जीवन में परिस्थितियाँ सदा एक-सी नहीं रहतीं। यह भी सच है कि सभी लोग अलग-अलग परिस्थितियों में पैदा होते, पलते और बढ़ते हैं। इस संबंध में यह भी माना जाता है कि बुरी परिस्थितियाँ व्यक्ति के अपने कर्मों का दंड हैं और अच्छी परिस्थितियाँ उनके सत्कार्यों का पुरस्कार। यहाँ तक तो ठीक है, पर जब यह माना और समझा जाने लगा कि उन दंडों को सहने के अलावा और कोई चारा नहीं। इन परिस्थितियों में विकास अशक्य हैं। दुःख में जैसे-तैसे दिन बिताने के अतिरिक्त दूसरा कोई मार्ग नहीं है, व्यक्ति को निराशावादी बनाने का षड्यंत्रमात्र है। यही मान्यता व्यक्ति के जीवन में दुःखद अध्याय का प्रारंभ करती है।
डॉ. राधाकृष्णन अपनी कृति “आइडियलिस्टिक व्यू ऑफ लाइफ” में इसे एक प्रवंचना बताते हैं। उनके अनुसार जीवन का आध्यात्मिक दृष्टिकोणकष्टों को जहाँ धैर्यपूर्वक सहन करने के लिए कहता है; वहीं उसे परिस्थितियों से संघर्ष करने के लिए भी प्रेरित करता है। अपने दुष्कर्मों को दंड मानकर दुःखों का बोझ हल्का किया जा सकता है, पर इसका अर्थ नहीं है कि विषम परिस्थितियों में निष्क्रिय होकर बैठा जाए। आध्यात्मिक दृष्टि के अनुसार दुःख प्रकृति की पाठशाला के पाठ्यक्रम का अभिन्न व अनिवार्य अंग है। इसीसे मानव की अंतर्निहित क्षमता, प्रसुप्त प्रतिभा, योग्यता को उभरकर व्यक्त होने का मौका मिलता है। संसार के अधिकांश महापुरुषों ने इसी पाठ्यक्रम को पढ़कर स्वयं को प्रतिभावानों की पंक्ति में खड़ा किया है।
दुःखों के रूप में जिन परिस्थितियों से सर्वप्रथम सामना करना पड़ सकता है, वे हैं बाल्यकाल में माता-पिता के स्नेह संरक्षण का अभाव। लोग समझते हैं कि ऐसी परिस्थितियों में व्यक्ति की प्रतिभा कुंठित हो जाती है। पर यह भी एक तथ्य है कि अनाथ, असहाय और गरीबी में पले बालक प्रतिभाशाली भी निकल जाते हैं। स्विट्जरलैण्ड के डॉ. जे. पियरी रित्शनिक ने तो सिद्ध भी कर दिखाया है कि विभिन्न क्षेत्रों में नेतृत्व करने वाली विभूतियों को माता-पिता के स्नेह-संरक्षण से वंचित ही रहना पड़ा है। स्विट्जरलैण्ड से प्रकाशित होने वाली “मैडिसीन एण्ड हाईजीन” नामक पत्रिका के दिसंबर 75 के अंक में इस तथ्य को प्रस्तुत करते हुए, उन्होंने कहा है कि अभिभावकों का संरक्षण न मिलने से बालक में एक प्रकार की अभावजन्य क्षमता का प्रादुर्भाव होता और वह सुखों की खोज में आक्रामक हो जाता है। आक्रामक उन अर्थों में नहीं कि वह अपने निकटवर्ती लोगों की हिंसा करने लगे; वरन इस अर्थ में कि वह भाग्य पर हावी होकर समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान अर्जित करना चाहता है। इस तथ्य को प्रमाणित करने के लिए; उन्होंने अनेकों उदाहरण प्रस्तुत किए हैं।
ईसा मसीह जिनके अनुयायी आज दुनिया के एक तिहाई लोग हैं, एक बढ़ई के पुत्र थे। उनका अधिकांश बचपन सड़कों पर अभावग्रस्तता की स्थिति में गुजरा। सिकंदर यद्यपि राजपुत्र था, पर आरंभ से ही उसे दुर्दिनों का सामना करना पड़ा। अपने प्रेमी के प्रणयजाल में फंसकर सिकंदर की माँ ने अपने ही पति राजा फिलिप की हत्या करवा दी और सिकंदर का भी तिरस्कार किया। परंतु सिकंदर का परिस्थितियों पर हावी होने का संकल्प इतना मजबूत था कि उसने अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य में परिणत कर दिखाया।
साधारण मूर्तिकार के बेटे सुकरात ने अपना जीवन एक सामान्य सैनिक के रूप में आरंभ किया था। उसकी माँ दाई का काम करती थी। कुछ ही दिनों के बाद सुकरात को पितृस्नेह से वंचित हो जाना पड़ा। पर पुरुषार्थ व अध्यवसाय के बल पर वह पश्चिमी दर्शन के जनक के गौरव से मंडित हुआ। एक संपन्न परिवार में जन्म लेने वाला लियोनार्दाेनियी जन्म के कुछ ही समय बाद माँ के साथ पिता से अलग हो गया था। कारण था। पति-पत्नी का मनमुटाव। बड़ी विपन्न परिस्थितियों में माँ ने अपने बेटे का पालन-पोषण किया। थोड़ा समझदार होने पर लियोनर्दो आत्मनिर्भर हो गया तथा इटली ही नहीं संसार भर में अपनी चित्रकला और शिल्प के द्वारा अमर हुआ।
कठिनाइयाँ प्रतिभा के विकास में सहायक ही होती हैं। क्योंकि विपरीतताओं में शारीरिक एवं मानसिक क्रियाशीलता को उभरने का भरपूर अवसर प्राप्त होता है। विलासितापूर्ण जीवन जागृत क्षमताओं को भी सुलाने वाला सिद्ध होता है। भारतवर्ष को सर्वप्रथम एकसूत्र में आबद्ध करने वाले चंद्रगुप्त मौर्य भुरा नाम की एक दासी के पुत्र थे, उनका जीवन अभावों और गरीबी के बीच पनपा। चाणक्य जैसे मार्गदर्शकों के निर्देशन में उन्होंने अपनी आंतरिक क्षमताओं को जागृत किया और इसी के बल पर भारत को एक अखण्ड राष्ट्र के रूप में गढ़ने में समर्थ हुए। प्रसिद्ध विचारक और दार्शनिक कन्फ्यूशियस को जन्म के तीन वर्ष बाद ही पितृस्नेह से वंचित हो जाना पड़ा। अपने पिता को अभी ठीक प्रकार पहचान भी नहीं पाया था कि वह अनाथ हो गया और छोटी उम्र में ही उसे जीविकोपार्जन के कठोर श्रम में लग जाना पड़ा। लेकिन महानता के बीजों को उगाने की ललक उसमें प्रारंभ से थी। परिणाम स्वरूप गरीबी और तंगहाली में रहते हुए भी वह अपना लक्ष्य प्राप्त करने में सफल रहा।
शक्ति व सामर्थ्य का वास्तविक स्रोत मनुष्य का निजी अंतराल है। बाह्यसाधन भी इसी से जुड़कर अपना चमत्कार दिखाते हैं। इसके बिना सभी कुछ वैसे ही व्यर्थ साबित होता है, जैसे विद्युत के अभाव में विद्युत के उपकरण। सुदूर देशों की खोज में निकलने वाले कोलंबस के पास साधनों की प्रचुरता न थी। पर अपने साहस, सूझ-बूझ और व्यवहार-कुशलता के बल पर उसने परिस्थितियों को गढ़ा और अमेरिका को खोज निकाला। प्रसिद्ध चित्रकार माइकेल एजिलो फ्लोरेंस के एक गरीब परिवार का सदस्य था। चित्रकला के क्षेत्र में उसने अपनी क्षमताओं को नियोजित व विकसित किया। उसके व्यक्तित्व की यह भी एक विशेषता थी कि काफी कमाने पर भी गरीबों जैसा जीवन जीता था और आमदनी का अधिकांश हिस्सा दूसरे लोगों के लिए खर्च करता था।
निःसंदेह क्षमताएँ कहीं बाहर से नहीं बटोरनी पड़तीं। उन्हें सदैव अपने भीतर से उभारा जाता है। इसके लिए सिर्फ उन आवरणों को हटाना अनिवार्य है, जो भारी भरकम पर्वतशिला के सदृश इस स्रोत का रोके खड़ी होती हैं। आलस्य, प्रमाद, अकर्मण्यता रूपी इन शिलाओं को जैसे ही हटाया जाता है, अंतरशक्तियों का प्रवाह समूचे जीवन का कायाकल्प कर देता है।
युगप्रवर्तक के रूप में प्रख्यात मार्क्स गरीब परिवार में जन्मे व गरीबी में ही मरे। जीवन भर उन्हें कई स्थानों पर भटकना पड़ा। यद्यपि उनके पुरुषार्थ में उनकी पत्नी सहयोगिनी बनी, पर प्रतिकूलताओं से निखरने के कारण ही वे दुनिया के करोड़ों लोगों को अपना भाग्यविधाता बना गए। उनके विचार आज भी उतने ही सशक्त हैं, भले ही साम्यवाद के विकृत स्वरूप को जनसामान्य ने नकार दिया हो।
संगठन, कौशल, दूरदर्शिता के धनी शिवाजी एक साधारण दरबारी के पुत्र थे। जिनका कोई सहयोग शिवा को नहीं मिला। फिर भी वह स्वयं के सहारे मराठाराज्य की स्थापना करने में सफल हुए। ऐसे अनेकों व्यक्ति हुए हैं; जिनने अपना जीवन कठिन से कठिन परिस्थितियों से आरंभ किया। वे प्रतिकूलताओं से जूझते ही रहे। इन दिनों भी ऐसा ही समय सामने आ खड़ा हुआ है, जब परिस्थितियाँ विषमतम होती चली जाती हैं। क्रांतियाँ सदैव दमन के, प्रतिकूलताओं के विरुद्ध हुई हैं। यह महाक्रांति का समय है, एक सहस्राब्दी की परिवर्तन वेला है। ऐसे में अगणित प्रतिभाशाली महामानव विश्व भर में जन्मे हैं, तथा नवयुग की आधारशिला रखेंगे।