प्रज्ञा पुराण भाग-3

॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-2

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गृहिणी समुन्नतैवाऽत्र परिवारं तु स्वर्गिणम्।
विधातुं हि समर्थास्ति ततोऽस्या: क्षमतोदये॥१८॥ 
यः श्रमो यो मनोयोगो धनं तु विनियोगताम्।
आश्रयन्ति समायाति तदिहाऽसंख्यतां गतम् ॥१९॥
श्रेयो मानं च ये मर्त्या गृहिण्यै ददति स्वयम्।
अपेक्षयाऽनुदानस्याऽसंख्यं प्रतिफलं तु ते ॥२०॥
प्राप्नुवन्ति कुटुम्बं तद् यत: प्रतिफलं द्वयो:।
नार्या नरस्य संयुक्ताऽनुदानानां हि निश्चितम्॥२१॥
गृहिण्या भूमिका श्रेष्ठा कनिष्ठा च नरस्य तु।
खनिर्नारी नरा: सर्वे खनिजा इति मन्यताम्॥२२॥
जायन्ते धातव: सर्वे खनितुल्या: खनेर्ध्रुवम्। 
कृष्णाङ्गाराश्च लौहाश्च ताम्र चन्द्रो हिरण्मयम् ॥२३॥
खने: स्वस्वानुकूलाया उद्भवन्ति यथा तथा।
श्रेष्ठा नार्य: स्थान् श्रेष्ठाञ्जनयन्ति गुणान्वितान्॥२४॥
कर्मशीलान् सुशीलाश्च प्रतिविम्बानिव स्वकान् ।
मलयाचलभूमि: सा यत्रस्था गन्धिन: समे॥२५॥

भावार्थ-समुन्नत नारी ही परिवार को स्वर्ग बना पाती है । उसकी क्षमता विकसित करने में लगाया गया श्रम, मनोयोग एवं धन असंख्यों गुना होकर लौटता है नारी को श्रेयसम्मान देने वाले अपने अनुदान की तुलना में असंख्य गुना प्रतिफल प्राप्त करते हैं । परिवार नर और नारी के संयुक्त अनुदानों का प्रतिफल है। इसमें नारी की भूमिका वरिष्ठ और नर की कनिष्ठ है। नारी खदान है नर उसमें से निकलने वाला खनिज । खदान जैसी होती है धातुएँ उसी स्तर की उसमें से निकलती हैं । कोयला लोहा ताँबा चाँदी सोना आदि अपने-अपने ढंग की खदानों में से ही निकलते हैं। श्रेष्ठ स्तर की नारियाँ अपने जैसे गुण-कर्म-स्वभाव की संतानें जनती हैं । वे (चन्दन वृक्ष) मलयाचल भूमि की तरह है। उनके सान्निध्य में बडे़-छोटे उसी प्रकार की सुगंध से महकने लगते है॥१८-२५॥

व्याख्या-समुन्नत-सुसंस्कृत नारी अपने पारिवारिक राज्य में स्वर्गीय परिस्थितियाँ उत्पन्न करने में पूरी समर्थ है । घर के सामान की सुव्यवस्था रखकर उस छोटे से घरौंदे को सुरुचि, शोभा, सौंदर्य से भरा-पूरा बना देना सुगृहणी के बायें हाथ का खेल है । नीरस और ओछे स्तर के लोगों को भी अपनी परिष्कृत प्रवृत्ति में जकड़कर शालीनता के ढचि में ढलने-बदलने के लिए विवश कर देना, भाव सम्पत्ति की धनी नारी के लिए अतीव सरल है । नारी का अंतःकरण कुछ विशेष तत्वों के बाहुल्य से भरा-पूरा बनाया गया है । उसमें आत्मीयता और उदारता की, करुणा और कोमलता की मात्रा पुरुषों की तुलना में कहीं अधिक होती है । अपनी इस विशेषता के कारण वह रूखी और कर्कश प्रकृति के लोगों को भी नरम बना सकती है, उनमें सरस-सहृदयता का संचार कर सकती है। यदि घर के लोगों में सामान्य शालीनता मौजूद हो, तब तो कहना ही क्या, सुसंस्कृत नारी की भूमिका उस स्थिति में सोना और सुगंध की कहावत चरितार्थ करती है।

बच्चे आसमान से नहीं उतरते। वे माता के शरीर के ही एक अंग है । उनमें विद्यमान चेतना का सिंचन परिपोषण, संस्कारों का अभिवर्धन माता के द्वारा ही होता है। नर रत्नों का उत्पादन किसी भी
समाज-राष्ट्र में तभी बढ़ सकता है, जब नारी की सुसंरकारिता पर समुचित ध्यान दिया जाय । बौद्धिक ज्ञान तो पाठशालाओं में भी दिया जा सकता है, किन्तु व्यक्तित्व को उत्कृष्टता के ढाँचे में ढालने का पुनीत कार्य परिवार की प्रयोगशाला में ही संभव हो पाता है । इसमें नर से भी बड़ी नारी की भूमिका है ।

ऊसर, बंजर, रेतीली, नमकवाली, कंकड़-पत्थर वाली जमीन में फसल उगाना संभव नहीं हो पाता। अच्छी फसल पानी है, तो खाद-पानी के अतिरिक्त उर्वर भूमि भी चाहिए । श्रेष्ठ स्तर की धातुएँ उसी स्तर की खदानों से उपलब्ध होती हैं । नारी को नर रत्नों को जन्म देने वाली खदान माना गया है । अगली प्रखर पीढ़ी के निर्माण की भूमिका सुविकसित नारी के माध्यम से ही संभव हो सकती है । इसीलिए, नारी को नर से अधिक महत्व दिया जाता है । वही परिवार को श्रेष्ठता से अभिपूरित धरती का स्वर्ग बनाती है । नारी को जितने अनुदान दिए जाते हैं, चाहे वे स्नेह, सुसंस्कारिता, समर्थता, स्वावलंबन के रूप में हों अथवा सहयोग, सम्मान, संरक्षण एवं क्षमता के सुनियोजन रूप में, वे खाली नहीं जाते । इसका परिणाम पूरे परिवार, समाज, राष्ट्र को मिलता है । अत: श्रेष्ठता के पक्षधर हर व्यक्ति का यह प्रयास होना चाहिए कि वह नारी को समुन्नत, सुसंस्कृत बनाने हेतु किए जा रहे पुण्य पुरुषार्थ को हर संभव सहयोग दें ।

नारी का सबसे बड़ा महत्व उसके जननी पद में निहित है । यदि जननी न होती, तो कहाँ से सृष्टि का सम्पादन होता और कहाँ से समाज तथा राष्ट्रों की रचना होती। यदि माँ न हो तो वह कौन सी शक्ति होती, जो संसार से अनीति एवं अत्याचार मिटाने के लिए शूरमाओं को धरती पर उतारती । यदि माता न होती, तो यह बड़े-बड़े वैज्ञानिक, प्रकांड पंडित, कलाकार, अप्रतिम साहित्यकार, दार्शनिक, मनीषी, महात्मा एवं महापुरुष किसकी गोद में खेल-खेलकर धरती पर पदार्पण करते । नारी व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र की जननी ही नहीं, वह जगजननी है। मानवता के नाते, सहधर्मिणी के नाते, राष्ट्र व समाज की उन्नति के जाते, उसे उसका उचित सम्मान और स्थान दिया ही जाना चाहिए ।

महान् माताओं एक महान् पुत्र

"माता निर्माता भवति" के सिद्धांतानुसार माता को ही संतान की निर्मात्री शक्तिदात्री कहा गया है । भारत का इतिहास महापुरुषों, संतों, विद्वानों और वीरों से भरा पड़ा है। यहाँ पुत्र ने अपने पिता से भी अधिक उन्नति की, यहाँ तक कि कायर और दब्बू पिता की संतान भी वीर और विद्वान निकली । इसका एकमात्र कारण है, यहाँ नारियों का जागरूक और संतति निर्माण में दक्ष होना ।

यह सच है कि कोई व्यक्ति जन्मजात महान नहीं होता । यद्यपि पूर्व जन्म के संस्कार उसे ऊँचा उठाने में सहयोग अवश्य करते हैं । परंतु वह भी तब, जबकि उन्हें व्यक्त और प्रकट होने का अवसर मिले । भारत की नारी उन संस्कारों को सँवारने में ही नहीं, नए संस्कार डालकर इसी जीवन में ऊँचा उठाने में भी कुशल रहीं है ।

अभिमन्यू, बुद्ध, महावीर आदि महापुरुषों का निर्माण तो गर्भ काल में ही हो गया था। उस समय के विचार, संकल्प और मन संतान को अनिवार्य रूप से प्रभावित करते हैं । अभिमन्यु की माता सुभद्रा ने गर्भवती होने के समय अपने विचारों और क्रियाओं दोनों को ही साधा । अर्जुन और कृष्ण के युद्ध के समय में सुभद्रा अपने पति की सारथी बनी थीं । ऐसी वीर माता की संतान भी चक्रव्यूह तोड़ने वाली न निकले, यह कैसे हो सकता है ।

बुद्ध की माता यद्यपि बच्चे को जन्म देकर ही चल बसी थीं । फिर भी उससे पूर्व उनकी आध्यात्मिक आत्म-साधना का प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर तो पड़ा ही। ऋषि-मुनियों के आश्रम में निवास, वहाँ के पवित्र वातावरण में रहने का प्रभाव पाकर ही जन्म लेने वाला बालक आगे चलकर संसार का कल्याण करने वाला मसीहा बन गया।

लिच्छवी वंश की क्षात्र-परंपरा में महावीर जैसे अहिंसा के अनुयायी और उपदेष्टा का जन्म सचमुच ही आश्चर्यजनक लगता है । परंतु इसका श्रेय भी उनकी माता को ही जाता है । मांस भक्षण से विरत, सौम्य और सात्विक जीवन से लगाव आदि प्रवृत्तियों का प्रभाव-परिणाम ही उनके पुत्र को महावीर बना गया ।

शिशु जनम के बाद उनके पालन-पोषण में आदर्शो और अध्यात्म सिद्धांतों के प्रति दृढ निष्ठा ने ही सदैव बच्चों को महानता के वरण की प्रेरणा दी । चंद्रगुप्त मौर्य, राणा साँगा, महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, महात्मा गांधी, सुभाषचंद्र बोस, राजर्षि डंडन, बाबू राजेन्द्र प्रसाद, महामना मालवीय, विनोबा भावे, महर्षि कर्वे, स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद और जवाहरलाल नेहरू जैसी सैकड़ों विभूतियाँ मातृभूमि का ही वरदान थीं। यदि इनकी माताएँ अपने पुत्रों को राष्ट्रसेवा और समाज निर्माण की दिशा में अग्रसर न करतीं, तो शायद ये महामानव भी अन्य लोगों की तरह पेट और प्रजनन के सामान्य स्तर का जीवन जीते रहते।

मेवाड़ के राजपूत इतिहास में राणा साँगा का नाम विशेष उल्लेखनीय है । भगवान् कृष्ण की भक्ति में तन्मय रहने वाली मीरा उनके पूर्वजों में से थी । राजा कुम्भा के उत्तराधिकारियों में महाराणा संग्राम सिंह ही तेजस्वी और प्रभावशाली सर्वाधिक वीर पुरुष माने जाते हैं । राणा साँगा की माता ने राजस्थान की तत्कालीन दुर्दशा को अच्छी तरह देखा-समझा था। संग्राम सिंह के गर्भ में आने के बाद उन्होंने निश्चय किया कि ऐसी संतान को जन्म देना है, जो इस तिरोभूत अंधकार के वातावरण में प्रकाश का काम दे सके। सात्विक योजना, वीरोचित वेष-भूषा और साहसी विचारों की मन में बारबार प्रतिष्ठा कर उन्होंने सचमुच ही ऐसी तेजस्वी संतान को जन्म दिया ।

बाद में संग्राम सिंह को ऐतिहासिक घटनाएँ और कथा-कहानियाँ सुना-सुनाकर निर्धारित दिशा में प्रेरित
किया जाता रहा । इसी प्रेरणा के फलस्वरूप आगे चलकर राणा साँगा इतिहास में स्वतंत्रता के अमर पुजारी सिद्ध हुए ।

महाराणा प्रताप के पिता अपनी कुल-परंपरा के अनुसार वीर और साहसी नहीं थे । चित्तौड़ का किला हारकर उन्हें अरावली की पहाड़ियों में चला जाना पड़ा था । यहीं पर उनकी पत्नी ने प्रताप सिंह को जन्म दिया । प्रयत्नपूर्वक अपने पुत्र को उन्होंने ऐसा वातावरण दिया, जिसमें साहस, शौर्य, स्वाभिमान और देशभक्ति की भावनाएँ पनप सकें । इसका उन्होंने बडा ध्यान रखा और अपने पुत्र के समक्ष कभी किसी के सामने नहीं झुकीं, ताकि कहीं प्रताप सिंह को झुकने और समझौता करने की आदत न पड़ जाये।

इतने सावधान पालन-पोषण का ही परिणाम था कि महाराणा प्रताप ने घास की रोटियाँ और पत्तलों पर खाकर भी अकबर की आधीनता स्वीकार नहीं की ।

शौर्य और धर्मनिष्ठा के प्रतीक छत्रपति वीर शिवाजी के पिता आदिल शाह के मनसबदार थे । उनकी माता ने अपने बेटे को इसी कारण पिता के पास नहीं भेजा कि कहीं पुत्र पर गुलामी के संस्कार न पड़ जाएँ । वे स्वभाव से वीर और हृदय से धर्मनिष्ठ महिला थीं । अपने पुत्र से भी उन्हें यही अपेक्षा थी कि वह वीर, साहसी और धर्मनिष्ठ बने । इसलिए लोरियों में वीर रस के गीत और कहानियों में इतिहास-पुराणों की कथाएँ सुनाना आरंभ कर दिया । शिवाजी को हिन्दू राज्य का स्वप्न उन्होंने ही दिया और उसे साकार करने के लिए समुचित शिक्षा-दीक्षा भी । इसी कारण जीजाबाई जैसी विदुषी और धर्म परायण सन्नारी का पुत्र भी धीर, वीर और धर्म रक्षक बन गया। शिवाजी की निर्विकार मनोभूमि में बोए गए बीज जीवन भर पल्लवित-पुम्मित होते रहे ।

महापुरुषों के उद्भव और विकास में माताओं की महत्वपूर्ण भूमिका भारत की शाश्वत परंपरा रही है । अन्य परंपराओं में भले ही सुधार और क्षीणता आती रही हो, परंतु यह कभी नहीं टूटी।

आधुनिक काल में भी भारत की नारी ने सैकडों विभूतियाँ देकर देश और समाज का मस्तक ऊँचा किया है । काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक धर्मप्राण पं० महामना मदनमोहन मालवीय को शिक्षा का महत्व तब समझ में आया था, जबकि उनकी माँ उन्हें पढ़ाने के लिए अपने जेवरों और कपड़ों को गिरवी रख दिया करती थीं । धर्म प्रचार की प्रेरणा भी मालवीय जी को अपनी माता से ही प्राप्त हुई थी ।

राजर्षि टंडन के राष्ट्र प्रेम और तदनुकूल क्रियाकलाप तथा निर्वाह की शिक्षा का श्रेय भी उनकी माँ को ही जाता है । अंग्रेज लड़कों द्वारा उनसे छेड़छाड़ करने पर बुरी तरह पिटाई करने वाले दस वर्ष के टंडन की पीठ उनकी माँ ने ही थपथपाई थी । माँ की प्रेरणा और प्रोत्साहन पाकर टंडन आजीवन निर्भीकता के उपासक बन गए । आध्यात्मिकता की ओर झुककर संन्यास ग्रहण करने के लिए कृत संकल्प सुभाषचंद्र बोस को उनकी माता ने ही देशभक्ति और समाज सेवा की दीक्षा दी थी।

महात्मा गांधी के निर्माण में उनकी माँ का योगदान उल्लेखनीय रहा है । बचपन से ही धर्म, पुराण और उपनिषद् की कथाएँ सुनाकर उन्होंने अपने लाड़ले मोहन की धार्मिक आस्थाओं को परिपक्व कर दिया था। विदेश में मांस न खाने, मद्यपान और व्यभिचार से बचने की प्रतिज्ञा करवाकर गाँधी जी के व्यक्तित्व का गठन उनकी माँ के सिवा औंर किसने किया? स्वयं उन्होंने भी कई स्थलों पर अपनी माँ से प्रभावित होने का उल्लेख किया है।

धर्मपरायण माता रुक्मिणी बाई ने तो देश को एक नहीं तीन-तीन रस दिए। विनोबा, बालकोवा और एक और छोटे भाई समाज सेवा के क्षेत्र में सदा अग्रणी रहे । अपनी माँ की धार्मिक शिक्षा ने ही बचपन में ही विनोबा के मुँह से यह कहलवाया कि 'डोम, महार और चमार नीच नहीं है।' भगवान् को सर्वव्यापी मानकर पूजा करने वाली माता रुक्मिणी ने विनोबा भावे को 'ईशावास्यमिदं सर्वम्' का उपासक बना दिया।

आदिकाल से अद्यकाल तक भारत की नारियों ने देश को अमूल्य रत्न दिए हैं। हमारी संस्कृति में मातृशक्ति को इतना महत्वपूर्ण स्थान शायद इसीलिए दिया गया है कि वही हमारे गौरव का आधार रहीं । सांस्कृतिक इतिहास साक्षी है कि नारी श्रेष्ठ नागरिकों को जन्म देने वाली खदान है । उसे नर से श्रेष्ठ मानकर उससे भी अधिक सम्मान दिया जान चाहिए ।

माँ की महत्ता 

एक बार विश्व विजेता नेपोलियन बोनापार्ट से किसी ने पूछा था-"किसी राष्ट्र को ऊंचा उठाने में सबसे अधिक योगदान किसका होता है?"

नेपोलियन ने तुरंत उत्तर दिया-" माँ का"। किसी व्यक्ति के जीवन पर उसकी माँ का लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा की छाप स्थायी रूप से अवश्य ही पड़ती है । सिंहों से खेलने वाला भरत शकुंतला की देख-रेख में वनों में पला था ।

राजा गोपीचंद्र की माता ने उन्हें विलास-वैभव छोड़कर योगी बनने का परामर्श दिया और आग्रहपूर्वक भर्तृहरि का शिष्य बनाकर पुण्य प्रयोजन में नियोजित किया ।

मदालसा ने अपने तीनों पुत्रों को आदर्शवादी निवृत्तिमार्गी साधक बनाया । आरंभ से ही वैसे संस्कार दिए और चिंतन उभारे । पति महाराज ऋतध्वज की इच्छा के कारण चौ थे पुत्र अलर्क को राजा बनाया वैसा ही चिंतन विकसित कर गर्भावस्था से ही संस्कार दिए ।

अलर्क ने एक बार पूछा-"माँ! तीनों भाइयों ने आत्म कल्याण के लिए वनवासी, कम सुविधा का जीवन
क्यों चुना? साधना तो नगर के सुविधा भरे जीवन में भी हो सकती थी?"

मदालसा बोली-"बेटे, बतलाओ, जिसका उद्देश्य नदी पार करना हो, वह सुविधा सामग्री युक्त विशाल किन्तु छिद्र वाली नौका चुनेगा या सामान्य सी छिद्रहीन नौका? अलर्क ने कहा-"निश्चित रूप से छिद्रहीन नौका चुने जाने योग्य है ।"

माँ ने समझाया-"वत्स! सांसारिक सुख-सुविधाओं के बीच मनुष्य के व्यक्तित्व में दोषों के छिद्र पैदा होने
लगते हैं । साधना युक्त तपस्वी जीवन जीने से व्यक्तित्व का विकास होता है और प्रखरता आती है । इसीलिए साधक सुविधा भरा जीवन छोड़कर तपस्वी जीवन चुनते हैं, ताकि व्यक्तित्व निर्दोष और निर्मल बने । बेटे, सुख-संपदा और सत्ता का उपयने जनहित में करते हुए अपने व्यक्तित्व को छिद्रहीन बनाना । साधनों को जरूरत से ज्यादा महत्व मत देना ।

श्रेष्ठ माता: श्रेष्ठ संतान

रामकृष्ण परमहंस की माता एक बार कलकत्ता आईं और कुछ समय स्नेहवश पुत्र के पास रहीं । दक्षिणेश्वर मंदिर की स्वामिनी रासमणि ने उन्हें गरीब और सम्मानास्पद समझ कर तरह-तरह से कीमती उपहार भेंट किए। वृद्धा ने उन सभी को अस्वीकार कर दिया और मान रखने के लिए एक इलाइची भर स्वीकार की ।

उपस्थित लोगों ने कहा-"ऐसी निस्पृह माताएँ ही परमहंस जैसे पुत्र को जन्म दे सकती है ।"

वीर प्रसविनी 

चित्तौड़ के राजकुमार एक चीते का पीछा कर रहे थे । वह चोट खाकर झाड़ियों में जा छिपा था । राजकुमार घोड़े को झाड़ी के इर्द-गिर्द घुमा रहे थे, पर छिपे चीते को बाहर निकालने में वे सफल न हो पा रहे थे ।

किसान की लड़की यह दृश्य देख रही थी। उसने राजकुमार से कहा-"घोड़ा दौड़ाने से हमारा खेत खराब होता है। आप पेड़ की छाया में बैठें। चीते को मारकर मैं लाए देती हूँ ।" वह एक मोटा डंडा लेकर झाड़ी में घुस गई और मल्ल-युद्ध से चीते को पछाड़ दिया । उसे घसीटते हुए बाहर ले आई और राजकुमार के सामने पटक दिया ।

इस पराक्रम पर राजकुमार दंग रह गए । उनने किसान से विनय करके उस लड़की से विवाह कर लिया । प्रख्यात योद्धा हमीर उसी लड़की की कोख से पैदा हुआ था । माताओं के अनुरूप संतान का निर्माण होता है ।

सुभद्रा की कोख से अभिमन्यू जन्मे थे। अंजनी ने हनुमान को जन्म दिया था । श्रेष्ठस्तर की माताएं अपने गुण, कर्म, स्वभाव के अनुरूप ही श्रेष्ठ संतानों को जन्म देती है । हिरण्यकश्यपु के घर प्रह्लाद जैसा भक्त होना नारी की उनकी धर्मप्राण माता कयाधू की योग्यता का प्रमाण है ।

नाश शक्ति का पराक्रम-पुरुषार्थ

कुंती भी सामान्य रानियों की तरह एक महिला थीं । जन्मजात रूप से तो सभी एक जैसे उत्पन्न होते हैं । प्रगति तो मनुष्य अपने पराक्रम-पुरुषार्थ के बल पर करता है । कुंती ने देवत्व जगाया, आकाशवासी देवताओं को अपना सहचर बनाया और पांच देव पुत्रों को जन्म दे सकने में सफल बन सकीं । सुकन्या ने अश्विनीकुमारों को और सावित्री ने यम को सहायता करने के लिए विवश कर दिया था । उच्चस्तरीय निष्ठा का परिचय देने वाले, देवताओं की, ईश्वरीय सत्ता की सहायता प्राप्त कर सकने में भी सफल होते हैं।

'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता'-का आदर्श मनुस्मृति का ही है। वैदिक काल में अनेकों विदुषी स्त्रियाँ हुई है, जिन्होंने वैदिक मंत्रों की रचना की और उनका साक्षात्कार किया। वैदिक ही नहीं पौराणिक काल में भी जो कार्य देवताओं के लिए असाध्य रहे, तब उन्होंने मातृशक्ति की अभ्यर्थना की और उसी सहायता से या उसी के द्वारा अभीष्ट कार्य पूरा किया-कराया ।

वैदिक और पौराणिक साहित्य में इस तरह के ढेरों उदाहरण भरे पड़े हैं। मनु को जब अपने यज्ञ के लिए कोई पुरोहित नहीं मिला, जो उस विशेष यज्ञ को संपन्न करा सके, तो उन्होंने अपनी पुत्री इला को ही यज्ञाचार्य नियुक्त किया। इला अपने समय की प्रख्यात विदुषी और धर्मवेत्ता थी, उससे अनेक विद्वान प्रभावित थे।

महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में रहकर शची ज्ञान-विज्ञान में इतना प्रवीण हो गईं कि उससे अधिक तो क्या उसकी बराबरी का पति खोज पाना भी मुश्किल हो गया। स्वयं इंद्र ने इस कन्या को राजमहिषी बनाने की पहल की और शची के पिता महर्षि पुलोम ने इंद्र में अपनी कन्या के उपयुक्त सभी गुण पाकर दोनों के विवाह की अनुमति दे दी । यही महर्षि कन्या आगे चलकर इंद्राणी बनीं ।

भारतवर्ष में जब अकाल पड़ा, तो दुर्भिक्ष निवारण के लिए महर्षियों ने यह खोजा कि कोई ऐसा व्यक्ति तप साधना करे, जो एक साथ ब्रह्मज्ञानी, कर्मकांडी, शास्त्रार्थ और मेधा संपन्न हो। ये सभी विशेषताएँ महर्षि कन्या घोषा में पाई गईं और उसी के द्वारा संपन्न की गई तपश्चर्या से दुर्भिक्ष निवारण हो सका ।

ऋषि शाण्डिल्य की पुत्री श्रीवंती अपने समय की अद्वितीय तपस्विनी साध्वी थी। सुलभा नाम की एक विदुषी ऋषि कन्या ने राजा जनक जैसे ब्रह्मज्ञानी को भी शास्त्रार्थ में चकित कर दिया । इस शास्त्रार्थ का उल्लेख महाभारत के शांतिपर्व में आता है। इसी प्रकार राजा जनक के दरबार में गार्गी और याज्ञवल्क्य में भी जोरदार शास्त्रार्थ हुआ था। गार्गी के तर्क और प्रत्युत्पन्नमति से याज्ञवल्क्य हक्के-बक्के ही नहीं रह गए, वरन खिसिया कर क्रोधित भी हो उठे थे तथा शाप देने लगे थे ।

देवी उशना को असमय ही विधवा हो जाना पड़ा और उन्होंने अपने पुत्र कांक्षीवान को अपनी ही देखरेख में पढ़ाया, योग सिखाया। स्मरणीय है कि कांक्षीवान की कन्या, घोषा ने ही तपस्या कर दुर्भिक्ष का निवारण किया, जिसका कि उल्लेख ऊपर हो चुका है । इसी प्रकार सुलभा नामक विदुषी ने भी अपने पुत्र पंचशिखको पढ़ाया, जिन्होंने सांख्यशास्त्र पर कई एक ग्रंथ लिखे। उनके लिखे ग्रंथों में हीं यह उल्लेख आता है कि उन्होंने यह ज्ञान अपनी माता सुलभा से प्राप्त किया था।

शंकराचार्य और मंडन मिश्र जैसे दिग्गज विद्वानों के शास्त्रार्थ को निर्णायक बनने योग्य कोई दिखाई ही नहीं दे रहा था । एकमात्र मंडन मिश्र की पत्नी भारती ही थीं, जो कि इस योग्य थीं । पर देवी भारत के संबंध में यह आशंका व्यक्त की जा रही थी कि चूँकि उनका स्वयं का पति शास्त्रार्थ कर रहा है, सो वे पक्षपात करेंगी। लेकिन सच्चे विद्वान का चरित्र भी ऊँचा होता है । शंकराचार्य ने भारती को निर्णायक बनाया और उनके निष्पक्ष निर्णय को सभी ने मान्य किया ।

स्त्रियों की प्राचीन समाज में यह स्थिति तो रही ही है कि वे अपनी प्रतिभाओं से समाज को लाभान्वित कर सकें। साथ ही कई ऐसी विदुषी महिलाएँ भी हुई हैं, जिन्होंने कि अपनी योग्यता और प्रतिभा से अपने पतिको भी ऊँचा उठाया । विदुषी विद्योत्तमा और कालिदास को ही लें। सभी जानते है कि उन दोनों का विवाह होने से पूर्व कालिदास निरक्षर भट्टाचार्य थे। विद्योत्तमा ही थी, जिसने अपने पति में योग्यता बढ़ाने की भूख जगाई और उसी के फलस्वरूप कालिदास निरक्षर-गँवार से महाकवि बन सके ।

इसी प्रकार रत्नावली ने भी अपनी सुख-सुविधाओं को जीर्ण मानकर अपने पति की कामुकता को ईश्वर भक्ति की दिशा दी । कैयट को व्याकरण लेखन के लिए न केवल उनकी धर्मपत्नी ने प्रेरणा दी, वरन इस कार्य को जारी रहते समय तक घर-परिवार का दायित्व भी स्वयं निबाहा। मूँज की रस्सी बटकर, मेहनत-मजदूरी कर उन्होंने उपार्जन किंग और 'कैयट' को निश्चित लेखन कार्य करने दिया ।

नीति मार्ग पर आरूढ़ करने के लिए भारतीय पत्नियाँ जहाँ इतनी कठोरता का परिचय देती थीं, वहीं नीति की रक्षा के लिए उन्होंने अपने पति का प्राणपण से साथ भी दिया । इस रूप में उनका शौर्य और पराक्रम भी पर्याप्त उभर कर आया। 'कृष्णार्जुनीयम्' नामक ग्रंथ में उल्लेख मिलता है कि नीति के प्रश्न पर ही कृष्ण और अर्जुन में युद्ध के समय सुभद्रा ने अर्जुन के सारथी का काम बड़ी वीरता के साथ किया था ।

देवासुर संग्राम में इंद्र की सहायता के लिए जब दशरथ रणक्षेत्र में कूद पड़े, तो कैकेयी भी उनके साथ गईं । घमासान युद्ध में दशरथ के रथ के पहिए की कील निकलती देखकर कैकेयी ने वहाँ अँगुली ही लगा दी और रथ गिरने से बचाकर अपने पति का प्राय संकट टाल दिया।

सीता ने बचपन में शिव धनुष को उठाकर अपने पिता जनक को चकित कर दिया। इतनी शक्तिशाली कन्या का विवाह शक्तिशाली वर से करने के लिए जनक ने स्वयंवर में शिव धनुष को तोड़ने की शर्त रखी। बाद में सीता को कर्तव्य मार्ग पर पति का साथ देते हुए वन और गिरि कंदराओं में तमाम कष्ट झेलते हुए देखा जा सकता है ।

एक नहीं, अगणित प्रसंग हैं जिनसे भारत में प्राचीन नारी की स्थिति का उनके शौर्य-पराक्रम-पुरुषार्थ का परिचय पाया जा सकता है । विद्वत्ता, प्रतिभा, कर्तव्यनिष्ठा, समाज सेवा, धर्म सेवा आदि कार्यों में भारतीय महिलाओं ने बढ़ कर अपनी क्षमताओं को उजागर किया है। जब भी समय आया और जब भी अवसर मिला है, भारतीय नारी ने अपना गौरवमय रूप दर्शाया । बूँदी की हाड़ारानी, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, शिवाजी की माता जीजाबाई, रानी दुर्गावती, ताराबाई, कर्मावती, कमला, कर्णवती, अहिल्याबाई, भीकाजी कामा, सरोजनी नायडू मीरा, कमलाबाई हास्पेट, डॉ० पूनम, कस्तुरबा आदि कितनी महान महिलाएँ है, जो पराधीनता काल में जन्मीं और शौर्य पराक्रम के साथ-साथ सेवा साधना के क्षेत्र में अपना स्थान सुरक्षित कर गईं ।

अंधे गायक के०सी०डे एवं उनकी स्वावलंबी माता

कलकत्ता में जन्मे के० सी० डे की आँखें डेढ़ वर्ष की उम्र में चली गई। पाँच वर्ष के थे तब पिता मर गए । विधवा माता ने उन्हें थोड़ा बहुत स्वयं ही पढ़ाया । वे मजूरी करने जातीं, तो डे को साथ ले जाती । बच्चे के भविष्य के बारे में चिंतित तो रहतीं, पर धैर्य नहीं खोया । उन्हें स्कूली शिक्षा के स्थान पर सुसंस्कारिता, स्वावलंबन का पाठ पढ़ाया । संगीत में पुत्र की अभिरुचि को देखकर उन्होंने उसे वैसा ही शिक्षण देने की सुविधा जुटा दी। स्वयं मेहनत करके पुत्र के लिए साधन जुटाती । अपने लिए वे सदैव 'डे' से कहा करतीं-"मेरे लिए चिंता न करो । अपने पैरों स्वयं ही खड़ा होने का प्रयास करो।" डे ने कई संगीतकारों से उनकी सेवा करते हुए शिक्षा पाई। युवा होने से पहले ही उन्होंने संगीत में प्रवीणता प्राप्त कर ली । टूटे-फूटे वाद्य यंत्रों के सहारे घर पर अभ्यास करते रहते ।

कुछ दिनों में उनकी ख्याति सर्वत्र फैली । छोटे-मोटे संगीत सम्मेलनों के बाद उन्हें फिल्म कंपनियों ने बुलाया । अनवरत अभ्यास ने उनका कंठ भी निखार दिया था । एक-एक करके उनने प्राय: एक दर्जन फिल्मों में पार्श्व गायक के रूप में गीत गाए । कभी अभिनय करना पड़ा, तो अपनी सादी पोशाक में ही कैमरे के सामने आए थे । बनावट से उन्हें चिढ़ थी।

भारत के गायकों में फिल्म जगत पर अपना आधिपत्य जमाने वाले एक ही थे-के०सी०डे । जिन फिल्मों के साथ उनका नाम जुड़ा होता, उसे देखने दर्शकों की भीड़ टूट पड़ती । वे सदैव इस यश का श्रेय अपनी माँ को देते रहे । अंतिम समय तक उनकी सेवा भी खूब की ।

पुत्र की खातिर जहर पी लिया

जापानियों को रूस की लड़ाई में एक नदी आड़े आई। पुल बनाना कठिन था । सेना को पार करने के लिए एक हजार नागरिकों की लाश का पुल बनना था, जिस पर होकर सैनिक पार जा सके । इसके लिए नागरिकों की भर्ती की गई । एक हजार की जगह चार हजार नाम आ गए । इन नामों में एक लड़का भी था, जो भर्ती होने के लिए उतावला था, पर उसकी माँ बीमार थी। अकेला था, इसलिए उसे मंजूरी न मिली। माँ ने अपने को आड़े आया देखकर विष पी लिया और लड़के को भेजते हुए कहा-" शरीर की माँ की अपेक्षा राष्ट्र माता की सेवा अधिक आवश्यक है, तुम प्रसन्नतापूर्वक जाओ ।"

स्वाभिमानी माता

अमीनिया के सर्वोच्च सेनापति सीरीज ग्रिथ का व्यक्तित्व उनकी माता ने बनाया था।

विधवा नार्विन ग्रीड कपड़े सीकर किसी तरह अपने बच्चों का पेट पालती थी बडे़ बेटे ग्रिथ ने अपनी मर्जी से गरीबी के कारण स्कूल में फीस माफ कराने की अर्जी दे दी, जो परिस्थिति से पूर्णत: जानकार अध्यापक की सिफारिस पर मंजूर भी हो गई।

ग्रिथ की माता को जब पता चला, तो उन्होंने उस सुविधा को अस्वीकार कर दिया । उनने लिखा-"हम लोग मेहनत करके गुजारा करते हैं, तो फीस क्यों नहीं दे सकेंगे । गरीबों में अपनी गणना कराना हमें मंजूर नहीं हमारा स्वाभिमान कहता है कि हम गरीब नहीं है, स्वावलंबन से इन परिस्थितियों से भी जूझ लेंगे ।"

स्वाभिमानी माता ने अपने बच्चों को ऐसा ही चरित्रवान बनाया । ग्रिथ को सर्वोच्च सेनापति का पद उनकी संस्कारजन्य प्रामाणिकता के आधार से ही मिल सका।

गुरजिएफ को माँ की सीख 

दार्शनिक गुरजिएफ ने अपनी आत्मकथा में माता द्वारा दी गई एक बहुमूल्य संपदा का उल्लेख किया है, जिसके कारण वे अनेक भटकावों से बचे और आनंद भरे अनेक अवसर पा सके। लिखा है कि मेरी माता ने मरते समय कहा-"किसी पर क्रोध आए, तो उसकी अभिव्यक्ति चौबीस घंटे से पूर्व न करना ।" मैने वह बात गाँठ बाँध ली और आजीवन उसको निबाहा भी ।

"ऐसे अनेक प्रसंग आए, जिनमें मुझे बहुत क्रोध आया था, पर बाद में पता चला था कि तथ्य कम और भ्रम अधिक था । क्रोध के परिणामों का विचार करने का अवसर मिलते रहने से उसे कार्यान्वित करने की नौबत न आई और जो शत्रु लगते थे, वे आजीवन मित्र बने रहे। माता की यह सीख ही मुझे इस स्थिति तक पहुँचा पाई, यह कहना अतिशयोक्ति न होगी ।"

बच्चे का व्यावहारिक शिक्षण

माँ हर स्थिति में माँ है । बच्चे को संकट में डालकर भी शिक्षण देना उसका प्रथम कर्तव्य है।घोंसले में बैठे नन्हें से परिंदे ने पर फड़फड़ाए और सहम कर जहाँ था, चिपक कर बैठ गया।

बच्चे को भयभीत देख माँ ने उसे घोंसले से धकेलते हुए कहा-"जब तक तू भय नहीं छोड़ेगा, उड़ना कहाँ से आएगा?"

दूसरे क्षण परिंदा हवा में उड़ रहा था।

संकल्प शक्ति से महान् उपलब्धि 

गणेश एवं कार्तिकेय जैसे अजेय देवपुरुषों, अवतार शक्तियों को जन्म देने वाली माता पार्वती अपनी निष्ठा के बल पर सकल्प शक्ति के कारण ही शिवजी को पा सकीं । यह उनके धैर्य एवं तपश्चर्या की शक्ति है, जो असंभव को संभव कर दिखा सकीं ।

पार्वती जी ने शिव-विवाह के लिए कठोर तप किया । शिवजी का मन तो पसीजा पर अपने उपयुक्त साथी होने, न होने की बात जाँचने केलिए सप्त ऋषियों को परीक्षक के रूप में भेजा ।

परीक्षकों ने शिव की अनेक निंदा की और हजार वर्ष में समाधि खुलने की बात भी कही । इसके अतिरिक्त अन्य देवताओं के सौंदर्य तथा विपुल साधनों का वर्णन करते हुए कहा-"तुम उनमें से किसी को भी पसंद करो, तो हम सरलता पूर्वक विवाह करा देंगे ।"

पार्वती जी ने अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहने की बात कहते हुए, यह भी कहा कि

कोटि जनम लगि लगन हमारी । वरहुँ शंभु न त रहहुँ कुमारी॥

ऐसी दृढ़प्रतिज्ञ और लंबे समय तक प्रतीक्षा करने के को सुनकर शिवजी ने स्वीकृति दे दी और उनका विवाह पार्वती के साथ हो गया । इस संकल्प-पुरुषार्थ की परिणति स्वरूप ही शिव-पंचायतन के रूप में एक श्रेष्ठ परिवार उभर कर आया।

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