क्या स्वर्ग एवं मुक्ति इतने सुगम व सस्ते हैं?

March 1990

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कई बार ऐसा असमंजस देखने को मिलता है, जिसमें प्रतिपादन और निष्कर्ष में जमीन-आसमान जैसा अंतर पाया जाता है। तब चौराहे पर खड़े व्यक्ति को सामान्य स्तर की बुद्धि के सहारे यह निर्णय करते नहीं बनता कि वह परस्पर विरोधी प्रतिपादनों और निष्कर्षों में से किसे स्वीकार और किसे अस्वीकार करे? उलझन उसे किंकर्त्तव्यविमूढ़ बनाकर रख देती है।

कर्म और उसका प्रतिफल समूचे धर्मशास्त्र, तत्त्वज्ञान, नीतिशास्त्र, विश्व-व्यवस्था का आधार माना जाता है। दंड-पुरस्कार की विधि-व्यवस्था ही सरकारें बनाती रहती हैं। स्वर्ग और नरक की संरचना भी इसी एक प्रयोजन के निमित्त बन पड़े हैं। दर्शनशास्त्र ने नैतिकता एवं सामाजिकता के पक्ष में लोक-मानस को ढालने के लिए इसी हेतु अनेकानेक तर्कों और तथ्यों का आश्रय लिया है। इसी आधार पर सम्मान और तिरस्कार का व्यवहार होते देखा गया है। यदि कर्मफल की मान्यता को निरस्त कर दिया जाए, तो उपरोक्त आधारों में से किसी की भी आवश्यकता या उपयोगिता नहीं रह जाती। मनुष्यों को मर्यादापालन और वर्जनाओं का अनुशासन अपनाने के लिए भी कर्मफल की मान्यता ही अंकुश लगाती और मार्गदर्शन करती है। इसे मानवी गरिमा का मेरुदंड कहा जाए तो भी अत्युक्ति न होगी।

इतने बड़े आधार को झुठला देने में एक अनगढ़ मान्यता महती भूमिका निभाती, सब कुछ चौपट करती देखी जाती है। वह है— अमुक देवता के दर्शन झाँकी कर लेने, अमुक जलाशय में डुबकी लगा लेने, अमुक कथा-वर्त्ता पढ़ या सुन लेने, अमुक खेल-खिलवाड़ स्तर के कर्मकांड पूरे कर लेने भर से पापकर्मों के प्रतिफल का नाश-निराकरण हो जाना। वर्तमान जन्म के ही नहीं, पिछले अनेक जन्मों के किए गए संचित पाप भी इन अत्यंत सस्ते क्रियाकलापों की चिह्नपूजा कर लेने भर से उड़न छू हो जाते हैं। इसके बाद नरक की कोई संभावना शेष नहीं रह जाती और स्वर्गलोक में अनायास ही जा पहुँचने का द्वारा खुल जाता है।

यह धारणा किसी स्थान या कृत्य की ओर आकर्षित करने के लिए बाल-प्रलोभन की तरह प्रस्तुत की गई हो, तो बात कुछ समझ में भी आती है। पर जब इसे वास्तविकता या विश्वस्त मान्यता के रूप में जोर देकर कहा जाने लगे, तो एक प्रकार से ऐसा लगता है कि विश्व-व्यवस्था के सारे उपक्रम को उलटकर ही देखा जा रहा है।

पापकर्मों के दंड से चुटकी बजाने जैसे खिलवाड़ों के आधार पर छुटकारा मिल सकता है तो इसकी बिलकुल सीधी प्रतिक्रिया यही सामने आती है कि पापकर्मों के आधार पर जो लाभ उठाए जाते रहते हैं, उनसे डरने— झिझकने जैसी कोई बात नहीं है। उनके दुष्परिणाम मिले ही, यह कोई निश्चित बात नहीं है। “शार्ट कट” मौजूद है। उस पगडंडी को अपनाकर विशालकाय भयंकर बीहड़ से क्षण भर में पार हुआ जा सकता है। जब दंडफल से छुटकारा पाने का इतना सरल उपाय निकल गया, तो फिर किसी को भी ऐसा कुछ नहीं कर गुजरना चाहिए, जिसमें लोक-लज्जा या भर्त्सना-प्रताड़ना आड़े आने का आगा-पीछा सोचना पड़ता है। यह मान्यता विशेषतया अनाचारियों के लिए मन की मुराद पूरी करने, कुकृत्य करने जैसे अलभ्य सौभाग्य देती दीख पड़ती है।

इनसे रोक-थाम की एक ही कारगर व्यवस्था युग-युगांतरों से चली आ रही थी कि अंतःकरण में यह विश्वास गहराई तक जमाया जाए कि कोई भी कुकृत्य अंतर्यामी की जानकारी से बचकर नहीं रह सकता। वह जानकारी सुनिश्चित परिणामों से भरी पूरी है। अनाचार अपने साथ दुष्परिणाम भी कसे-जकड़े रहता है। यही था वह भय, जो नर-पशु एवं नर-पिशाचों तक की दुष्प्र वृत्तियों पर अंकुश लगाता रहा है। उसी की प्रमुख भूमिका ने अनाचारों की रोक-थाम की है, साथ ही इस विश्वास को भी परिपक्व किया है कि सदाशयता अपनाने की प्रतिक्रिया स्वर्गोपम सुखद संभावनाएँ सामने लाती हैं। जिनने भी इन मान्यताओं को परिपक्व किया है, वस्तुतः उनने मानवी गरिमा को अक्षुण्ण बनाए रखने में असाधारण योगदान दिया है। उन्हें जितना भी सराहा जाए उतना ही कम है।

किंतु इस समूची नीतिमत्ता के दुर्ग को तो एक ही अणुबम से बिस्मार कर देने का प्रयत्न इन दिनों चल पड़ा है कि नगण्य-सा काम और राई-रत्ती जितना धन खरचने भर से अमुक कर्मकांडों के सहारे समस्त पापदंडों से छुटकारा पाया जा सकता है। इतना ही नहीं, जन्म-जन्मांतरों के, अनेक पीढ़ियों के पूर्वजों को भी सद्गति का अधिकारी बनाया जा सकता है। इतना सस्ता नुस्खा हाथ लग जाने के बाद कोई वज्र मूर्ख ही ऐसा बनेगा, जो दुष्कर्मों के माध्यम से तत्काल मिलने वाले अनेकानेक लाभों को उठाने के लिए आतुर न हो चले।

स्वर्गीय सुखद संभावनाओं को उपलब्ध करने के लिए तपश्चर्या स्तर की संयम-साधना, धर्म-धारणा और परमार्थपरायणता को अनिवार्य रूप से आवश्यक माना जाता रहा है। अब उस पर्वत शिखर पर नंगे पैरों चढ़ने की झंझट से सहज निवृत्ति सुझा दी गई है कि अमुक कर्मकांड संपन्न करने से वह स्वर्ग, अंधे के हाथ बटेर लगने से भी अधिक सरल हो गया है। जब स्वर्ग इतना सस्ता है; मोक्ष इतना सुगम है, तो फिर उपासना, साधना, आराधना जैसे पुण्य प्रयोजनों में अपने को नियोजित करने के लिए कोई क्यों तैयार हो?

इस 'रामनाम की लूट' वाली भ्रांति से जितना जल्दी उबरा जा सके, ठीक होगा। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि, "यदि भगवान इसी भ्रांतिपूर्ण मान्यता के रूप में जिंदा रहेगा तो इसे समाप्त करने में हमें एक क्षण की देरी भी नहीं लगनी चाहिए। बोए-काटे का, देकर पाने का, साधना से ही सिद्धि का सिद्धांत जब तक व्यक्ति आत्मसात नहीं कर लेता, तब तक उसे सही अध्यात्म की कड़ुई, किंतु प्रामाणिक कुनैन खिलाते ही रहना पड़ेगा। यदि नया ईश्वर भी रचना पड़े तो इसके लिए तैयार होना पड़ेगा।"


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