भीतर की तड़पन सक्रियता में बदले!

March 1990

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जीर्ण, शीर्ण, पर्ण कुटीर के एक प्रकोष्ठ में एक बलिष्ठ तेजस्वी तरुण यात्रा के श्रम की क्लांति मिटाने नग्न भूमि पर लेटा था। अपनी सुगठित भुजा पर मस्तक रखे वह विचारमग्न था। उसके ओजपूर्ण चेहरे पर विचार मग्न था। उसके ओजपूर्ण चेहरे पर एक भाव आता, एक जाता था। कुटिया की स्वामिनी जरा-जर्जर वृद्धा और उसका पौत्र अपने इस अतिथि की चिंता से दूर दैनिक कार्यों में लगे थे। असमय मृत्यु के मुख में पहुँच जाने वाले पुत्र व पुत्रवधू के शोक ने वृद्धा के स्वभाव में चिड़-चिड़ापन भर दिया था। भूख से व्याकुल पुत्र ने गर्म-गर्म रोटी को बीच से खाना चाहा। इस मूर्खता भरे प्रयास में उसका हाथ जल गया। वह रोने लगा। इस पर वह डाँटते हुए बोली— "अरे मूर्ख!" पहले किनारे तोड़कर खा। वृद्धा की वाणी कुटीर के दूसरे सिरे पर लोटे तरुण के लिए समाधान साबित हुई। युवक भी यही भूल करता आ रहा था, जो वृद्धा के पौत्र ने की। उस सीख को मानकर तरुण ने किनारे तोड़-तोड़कर खाने अर्थात एक-एक कदम आगे बढ़ाने की नीति को अपनाने की सोची। इन कदमों के रूप में उसने संगठन-प्रशिक्षण व्यूहरचना करते हुए अनीति उन्मूलन, समाज के नवगठन हेतु सुव्यवस्था को कर्त्तव्य कर्म मानकर पूरा किया। इस तरह मंजिल पाने वाला यह युवक था— चंद्रगुप्त मौर्य।

उसके पिता एक वीर व नीतिपरायण क्षत्रिए थेः मगध साम्राज्य की वीरवाहिनी के योग्य नायकों में थे। मगधराज जहाँ उनके शौर्य का कायल था वहीं उनकी स्पष्टवादिता एवं नीतिपरायणता से कुपित भी था, उसकी अनीति व अन्याय का विरोध करने के कारण महानंद ने उसकी हत्या करवा दी। पिता की मृत्यु के उपरांत माता उसे लेकर अपने पितृगृह चली गई एवं घरों में कार्य करके गुजारा करने लगी। पिता का अन्यायपूर्वक वध, प्रजा के उत्पीड़न की कहानियाँ बालक चंद्र अपनी माता के मुख सुना करता था। यह सब सुनकर उसके मन में विचार कौंधते। क्या उत्पीड़न की समाप्तिकर समाज का नवगठन किया जा सकता है। कैसे? यह न सूझ पड़ता।

माँ ने बालक चंद्र में अन्यों के प्रति सम्वेदना जगाई, सहानुभूति को पनपाया व विकसित किया। अंदर की बेचैनी सक्रिय होने के लिए आतुर थी। इसी समय भारत की भावी-प्रगति की रूपरेखा अपने उर्वर मस्तिष्क में लेकर आचार्य चाणक्य अपने लोकनायक की खोज में निकले थे। उनकी भविष्यदर्शी आँखों ने इस किशोर के अंतराल में मानव हितों के लिए उमग रही बेचैनी को पहचाना। राह की धूल में पड़े हीरे को पारखी मिला और एक परखी को हीरा।

व्यक्तित्व के निर्माण में गुरु— मार्गदर्शक की अनिवार्यता असंदिग्ध है। लातों से ठुकराई, कुचली जाने वाली मिट्टी को मूर्तिकार जिस प्रकार सुंदर कलाकृति के रूप में बदल देता है काले कलूटे लोहे को जिस प्रकार तकनीकी का विशेषज्ञ बहुमूल्य यंत्र के रूप मे गढ़ता है। ठीक वैसे ही गुरु साधारण मनुष्य के अंदर छिपी असाधारण क्षमताओं को उभारता-निखारता अपने समूचे कौशल के बल पर उसे गढ़कर महान बना देता है। चंद्रगुप्त के निर्माण में चाणक्य की यही भूमिका रही।

उस समय समूचा भारतखंड छोटे-छोटे टुकड़ों में बँटा था। 'भारत माता' अपनी करोड़ों संतानों के साथ बिलख रही थी। उसका दुःख-दर्द समझने वाला कोई नहीं दिखाई पड़ रहा था। ऐसे विषय समय में चंद्रगुप्त ने अपने मार्गदर्शक के सामने प्रतिज्ञा की— "गुरुदेव! इस पुण्यभूमि की शपथ मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि प्राण के अंतिमकण को शरीर के अंतिम रक्तबिंदु को देकर भी इसके खोए गौरव को पुनः लाकर रहूँगा। इसको 'स्वर्गादपि गरीयसी' के रूप में पुनः स्थापित करूँगा। धरती पर स्वर्गीय वातावरण व नूतन समाज व्यवस्था आकर रहेगी।"

चंद्रगुप्त की दृढ़निष्ठा देखकर आचार्य भाव-विभोर हो गए। उनके कंठ से वाणी निकली— वत्स! तुम सफलकाम हो। अपने देश की यही प्राचीन परंपरा रही है। अकेले भगीरथ ने सूखती चटकती, ऊसर बनती जा रही भूमि को उर्वरा— शस्यश्यामला बनाने के लिए एकाकी संकल्प लिया था। वह गंगा की धारा को हिमालय की दुर्गम घाटियों, गिरि, गव्हरों से मैदानों तक लाने में सफल हुए। जनसमुदाय को नवजीवन व धरती का उसका सौंदर्य दिया। महानता को ओर बढ़ते कदमों के साथ देवनुग्रह भी जुडा है। इसी के बल पर पथप्रदर्शन व जन सहयोग जुटता जाता है। सबसे बड़ा व्यवस्थापक परमेश्वर स्वयं है, उसके इस कार्य में सहयोग देने जो भी उठ खड़ा होता, उसे उसका प्यार मिले बगैर नहीं रहता।

तुम्हारा कार्य भी उसे सहयोग देने जैसा ही है। आज की स्थिति में भारत में जनक्रान्ति की आवश्यकता है। क्रांति का तात्पर्य मार-काट नहीं, बल्कि सोए हुओं को जागाना, जगे हुओं को उठाना, उठे हुओं को आगे बढ़ाना है। आज सभी अमृतपुत्र दुर्बलता-कायरता की गहरी नींद में सोने के कारण मृत लग रहे हैं। पर जैसे ही इनको स्वरूप बोध होगा, दुर्व्यवस्था-अनीति भाग निकलेगी।

इसके लिए क्या करना होगा? चंद्रगुप्त का अगला प्रश्न था। पहले कुछ व्यक्तियों को लेकर उन्हें अपने उद्देश्यों को बताना, उनकी दबी-छुपी भाव-सम्वेदनाओं को छूना, उभरे उत्साह का नियोजन करना। इसे संगठितकर अनीति उत्पीड़न के खिलाफ एक व्यूहरचना करनी होगी— "पहला कदम होगा दोष-दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन।" इसका बाह्यस्वरूप ध्वंसात्मक होते हुए भी सूक्ष्मवेत्ताओं को भावी सृजन साफ दिखाई देगा— "आचार्य का उत्तर था।"

चंद्रगुप्त को बात समझ में आ गई। इसी समय सेल्यूकस निकाटोर का प्रभाव बढ़ रहा था। फन काढते विषधर को दंड देने की योजना दी। सीमारण्य प्रांतों की क्रांतिवाहिनी के सफल नेतृत्व के सामने सेल्यूकस को घुटने टेकने पड़े। निढर्य मगध सम्राट पदच्युत हुए। अब चन्द्रगुप्त सम्राट थे।

दुष्प्रवृत्तियों को उखाड़ फेंकने के बाद सत्प्रवृत्तियों के नंदन कानन को विकसित करने का क्रम शुरू हुआ। दुर्व्यवस्था से जर्जरित भारत को पुनः सुव्यवस्थित किया जाने लगा। जागृतजन सहयोग के लिए कटिबद्ध थे।

इतिहासकारों के अनुसार चंद्रगुप्त के लगातार प्रयासों से भारत अध्यात्मिक एवं भौतिक उपलब्धियों का भंडार बन गया। ऋषि संस्कृति की पुनर्स्थापना के पश्चात, उन्होंने शासन की जिम्मेदारी उचित उत्तराधिकारी को सौंपकर परिव्रज्या व्रत ले लिया। अंतिम श्वास तक अपने आचरण व व्यवहार के माध्यम से सामान्यजन को घूम घूकरकर जीवन जीने की नीति सिखाते रहे। अधिकार, वैभव, परिवार का मोह, उन्हें कैद न रख सके।

गहराई से देखा जाए तो उनमें क्रांतिकारी महान उद्देश्य के लिए समर्पित जीवन जीने वाले एक कर्मनिष्ठ पुरुष के ही दर्शन होते हैं। समय की परिधियों में बंध वह कुछ और भले ही लगें, पर सच्चे अर्थों में वे जागृति के अग्रदूत थे।


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