निंदा से रोका (कहानी)

March 1990

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एक जमींदार की आँखें भैंगी थीं। उसे स्वयं पता न था। एक दिन दर्पण देखा, तो उसने आँखों की बनावट को उपहासास्पद दिखाया।

दर्शक को क्रोध दर्पण पर आया। दूसरे, तीसरे, चौथे दर्पण मँगाए गए, फिर भी वह दोषदर्शन का सिलसिला बंद न हुआ।

जमींदार ने दर्पणों की प्रकृति को कोसा और अपने प्रभाव क्षेत्र के सभी दर्पणों को खोजा, खोजकर नष्ट करा दिया।

कुछ दिन तक ही संतोष रहा। बाद में जब लोगों से पूछकर इस खोट के संबंध में जानकारी प्राप्त की तो सभी ने दर्पणों की अभिव्यक्ति को सही बताया।

दोष अपने में रहे, तो आलोचकों को निंदा से रोका नहीं जा सकता।


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