मनुष्य मूलतः एक चिंतनशील प्राणी है, जो चाहे तो अपने मानसिक स्तर को इतना विकसित कर सकता है, जिसके माध्यम से ब्राह्मीचेतना से, परोक्ष जगत से संपर्क स्थापित कर भावी परिवर्तनों को पूर्व से ही वह जान ले। यह एक जाना माना तथ्य है कि हर परिवर्तन की रूपरेखा पहले सूक्ष्मजगत में बनती है, फिर वह अपने प्रत्यक्षरूप में आँखों से देखी जा सकने वाली स्थिति में घटित होती है।
विचार ही वे बीज हैं जो हर अच्छी-बुरी भवितव्यता का निर्धारण करते हैं। इन विचार तरंगों से जो भविष्य निर्धारण के पहले जन्म ले लेती हैं, अपना संपर्क स्थापित कर सकना हर विकसित मनश्चेतना वाले व्यक्ति के लिए संभव है। इस माध्यम से उन संभावित परिवर्तनों को भली-भाँति अपने दिव्य चक्षुओं द्वारा देखा जा सकता है। जैसा कि हम वर्तमान में दृश्य जगत को देखते व अनुभव करते हैं।
यह सब इस संदर्भ में कहा जा रहा है कि भविष्यकथन पूर्णतः संभव है, तथ्यसम्मत है एवं विज्ञान सम्मत भी। इसे अंतःस्फुरणा कहलें या किसी परोक्ष सत्ता का दैवी मार्गदर्शन। इसका कोई प्रत्यक्ष आधार न दीखते हुए भी, इसमें उतनी ही सच्चाई है जितनी कि दिन के आरंभ और अंत में सूर्य के उदयाचल से निकलने एवं अस्तांचल में छिपने में है। समष्टिगत रूप से घटने वाले आश्चर्यजनक क्रियाकलापों को कोई मिथक, यूटोपिया, कल्पनालोक की उड़ान, विज्ञान कथा मात्र भले ही कहलें; किंतु जब वह साकार हो जाती है, तब उनकी यथार्थता पर विश्वास करना पड़ता है। आज जो भी कुछ भविष्य के संबंध में उज्ज्वल संभावनाएँ व्यक्त करते हुए कहा जा रहा है, उसकी भी जड़ें वहीं विद्यमान हैं। इस निमित्त किया जा रहा पराक्रम, पुरुषार्थ प्रत्यक्ष भले ही न दृष्टिगोचर हो, परिणति निश्चित ही सुखद होगी।
इस का एक आधार आज घट रहे घटनाक्रमों को देखकर बनाया जा सकता है। आज पूर्वी यूरोप में प्रजातंत्र की जो लहर चल पड़ी है, तानाशाही मिटी है एवं कम्युनिज्म के नाम पर किए जा रहे व्यापक अनाचार का समापन हुआ है, उसका प्रत्यक्ष रूप से श्रेय भले ही रूस के राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव को दे दिया जाए; किंतु परोक्ष जगत में यह सब भूमिका पहले से ही चल रही थी एवं इसका भविष्यकथन आज से साढ़े चार सौ वर्ष पूर्व ही फ्राँस के एक रहस्यवादी चिकित्सक नोस्ट्राडेमस ने अपनी सेंचुरीज नामक भविष्य वाणियों में कर दिया था। तब कोई उनके भविष्यकथन को नहीं समझ पाया था, ना ही आज के युग के “सेंचुरीज” के टीकाकार ही समझ पाए थे, किंतु अब जब ये परिवर्तन हंगरी, पूर्वी जर्मनी, चैकोस्लोवाकिया, पोलैंड एवं रुमानिया जैसे कट्टर साम्यवादी देश में घट चुके हैं तो सब को उनका भावार्थ समझ में आने लगा है। यह भविष्यकथन इतना पूर्व कैसे कोई कर सका, यह अत्यंत विलक्षण व रहस्यमय प्रसंग है।
जूलवर्न नामक एक उपन्यासकार ने भी भविष्यकथन की वैज्ञानिकता को इन्हीं दिनों प्रमाणित किया है। प्रसिद्ध पत्रकार एच.डी. क्वीग द्वारा लिखित 17 जुलाई 1969 के अर्कन्सास गजट में प्रकाशित एक लेख ने समूचे विश्व के मूर्धन्यों को यह सोचने पर विवश कर दिया कि मानवी मन उन सभी क्षमताओं, विभूतियों से संपन्न है, जिनसे वह आने वाले महत्त्वपूर्ण घटनाक्रमों को देख सकता है। श्री जूलवर्न के संबंध में प्रकाशित इस लेख में उल्लेख है कि इस सामान्य से उपन्यासकार ने 1865 में एक वैज्ञानिक मिथक लिखा था— ”फ्राम द अर्थ टू मून”, जिसमें यह कल्पना की गई थी कि मनुष्य पृथ्वी से किन माध्यमों से व किन परिस्थितियों में चंद्रलोक की यात्रा करेगा एवं वहाँ उसे क्या मिलेगा? जूलवर्न ने लिखा था कि “एक यान द्वारा तीन व्यक्ति चंद्रमा जाएँगे। उनसे पृथ्वी वासी सीधे वर्त्तालाप कर सकेंगे। वहाँ पर उतरते ही उनका शरीर बिना वजन का हो जाएगा एवं वे चंद्रमा पर ऐसे दिखाई देंगे मानों कोई शराबी अपने आपको सही स्थिति में खड़ा रखने के लिए प्रयत्नशील हो”।
आश्चर्य की बात है कि ठीक 104 वर्ष बाद उनका उपन्यास वस्तुस्थिति में परिवर्तित हुआ। उपन्यास में दिया गया एक-एक घटनाक्रम सही सिद्ध हुआ। इसका हवाला देते हुए श्री क्वीग ने लिखा है कि हर परिवर्तन का संबंध सीधा वैश्व मन से होता है, जिसे मनुष्य पकड़ सकता है तथा तद्नुरूप अपने क्रियाकलापों में हेरफेर कर सकता है। रामायण की घटना घटने से पूर्व ही महर्षि वाल्मिकी द्वारा उस घटनाक्रम को लिख पाना सूक्ष्मजगत से संपर्क स्थापित करने पर ही संभव हो पाया था।
जूलवर्न से भी अधिक स्पष्टता से चंद्रलोक की यात्रा संबंधी घटनाओं को देखा गिलबेंसन ने। जिसे उन्होंने “आल एब्रोड फॉर द मून” के रूप में 1947 में प्रकाशित किया व यह सिद्ध किया कि बड़े परिवर्तनों की रूपरेखा वास्तविक घटनाक्रम से काफी पूर्व सूक्ष्मजगत में प्रकाशित हो जाती है। उनने एक चंद्रयान में तीन व्यक्तियों विली, क्ल्विर एवं डियाना के बैठकर जाने का उल्लेख किया है। उनके अनुसार यह यान समस्त संचार-साधनों, आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों से सज्जित था। इसका नायक चंद्रमा पर पैर रखकर कहता है— ”यहाँ जीवन का कोई चिन्ह नहीं है और मैं चारों ओर सुनसान बियाबान बंजर दृश्यों को देख रहा हूँ। चारों तरफ ज्वालामुखी के पर्वत हैं, सतह पर दरारें हैं तथा लावाकण सतह पर बिखरे पड़े हैं। सामान्य रंग भूरा है; किंतु सफेद एवं काले रंग के टीलों के दर्शन भी हमें हो रहे हैं। हमारे उतरते ही यान दो भागों में बँटा गया। एक चारों ओर चक्कर लगाता रहा, एक ने चंद्रमा पर अपने को स्थापित किया। उतरते ही हमें संतुलन बिठाने में अत्यन्त कठिनाई हुई। प्रयोगों हेतु धूलिकण हम अपने साथ ले जा रहे हैं।”
आश्चर्य की बात यह है कि नील आर्मस्ट्राँग एवं एल्ड्रीन ने भी अपनी चंद्रमा यात्रा में यही सब देखा व वर्णन किया है। यह सब दो उपन्यासकारों ने क्रमशः 24 तथा 104 वर्ष पूर्व कैसे लिख दिया, यह समझने के लिए यह जानना होगा कि बेंसन एवं वर्न सामान्य उपन्यासकार मात्र नहीं थे, अपितु विचारक-मनीषी भी थे। ऐसे व्यक्ति भविष्य में होने वाली हलचलों को पहले ही देख लेते हैं। उनकी अंतःस्फुरणाओं को काल्पनिक उड़ानों का नाम दे दिया जाता है; किंतु कालांतर में यह सब होकर रहता है।
आज जो विद्वत्जनों, मनीषीगणों, भविष्य वक्ताओं, दैवी सत्ता के प्रवक्ताओं द्वारा उज्ज्वल भविष्य की संभावना का, जो उद्घोष किया जा रहा है, वह कपोल-कल्पना नहीं है, अपितु एक सुनिश्चित सत्य है। आने वाले दशक में ही यह सब परिवर्तन तेजी से होता दीख पड़ने लगे तो किसी को आश्चर्य नहीं करना चाहिए।