पिछड़ों के हमदर्द-शोषितों के मसीहा

March 1990

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बंबई विश्वविद्यालय के प्रांगण में बड़ी चहल-पहल थी। चारों ओर उत्साह-उल्लास था, सभी के चेहरों पर खुशी फूट पड़ रही थी। इसका कारण था, आज का दीक्षांत समारोह वर्षों का परिश्रम आखिर आज डिग्री के रूप में मूर्त हो रहा था। युवकगण भविष्य के बारे में सुनहले स्वप्न संजोते, वैभवशाली जीवन का ताना-बाना बुनते घूम रहे थे। उन दिनों बी. ए. पास करने वालों के लिए यह असंभव भी न था। स्नातक उपाधिधारियों के लिए उच्च प्रशासनिक पदाप्राप्त करके साहबी ठाट-बाठ का जीवन व्यतीत करना बहुत आसान था।

मिसे! तुमने क्या योजना बनाई, एक गुमसुम से लगने वाले ने टोका। योजना— "अरे! हाँ ! मै शिक्षा युवक को उसके मित्रों के स्वरूप और उद्देश्य पर विचार कर रहा था। तो विचारक जी। क्या है आपका विचार? एक अन्य मित्र ने चुटकी ली। मेरे विचार में शिक्षा का तात्पर्य सुसंस्कारिता के साथ कुछ ऐसी तकनीकों को सैद्धांतिक व व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करना है, जिसके द्वारा एक अच्छे नागरिक के रूप में समाज को लाभांवित किया जा सके। बदले में थोड़ा-सा लेकर अपना जीवनयापन किया जाए। यही शिक्षा का तात्पर्य और शिक्षित का कर्त्तव्य है।" आप लोगों के शेखचिल्लियों, जैसे ताने-बाने पाने की अकुलाहट को देखकर लगता है कि वर्षों बाद भी ये दोनों चीजें समझ में नहीं आईं। आप जैसे अनेकों और होंगे।

“ऐसे समय जबकि देश समाज बड़ी जटिल स्थिति से गुजर रहा है। तिलक, गोखले जैसे महापुरुष विचारशील युवकों को पुकार रहे हैं। इस पुकार को अनसुनी कर देना मेरे बस की बात नहीं। विदेशी सरकार की जी हुजीरियों की फौज में भर्ती होना शिक्षा का भी अपमान है और शिक्षित का भी। अतएव मैं तो नवजागरण के स्वयं सेवकों की टोली का सदस्य बनूँगा। गोखले एजूकेशन सोसाइटी में शामिल हो माध्यमिक विद्यालय में अल्प वेतन भोगी-अध्यापक बनूँगा। ताकि सही ढंग से शिक्षितों को राष्ट्र और समाज के लिए तैयार कर सकूँ।” मिसे ने अपनी बात पूरी की।

उनके इस कथन से सभी साथी भौंचक्के रह गए। किसी से कुछ कहते न बन पङा। घर आने पर परिवार वाले कुटुंबीजन, एक-एक पर युक्तियाँ सुझाने लगे। सभी का सार एक ही था—" धन-वैभव बटोरने के लिए प्रयास। सभी के कह चुकने पर शंकरराव ने अपना निर्णय सुना दिया। सुनकर जैसे सभी आसमान से उड़ते हुए जमीन पर आ गिरे। सभी ने समझाया यह बातें उनके लिए तो ठीक है; जिनके परिवार की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ है, पर जिसके यहाँ रोज दो समय की रोटी नसीब न हो, उन्हें ऐसा निर्णय लेना ठीक नहीं।"

शंकरराव ने विनम्रतापूर्वक अपने घर वालों को समझाया। हमारे भारत में गौतमबुद्ध, महावीर विस्तीर्ण राज्य छोड़कर उतरे, यह सही है, पर यह एक पक्ष है। दूसरा पक्ष यह भी है कि जिस का घर-परिवार एक-एक रोटी के लिए तरस रहा था, उस घर का उच्चशिक्षित युवक नरेंद्र विवेकानंद बनकर समाजसेवा के लिए अर्पित हो गया। कारण एक ही है, संक्रमण कालीन स्थिति में समाज सभी को पुकारता है। जो जिस स्थिति में है, उसी स्थिति से निकल कर समाज देवता की आराधना के लिए आगे बढ़े। समाज देवता की आराधना के लिए आगे बढ़े। स्थिति सँवर जाएगी, तब आएँगे। यह तो कायरता है क्लीवता है। जो आज न कर सका वह कभी न कर सकेगा।

वह घर वालों को जैसे-जैसे समझाकर बंबई की जगह कोलाबा जिले के ग्रामीण अंचल में आ गए। यह बोर्डी गाँव आदिवासियों का था। यहाँ है। बहाव को रोक कर बाँध बाँधना और पानी को अभीष्ट दिशा में मोड़ देना संभव तो है, पर है कठिन।

कठिन कार्यों को संपन्न करने के लिए प्रखर-प्रतिभा की आवश्यकता होती है, साथ ही प्रबल प्रयत्नों की भी। इसके लिए आवश्यक साधन भी जुटाने पड़ते हैं। नीचे की दिशा में बहते प्रवाह को बाँध के रूप में जो लोग रोक सकते हैं, उनके लिए यह भी संभव हो जाता है कि उस निरर्थक दौड़ने वाले पानी का सदुपयोग करके बिजली घर बना सके पनचक्कियाँ चला सकें। यह श्रम साध्य प्रक्रिया जिनसे बन पड़ती हैं, वे अपनी मनस्विता बहाते चलते है। अपनी विशिष्टता से अनेकों को अनुप्राणित करते हुए अपने साथ घसीटते ले चलते हैं। एक साहसी के साथ अनेकों साहसी बनते हैं। जबकि एक कायर के साथ अनेकों को कायर बनने में भी देर नहीं लगती। विचारों की शक्ति अपार है, वह ऊँचा भी उठा सकती है और नीचे गिराने में भी समर्थ है। इस शक्ति की महिमा असीम और अपार है। उसकी क्षमता को अपनाया और कर्मरूप में परिणत किया जाना चाहिए।

मनुष्य अनेक प्रकार के कार्य करता है। करने से पूर्व वह प्रक्रिया विचार रूप में विकसित होती है। विचार तब बनते हैं, जब अनगढ़ कल्पनाओं का बुद्धि द्वारा इतना परिमार्जन कर लिया जाता है कि वे व्यवहार में उतारने योग्य बन जाएँ। विचारों का शरीर के समस्त अंग अवयवों पर आधिपत्य हैं। कठपुतली को धागों के सहारे बाजीगर नचाता है। मन के निर्देशन पर ही शरीर के विभिन्न अवयव निर्देशित प्रक्रिया पूर्ण करते है। इसी का नाम कर्म है। वे मात्र विचारों की परिणति है।

अपने भले-बुरे कृत्यों के लिए तो विचार उत्तरदाई है।ही इसके अतिरिक्त वे समीपवर्ती लोगों को विशेषरूप से प्रभावित करते है। एक दो विचारशील व्यक्ति ही मिल-जुलकर समूचे परिवार का स्तर एवं भविष्य विनिर्मित करते है। बालकों पर अभिभावकों ओर अध्यापकों का विशेष प्रभाव पड़ता है। बालक विशेषरूप से और बड़े सामान्यरूप से उन प्रभावों से प्रेरणा लेते है और अपने लिए कर्त्तव्य निर्धारित करते है।

एक प्रकार के विचारों वाले जब मिल-जुलकर रहने लगते है। एक दिशा में सोचते और कदम उठाते है तो वह संगठन बन जाता है। जब तक विचारों में एकता और घनिष्ठता नहीं, तब तक भारी भीड़ भी कही जमा होती है तो उनका स्वरूप मात्र मेले-ठेले जैसा बनेगा। प्लेट फार्मों, सड़कों में, बसों रेलों में, अनेक लोग बैठे और चलते-फिरते दीखते है, पर उनके उद्देश्यों की एकता न होने से वे मात्र भीड़ बनकर रह जाते है। एकदूसरे की सहायता तक नहीं कर पाते, पर जब भावनात्मक एकता और क्रियापद्धति में एकरूपता होती है तो छोटा समुदाय भी, बड़े चमत्कार दिखाने लगता है।

विचारोँ की विद्युतशक्तिमात्र संबद्ध व्यक्तियों तक सीमित नहीं रहती; वरन वह समूचे अंतरिक्ष में बिखर जाती हैं। वे हवा की तरह उड़ते रहते है और जहाँ भी अपनी अनुरूपता देखते है

वहाँ डेरा डाल बैठते हैं। धातुओं की खदानें भी इसी प्रकार जमा होती है। दूर-दूर तक रेत में बिखरे हुए कणों में किसी जगह एकत्रित हुआ ढेर अपने चुंबकत्व द्वारा बिखरे कणों को समीप घसीटता रहता है और छोटे-से बड़ा बनता रहता हैं। विचारों के संबंध में यही बात हैं। वे जब भी जहाँ भी एकत्रित होते हैं, वहाँ अपना समुदाय बना लेते हैं। विभिन्न प्रकार के वर्ग इसी प्रकार बनते हैं, उनमें प्रौढ़ता, परिपक्वता आती-जाती हैं तो क्षमता और भी अधिक बढ़ती है। अपने प्रभाव शक्ति से वे अनेकों को लपेट में लेते हैं और छोटे समुदाय को बड़ा बनाते है। इसी प्रकार संसार में अनेकानेक विचारधाराएँ बनती और वर्ग बनते रहते हैं। यदि कोई आदर्शवादी विचारधारा समूचे अंतरिक्ष को आच्छादितकर ले तो एकता समता का वातावरण सहज ही बन सकता है। इक्कीसवीं सदी ऐसे ही कुछ विचार पुंज लिए साथ आ रही है।


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