अदृश्य बाजीगर की मनोरंजन की पिटारी!

March 1990

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मनोरंजन को जीवन की एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता समझा जाता है। इसके लिए लोग लालायित रहते हैं और जब अवसर मिलता है, तब समय एवं पैसा भी खर्च करते हैं। यह प्रचलन सर्वत्र देखे जाने पर भी ऐसा कुछ दीख नहीं पड़ता कि लोग मन का रंजन करके उसे उल्लासित, पुलकित, प्रफुल्लित कर पाते हों। यदि अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति न हुई तो समझना चाहिए कि प्रयास निरर्थक ही चले गए।

उथले लोग कामुकता की कल्पना अथवा उन क्रियाकलापों को चरितार्थ करने में मनोरंजन की पूर्ति अनुभव करते हैं। उसके लिए प्रयत्नशील भी रहते हैं, पर देखा गया है कि इस स्तर की कल्पनाएँ उत्कृष्टता की उस एकाग्रता और चरित्रता का अपहरण कर लेती हैं, जिन के आधार पर ऊँचे स्तर का बहुत कुछ सोचा और निर्धारण किया जा सकता था। इस प्रकार का ताना-बाना बुनते रहने वाले प्रायः विक्षुब्ध और असंतुष्ट ही देखे जाते हैं। अनियंत्रित कामुक-कल्पनाओं की आपूर्ति किसी भी प्रकार संभव नहीं। ऐसी दशा में दिवास्वप्न देखने और कल्पना की बिना पंख वाली उड़ाने उड़ते रहने के अतिरिक्त और किसी के कुछ हाथ नहीं लगता हैं, इन मनोरथों की आंशिक पूर्ति का कभी अवसर भी मिले तो उससे आग और भड़कती है। लालसा और अधिक उद्दीप्त होती है, साथ ही शरीर और मस्तिष्क को खोखला भी करती चलती है।

कौतुक और कौतूहल देखकर उछलने लगना, तालियाँ बजाने लगना क्रीड़ा का एक भाग है। मनुष्यकृत कौतुक देखने में जिन्हें रस आता है, वे बाजीगरों, मदारियों, सपेरों के द्वारा प्रदर्शित किए जाने वाले कौतुकों को देखने की अपेक्षा प्रकृति के कण-कण में चल रही हलचलों को ध्यानपूर्वक अवलोकन करें और देखें। वे पाएँगे कि यहाँ सब कुछ अद्भुत ही अद्भुत है। प्रत्येक क्षण में होता परिवर्तन कौतूहलों में क्या किसी से कुछ कम है। आसमान में उमड़ती मेघमालाएँ और उनकी कड़क, बिजली की चमक कितनी अद्भुत है कि उसके स्मरणमात्र से रोमांचित होने का अवसर मिलता रहे। हिमाच्छादित पर्वत शिखर, संध्याकाल का रंग-बिरंगा आसमान इतना विचित्र होता है कि उसे देखते-देखते मन नहीं भरता। निर्झरों के प्रवाह, नदियों के प्रवाह और समुद्रों में उठने वाले ज्वार-भाटे प्रत्यक्ष या दृष्टि माध्यम से देखने पर हतप्रभ रह जाना पड़ता है।

मनुष्य का अपना शरीर एक अच्छा-खासा अजूबा है। उसके साथ जुड़े हुए अगणित अवयव अपनी निराली संरचना और गतिविधियों पर दृष्टिपात करने से लगता है कि अपना आपा भी कितने कौतूहलों का भंडार है। हृदय की धड़कनें, स्नायु समूह का आकुँचन-प्रकुँचन, श्वास-प्रश्वास स्नायु समूह का आकुँचन-प्रकुँचन, श्वास-प्रश्वास क्रम, शयन जागरण आदि सभी कुछ ऐसा है कि इस कठपुतली को नचाने वाले अदृश्य बाजीगर का कौतूहल देखते-देखते चकित रह जाना पड़ता है। जीवन का जिस क्रम से आरंभ, अभिवर्ध्दन, परिवर्तनक्रम चलता रहता है, उस जीवनचक्र पर दृष्टिपात करने में आरंभ से लेकर अंत तक निरंतर यहाँ आश्चर्य-ही-आश्चर्य घटित होता दीख पड़ता है।

आकाश की ओर नजर उठाकर देखने पर चाँद-तारों से जगमगाता हुआ आकाश ऐसा लगता है, मानों किसी विशेष शामियाने को तानकर उसमें हीरे-मोतियों के बने झाड़-फानूस लटका दिये गये हों। ऐसी सुसज्जा का प्रबंध करने वाला कलाकार कितनी आश्चर्यजनक एवं विशेषताओं से भरा-पूरा होगा, उस विस्तार की कल्पना तक करने में बुद्धि थक कर बैठ जाती है।

अपने निज के मन-मानस की उठती-गिरती उमंगों का अवलोकन किया जाय, उसकी बुद्धिमत्ता और मूर्खता पर अलग-अलग विचार किया जाय तो प्रतीत होता है कि चर्चित “भानुमती का पिटारा” कदाचित् अपने ही सिर पर टोकरी की तरह बाँध दिया गया है। इसमें कितने आश्चर्य भरे पड़े हैं, जो एक से एक विलक्षण, दार्शनिक प्रतिपादनों का ढांचा खड़ा करते हैं और प्रकृति के रहस्यों पर से, पर्दे पर पर्दा उठाते हुए कितने आविष्कार करते और भविष्य में उस शृंखला को बहुत आगे बढ़ा देने के संकल्पों को पूरा करने में निरत हैं।

प्राणियों का समुदाय कितना विचित्र है। उनमें से हरेक की आकृति-प्रकृति में बहुत कुछ समानता होते हुए भी भिन्नता इतनी अधिक है कि इन लगता है कि इकाइयों में से प्रत्येक को भी पृथक-पृथक ढाँचे में ढाला गया है। उनकी आकृति ही नहीं, प्रकृति को भी पृथक-पृथक कलेवरों में निर्धारण किया गया है। पक्षियों की शृंखला ऐसी लगती है मानों आकाश में से जीवित-जाग्रत फूल उड़ रहे हैं और अपनी-अपनी बोली बोलकर उनके शब्दार्थ बताने की चुनौती दे रहे हैं।

जो कुछ दृश्यमान है, उसे तनिक गंभीरतापूर्वक देखा जाए तो प्रतीत होगा कि जिस पर भी गहराई के साथ दृष्टि जमाई और विलक्षणता की खोज में बुद्धि लगाई जाए तो वहाँ सब कुछ ऐसा लगेगा, जिसे देखते हुए विस्मय से अभिभूत ही हुआ जा सकता है।

जिस परिकर में हम रहते हैं, जो परिवार के सदस्य कहलाते हैं, उसमें बालकों से लेकर युवाओं और वृद्धों तक का व्यक्तित्व अपने-अपने ढंग का असाधारण है। उनके स्वभाव, क्रियाकलाप और अनुदान ऐसे हैं; जिन्हें एक दूसरे से सर्वथा पृथक प्रकार का रसास्वादन प्रस्तुत करते हुए देखा जाता है। मनुष्यों में से शरीर की बनावट तो प्रायः सभी की एक जैसी है, पर भावनाओं, मान्यताओं और दृष्टिकोणों के अंतर को देखते हुए लगता है कि करोड़ों-अरबों मनुष्यों में से प्रत्येक का अपना-अपना रचा हुआ संसार है। व्यक्ति स्वयं में एक जीता-जागता उपन्यास है। वह उसमें अपने-अपने ढंग के आचार-व्यवहार विनिर्मित करके अपने ढंग का अनोखा जीवनयापन कर रहा है।

उथली दृष्टि से देखने पर यहाँ सब कुछ अनगढ़ और अस्त-व्यस्त ही दीखता है, जिसके सोचने में बहुत कमी रह गई। उसे सुधारने के लिए सृष्टा से लेकर संबद्ध व्यक्तियों तक को बहुत कुछ सीखना-सिखाना पड़ेगा। ऐसा प्रतीत होने पर भी अंतिम निष्कर्ष यही निकलता है कि जो जिस भी रूप में विद्यमान है, वह अपने आप में पूर्ण है। पूर्ण से उत्पन्न हुआ घटक अपूर्ण हो भी कैसे सकता है, जो है सो प्रत्यक्ष अनुभव में आने के कारण सच भी है, किंतु जब हर कण भी फलन और गिरगिट जैसे रंग बदलने लगता है तो उसे माया का भ्रम-जंजाल कहने में भी किसी को क्यों कुछ आपत्ति होनी चाहिए?

आश्चर्यों में भी सबसे बड़ा यह है कि हम अपने अस्तित्व की निरंतर अनुभूति करते हुए भी यह समझ नहीं पा रहे हैं कि कौन हैं? क्यों है? किसलिए हैं? और जीवन के साथ जुड़े हुए उद्देश्य, दिशा निर्धारण और उत्तरदायित्वों को कितना समझ रहे हैं, और उसके अनुसार अपनी गतिविधियों के निर्धारण में कितने सफल हो पा हरे हैं?

अविवेकियों के लिए तो शरीर से लेकर संसार, ब्रह्मांड तक सब कुछ मात्र अनगढ़, कूड़ा-कबाड़ा ही है, पर ध्यान दे सकने वाले विचारकों को प्रतीत होता है कि यहाँ जो कुछ भी है वह इतना आकर्षक, अद्भुत और कौतूहलपूर्ण है कि इसी को समझाने के प्रयास में कुछ कदम बढ़ सकें तो प्रतीत होगा कि यहाँ मनोरंजन के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं।


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