“खुल जा सिमसिम”

March 1990

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व्यक्ति और समाज के समक्ष इन दिनों इतनी अधिक समस्याएँ हैं कि उनकी गणना कर सकना कठिन है। परिस्थितियों, अभावों, विग्रहों आदि के जो स्वरूप उभरते हैं, उनका स्वरूप व्यक्ति और समाज के सम्मुख स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार चित्र-विचित्र रूप धारण करता रहता है। उन सब को गिनकर, उनके पृथक्-पृथक् समाधान ढूंढ़ना ऐसा है, जैसा शरीर भर पर उगी हुई चेचक की एक-एक फुंसी के लिए एक-एक चिकित्सक नियुक्त करना और एक-एक दवा का प्रबंध करना। क्योंकि हर फुंसी एक-दूसरे से भिन्न आकार की होती है। पर उनकी भिन्नता को देखते हुए चिकित्सकों और दवाओं में भिन्नता को देखते हुए चिकित्सकों और दवाओं में भिन्नता होने की योजना बनाना कुछ अप्रासंगिक भी नहीं लगता। इस भ्रम-जंजाल से उबरा जा सके तो एक सरल समाधान मिल जाता है कि पेट और रक्त को अशुद्ध बनाए हुए विजाई द्रव्यों को निकाल बाहर किया जाए और फिर उन्हें संचित न होने दिया जाए। उतने भर से न केवल चेचक की सामयिक कठिनाई से उबरा जा सकता है; वरन भविष्य में भी अन्य किसी रोग के न आने के संबंध में निश्चित हुआ जा सकता है।

जीवनी शक्ति का भंडार कम पड़ जाना ही विभिन्न भागों में दीख पड़ने वाली दुर्बलताओं और रुग्णताओं का प्रमुख कारण है। बाहरी विषाणुओं के आक्रमण करने में सफलता ऐसी ही स्थिति में मिलती है। भीतर के अपने जीवाणु भी इस आधार पर घटने, सिकुड़ने और दुर्बल रहने लगते हैं। इससे भीतर के अपने जीवकोश विषाणु बनाते और रोग उत्पन्न करने लगते हैं। जीवनी शक्ति की कमी न हो तो मनुष्य प्रकृति प्रकोपों एवं अनुपयुक्त वातावरण में भी गुजारा कर लेते है, इतना ही नहीं वह बाहर से आक्रमण करने वाले विषाणुओं से भी निपट लेते हैं। अच्छा हो जीवनी शक्ति को घटने न देकर अपनी समर्थता को सुरक्षित रखने पर ध्यान केंद्रित किया जाए। इस प्रयोजन में जितनी सफलता मिलेगी, उसी अनुपात से विभिन्न आकृति-प्रकृति के रोगों की आशंका से निवृत्त रहा जा सकेगा।

दरिद्रता अनेक अभावों की जननी है। एक-एक अभाव को पूरा करने के लिए एक-एक उपाय अपनाना भी बुरा नहीं है। पर समुचित समाधान तभी बन पड़ेगा, जब अभावों की सूची को एक कोने पर रखकर संपन्नता-संवर्ध्दन के लिए प्रयत्न किया जाए। उस प्रकार की सफलता मिल जाने, पर आए दिन नित नए रूप में आ खड़े होने वाले अनेक अभावों से एक बारगी ही निपटा जा सकेगा।

हमारे इस संसार में अनगिनत काँटे और कंकड़ बिछे पड़े हैं। उनके कारण चुभन और ठोकर का खतरा बना ही रहता है। इन सभी को बीन सकना और जमीन को साफ-सुथरा बना सकना किसी के लिए जन्म भर में भी संभव नहीं हो सकता। सस्ता और सरल तरीका यह है कि अपने पैरों में जूते पहन लिए जाएँ तो बेधड़क रूप से किसी भी रास्ते पर बढ़ते चला जाए, भले ही वह कंकड़ों और कांटों से भरा ही क्यों न हो।

हर प्रश्न को हल करने के लिए गणित के अलग-अलग सिद्धांत नहीं गढ़े जा सके हैं। जो निर्धारण लंबे समय से चला आ रहा है, उसी के सहारे अनेक सवाल हल किए जाते रहते हैं। मानवी प्रगति और सुख शांति के भी कुछ सुनिश्चित सिद्धांत हैं। उन्हें अपनाए रहने, व्यतिक्रम न करने पर राजमार्ग पल चलते हुए निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचना संभव हो सकता है। जल्दबाजी में नई पगडंडी खोजने और कंटीले झाड़-झंखाड़ों से गुजरने में देर भी लगती है और परेशान भी बहुत होना पड़ता है। इसलिए जीवन चेतना के साथ जुड़े हुए अविच्छिन्न शाश्वत सिद्धंतों को अपनाए रहने में ही भलाई है। लालची लाभ तो बहुत नहीं पाते, पर हर घड़ी चिंताओं में फँसे रहते हैं और ऐसा कुछ कर नहीं पाते, जिसके सहारे संतोष की उपलब्धि हो एवं सभ्य-समुंनतों में गणना हो सके। अत्यधिक चतुरता कई बार ऐसे घाटे का कारण बनती है और हैरान करती कठिनाइयों में फँसाती भी देखी गई है। जेलखानों में बंद कैदियों की जाँच पड़ताल करने, पर इसी एक निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि उनने संतुलन गंवाया, आवेशग्रस्त हुए और आतुर भावावेश में ऐसा कुछ कर बैठे, जो उन्हें नहीं करना चाहिए था। ऊँची छलांगें लगाने वालों में से सफलता किन्हीं बिरलों को ही मिलती है। अधिकांश को औंधे मुँह गिरना और हड्डी-पसली तुड़ा लेने जैसा घाटा उठाना पड़ता है।

उपरोक्त प्रतिपादनों का एक ही तात्पर्य है कि नवयुग की आकांक्षा के अनुरूप हम संतुलित ढंग से जिएँ और जीने दें तो विग्रह उपद्रवों से सहज ही बचे रहा जा सकता है। आतुर लालसा और लिप्साएँ ही ऐसा कुछ करने के लिए प्रेरित करती हैं, जिसमें मानवी गरिमा के उपयुक्त मर्यादाओं को तोड़ने एवं निर्धारित अनुशासन को तोड़-मरोड़ डालने की उमंग उठती और विक्षिप्तों की तरह कुछ भी कर गुजरने, किसी भी ओर चल पड़ने के लिए प्रेरित करती है। इन आवेशों, आवेगों पर काबू पाया जा सके और सज्जनोचित जीवन जिया जा सके, तो न ही व्यक्तिगत जीवन को तोड़-मरोड़कर रख देने वाला संकट हो और न समाज में ऐसी परिस्थितियों, विपत्तियों के रूप में अवांछनीय स्तर के संकट खड़े करने का अवसर उभरे।

इन दिनों जो अगणित प्रकार के अनाचार, अतिवाद, असंतुलन एवं विग्रह उमड़ते घुमड़ते दिख पड़ते हैं, वे अनायास ही किसी अदृश्य लोक से नहीं आ टपके हैं। इन्हें मनुष्य ने स्वयं ही सृजा और पोषण देते हुए गगन चुंबी बनाया है। यदि उसने मर्यादाओं में रहना अंगीकार किया होता, निर्धारित अनुशासन पाला होता तो शांति से रहने और स्वाभाविक प्रगति का वरण करने में कहीं किसी प्रकार का संकट देखने एवं शिकायत करने जैसा अवसर आने का प्रश्न ही न उठता।

गिनती गिनना भूल जाने पर नए सिरे से गिनना आरंभ किया जाता है। रास्ता भूल जाने पर भटकाव को छोड़ना और वापस लौटना पड़ता है। तभी उस स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है, जो कि निर्धारित लक्ष्य पर देर से सही, पर पहुँचा तो जा सके। संसार भर में निवास करने वाले 600 करोड़ मनुष्यों में से प्रत्येक के साथ अगणित शारीरिक मानसिक, आर्थिक सामाजिक समस्याएँ जुड़ी हुई हैं। उनमें से प्रत्येक का हल खोजना ओर उनके लिए समाधान ढूंढ़ना लगभग उतना ही कठिन है, जितना कि आकाश और पाताल को किसी एक कुलावे से मिलाकर जोड़ना।

संभव इतना ही है कि उन मानसिक विकृतियों के संबंध में विचार किया जाए, जो चिंतन, चरित्र और व्यवहार को प्रभावित करने के उपरांत ऐसी उलझनें विनिर्मित करती हैं, जिनका भौतिक आधार पर कोई निश्चित समाधान ही संभव नहीं। संभव इतना है कि उस मनःस्थिति के साथ अवांछनीय रूप से जुड़ी हुई प्रक्रिया को समझा और समझाया जाए, जो कि विचार क्षमता को दैत्य के चंगुल से छुड़ाकर देवता के हवाले करे। दृष्टिकोण और क्रियाकलाप में मानवीय गरिमा के अनुरूप सात्विकता-सदाशयता का समावेश करे। इतने भर से एक ही चाबी उन जैसे मजबूत तालों को खोल देगी और “खुल जा सिमसिम” के अली बाबा के इशारे से एक नया माहौल विनिर्मित करेगी।


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