प्राणविद्युत का परिमार्जन एवं उन्नयन

March 1990

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जीवन का आधार प्राण-ऊर्जा है। उपनिषदों में इसे अग्नि और तेज की संज्ञा दी गई है। और उसके संवर्ध्दन एवं सदुपयोग का वर्णन किया गया है। इसका बाहुल्य मनुष्य के दुर्बल शरीर को भी ओजस्-तेजस्-वर्चस् से भर देता है और क्षीण काय-कलेवर से भी आश्चर्यजनक कार्य करा लेता है। प्राणशक्ति की मात्रा बढ़ी-चढ़ी हो तो व्यक्ति साहसी, पराक्रमी एवं निर्भय स्वभाव का होगा। उसकी इच्छाशक्ति, संकल्पशक्ति, स्फूर्ति एवं क्रियाशक्ति बढ़ी-चढ़ी होगी। अतींद्रिय सामर्थ्य इसी की देन है। जीवन की समस्त हलचलों का मूल भी प्राण-चेतना ही है। इसके साथ छोड़ देने पर काया का कोई मूल्य नहीं रह जाता और उसे तत्परतापूर्वक ठिकाने लगाने की बात सोची जाती है। विज्ञान वेत्ताओं ने भी अब इस तथ्य की पुष्टि कर दी है कि जीवन का प्रादुर्भाव इसी शक्ति की देन है। वे इसे बायोइलेक्ट्रोमैग्नेटिक फोर्स लाइफ फील्ड आदि नामों से संबोधित करते है और कहते है कि यही सर्वव्यापी शक्ति-प्रवाह मनुष्य सहित सभी छोटे-बड़े जीवों में प्रवाहित हो रहा है। शरीर निर्माण से लेकर जीवन के समस्त क्रियाकलापों में यही चुंबकीय प्रवाह कार्यरत है।

मनुष्य शरीर में विद्युत चुंबकीय शक्ति का प्राणविद्युत का कितना भंडार है। विश्व में इसके कितने ही उदाहरण भरे पड़े है। जो बताते है कि जैवकोश एवं आंतरिक स्रोतों में शक्ति-प्रवाह निरंतर फूटता रहता है। पिछले दिनों न्यूयार्क स्थिति डोनेमारा जेल में एक ऐसी ही अद्भुत घटना घटित हुई। 24 कैदियों को एक समान भोजन दिया जाता जिसे-खा लेने पर सब के सब बीमार पड़ गए। उनमें से मृत्यु तो एक की भी नहीं हुई, परंतु वे सभी एक विशेष प्रकार के विद्युत चुंबकीय आवेश से भर गए। घने अँधेरे में उनके शरीर से एक प्रकार का हलका प्रकाश निकलता दिखाई देता था। प्रत्येक व्यक्ति एक जीवंत शक्तिशाली चुंबक बन गया था। इसका पता तब चला, जब उनमें से एक ने पास खड़े जंग लगे लोहे के टुकड़े को उठाकर बाहर फेंकना चाहा। लोहे का वह टुकड़ा हाथ से ही चिपका रहा गया।

वास्तविकता का पता लगाने की दृष्टि से जेल चिकित्सक डॉ. जूलियस बी रैन्सम ने इस विलक्षण परिवर्तन का तत्काल परीक्षण किया। पाया गया सभी ने अपनी उपस्थिति से कंपास सुई को परिचालित कर दिया। उनके छूने मात्र से अधातु वस्तुएँ भी विद्युतमय हो जाती थी। लटकती हुई स्टील टेप इधर-उधर हिलने लगती थी। उनने अलग-अलग व्यक्तियों में उनकी रुग्णता की गंभीरता के अनुपात से उस क्षमता में भिन्नता को भी नोट किया। देखा गया कि पूर्णस्वस्थ हो जाने, पर उनकी विलक्षण क्षमता भी गायब हो गई।

परामनोविज्ञानियों ने इस घटना को साइकोकाइबोसिस से संबंधित बताया। विज्ञानवेत्ता एम. आर. को ने इस संबंध में अपना मत प्रस्तुत करते हुए कहा कि खाद्यपदार्थ में मिले विषैले तत्त्वों के शरीर में प्रविष्ट हो जाने के कारण उनके संपर्क में आने वाली कोशिकाओं के क्षतिग्रस्त हो जाने से उनमें सन्निहित प्राणविद्युत लीक होने लगी और अपने प्रभाव से शरीर की आवेशित बना दिया। जैव विद्युतीय चुंबकत्व की विवेचना करते हुए वे कहते है कि चुंबक ओर विद्युत दो पृथक-पृथक शक्तियाँ होने पर भी अविच्छिन्न रूप से संबंधित है और समयानुसार एक धारा का दूसरी में परिवर्तन होता रहता है। यदि किसी सर्किट का चुंबकीय-क्षेत्र लगातार बदलते रहा जाए तो बिजली पैदा होने लगेगी। इसी प्रकार लोहे के टुकड़े पर लपेटे हुए तार में विद्युतधारा प्रवाहित की जाए तो वह चुंबकीय शक्तिसंपन्न बन जाएगा। इसी प्रकार शरीर में जैव कोशिकाओं का क्रियाकलाप चलता है और उनके अंदर क्रोमोजोम इसी सिद्धांत के अनुसार कार्य करते हैं। व्यवधान पड़ने पर यही शक्ति-प्रवाह प्रचंड विकिरण के रूप में बाहर की ओर फूट पड़ता है।

उक्त तथ्य की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए श्री को ने स्वयं में विद्युत चुंबकीय प्रवाह पैदा करने का निश्चय किया। वे वर्षों योगाभ्यास परक आसान, प्राणायाम, ध्यान एवं उपवास आदि का दृढ़तापूर्वक नियमित अभ्यास करते रहे। इसमें उन्हें सफलता भी मिली। 8 फुट की दूरी से ही किसी भी वस्तु को अपनी ओर आकर्षित कर लेने उनमें स्थान-परिवर्तन कर देने के कितने ही सफल प्रयोग उनने किए। उनका मत है कि अभ्यास द्वारा हर कोई इस तरह की क्षमताएँ अर्जित कर सकता है। भारतीय अध्यात्मवेत्ताओं ऋषि-मनीषियों द्वारा वर्णित प्राणशक्ति की क्षमता को उनने होमोइलेक्ट्रोमैग्नेटिक्स नाम से संबोधित किया है और कहा है कि अभी पाश्चात्य जगत के विज्ञानियों को इस संबंध में बहुत कुछ जानना शेष है।

अध्यात्मशास्त्रों के अनुसार प्राणविद्युत ही वह शक्ति है, जिसमें मानवी विकास प्रक्रिया को गति मिलती है। शारीरिक बलिष्ठता सुंदरता एवं मानसिक प्रखरता का आधार खड़ा करती है। अध्यात्म का संपूर्ण कलेवर प्राणोत्थान प्रक्रिया पर निर्भर है। पाश्चात्य जगत के प्रख्यात चिकित्सा विज्ञानी पैरासेल्सस ने भी इस रहस्य को जाना लिया था कि मानवी काया में प्राण चुंबकत्व भरा पड़ा है और जो जीवन विकास प्रक्रिया से लेकर प्रतिभा उन्नयन एवं उच्चस्तरीय व्यक्तित्व के गठन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भारतीय ऋषियों की भाँति प्राण-चेतना के आदान-प्रदान एवं इस शक्ति से चिकित्सा प्रयोजनों की क्षति-पूर्ति की कल्पना सर्वप्रथम उन्होंने ही की थी। उन्नीसवीं सदी के विख्यात चिकित्सक फ्रेन्जमेस्मर ने इस सिद्धांत को प्रायोगिक स्वरुप प्रदान किया और जैव चुंबकत्व के माध्यम से कितने ही असाध्य रोगियों का उपचार किया। इस संबंध में उनने गहन अनुसंधान किया था और अपनी खोजों को द इन्फ्लुएन्स ऑफ द प्लैनेट आन दि ह्यूमन बॉडी नामक शोध प्रबंध में प्रकाशित किया था।उनके अनुसार ब्रह्मांड में विपुल परिमाण में एक प्रकार का साइकिक फ्लूइड या ईथर विद्यमान है। मनुष्य अपनी आवश्यकता के अनुसार उसमें से प्राणतत्त्व को आकर्षित एवं अवधारित कर सकता है। इससे केवल स्वयं लाभांवित हुआ जा सकता है, वरन दूसरे जरूरतमंदों की सहायता की जा सकती है। अध्यात्मवेत्ता इसे ही आभामंडल का परिमार्जन कहते है।

मानवी प्राणविद्युत में घट-बढ़ होने पर शारीरिक और मानसिक संतुलन गड़बड़ा जाता है और व्यक्तित्व विकास की प्रक्रिया अवरुद्ध हो जाती है। योगविद्या के ज्ञाता इसकी पूर्ति प्राणाकर्षण प्राणायाम जैसी विधाओं द्वारा करने का मार्ग सुझाते हैं। तो चिकित्सा विज्ञानी अपने ढंग से करते हैं। इलेक्ट्रोबायोलॉजी के आरंभिक दिनों में इलेक्ट्रिकल हैलमेट डॉक्टर ओवेन की बॉडी बैटरी एवं मेंटल, क्राउन, एलिसा पर्किन्स का मटैलिक ट्रैक्टर, जैसी विधाएँ प्रयुक्त होती रही है। डॉक्टर नेबल का विद्युत चुंबकीय केज भी चयापचय संबंधी रोगों में प्रयुक्त होता था। पिछले दिनों डेनमार्क के कोपेनहेगन रिग्स हास्पिटल में चिकित्सा विज्ञानी डॉ. के. एम. हेन्सनने मेस्मर की चुंबकीय चिकित्सापद्धति का कई वर्षों तक अपने मरीजों पर सफल प्रयोग किया और पाया कि इससे प्राणशक्ति के संवर्ध्दन में महत्त्वपूर्ण सहायता मिलती है। उनके अनुसार प्राणतत्त्व की कमी ही सब प्रकार रोगों का मूल है।

'द साइकल्स ऑफ हेवन' नामक अपनी कृति में जी. एल. प्लेफेयर ने मानवी काया को एक जीवंत रेडियो ट्रांसमीटर की संज्ञा दी है; जिसके अंदर से विभिन्न तरह के संकेत विद्युत चुंबकीय-तरंगों के रूप में बाह्य वातावरण में विकिरित होते रहते है। कम आवृत्ति की होने पर भी ये तरंगें अपने प्रभावक्षमता में अत्यधिक समर्थ होती हैं। इनके अनुसार हमारा हृदय; सतत स्पंदित होता रहता है और एक से तीन चक्र प्रति सेकेंड की दर से रेडियो सिगनल बाहर भेजता रहता है, जिसे ई. ई. जी. द्वारा स्पष्ट रूप से देखा और उसका ग्राफांकन किया जा सकता है। इस विद्युतीय सक्रियता के साथ जुड़े चुंबकीय प्रभाव की अपनी महत्ता है। इसे मैग्नेटोकार्डियोग्राफ द्वारा मापा जा सकता है।

कनाडा के मूर्धन्य वैज्ञानिक जे. बिगू ने अपनी पुस्तक-'ऑन द बायोलॉजिकल बेसिस ऑफ; हृयूमेन आरा में बताया है कि मानव शरीर में बीटा एवं गामा स्तर की नाभिकीय किरणें; सतत निस्सृत होती रहती है, जो यह सिद्ध करती है कि स्थूलकाया में कोई अतिसामर्थ्यवान सूक्ष्मशक्ति विद्यमान है। आभामंडल का निर्माण इसी के द्वारा होता है। पवित्र अंतःकरण वाले संवेदनशील व्यक्तियों में इसकी मात्रा अधिक पाई जाती है। अभ्यास द्वारा इसी सूक्ष्मशक्ति को बढ़ाया और दूसरों में हस्तांतरित किया जा सकता है। अदृश्य प्राण-ऊर्जा की चर्चा करते हुए वे कहते है कि यदि इस भंडार को किसी प्रकार सशक्त बनाया जा सके तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इस आधार पर प्राचीन ऋषि-मुनियों द्वारा शिष्यों में शक्तिपात करने की तरह परस्पर आदान-प्रदान का एक नया आयाम खुल सकता है।

प्राण एक जीवंतविद्युत है, जो शरीर से भी अधिक मनः क्षेत्र को प्रभावित करती है। मनुष्य को साहसी, पराक्रमी एवं ओजस्वी-तेजस्वी बनाती है। ब्रह्मांड में सर्वत्र संव्याप्त प्राण-ऊर्जा का समुचित मात्रा में आकर्षण-अवधारण किया जा सके तो सामान्य दीखने वाला मनुष्य भी अपनी साधारण-असाधारण विशिष्टता का परिचय दे सकता है।


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