हरिजनों का हरि, देवदूत!

March 1990

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बंबई का आलीशान फ्लैट। इसी के ड्राइंगरूम में बैठा एक सूटेड-बूटेड व्यक्ति समाचारपत्र पढ़ रहा था। अचानक किसी के पदचापों ने उसका ध्यान भंग किया। सिर उठाकर देखा, वही सफाई करने वाला बूढ़ा भंगी था। इसके मैले-कुचैले फटे कपड़े जिन्हें चीथड़े कहना ज्यादा ठीक होगा, शरीर से आती दुर्गंध-मन में विरक्तिपूर्ण भावों का संचार करती थीं।

अखबार को मेज पर रखकर उससे कहा— ”भई तुमसे कितनी बार कहा जरा साफ-सफाई से रहा करो। सफाई करने वाले होकर गंदगी को लपेटे फिरने पर तुम्हें शर्म नहीं आती”।

सुनकर वह बूढ़ा एक बारगी सहम गया, फिर रुआँसे स्वर में बोला— “आप नहीं समझेंगे बाबू। मैं भंगी हूँ इंजीनियर नहीं। जैसे-तैसे जी लेता हूँ तो यही बहुत है। आप भी हमारी जगह होते तो शायद हमारे जैसे हो जाते।”।

बूढ़ा तो कहकर चला गया। पर उसके इन शब्दों ने युवक इंजीनियर में तिलमिलाहट पैदा कर दी। यों समाज सुधार के कार्यों में वह पहले से रुचि लेते थे। लोगों को प्रोत्साहित भी किया था। पर इस तरह के चुनौती भरे वाक्य किसी ने नहीं कहे थें।

उन्होंने इसे स्वीकार किया। रूपांतरित हो गया जीवन। कभी का इंजीनियर अब भंगियों की बस्ती में रहने लगा। अब वह हरिजनों के हरिजन थे। जुट गए अपने स्वयं के जीवन के माध्यम से सिखाने में कि इन परिस्थितियों में भी कैसे साफ रहा जा सकता है? उनको जिंदगी जीने के तरीके सिखाते। उनके इस परिवर्तन को देखकर, गाँधी जी ने कहा— इंजीनियरी छोड़कर अमृतलाल ठक्कर हरिजनों के हरि हो गए। काश! मेरे पास भी उन जैसी संवेदना होती।

सचमुच यही उनकी सम्पत्ति थी। जिसके बलबूते वह हर किसी की सेवा-सहायता के लिए दौड़ पड़ते। देश के किसी कोने में पीड़ित मानवता की पुकार उठी हो, बापा के मन में बसे भगवान विष्णु के लिए यह गज की पीड़ा की तरह होती और वे गरुड़वाहन छोड़कर दौड़ पड़ते। जनकरुणा की सरिता उनके पीछे-पीछे चल पड़ती।

गुजरात के पंचमहल-क्षेत्र में अकाल पड़ा। वह अपनी समूची-सामर्थ्य के साथ जा पहुँचे। पर यह तो सागर में बूँद की तरह समा गया। अपना सब कुछ दे चुकने के बाद वह भूखों मरती मानवता के लिए भीख माँगने निकल पड़े। परमार्थ के लिए यह विश्वमित्र घर-घर बैठे हरिश्चंद्र की सोई करुणा को जगाकर मानवहित में अपना सब कुछ लुटा देने की प्रेरणा भरने लगा। त्याग-ही-त्याग का जन्म दाता है। सारे संसार से बंधुत्व रखने वाले विश्वमित्र ही राजा को त्यागी बना सके। बापा भी कोई अपने लिए माँगने वाले भिखारी न थे। उनका सारा जीवन मानवता के लिए समर्पित था। मानवता के लिए यही समर्पित कर्म व्यक्ति की प्रामाणिकता का आधार है। इसी के बलबूते ऐसे व्यक्ति संसार सागर को लोभ और मोह के तूफानों से बचकर, सेवारूपी जहाज पर बैठकर खुद तरते और औरों को तारते।

ऐसे प्रामाणिक लोगों को भला कौन इंकार करता है। हजारों रुपए की नौकरी छोड़कर गरीबों के लिए झोली फैलाने वाले को देने वाले भी कम नहीं मिलते। फिर उनके बाँटने का क्रम चलता। अकाल के दिनों बापा के लिए दिन-दिन न रहा, रात-रात न रही। वह कब सोते कब जाग जाते यह साथ चलने वाले स्वयं सेवकों को भी पता न चलता।

इस कर्मठता के सामने अकाल परास्त हो गया। फिर सुकाल आया। पर बापा के लिए बहुत काम बाकी थे। उनका ध्यान अशिक्षा, गरीबी, अंधविश्वास और उपेक्षा से ग्रस्त आदिवासी भीलों की ओर गया। उन्होंने इस पिछड़े वर्ग को उठाने के लिए कमर कस ली। पैदल ही सारे प्रदेश का दौरा किया। ग्राम सभाएँ आयोजित कीं। भील नवयुवकों को संगठित किया। उनके पूर्व सेवाकार्य से लोग प्रभावित तो थे ही। अब यह जानकर कि उन्हीं के बीच रहेंगे। लोग सहर्ष सहयोग करने के लिए तैयार हो गए।

लोगों में से बापा ने कुछ नवयुवक ऐसे चुने जो अपने भाइयों के लिए कुछ कर सकते थे। इन्हें बापा ने पढ़ाकर इस योग्य बना दिया कि वे स्थान-स्थान पर पाठशालाएँ और कार्यशालाएँ चला सकें। प्रौढ़ों को साक्षर बनाने का काम बापा ने अपने हाथ में लिया। सदियों से उपेक्षित इन आदिवासियों को उन्होंने जो प्यार दिया, प्रकाश बाँटा वह अतुल्य है।

साक्षरता के प्रकाश के साथ हीँ, वह उन्हें अपना सुधार करने की प्रेरणा भी देते। उन्हें कुरीतियाँ और अंधविश्वास त्यागने को प्रेरित करते। महिलाओं के लिए उन्होंने ऐसी कार्यशालाएँ स्थापित कराईं जिनमें ताड़ की चटाइयाँ सेठे व नरकुलों के खिलौने और बाँस की अन्य चीजें बनाई जाती। इनमें कई भील महिलाएँ पहले से भी प्रवीण थीं। अब वे इसे सामूहिक रूप से करने लगीं तो पहले उनका, जो समय व्यर्थ या लड़ने-झगड़ने में यूँ ही चला जाता। वह उत्पादन में लगने लगा, साथ ही उनमें सामूहिकता परस्पर सहयोग की भावना भी पनपने लगी।

मील सेवा संघ आदि संगठनों-संस्थानों की स्थापना और उनके द्वारा संचालित गतिविधियों का सूत्रसंचालन बापा ने अपने कुशल नेतृत्व में किया। भील जाति में जागरण के स्वर गूँजने लगे। ये जागरण के स्वर समाज का हित चाहने वालों को तो बड़े भले प्रतीत हुए। पर शोषक वर्ग तो क्षुब्ध हो गया। देवगढ़-वासियों के राजा ने उन्हें अपने राज्य से निर्वासित कर दिया। राज्य से बाहर होने पर भी उनके द्वारा जलाई ज्योति स्वयं सेवकों के अपने जीवन के स्नेह से दिन पर दिन प्रखर होती गई। गोपाल कृष्ण गोखले उनकी इस सेवाभावना से अतिशय प्रभावित हुए। उन्होंने ‘भारत सेवक समाज’ के लिए उनकी सेवाएं मांगी। वृद्धावस्था के बावजूद उन्होंने गोखले जी को निराश नहीं किया। उन्होंने पंद्रह दिन भील सेवा संघ और पंद्रह दिन भारत सेवक समाज का कार्य करना स्वीकार कर लिया।

अनवरत कार्य करता हुआ शरीर जरा जीर्ण होता गया किंतु अकर्मण्यता, शिथिलता नहीं आई। जीवन के अंतिम क्षणों में स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए कहा “अंधेरा कितना ही घना और कितने ही वर्षों से क्यों न छाया हो, पर दीपक का प्रकाश उसे एक ही क्षण में मिटा देता है। इसी तरह समाज में विकृतियाँ व दुरवस्था कितनी ही क्यों न हों पर कर्मठ भावनाशीलों के प्रयास उसे अल्प समय में ही सुधार देते हैं।”

मानवता ऐसे ही भावनाशीलों की पुनः गुहार लगा रही है, ताकि प्रस्तुत समय की विषमता से मोर्चा लिया जा सके।


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