जिसने अनुभव की, मानवता की पीर!

March 1990

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एक अल्प वय की बालिका अपनी बड़ी बहिन से इस बात के लिए जिद कर रही थी कि वह उसे हंटर से पीटे। बच्चों में कहासुनी चल रही थी, कि उनके पिता आ गए। उन्होंने दोनों बालिकाओं का सिर सहलाते हुए कहासुनी का कारण पूछा। बड़ी बहिन ने सारी बात बयान कर दी। आश्चर्य से पिता ने छोटी बच्ची की ओर देखकर कहा— "क्यों हैरि! बच्चे तो मार खाने के नाम पर घबड़ाते हैं। तू क्यों पिटना चाहती है"? वह भी हंटर से।" उसने धीरे से कहा— "दरअसल कल मैंने देखा कि एक गोरा आदमी एक काले आदमी को लगातार पीटे जा रहा है। छोटे-छोटे बच्चों की भी बेमुरब्बत पिटाई कर रहा है। मैं यह देखना चाहती थी कि हंटर से पिटने पर कैसा अनुभव होता है"?

पिता ने बालिका को गोद में उठाते हुए कहा— ”ओह! तू उन काले लोगों की पीड़ा अनुभव करना चाहती थी। प्रभु की कृपा से अवश्य कर सकेगी।” यह बालिका अपने पिता के द्वारा किए गए सुसंस्कारों के अमृतवर्षण के बीच पली बढ़ी। उच्च शिक्षा प्राप्त की और पिता द्वारा दलितों, निर्धनों के बच्चों के कल्याण के लिए चलाए जा रहे कार्यों में सहयोगिनी बनी। इन्हीं दिनों वह पिता की अनुज्ञा से 'केल्विन ई. स्टो' के साथ दाम्पत्य-सूत्र में बँधी।

अब वे दोनों बर्नसविक में आ बसे। कभी की हैरि अब हैरियट स्टो थी। यहाँ दास-दासियों के नारकीय जीवन को निकट से देखने— अनुभव करने का अवसर मिला। बीती-बिसरी बचपन की यादें पुनः मन को मथने लगीं। सचमुच नीग्रो लोग पशु से भी गया-गुजरा जीवन जीने के लिए विवश थे। जानवरों जैसा उन्हें बेचा-खरीदा जाता। छोटे-छोटे दुधमुँहे बच्चे को माँ से, नवविवाहिता पत्नी को पति से निर्दयतापूर्वक अलगकर उन्हें गुलामी के लिए मजबूर करना सामान्य बातें थीं। यही क्यों? घोड़ों और नीग्रो लोगों में घोड़ा होना सौभाग्य का चिह्न था, बजाय नीग्रो होने के। हाय! मनुष्य की दुरावस्था मनुष्य ही कर रहा है। उसका दिल रो उठा। क्या करे? अनीतियाँ, अत्याचार यदि एक छोटे घेरे में हों तो बाह्य प्रयास प्रभावी हो सकते हैं। किंतु जब इनका दायरा समूचे समाज को घेरे में ले-ले। यही नहीं, इन्हें प्रथा-प्रचलन का रूप देकर समाजीकरण कर दिया जाए तब? एक ही चारा बचता है— विचार-क्रांति। मर्मस्पर्शी साहित्य के द्वारा मनुष्य के भीतर सोई पड़ी मनुष्यता को झकझोरना, उसे जागने के लिए विवश करना। समाज में अब तक हुए महत्त्वपूर्ण परिवर्तन इसी की सत्यता को प्रामाणिक ठहराते हैं।

वह भी कुछ ऐसा ही साहित्य लिखेगी, जो मानव मन को उलटकर रख दें। अंदर की बेचैनी संकल्प में बदली और रविवार की एक सुबह, जब वह गिरजाघर में धर्मोपदेश सुन रही थी, “शुभ काम में देर नहीं करनी चाहिए”, कि परिपक्व हुआ संकल्प क्रिया में बदलने लगा और वहीं बैठे-बैठे उन्होंने पहला अध्याय लिख डाला। घर आकर जब बच्चों और पति को सुनाया, तो उनकी आँखें छलछला उठीं।

उन दिनों मिंस्टो बीमार थे। सारे घर की जिम्मेदारी उन्हीं पर थी। साधनहीनता की स्थिति में परिवार को संभालना कितना कठिन है, इसे वे ही अनुभव कर सकते हैं; जिन्हें कभी ऐसे अवसर पड़े हों। खाना पकाने, कपड़े धोने-सीने, मेहनत-मजदूरी करके अर्थव्यवस्था जुटाने तक के सारे काम उन्हीं को करने पड़ते और लेखन। यह रुका नहीं, रुके भी कैसे? इन दिनों की मनःस्थिति को एक सहेली को लिखे गए पत्र में उन्होंने स्वयं उद्घाटित किया था। उन्होंने लिखा— “जब भूख-प्यास को बुझाए बिना चैन नहीं मिलता, तो अंतर की संवेदनाएँ भला कैसे चैन लेने देंगी। आजकल भी मैंने नीग्रो लोगों के पास जाकर उनकी सेवा-सहायता करना, रात्रि में सबके सो जाने पर उनकी करुण कथा लिखना बंद नहीं किया है। यद्यपि आजकल ऐसे दिन भी बीत जाते हैं, जबकि रोटी का एक कौर नहीं नसीब होता, पर मेरी अपनी दिनचर्या मुझे अपार खुशी देती है। सही है, सुधरी हुई मनःस्थिति विषम परिस्थितियों में भी आह्लाद को समेट-बटोरकर ले आती है।”

भावनाओं को मथने वाली यह कृति ‘इरा’ नामक पत्रिका में धारावाहिक प्रकाशित होने के बाद जिस दिन पुस्तकाकार में प्रकाशित हुई। उसी दिन उसकी 3000 प्रतियाँ बिक गईं। दो वर्षों के अंदर ही उसके 120 संस्करण छापने पड़े और उसकी तीन करोड़ प्रतियाँ बिकीं। विश्व की अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ। इस प्राभाविकता का कारण दास नीग्रो वाली यंत्रणा का ऐसा मर्मस्पर्शी चित्रण है कि पाषाण हृदय से भी संवेदनशीलता का झरना फूटे बिना न रहे।

‘टाम काका की कुटिया’ नाम से छपी इस पुस्तक ने तत्कालीन सामान्य लोगों पर विलक्षण प्रभाव डाला। बोझा ढोते समय मजदूर परस्पर चर्चा करते ‘भाई तुमने ‘टाम काका की कुटिया, पढ़ी है? बड़ी मार्मिक पुस्तक है। पढ़कर दिल दहल जाता है। मुहल्ले की औरतें आपस में चर्चा करतीं— "बहन! जरा उस पुस्तक को पढ़कर देखना, बड़ी हृदयवेधक है। धीरे-धीरे यह चर्चा बढ़ती गई और एक दिन सचमुच हजारों-लाखों व्यक्ति गुलामीप्रथा के विरोधी बन गए। अमेरिका में क्रांति उठ खड़ी हुई, जिसने इस नृशंसप्रथा को जड़ से उखाड़ फेंकने का काम किया।

करोड़ों दिलों को बदलने वाली इस कृति की विश्वकर्मा 'श्रीमती हैरियट स्टो' ही थी। दिखने में अति सामान्य नाटे कद की घरेलू महिला। पर इस सामान्य कलेवर में संवेदना व अनुभूति का सागर छुपा था। उन्होंने कितने भावुक हृदय से दासों की पीड़ा को अनुभव किया होगा, जिसकी अभिव्यक्ति ने समाज की संरचना ही बदल डाली। राष्ट्रपति लिंकन जब उनसे मिले, तो कद-काठी देखकर वह सहज विश्वास नहीं कर पाए कि यह वही महिला है, जिसने क्रांति खड़ी कर दी। पर सच्चाई तो सच्चाई रहती है।

मानवीय यंत्रणा क्या आज कम हुई है? नहीं! शायद उस समय से भी अधिक। दूर नहीं, हमारे अड़ोस-पड़ोस में। दासप्रथा न सही तो दहेजप्रथा; खरीद-फरोख्त चालू है। अब तो पहले से भी अधिक विडंबना यह है कि सफेदपोश डकैतों के चंगुल में फंसी लड़की को फिरौती पर फिरौती दिए जाने के बाद भी मरने पर विवश होना पड़ता है। यदि मरी नहीं तो सारा जीवन आँचल से मुँह छुपाकर रोते-सिसकते बीतता है। और न जाने ऐसी कितनी सामाजिक मान्यताप्राप्त प्रथाएँ हैं, जो रोज हँसती-खेलती जिंदगियाँ तबाह कर रही हैं। मानवता की छाती फाड़कर खून पीते हुए ठहाके लगा रही हैं। हैरियट स्टो तो सारा जीवन संघर्ष करते हुए चल बसी। पर इस आशा के साथ कि हम सब धरती के कोने-कोने में बसे मनुष्य उसके काम को आगे बढ़ाएँगे, समाज का नवसृजन करेंगे।

फिर हम निकम्मे-निठल्ले क्यों? कायर-पलायनवादी क्यों? संभवतः इसलिए; क्योंकि हमारे अंदर वह अनुभूति नहीं जगी; मानवीयता उठ खड़ी नहीं हुई। यह जागृत और सक्रिय हो सके, इसके लिए स्वयं को युग की भावधारा से जोड़ना होगा। महाकाल की उस व्यथा, पीड़ा, बेचैनी को अनुभव करना होगा, जो युग साहित्य में सँजोई जा रही है।


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