सह्याद्रि का पवनपुत्र

March 1990

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एक किशोर वय का बालक प्रौढ़ आयु के व्यक्ति से कह रहा था, “दादा— आज माँ कह रही थी, तुझे अर्जुन जैसा बनना चाहिए। भला मैं कैसे अर्जुन बन सकता हूँ? उनके मार्गदर्शक तो स्वयं भगवान कृष्ण थे। मुझे ऐसी सुविधा कहाँ”? प्रौढ़ ने सारी बात ध्यान से सुन, फिर बोले—  “बेटे! भगवान तो आज भी हर किसी का मार्गदर्शन करने को तैयार हैं, किसी-न-किसी रूप में सहायता देने को तत्पर हैं, पर हम उसके लिए ग्रहणशील कहाँ हैं?

“यह ग्रहणशीलता क्या है”? एक नया प्रश्न था। “जब कोई व्यक्ति स्वयं को ईश्वरीय कार्यों के प्रति समर्पित करता है। पूरी निष्ठा के साथ संकीर्ण स्वार्थों को भुलाकर उनमें जुट पड़ता है तो उसकी बढ़ती निष्ठा के अनुरूप वह आधार बन पड़ता है; जिस पर प्रतिष्ठित हो ईश्वरीय शक्ति क्रीड़ा कर सके। महानता के प्रति समर्पण तुच्छ को भी महान बना देता है। नगण्य-सा तिनका भी हवा के वेग से होकर मीलों ऊँचा उठ जाता है। बूँद अपनी महानता की ललक के आधार पर ही सागर से एक होती और महासागर का गौरव पाती है”।

“आपकी बातें तो बहुत अच्छी हैं, पर मुझे तो मेरी स्थिति के अनुरूप सलाह दीजिए कि क्या करें ? कैसे करें "बालक ने पुछा !" तू जागीर के सभी लोगों से घुलमिल, उनके कष्टों को अपना कष्ट समझ, उन्हें सुरक्षा प्रदानकर, वे भी तुझे अपना मानेंगे। ईश्वर की संतानों की सेवा ही ईश्वरीय कार्य है। तेरी बढ़ती लगन को देख भगवान तुझे मार्गदर्शन देंगे और तू अर्जुन की तरह दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन और सत्प्रवृत्तियों का संवर्द्धन कर सकेगा”।

अर्जुन बनने की चाह रखने वाले बालक थे, शिवाजी और उनमें इस तरह की महानता के बीज बोने वाली माँ थी— जीजाबाई। बीजों को अंकुरित पल्लवित करने के लिए खाद-पानी जुटाने का श्रेय उनके दादा कोणदेव को जाता है।

बालक का भाव विकास उसके अपने पारिवारिकजनों की प्रेरणाओं और उनके व्यवहार के अनुरूप होता है। प्रौढ़ों पर ही नई पीढ़ी के गठन का दायित्त्व है, जिसे माता जीजाबाई ने सफलतापूर्वक निबाहा और शिवाजी का व्यक्तित्व गठन करने में सफल हुई।

उन दिनों भारत की स्थिति बड़ी करुण थी। शासकों की विलासिता, और जनता का शोषण, उत्पीड़न अपनी चरमावस्था पर था। ऐसे समय में शिवाजी ने अपनी जागीर के लोगों को सुरक्षा सुव्यवस्था प्रदान की। वहाँ के लोगों का सुखमय जीवन देखकर तोरण, चकन तथा कोंकण के लोगों ने गुहार की। उन तक अपनी दुर्दशा की खबरें पहुँचाई। सहायता माँगी-सहयोग का वचन दिया।

जनता की इस गुहार को वह अनसुनी न कर सके। उसे सुना और सोचा श्रेयस्कर यही है कि आगे-पीछे सोचने की जगह श्रेष्ठ कार्य में जुट पड़ा जाए। परिणाम यह हुआ कि उनकी सुव्यवस्था के घेरे में ये क्षेत्र भी आ गए। परंतु उन्हें संतोष न था। उनको एक ऐसे मार्गदर्शक की तलाश थी, जो कर्तव्य सुझा सके, जीवन विद्या सिखा सके।

संयोग कहें अथवा पूर्वनियोजित विधान-चाफल के पास के जंगल में शिवा-समर्थ का मिलन हुआ।” भक्ति व शक्ति का मिलन” “उत्कृष्ट चिंतन व प्रखर कर्म का मिलन” कुछ भी कहें। समर्थ ने शिवाजी की योजना व कार्यपद्धति सुनकर अपना मत प्रकट किया “आज के युग में आवश्यकता सुव्यवस्थित व संगठित प्रयासों की है। तू इसी में जुट पड़। पर ध्यान रख भेड़ों की भीड़ का नाम संगठन नहीं है। ऐसी भीड़ तो प्रायः जुटती है, पर दोष दुष्प्रवृत्तियों का एक ही हमला उसे तितर-बितर कर देता है। संगठन का तात्पर्य है— अनीति-अत्याचारों के खिलाफ सशक्त व्यूह की रचना। क्या तू इसे कर सकेगा? इसे कर सकने की एक ही योग्यता है— सशक्त चरित्र, उद्देश्य के प्रति दृढ़ता, संगठन के प्रत्येक सदस्यों के प्रति अपनत्व। एक साथ वज्र की तरह दृढ़ता-कुसुम की तरह कोमलता और पराग से परिपूरित होने से यह कार्य सधेगा।

“इस तरह यदि योजनाबद्ध रीति से कार्य किया जा सका तो इतिहास की पुस्तक में नए अध्याय की रचना होगी। धरती पर एक नया जमाना आएगा”। पर गुरुदेव हमारे पास तो सह्याद्रि के पर्वतपुत्र ही हैं; जो आदिवासी और अशिक्षित हैं। बुद्धिजीवी और विचारशील कहा जाने वाला वर्ग जिसे मनीषियों का समूह कहा जाता है साँस साधे मौन है, उससे कुछ भी आशा नहीं— शिवा जी ने जिज्ञासा की।

उत्तर में समर्थ का रोषपूर्ण स्वर उभरा— अरे! तू मनीषी किसे समझ बैठा है? पोथियाँ रटने वाले जानकारियों के ढेर को सिर पर ढोने वाले विद्वान तो हो सकते हैं, पर मनीषी नहीं। मनीषा वह उर्वर चिंतन क्षेत्र है; जिसमें समाज की तात्कालिक समस्याओं के समाधान सूझते हैं। जो इस मनीषा से संपन्न है, वह मनीषी। इस परंपरा में ज्ञानदेव, एकनाथ और तुकाराम आते हैं”।

“फिर तू क्या भूल गया? रघुवीर के साथ भी तो जंगलवासी असभ्य समझे जाने वाले वानर ही थे? उन दिनों कौन विद्वान मोर्चा संभालने आया था। पर इन असभ्य कहे जाने वालों के बीच से ही पवनपुत्र का व्यक्तित्व उभरा। आज भी इसी व्यक्तित्व की धारणा व उपासना का क्रम एक साथ उपजाना होगा। अभी तक व्यक्ति व चरित्र की पूजा होती आई है, पर अब हम व्यक्तित्व व चरित्र के पूजकों की श्रृंखला तैयार करना चाहते हैं, कहते-कहते समर्थ की आँखें गीली हो गईं। उन्होंने समझा कहकर शिवा की ओर देखा। शिवा का जवाब था, हाँ। तो बस जा रघुवीर की सामर्थ्य से तू उद्देश्य में सफल होगा।

सह्याद्रिपुत्रों के नायक ने अपने गुरु के वचनों को चिंतन चरित्र व व्यवहार में उतारना शुरू किया। बढ़ते क्रम के अनुसार कार्य की प्रभावोत्पादकता भी बढ़ी। उनके हृदय में जलती स्वाभिमान की आग भड़कती जा रही थी। अनीति-अत्याचार कीट-पतंगों की तरह भुनते जा रहे थे। 41 दुर्गों पर त्याग और सेवा का प्रतीक फहरा चुका था।

छत्रपति होने पर शिवा ने झंडे का रंग रखा भगवा। बाजीप्रभु देश पांडे के पूछने पर उन्होंने रहस्योद्घाटन करते हुए कहा— ”भगवा वर्ण त्याग व सेवा का प्रतीक है। तभी तो इसे समर्थ ने अपनाया। हम ठहरे समर्थ के आदर्शों पर चलने वाले। इस झंडे को स्वीकारना इस बात का सूचक है कि हम त्याग व सेवा के व्रत में दीक्षित हैं। समाज के हित में सभी कुछ होमने के लिए कृतसंकल्प हैं”।

इसी दृढ़ निष्ठा व कुशल संगठन क्षमता के बल पर वह निरंतर सक्रिय रहे। वह पहले नरेश थे, जिन्होंने जमींदारी का उन्मूलनकर मौलिक व्यवस्था की स्थापना की। उनका समूचा जीवन संघर्षमय रहा। इसी के बल पर युगधर्म को निभाते हुए सन् 1690 ई. को 53 वर्ष की आयु में समष्टि से एक हो गए।

उनका प्रेरक कृतित्व आज हम सभी को युगधर्म के निर्वाह हेतु पुकार रहा है। भले हम अल्पशिक्षित और थोड़ी क्षमता वाले हों, पर संगठित हों। भागवत कार्य के लिए अनीतियों के विरुद्ध व्यूह रचना करें। ईश्वरीय सहायता हमारी सामर्थ्य को अनेकों गुना कर देगी।


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