कठिन समस्याओं के सरल समाधान

March 1990

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भूमि में उर्वरता की समुचित मात्रा हो तो उस पर खेत, उद्यान आदि की अनेकानेक सुषमा, हरीतिमा उगाई जा सकती है। यदि वह ऊसर हो, नमक उबलता हो, तो फिर घास का एक तिनका तक जमने वाला नहीं हैं। बालू, ईंट और खारी जमीन पर मकान, कारखाने तक खड़े नहीं किये जा सकते है। भूमि संबंधित कोई भी संपदा उपार्जित करने के लिए भूमि का सही-समतल होना आवश्यक है। रेगिस्तान में, पहाड़ी चट्टानों में, समुद्र के तटवर्ती नमक वाले क्षेत्र में सुविधाएँ मिलना तो दूर, उसके खाई-खंदक सामान्य क्रियाकलाप में भी बाधा उत्पन्न करते हैं।

सुविधा-संवर्ध्दन की योजनाएँ बनाने से पूर्व सर्वप्रथम उपयुक्त भूमि का चयन करना पड़ता है। संसार में अगणित प्रकार की सुविधा संपदाओं का अभिवर्ध्दन आवश्यक होता है, पर उसके लिए उस मानवी चेतना का स्वास्थ, संतुलित, समुन्नत होना आवश्यक है, जो वैभव उत्पादन के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक है। यदि भूमि पर, साधनों पर आधिपत्य जमाकर बैठे हुए अथवा योजनाएँ बनाने वाले लोग विकृत मस्तिष्क के होंगे तो वे कुछ बन सकना तो दूर विग्रह और ध्वंस ही खड़े करेंगे, उलझी हुई समस्याओं का समाधान तो उनसे बन ही कैसे पड़ेगा?

इन दिनों पतन पराभव का, संकट-विग्रहों का वातावरण बना कर खड़े हुए अराजकता स्तर के असमंजसों की चर्चा बहुधा की जाती है। इनका निवारण-निराकरण इन्हीं दिनाँक किया जाना आवश्यक है। देर करने का समय है नहीं, अन्यथा अवसर चूकने पर पछताने के अतिरिक्त और कुछ हाथ लगेगा नहीं। बात इतने पर ही समाप्त नहीं होती। क्षयजन्य रुग्णता को दूर करने को प्राथमिकता तो दी जाती है, पर अलग कदम यही होता है कि रुग्णता से क्षीण-जर्जर काया को सही स्थिति में लाया जाए और जीवनी शक्ति को इतना बढ़ाया जाए, जिससे दुर्बलता दूर हो सके और स्वस्थसमर्थ मनुष्य की तरह जीवनयापन कर सकना संभव हो सके।

मस्तिष्क विकृत, हृदय निष्ठुर, रक्त दूषित पाचन अस्त-व्यस्त हो, शरीर के अंग-प्रत्यंगों में विषाणुओं की भरमार हो, तो फिर वस्त्राभूषणों की भरमार, अगर, चंदन का लेपन और इत्र-फुलेल का मर्दन बेकार है। शस्त्रसज्जा जुटा देने और तकिये के नीचे स्वर्णमुद्राओं की पोटली रख देने से भी कुछ काम न चलेगा। पंचग्राम प्रधान, विधायक, या प्रतिनिधि चुनाव में विजई घोषित कर देने से भी प्रसन्नता-प्रफुल्लता का मानस कहाँ बन पाता है। जबकि स्वस्थ, सुडौल होने के कारण सुंदर दीखने वाला शरीर गरीबी में भी हँसती-हँसाती जिंदगी जी लेता है, आए दिन सामने आती रहने वाली समस्याओं से भी निपट लेता है, प्रतिकूलताओं को अनुकूलताओं में बदल लेता है औऱ किसी-न-किसी प्रकार, कहीं न कहीं प्रगति के साधन जुटा लेता है। वस्तुतः महत्त्व साधनों या परिस्थितियों का नहीं व्यक्तिगत स्वतंत्रता, प्रतिभा और दूरदर्शिता का है। वह सब उपलब्ध रहे, तो फिर न अभावों का शिकायत करनी पड़ेगी और न जिस-तिस प्रकार के व्यवधान सामने आते रहने पर भी अभ्युदय में कोई बाधा पड़ेगी। यही बात इन सब विपन्नताओं के संबंध में है, जो आज हर दिशा में सुरसा मुँह फाड़े महाविनाश का तुमुलनाद करती है। वे समस्याएँ जो अतिनिकट दीखती हैं, यदि दृष्टिकोण सुधरे, तो किसी के भी समाधान में कहीं कोई अड़चन न रहे।

औसत नागरिक स्तर का जीवन स्वीकार कर लेने पर सुविस्तृत खेतों-देहातों में रहा जा सकता है और वायुमंडल, वातावरण को प्रफुल्लता प्रदान करते रहने, संतुष्ट रखने में सहायक हो सकता है। प्राचीनकाल की सुसंस्कृत पीढ़ी इसी प्रकार रहती थी और मात्र हाथों के सहारे बन पड़ने वाले श्रम से जीवनयापन के सभी आवश्यक साधन अतिसरलतापूर्वक सभी जुटा लेते थे। न प्रदूषण फैलने का कोई प्रश्न था और न शहरों की ओर देहाती प्रतिभा पलायन का कोई संकट। न देहात दरिद्र, सुनसान पिछड़े रहते थे और न शहर गंदगी, पिचपिच, असामाजिकता के केंद्र बनते थे। आज भी उस पुरातन रीति-नीति को अपनाया जा सके, तो जिन समस्याओं के कारण सर्वत्र त्राहि-त्राहि मची हुई है, उनके उभरने का कोई कारण शेष न रहे। स्थानीय साधनों से बने मकान न केवल सस्ते होते हैं; वरन हर दृष्टि से सुविधाजनक भी सिद्ध होते हैं। अमीरी बटोरने की हविश ही औद्योगीकरण के लिए उत्तेजित करती है। बड़े कारखाने लगते, विष उगलते, पानी में जहर मिलाते, अत्यधिक ईंधन खपाते और देहाती उद्योगों का सफाया करके बेकारी, बेरोजगारी का माहौल बनाते हैं। पुरातन देहात प्रधान कुटीर उद्योगों पर निर्भर रीति-नीति को आमूलचूल बदल डालने में मनुष्य का विकृत चिंतन ही एक मात्र कारण है। यदि वह भविष्य में भी इसी प्रकार बना रहा, तो उपरोक्त समस्याओं में से किसी का भी महाविनाश से पूर्व समाधान होने की संभावना नहीं है।

“सादा जीवन-उच्चविचार” का सिद्धांत अपनाते ही प्रस्तुत असंख्य समस्याओं में से एक के भी पैर न टिक सकेंगे। अपराधों की भरमार भी तब क्यों हो, जब हर व्यक्ति ईमानदारी, समझदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी की नीति अपनाकर श्रमशीलता, सभ्यता और सुसंस्कारिता को व्यावहारिक जीवन में स्थान देने लगेगा। गुजारे के लायक इतने साधन इस संसार में मौजूद हैं कि हर पेट को रोटी, हर तन को कपड़ा, हर सिर को छाया और हर हाथ को काम मिल सके, तब गरीबी-अमीरी की विषमता भी क्यों रहेगी? जाति-लिंग के नाम पर पनपने वाली विषमता का अनीतिमूलक और दुःखदाई प्रचलन भी क्यों रहेगा?

मनुष्य स्नेह और सहयोगपूर्वक रहने के लिए पैदा हुआ है। लड़ने, मरने और त्रास देने के लिए नहीं। यदि आपा-धापी न मचे तो फिर एकता और समता में बाधा उत्पन्न करने वाली असंख्य कठिनाइयों में से एक का भी कहीं अस्तित्व दृष्टिगोचर न हो। शुद्ध व्यवसाय की बलिवेदी पर जो प्रचुर साधन, प्रबंध, श्रम-कौशल का हनन करना पड़ता है, उसकी फिर क्या आवश्यकता रहे।

समाज के सामने असंख्यों विकृतियों और व्यक्ति के सामने असंख्य समस्याओं के अम्बार खड़े हैं। उनमें से प्रत्येक को अलग-अलग समस्या मानकर उनके पृथक-पृथक समाधान खोजने में, यद्यपि विश्व की मूर्धन्य प्रतिभाएँ अपने-अपने ढंग से समाधान खोजने और उपचार खड़े करने के लिए भारी माथापच्ची कर रही हैं, पर उनसे कुछ बन नहीं पा रहा है। न अस्पतालों, चिकित्सकों द्वारा भारी धनराशि खर्चकर रोग काबू में आ रहे हैं और न पुलिस, कानून, कचहरी आदि अपराधों को काबू में कर सकने में समर्थ हो रहे हैं। आत्मघाती दुर्व्यसनों के रहते बैंकों से भारी कर्ज व अनुदान बँटने पर भी गरीबी मिट सकेगी नहीं। इसके लिए समस्याओं के मूल में जाना होगा एवं यह सोचना होगा कि यदि जीवनक्रम अब भी न बदला गया तो सामूहिक आत्मघात सुनिश्चित है। अध्यात्म ही समस्त समस्याओं का एक मात्र समाधान सुझा सकता है। उसके पास ही सारे तालों की वह कुंजी है जो द्वार खोलकर प्रगति का पथ-प्रशस्त कर सके।


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