत किया ।

पारिवारिक सुविधाओं की दृष्टि से चंद्रधर शर्मा कोई बहुत अच्छी स्थिति मैं नहीं थे। फिर भी पिता ने अपने बालकों को सुयोग्य बनाने में सामर्थ्य भर प्रयत्न किया। हिमाचल प्रदेश से चलकर उनके पूर्वज जयपुर आ गए थे। यहीं पढ़े। उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें खेतड़ी स्टेट के बालकों को पढाने के लिए नियुक्त किया गया । पीछे वे मेयो कालेज अजमेर चले गए । वहीं से वे हिंदू विश्वविद्यलाय में लंबे समय तक अध्यापन कार्य करते रहे । वैदिक संस्कृत, पाली, प्राकृत अपभ्रंश, बंगाली, मराठी, गुजराती, अंग्रेजी, हिंदी, लैटिन, जर्मन, फ्रैच भाषाओं पर उनका अच्छा अधिकार था । यह सब उन्होंने अपनी निजी प्रयास एवं पुरुषार्थ से अर्जित किया। उन्होंने विभिन्न वर्गो के लिए कथा साहित्य लिखा, जो अपनी सरल भाषा के कारण बड़ा लोकप्रिय हुआ। वर्षो तक उन्होंने नागरी प्रचारणी सभा का सभापतित्व किया । अपनी प्रतिभा का कारण वे अनवरत स्वाध्याय को बताते थे। इसी को वे देवता का वरदान समझते थे ।

इंग्लैंड के प्रख्यात वैज्ञानिक कथा लेखक एच० जी ० बेल्स अपने समय में विश्वविख्यात हो चुके थे और उनकी पुस्तकों का अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका था। आर्थिक दृष्टि से भी वे घाटे में न रहे । यह सुयोग उन्हें एक दुर्भाग्य की आड़ से ही हस्तगत हो सका । किशोरावस्था में लड़कों के साथ खेलते हुए उनकी एक टाँग टूट गई । इस सिलसिले में उन्हें लंबे समय तक अस्पताल रहना पड़ा। समय काटने के लिए उन्होंने पुस्तकें पढ़ना आरंभ किया। पीछे उन्हें इसमें रस आने लगा। अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद उनने पुस्तकालयों की शरण ली और उनका प्रतिफल यह हुआ कि वे अपने प्रिय विषय लेखन में असाधारण प्रतिभा अर्जित कर सके ।
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