मानव जीवन में पग-पग पर ऐसी कठिनाइयाँ आती है। कि उनमें ईश्वरीय सहयोग न मिले और परमात्मा का अनुग्रह न प्राप्त हो तो मनुष्य का जीवन विश्रृंखलित हो जाए। ईश्वर पर विश्वास कर लेने के बाद अंतःकरण में इतनी दृढ़ता आ जाती है कि फिर बाहरी कठिनाइयाँ विक्षेप नहीं कर पातीं और सफलता का मार्ग खुलता चला जाता है। जब भी जिस अवस्था में भी जिसने परमात्मा को सच्चे हृदय से पुकारा वह अपने आवश्यक कार्य छोड़कर दौड़ा। जीवात्मा के प्रति उसकी दया अगाध है, अनंत है। वह भक्त का बंधनस्नेह ठुकराने में असमर्थ है। उसे स्मरण करते ही वह शक्ति मिल जाती है; जिससे मनुष्य कठिनाइयों को पार करता हुआ आगे बढ़ता चला जाता है।
आदिकाल से ही ऐसे उदाहरण इस धरा पर चरितार्थ होते रहे हैं, जो मनुष्य को ईश्वरीय सहायता मिलते रहने की पुष्टि करते हैं। इस युग में भी बुद्ध, ईसा से लेकर संत ज्ञानेश्वर, संत तुकाराम, आचार्य शंकर, सूर, तुलसी, नरसी मेहता आदि के उदाहरण सामने हैं। भारतीय स्वतंत्रता की उपलब्धि अभी कुछ दिन पूर्व ही हुई है। उसके प्रणेता गाँधी अकेले थे। कोई सेना साथ में न थी। कोई शस्त्र भी नहीं उठाया था उनने। दैवी सहायता का— ’राम-नाम’ का बल था गाँधी के पास। उनके स्मरण और चिंतन में भगवत आस्था की ऐसी प्रगाढ़ निष्ठा भरी थी कि गाँधी के नाम से लहर आती थी और सारे देश में एक विकट तूफान-सा उठ पड़ता था। वह शक्ति गाँधी की नहीं थी, जनता की भी नहीं। संपूर्ण क्रांति की वह शक्ति परमसत्ता की थी, जो गाँधी जी के हृदय में हिलोरें मार रही थी।
परमात्मसत्ता की ऐसी समष्टिगत कृपा का परिचय लोगों को तब हुआ, जब लुंका में ओसर नदी में भयंकर बाढ़ आई हुई था। सारा नगर कुछ ही क्षणों में जलमग्न हो जाने वाला था। इंजीनियरों के सारे प्रयास विफल हो गए थे और सभी जल समाधि की प्रतीक्षा कर रहे थे। उसी समय कुछ लोगों ने फ्रीडियन नामक संत से जाकर प्रार्थना की महात्मन! इस प्रकृति-प्रकोप से आप ही बचाने का कुछ उपाय करें। कहते हैं महात्मा फ्रीडियन ने ईश प्रार्थना के बल पर ओसर नदी की धारा बदल दी और नगर को डूबने से बचा लिया।
दैवी चेतना की परोक्ष सहायता की एक अन्य घटना जर्मनी के ब्रिस्टल नगर में निवास करने वाले जॉर्जमुलर के जीवन से संबंधित है। सारे योरोप एवं अमेरिका में वह प्रार्थना, मानव के रूप में विख्यात हुई है। अपने 93 वर्ष के दीर्घ जीवन में उन्होंने कभी भी स्वार्थपूर्ति के लिए, भगवान से प्रार्थना नहीं की। उनके सारे कर्म परमेश्वर की पूजा के उपकरण थे।
जॉर्जमुलर ब्रिस्टल में एक अनाथालय चलाते थे। कार्य आरंभ करने से पूर्व न तो उनके पास रहने के लिए कोई जगह थी, न मकान तथा न ही रुपया। ईश्वरविश्वास और परोपकार की प्रबल निष्ठा ने इन सब की कमी न रहने दी। जब भी आवश्यकता पड़ती वे प्रार्थना में बैठ जाते और पाते कि किस-न-किसी रूप में दैवी सहायता उपलब्ध है। एक बार जॉर्ज किसी सामाजिक कार्यवश समुद्र के रास्ते कनाडा के क्वेक नगर जा रहे थे। रास्ते में जहाज भयंकर कोहरे से घिर गया। मार्ग भटक जाने तथा किसी चट्टान से टकरा जाने की पूरी संभावना थी। कप्तान सहित सभी यात्रीदल परेशान था।
श्री मुलर ने कप्तान से जहाज के भीतरी कक्ष में चलने और साथ मिलकर प्रार्थना करने को कहा। यात्रीदल के सदस्यों सहित कप्तान ने भी इसे एक पागलपन समझा, पर पाँच मिनट बाद ही सबने देखा कि कोहरा साफ हो गया है। ईश्वर की अनुकंपा के समक्ष सभी नतमस्तक थे।
नरसी मेहता को परमार्थ के लिए धन की जरूरत पड़ी। उनके पास कुछ साधु पहुँचे और अपने सात सौ रुपए उनके पास रखकर हुंडी देने की इच्छाव्यक्त की। भक्त ने इसे प्रभु की भेजी सहायता समझकर, वह रुपए ले लिए और अपने इष्ट साँवलिया जी के नाम हुंडी लिख दी। द्वारिका जी में साँवलिया शाह के रूप में प्रभु ने वह हुंडी लेकर साधुओं को 700 रुपये दिए। वस्तुतः भगवान की सूक्ष्मशक्तियाँ ही उच्चस्तरीय साधकों में प्रेरणा का संचार करतीं एवं दुखी-पीड़ितों का त्रास मिटाती हैं। यह मार्ग सभी सुपात्रों के लिए खुला पड़ा हैं।